शिष्य की कसौटी, सत्ता-बलवन्द का अहम…(भाग-4)

शिष्य की कसौटी, सत्ता-बलवन्द का अहम…(भाग-4)


अब तक हमने जाना कि सत्ता और बलवन्द कोढ़ के रोग से ग्रस्त हो गये। गुरू निंदा करने के कारण, गुरु से द्वेष करने के कारण उन्हे खुब पीड़ा होती। यहाँ तक कि श्वास लेने मे भी उन्हे पीङा होती लेकिन एक दिन उनकी पतझड़ भरी जिंदगी में फिर से वसंत ने दस्तक दी। एक सज्जन पुरूष का दिल उन्हे देखकर पसीज गया। उन्होंने बताया कि केवल एक व्यक्ति ऐसा है जो तुम्हे क्षमा करवा सकता है। वह है लाहौर का लद्धा उपकारी। श्री गुरु अर्जुनदेव जी का अद्वितीय शिष्य। उसकी परोपकार की भावना की वजह से ही उसका नाम लद्धा उपकारी पड़ा। उसके गरीब खाने से कोई भी खैराती खाली नही लौटता। वह हर परिस्थिति मे सबकी मदद करता है।

सत्ता बलवन्द को अपने अंधकारमय जीवन मे आशा की थोड़ी सी किरण फुटती दिखाई दी। दोनो भाई तुरंत लाहौर की तरफ बढ़ चले। पसजे रिसते हुए अपने शरीरो को जैसे तैसे घसीटते हुए भुखे प्यासे थके हारे कई दिनो के बाद वे लद्धा उपकारी की हवेली पहुंचे। वहाँ खैरातीयो का हुजूम जमा था एक एक करके सब अंदर जा रहे थे और प्रसन्न होकर बाहर निकल रहे थे ।

सत्ता बलवन्द दूर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर देखते रहे। आगे बैठने की उनकी हिम्मत ही नही हो पा रही थी। अंदर एक डर भी था। अगर यहाँ से ठुकरा दिया गया तो कहां जाएंगे? आखिर काफी देर के बाद दोनो ने साहस जुटाया और द्वारपाल से बिनती की भाई हमे एक बार लद्धा उपकारी से मिला दो। हम सत्ता और बलवन्द है गुरू घर के गवैया है। यह समाचार जैसे ही लद्धा उपकारी ने सुना वह एकदम तमतमा गया। क्या? सत्ता और बलवन्द मेरी हवेली पर? उनकी यहाँ आने की हिम्मत कैसे हुई? बेमुख होकर मुझसे मिलने की, उन्होंने सोच भी कैसे ली?

गुरु से नाता तोड़कर मेरे से नाता जोडना भला कैसे संभव है। क्या कभी अंधकार और प्रकाश इक्कठा हुए है। खट्टा और दुध कभी गले मिल पाये है। हम बेमुखो का दर्शन करके नर्को के भागीदारी नही बनना चाहते है जाओ कह दो उनसे वे जो गुरु के महलो से खाली आ गये वह मुझ गरीब की झोपड़ी से क्या पा सकेंगे? जिनकी मंशा पर्वत पाकर भी संतुष्ट नही हुए मुझ जैसी खाई उन्हे क्या सुकून दे पाएगी। लौट जाएं वे यहाँ से।

सत्ता और बलवन्द ने यह सुना तो उनका कलेजा ही फट गया। पीङा अश्रु बनकर आंखो से छलक पङी। एक एक अंग वेदना से चित्तकार कर उठा। फड़कते होठ पछतावे की गाथा बयान करने लगे। वे दोनो दौड़कर फाटक के भीतर लद्धा तक पहुंच गये। घुटनो के बल बैठकर फरियाद कर उठे। बोले लद्धा हमे बख्शवा दो। लद्धा हमारा गुरुवर से मिलन करवा दो। अरे हम वे पंतग है जो ऊंचा उङने की चाह मे डोर से ही टूट गये इस कारण कंटीली झाड़ियो मे ही जा फंसे। हमसे भुल हो गयी हम समझ ही ना सके कि हम इतना ऊंचा जो उड़ पाये है वह इसी डोर के कारण। इसी ने हमे अर्श से फर्श तक पहुंचाया है। हमारे मे अपनी कोई सामर्थ्य कहां? हम पर दया करो लद्धा हमे क्षमा करवा दो क्षमा करवा दो नही तो इन झाङियो के कांटे हमे जख्म पर जख्म देकर हमारा जीवन छीन लेंगे इतना कहते हुए सत्ता बलवन्द सुबक सुबक कर रोने लगे।

उनके आंसू कोई मगरमच्छी आंसू नही बल्कि हकीकत के थे उनका पछतावा कोई नाटक नही अपितु जमीनी सच्चाई थी। लद्धा उपकारी उनकी दयनीय हालत देखकर पिघल गया। उसका मन भर आया। उसने कहा हालांकि तुम दोनो क्षमा के काबिल नही हो लेकिन अपने किये पर तुम्हे ग्लानि है। अफसोस है और गुरूवर तो ऐसे दयासिंधु हैं जो सिर्फ पछतावे पर ही क्षमा कर देते हैं। जो अगर एक बार भी सच्चे दिल से गलती कबूल करे तो वे उसका बड़े से बड़ा पाप भी बख्श देते हैं।

चलो मै तुम्हारी ओर से गुरुदेव से माफी मांगने चलता हूँ। इतना सुनना था कि सत्ता और बलवन्द के चेहरे खिल उठे। आंखे खुशी से चमकने लगी लेकिन तुरंत एक बात ने उनकी खुशी पर प्रहार कर दिया। वे उदास हो गये। लद्धा उपकारी ने पूछा आखिर अब गमगीन आलम क्यों? दोनो सकुचा गये। लद्धा ने कहा नि:संकोच अपनी दुविधा बताओ। तब सत्ता हिचकिचाते हुए बोला-  वो गुरुदेव हाँ हाँ बताइये लद्धा उपकारी ने फिर कहा।

सत्ता बोला वो गुरुदेव ने कहा था कि जो हमे बख्शवाने आएगा वह नसर किया जाएगा। लद्धा उपकारी ठहाका लगाकर हंसा और बोला। इसमे कौन सी मुश्किल है मेरा मुँह काला करके गधे पर घूमने से अगर गुरूदेव तुम्हे बख्श दें तो इससे आसान मार्ग और क्या होगा? जैसा बुल्लेशाह ने कहा कि कंजरी बणिया मेरी इज्जत ना घट दी मैनू नच नच यार मणावा दी।

कहते हैं लद्धा उपकारी खुद नसर होकर सत्ता और बलवन्द को साथ ले रवाना हुए। मुंह कालित से पुता हुआ और गधे पर सवार हो वह उनको बख्शवाने गुरु दरबार की ओर चल पङा। गली मोहल्ले कुचे कुचे मे खबर फैल गई। लोग सिर जोङ जोङ कर बाते करने लगे। जिसको असलियत पता होती तो वह लद्धा उपकारी को देवता मानता मगर सत्यता से वाकिफ न थे। वे उसका उपहास करते। लेकिन लद्धा पर न तो प्रशंसा के फूलों और न ही व्यंग्य के तीरो का कोई असर हुआ। वह बङी अडीगता से अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता रहा।

चर्चा फैलते फैलते श्री गुरु अर्जुनदेव जी तक भी पहुंची। वे हतप्रभ रह गये। क्या लद्धा उपकारी स्वयं नसर होकर आ रहा है। उन बेमुखो को इज्जत दिलाने हेतु खुद बेइज्जत होकर आ रहा है दुसरो को फुलो की सेज देने के लिए उसने खुद कांटो पर अपने कदम रख दिये हैं। अपने गुरु भाइयो से इतना प्यार कि अपना रूतबा शोहरत नाम सब दाँव पर लगा दिया और वह भी हमारी सजा देने से पहले ही। गुरुदेव का मन पुलकित हो उन हृदय मे प्रेम का सागर हिलोरे लेने लगा। पवित्र हाथ कृपा लुटाने को बैचेन हो उठे। आंखे लद्धा उपकारी की हाजरी का इंतजार करने लगी। जिस प्रकार कुम्हार अपने बनाए घड़े को एक बार हाथो मे लेकर बड़े प्रेम से निहारता है और उसको ठोकता भी है परंतु मन ही मन फक्र महसूस करता है।

गुरु अर्जुनदेव जी भी लद्धा उपकारी के बारे मे वैसा ही महसूस कर रहे थे। तभी एक सेवादार ने लद्धा उपकारी के आगमन की खबर गुरूदेव को दी वे तुरंत अपने कक्ष से बाहर आये। ठीक सामने था लद्धा उपकारी। उसके चेहरे पर न नसर होने की कोई ग्लानि थी न शर्म के भाव न कोई झेप। बस दीनता की चादर ओढ़े नम्रता का श्रृंगार किये और दासता का परिचय लिये वह नजरें झुकाकर उनके सामने खड़ा था गुरुदेव की आंखे काफी देर तक उसे निहारती रही। उस पर अपनी प्रेम वर्षा बरसाती रही। अंततः चुप्पी तोड़ते हुए गुरुदेव बस यही बोलें – हूहूहू लद्धा उपकारी दोनो हाथ जोड़े शीश झुकाकर धीमे से स्वर मे बोला हुजूर गुस्ताख को माफी बख्शो। हालांकि हम आपके सामने दम भरने के लायक भी नही फिर भी अर्ज है आपकी बगिया के दो सुंदर फूल आपके पवित्र मंदिर को छोड़कर संसार की दलदल मे जा गिरे थे। लेकिन अब उन्हे अपनी भूल का अहसास हो गया है। फिर आप तो दयालु हैं प्रभु गिरे हुओं को उठाते हैं। निमानो को मान बख्शते हैं उन फूलों को भी फिर से अपने चरणो मे ले लें। प्रभु जैसे गाय अपने खोये बछङे को दुबारा ढूँढ लेती है बहारें पतझङ के मारे पेड़ों को फिर से हराभरा कर लेती है। हे नाथ वैसे ही आप अपने भूले बच्चो पर दया कीजिए।हम तो स्वभाव से ही भुलनहार है। अगर हम भूलें ही न करते तो फिर आप किसको बख्शते?

सुन फरियाद पीरां दीयां, पीरा मैं आख (बोल के) सुणावां (सुनाऊँ) केहनु,(किसे)!

तेरे जेहा (जैसा) मैनू (मुझे) होर न कोई

मेरे जेहियां (जैसे) लख तैनू (तुझे)!!

फुल न कागज बदिया वाले

दर तो धक ना मैनू

जे मेरे विच ऐब न हुंदे

तूँ बख्शेंदा केहनु।

लद्धा उपकारी की फरियाद गुरुदेव के दिल को छू गयी। वे मंद मंद मुस्कराने लगे हालांकि सब जानते थे लेकिन लीला करते हुए बोले लद्धा तुम कौन से फूलों की बाते कर रहे हो भला हमारी कौन सी बगिया है? लद्धा उपकारी ने बिना विलंब किये सत्ता बलवन्द को आगे कर दिया प्रभु यही है आपके फूल। इनकी शोभा आपके चरणो मे ही है। इनकी भूल को क्षमा कर दें दाता। भले ही इनके हिस्से का दंड आप मुझे दे दें। आपकी रुसवाई इनकी चमङी फाङ कोङ रूप मे बाहर रीस रही है। यहाँ से तो भक्तिरस निकलता ही अच्छा लगता था। प्रभु ये दोनो आपकी आंखो की पुतलिया है। इन्हे आंखो मे ही रहने दीजिये। इन्हे अपना लिजिये भगवन। क्षमा कर दीजिए दया कीजिए दाता।

इतना कहते कहते लद्धा उपकारी घुटनो के बल बैठकर रो पङा। सारी सभा की आंखे भी नम हो गयी। सब भावनाओ के सैलाब मे बह गये। सैकङो लोगो की भीङ मे सन्नाटा छा गया। अगर आवाज भी थी तो लद्धा उपकारी की आहों की। गुरु महाराज जी भी भावुक हो उठे अपने स्थान पर तटस्थ न रह सके। लपक कर लद्धा को गले से लगा लिया बोले लद्धा तुमने हमको जीत लिया हम अपने वचनो को काट सकते हैं लेकिन तुम्हारी फरियाद से मुंह मोड़ने की ताकत हममे नही। आज हम तुम्हारी हर इच्छा पूर्ण करेंगे। तुम कहो तो आसमान के तारे तुम्हारे नाम से चमकेगे। सूरज तुम्हारी दहलीज पर पानी भरेगा और धरती तुम्हारे दम पर टिकेगी आज जो चाहो मांग लो लद्धा।

लद्धा नतमस्तक हुआ। सत्ता बलवन्द को क्षमा करने की ही गुहार करता रहा। गुरुदेव बोले लद्धा तुम इनकी चिंता मत करो अब ये मेरी छाया तले आ चुके हैं। मै इन्हे अभयदान बख्शता हूँ। कुछ और चाहो तो बताओ तब लद्धा ने सत्ता बलवन्द की ओर संकेत करते हुए कहा गुरुवर इन शरीरो से इन्होंने सेवा की है लेकिन इनकी ये काया कोढ़ से गल चुकी हैं। हे मन की पीङा हरने वाले नाथ इनके तन की पीड़ा भी हर लो। इस भयानक कष्ट से इन्हे मुक्त कर दो। गुरूदेव बुलन्द आवाज मे बोले निःसंदेह लद्धा इनका यह रोग भी कटेगा लेकिन। लेकिन क्या प्रभु जिस जिव्हा से इन्होंने गुरुजनो की निंदा की । उसी से जब उनकी स्तुति करेंगे। तभी इतना सुनते ही सत्ता बलवन्द गुरु के चरणो मे गिर पङे। सभा जयकारो से गुंज गया।

इतिहास साक्षी है कि कुछ समय के बाद शब्द कीर्तन करते हुए सत्ता बलवन्द का कोढ़ भी खत्म हो गया। शुभ और महान कार्य मे सफलता प्राप्त होना केवल और केवल गुरु कृपा से ही संभव है ।इसलिये एक सच्चे सेवक को चाहिए कि वह सदा लोगो की प्रशंसा से बचे। निष्काम भावना से सेवा करे और अपने भीतर कर्तापन का भाव न आने दे तभी गुरु की महती कृपा निरन्तर बहती रहेगी और सफलता मिलती रहेगी।

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