Monthly Archives: October 2020

गुरुभक्तों के अनूठे वरदान (बोध कथा)….


मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ मांगो तुम मुझसे कोई एक वर मांग लो यदि आपको अपने गुरु से ऐसे वचन सुनने को मिले तो आप वरस्वरूप उनसे क्या मांगेंगे? यह प्रस्ताव कितना लुभावना सा है हमे सोचने को मजबूर कर ही देता है। भोगी से योगी तक सभी इस पर विचार करते है फ़र्क बस इतना ही है कि इसका जवाब गढ़ने के लिए एक सांसारिक अपनी बुद्धि की चतुराई लड़ाता है और एक साधक गुरुभक्त मन की भक्ताई लगाता है अर्थात भक्तिभावना लगाता है।

भागवत के एक ही प्रसंग में जब हिरण्यकश्यपु को मांगने का अवसर मिला तो उसने भरपूर बुद्धि भिड़ाई और बहुत ही टेढ़ी अंदाज में अमरता मांग ली मैं न पृथ्वी में मरु न आकाश में न भीतर मरु न बाहर मरु आदि आदि.. परन्तु हिरण्यकश्यपु वध के बाद जब भगवान नरसिंह ने भक्त प्रह्लाद को वर मांगने को कहा तो वह सजल आंखे लिए बोला- मेरी कोई कामना न रहे मेरी यही कामना है। मतलब की सांसारिक व्यक्ति की मांग मैं मेरे के स्वार्थी दायरों के बाहर नहीं आ पाती बड़ी छिछली सी होती है मगर एक शिष्य की एक गुरुभक्त की सोच व्यापकता को उपलब्ध होती है क्योंकि उसका प्रेम व्यापक से है व्यापकस्वरूप गुरुदेव से है।

कई भक्तों ने ऐसे अवसर पर अपने भक्तिभाव से सराबोर सुंदर और भक्ति वर्धिनी उद्गार व्यक्त किये है इस अवसर पर कि तुम मुझसे कुछ वर मांगो।

पहला गुरुभक्त कहता है कि- ऐसे में मैं गुरुजी से गुरुजी को मांग लूंगा। गुरुजी को मांगने का मतलब क्या है? यही कि गुरुदेव हमारे भीतर ऐसे समा जाए कि हमारे हर विचार हर व्यवहार हर कर्म पर वे झलके ताकि जब समाज हमे देखे तो समाज को गुरुमहाराज की ही याद आये उनकी ऊंचाई का भान हो और वह गदगद होकर कह उठे जब शिष्य ऐसे है तो साक्षात इनके गुरु कैसे होंगे।

इस अवसर पर दूसरा गुरुभक्त कहता है कि- जब भी श्री गुरुमहाराज इस धरा पर आए मैं भी उनके साथ ही आऊं और मैं उनकी आयु का ही होऊं और मेरी चेतना को यह ज्ञान हो कि मेरे गुरुवर साक्षात भगवान है और फिर मैं जी भर के उनकी सेवा करूँ और उनसे प्यार करूँ। तो भाई उनकी आयु के होने के पीछे क्या रहस्य है? गुरुदेव की आयु के होने से यह लाभ होगा कि मैं उनके अवतरण काल मे ज्यादा से ज्यादा जीवन बिता पाऊंगा और उनके सान्निध्य का आनंद लाभ उठा पाऊंगा उनसे पहले आया तो हो सकता है कि उन्हें छोड़कर मुझे इस धरती से जाना पड़े, उनके अवतरण के काफी बाद में मेरा जन्म हुआ तो हो सकता है कि वे मुझे इस संसार मे अकेले छोड़कर चले जाएं।

तीसरा गुरुभक्त कहता है इस अवसर पर कि अगर गुरुमहाराज जी मुझसे वरदान मांगने को कहेंगे तो मैं यही मांगूंगा कि- वे मुझे एक ईंट के समान बनाये और वह ईंट उनके आश्रम के नींव में लगाई जाए इसके पीछे मेरी भावना बस यही है कि जबतक मै जियूँ छिप के..प्रदर्शन, नाम, बड़ाई से अछूता रहकर गुरुदेव की सेवा करता रहूं और जैसे एक ईंट मिट कर मिट्टी हो जाता है अंततः मैं भी गुरुदरबार की मिट्टी बनू, गुरुचरणों की रज बन जाऊं अर्थात् सदा-सदा निमाणी भाव से उनका होकर रहूं।

इस अवसर पर चौथा गुरुभक्त कहता है कि-हे गुरुदेव! वर देना तो एक ऐसा दास बनाना जिसका अपना कोई मन मौजी सोच विचार न हो इस दास की बुद्धि में सिर्फ उन्ही विचारों को प्रवेश मिले जो गुरुदेव को पसंद हो जब विचार गुरुदेव के होंगे तो कार्य भी गुरुदेव के होंगे, कार्य गुरुदेव के होंगे तो जीवन भी गुरुदेव का होकर रह जायेगा इस दास को यह पता होगा कि मेरे मालिक अब क्या चाहते है जैसे महाराज जी हमारे कहने से पहले ही हमारे मन की बात जान जाते है वैसे ही दास को गुरुवर के कहने से पहले ही गुरुवर के मन की बात पता होगी। बात पता चलते ही वह सक्रिय होकर उन्हें पूरा करने लगेगा यदि मैं संक्षेप में कहूँ तो मुझे ऐसा दास बनने की चाह है जैसा गुरुदेव का हाथ जिसकी अपनी कोई मति नहीं, सोचते गुरुमहाराज जी है वही सोच हाथ तक पहुंच जाती है और बस हाथ उसे पूरा कर देता है। जो महाराज जी सोचे मैं भी अन्तर्वश उसे पूरा करता जाऊँ।

पांचवा भक्त इस अवसर पर कहता है कि- अगर गुरुमहाराज जी से मुझे कुछ मांगने का अवसर मिलेगा तो शायद मैं उस समय कुछ बोल ही नही पाऊंगा मेरी आँखों से बहते अश्रु गुरुदेव से अपनी इच्छा जरूर व्यक्त कर देंगे परन्तु मेरी वाणी मौन रहेगी।

इस अवसर पर छठा भक्त कहता है- जब आखिरी श्वास निकले तो गुरुदेव के श्री चरणों मे मेरा मस्तक हो उनका मुस्कुराता हुआ प्रसन्न चेहरा मेरी आँखों के सामने.. और वे गर्वोक्त स्वर में मुझसे कहें कि बेटे तुझे जो कार्य मैने सौंपा था वह पूर्ण हुआ चल अब यहां से लौट चले।

इस अवसर पर सातवां गुरुभक्त कहता है कि- हे गुरुदेव! सुंदर भावों से युक्त मन मुझे दे दो क्योंकि मेरे पास भाव का ही अभाव रहता है और गुरुदेव की दृष्टि अगर हमसे कुछ खोजती है तो भावों को ही खोजती है वैभव सौंदर्य, वाक पटुता अन्य कुछ नही यदि हम भावों द्वारा उनसे जुड़े है तो वे हमेशा हमसे हमारे लिए उपलब्ध है इसलिए हे गुरुदेव! मैं तो वरदान स्वरूप में भावों की ही सौगात माँगूंगा।

वह घटना जिसने धर्मदास जी का जीवन ही बदल दिया….


संत कबीर जी मथुरा की यात्रा के लिये निकले बांके बिहारी के पास कबीर जी को एक आदमी दिखा। कबीर जी ने उसको गौर से देखा तो उस आदमी ने भी कबीर जी को गौर से देखा। कबीर जी की आंखो मे इतनी गहराई। कबीर जी की आत्मा मे भगवान का इतना अनुभव कि वह आदमी उनको देखकर मानो ठगा सा रह गया।

कबीर जी ने पूछा क्या नाम है तुम्हारा कहां से आये हो? उसने कहा मेरा नाम धर्मदास है। मैं माधवगढ़ जिला रीवा मध्य प्रदेश का रहने वाला हूँ। तुम इधर कैसे आये? मै यहाँ भगवान के दर्शन करने आया हूँ। कितनी बार आये हो यहां? हर साल आता हूँ। क्या तुम्हे सचमुच भगवान के दर्शन हो गये? तुमको भगवान नही मिले केवल मुर्ति मिली है।

मेरा नाम कबीर है कभी मौका मिले तो काशी आना। ऐसा कहकर कबीर जी तो चले गए। कबीर जी की अनुभव युक्त वाणी ने विलक्षण असर किया। धर्मदास गया तो था बांके बिहारी के दर्शन करने मंदिर मे जाने का अब मन नही कर रहा था। घर वापस लौट आये। लग गये कबीर जी के वचन अब घर मे ठाकुर जी की पूजा करता तो देखता कि अन्तर्यामी ठाकुर जी के बिना ये बाहर के ठाकुर जी की पूजा भी तो नही होगाी और बाहर के ठाकुर जी की पूजा करके शांत होना है अन्तररूपी आत्मरूपी ठाकुर मे। अब मुझे निर्दुख नारायण के दर्शन करने है और वह सदगुरु की कृपा के बिना नही होते। वे दिन कब आएंगे कि मैं सद्गुरु कबीर जी के पास पहुचूंगा।

एक दिन धर्मदास सब छोड़ छाड़ कर कबीर जी के पास पहुंच गये काशी। कबीर जी के पास जाते ही –

धर्मदास हर्षित मन कीन्हा।

बहुर पुरूष मौहे दर्शन दीन्हा।।

धर्मदास का मन हर्षित हो गया जिनको मथुरा मे देखा था काशी मे फिर उन्ही पुरूष के दर्शन हुए।

मन अपने तब कीन विचारा।

इनकर ज्ञान महा टकसारा।।

कबीर का ज्ञान महा टकसाल है। यहाँ तो सत्य की अशरफियाँ बनती हैं अनंत की गिन्नीया बनती है। मै कहाँ अब तक कीमती तिजोरी मे कंकर पत्थर इक्कठे कर रहा था आपका जीवन और आपका दर्शन सच्चा सुखदायी है ये संत अपने सत्संग से दर्शन से सुख शांति और आनंद की गिन्नीया हृदय तिजोरीयो मे भर देते है।

इतना कह मन कीन विचारा।

तब कबीर उन ओर निहारा।।

तब कबीर जी ने धर्मदास की ओर गहराई से देखा ऐसा लगा मानो बिछड़ा हुआ सत् शिष्य गुरुजी को आकर मिला। हर्षित मन से कबीर जी ने कहा आओ धर्मदास पग धारो। आओ धर्मदास अब काशी मे ही पैर जमाओ। मेरे सामने बैठो। चैहुक चैहुक तुम काहे निहारो। टकुर टकुर क्यो मेरे ओर देख रहे हो? धर्मदास हमने तुमको पहचान लिया तुम सत् पात्र हो , सत् शिष्य हो इसलिए मैंने तुमको यह बात कह दी थी। फिर भी तुमने बहुत दिन के बाद मुझे दर्शन दिये। छः महीने हो गये।

कबीर जी ने थोड़ी धर्मदास जी के उपर अपनी कृपा दृष्टि डाली। सत्संग सुना था धर्मदास गदगद हो गये। धन्य धन्य हो गये। सोचा कि मैने आज तक जो रूपयो पैसो के नाम पर नश्वर चीजे इक्कठी की है मै उन्हे खर्च करने के लिए जाऊंगा तो मेरे को समय देना पड़ेगा व्यवस्थापको को संदेशा भेजा गया जो भी मेरी माल सम्पति खेत मकान है गरीबों मे बांट दो भंडारा कर दो शुभ कार्यो मे लगा दो। मै फकीरी ले रहा हूँ।

संत कबीर जी की टकसाल मे मेरा प्रवेश हो गया है ब्रह्मज्ञानी संत मिल गया है। हृदय मेरे आत्मतीर्थ का साक्षात्कार करूंगा । इस सम्पति को सम्भालने या बांटने का मेरे पास समय नही है। मुनिमो ने तो रीवा जिले मे तो डंका बजा दिया कि जिनको भी जो आवश्यकता है ऐसे गुरबे और सात्विक लोग जो सामान की सेवा करते है आश्रम मंदिर वाले वे आकर धन ले जाये। जुटाने के लिए जीवन भर लगा दिया। लेकिन छोङने के लिए मृत्यु का एक झटका काफी है। अथवा छोड़ना ही है तो भर ले जाओ बस इतना ही बोलना है।


कबीर दास जी के चरणो मे धर्मदास लग गये तो लग गये। और अपने आत्मा और परमात्मा के पास अपने आत्मा और परमात्मा के परम सुख को पा गये। धर्मदास सन् 1423 मे जन्मे थे और कबीर जी 120 वर्ष तक धरती पर रहे। कबीर जी का कृपा प्रसाद पाकर लोगो को महसूस कराना है यह राख बन जाने वाले शरीर के लिए है बाहर का है। असली धन तो सद्गुरु का सत्संग है सत्गुरू ने जो भगवान का नाम दिया है और भगवान की शांति और प्रीति है। असली धन तो परमात्म प्रसाद है।

ब्रम्ह श्राप से ग्रसित उधो को श्रीकृष्ण वह दे रहे हैं जो देहातीत है…पढ़िये…


गुरु के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए। गुरु महान है। विपत्तियों से डरना नहीं। हे वीर शिष्यों! आगे बढ़ो!गुरुकृपा अणुशक्ति से अधिक शक्तिशाली है। शिष्य के ऊपर जो आपत्तियां आती हैं वे छुपे वेश में गुरु के आशीर्वाद के समान होती है। गुरु के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करना, यह सच्चे शिष्य का जीवनमंत्र होना चाहिए।

संत एकनाथ जी महाराज सद्गुरु स्तुति करते हुए लिखते हैं कि, हे सद्गुरु परब्रह्म! तुम्हारी जय हो! ब्रह्म को ब्रह्म यह नाम तुम्हारे ही कारण प्राप्त हुआ है। हे देवश्रेष्ठ गुरुराया! सारे देवता तुम्हारे चरणों में प्रणाम करते हैं। हे सद्गुरु सुखनिधान! तुम्हारी जय हो! सुख को सुखपना भी तुम्हारे ही कारण मिला है। तुमसे ही आनंद को निजानंद प्राप्त होता है और बोध को निजबोध का लाभ होता है। तुम्हारे ही कारण ब्रह्म को ब्रह्मत्व प्राप्त होता है। तुम्हारे जैसे समर्थ एक तुमही हो! ऐसे श्रीगुरु आप अनंत हो। आप कृपालु होकर अपने भक्तों को निजात्म स्वरूप का ज्ञान प्रदान कराते हो। अपने निजस्वरूप का बोध कराकर देव भक्त का भाव नहीं रहने देते हो। जिस प्रकार गंगा समुद्र में मिलनेपर भी उसपर चमकती रहती है, उसी प्रकार भक्त तुम्हारे साथ मिल जानेपर भी तुम्हारे ही कारण तुम्हारा भजन करते हैं। अद्वैत भाव से तुम्हारी भक्ति करने से तुम्हें परम संतोष होता है और प्रसन्न होनेपर आप शिष्य के हाथों में आत्मसंपत्ति अर्पण करते हो।

हे गुरुराया! शिष्य को निजात्म स्वरूप दान में गुरुत्व देकर आप उसे महान बनाते हो। यह आपका अतिशय विलक्षण चमत्कार है, जो वेद-शास्त्रों की समझ में नहीं आता। जिसके लिये वेद रात और दिन वार्ता कर रहे हैं, वह आत्मज्ञान आप सतशिष्य को एक क्षण में कर देते हो। करोड़ो वेद एवं वेदांत का पठन करने पर भी आपके आत्मोपदेश की शैली किसीको भी नहीं आ सकती। अदृष्ट वस्तु ध्यान में आना संभव नहीं है। आपकी कृपायुक्ति का लाभ होनेपर ही दुर्गम सरल होता है। हे गुरुराया! जिसप्रकार माँ दही को मथकर उसका मक्खन निकालके बालक को देती है। उसी प्रकार आपने यह किया है।

भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर उधोजी ज्ञानसंपन्न हो गये। इससे अत्याधिक ज्ञातृत्व हो जाने के कारण ज्ञान अभिमान होने की संभावना हुई। सारा संसार मूर्ख है और एक मैं ज्ञाता हूं ऐसा जो अहंकार बढ़ता रहता है, वही गुण-दोषों की सर्वदा और सर्वत्र चर्चा कराता है। जहाँ गुण-दोष का दर्शन होता है वहाँ सत्य-ज्ञान का लोप हो जाता है।

साधकों के लिए इतना ज्ञान-अभिमान बाधक है। ईश्वर भी यदि गुण-दोष देखने लगे तो उनको भी बाधा आएगी। इसप्रकार गुण-दोषों का दर्शन साधक के लिए पूरी तरह घातक है। इसलिए प्रश्न किये बिना ही श्रीकृष्ण उद्धव को उसका उपाय बताते हैं। जिसप्रकार बालक को उसका हित समझ में नहीं आता। अतः उसकी मां ही निष्ठापूर्वक उसका ख्याल रखती है। उसी प्रकार उधो के सच्चे हित की चिंता श्रीकृष्ण को थी।

उद्धव का जन्म यादव वंश में हुआ था और यादव तो ब्रह्मशाप से मरनेवाले थे। उनमें से उद्धव को बचाने के लिए श्रीकृष्ण उसे संपूर्ण ब्रह्मज्ञान बता रहे हैं। जहां देहातीत ब्रह्मज्ञान रहता है, वहां शाप का बंधन बाधक नहीं होता। यह जानकर ही श्रीकृष्ण ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने लगे।

श्रीकृष्ण कहते हैं, हे उद्धव! संसार में मुख्यरूप से तीन गुण है। उन गुणों के कारण लोग भी तीन प्रकार हो गये हैं। उनके शांत, दारुण और मिश्र ऐसे स्वभाविक कर्म हैं। उन कर्मों की निंदा या स्तुति हमें कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि एक के भलेपन का वर्णन करने से उन्हीं शब्दों से दूसरों को बुरा बोलने जैसा हो जाता है। संसार परिपूर्ण ब्रह्मस्वरूप है, इसलिए निंदा या स्तुति किसी भी प्राणी की कभी भी नहीं करनी चाहिए।

हे उधो! सभी प्राणियों में आत्माराम है, इसलिए प्राण जानेपर भी निंदा या स्तुति नहीं करे। हे उधो! निंदा-स्तुति की बात सदा के लिए त्याग दो। तभी तुम्हें परमार्थ साध्य होगा और निजबोध से निजस्वार्थ प्राप्त होगा। हे उधो! समस्त प्राणियों में भगवद्भाव रखना। यही ब्रह्मस्वरूप होने का एक मार्ग है। इसमें कभी भी धोखा नहीं है। जहां से अपाय अर्थात खतरे की संभावना हो। यदि वही भगवदभावना दृढ़ता से बढ़ाई जाय तो जो अपाय है, वहीं अपाय हो जायेंगे। इस स्थिति को दूर छोड़ जो मैं ज्ञाता हूं, ऐसा अहंकार करेगा और निंदा-स्तुति का आश्रय लेगा वह साधक अनर्थ में पड़ेगा।