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ब्रम्ह श्राप से ग्रसित उधो को श्रीकृष्ण वह दे रहे हैं जो देहातीत है…पढ़िये…


गुरु के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए। गुरु महान है। विपत्तियों से डरना नहीं। हे वीर शिष्यों! आगे बढ़ो!गुरुकृपा अणुशक्ति से अधिक शक्तिशाली है। शिष्य के ऊपर जो आपत्तियां आती हैं वे छुपे वेश में गुरु के आशीर्वाद के समान होती है। गुरु के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करना, यह सच्चे शिष्य का जीवनमंत्र होना चाहिए।

संत एकनाथ जी महाराज सद्गुरु स्तुति करते हुए लिखते हैं कि, हे सद्गुरु परब्रह्म! तुम्हारी जय हो! ब्रह्म को ब्रह्म यह नाम तुम्हारे ही कारण प्राप्त हुआ है। हे देवश्रेष्ठ गुरुराया! सारे देवता तुम्हारे चरणों में प्रणाम करते हैं। हे सद्गुरु सुखनिधान! तुम्हारी जय हो! सुख को सुखपना भी तुम्हारे ही कारण मिला है। तुमसे ही आनंद को निजानंद प्राप्त होता है और बोध को निजबोध का लाभ होता है। तुम्हारे ही कारण ब्रह्म को ब्रह्मत्व प्राप्त होता है। तुम्हारे जैसे समर्थ एक तुमही हो! ऐसे श्रीगुरु आप अनंत हो। आप कृपालु होकर अपने भक्तों को निजात्म स्वरूप का ज्ञान प्रदान कराते हो। अपने निजस्वरूप का बोध कराकर देव भक्त का भाव नहीं रहने देते हो। जिस प्रकार गंगा समुद्र में मिलनेपर भी उसपर चमकती रहती है, उसी प्रकार भक्त तुम्हारे साथ मिल जानेपर भी तुम्हारे ही कारण तुम्हारा भजन करते हैं। अद्वैत भाव से तुम्हारी भक्ति करने से तुम्हें परम संतोष होता है और प्रसन्न होनेपर आप शिष्य के हाथों में आत्मसंपत्ति अर्पण करते हो।

हे गुरुराया! शिष्य को निजात्म स्वरूप दान में गुरुत्व देकर आप उसे महान बनाते हो। यह आपका अतिशय विलक्षण चमत्कार है, जो वेद-शास्त्रों की समझ में नहीं आता। जिसके लिये वेद रात और दिन वार्ता कर रहे हैं, वह आत्मज्ञान आप सतशिष्य को एक क्षण में कर देते हो। करोड़ो वेद एवं वेदांत का पठन करने पर भी आपके आत्मोपदेश की शैली किसीको भी नहीं आ सकती। अदृष्ट वस्तु ध्यान में आना संभव नहीं है। आपकी कृपायुक्ति का लाभ होनेपर ही दुर्गम सरल होता है। हे गुरुराया! जिसप्रकार माँ दही को मथकर उसका मक्खन निकालके बालक को देती है। उसी प्रकार आपने यह किया है।

भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर उधोजी ज्ञानसंपन्न हो गये। इससे अत्याधिक ज्ञातृत्व हो जाने के कारण ज्ञान अभिमान होने की संभावना हुई। सारा संसार मूर्ख है और एक मैं ज्ञाता हूं ऐसा जो अहंकार बढ़ता रहता है, वही गुण-दोषों की सर्वदा और सर्वत्र चर्चा कराता है। जहाँ गुण-दोष का दर्शन होता है वहाँ सत्य-ज्ञान का लोप हो जाता है।

साधकों के लिए इतना ज्ञान-अभिमान बाधक है। ईश्वर भी यदि गुण-दोष देखने लगे तो उनको भी बाधा आएगी। इसप्रकार गुण-दोषों का दर्शन साधक के लिए पूरी तरह घातक है। इसलिए प्रश्न किये बिना ही श्रीकृष्ण उद्धव को उसका उपाय बताते हैं। जिसप्रकार बालक को उसका हित समझ में नहीं आता। अतः उसकी मां ही निष्ठापूर्वक उसका ख्याल रखती है। उसी प्रकार उधो के सच्चे हित की चिंता श्रीकृष्ण को थी।

उद्धव का जन्म यादव वंश में हुआ था और यादव तो ब्रह्मशाप से मरनेवाले थे। उनमें से उद्धव को बचाने के लिए श्रीकृष्ण उसे संपूर्ण ब्रह्मज्ञान बता रहे हैं। जहां देहातीत ब्रह्मज्ञान रहता है, वहां शाप का बंधन बाधक नहीं होता। यह जानकर ही श्रीकृष्ण ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने लगे।

श्रीकृष्ण कहते हैं, हे उद्धव! संसार में मुख्यरूप से तीन गुण है। उन गुणों के कारण लोग भी तीन प्रकार हो गये हैं। उनके शांत, दारुण और मिश्र ऐसे स्वभाविक कर्म हैं। उन कर्मों की निंदा या स्तुति हमें कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि एक के भलेपन का वर्णन करने से उन्हीं शब्दों से दूसरों को बुरा बोलने जैसा हो जाता है। संसार परिपूर्ण ब्रह्मस्वरूप है, इसलिए निंदा या स्तुति किसी भी प्राणी की कभी भी नहीं करनी चाहिए।

हे उधो! सभी प्राणियों में आत्माराम है, इसलिए प्राण जानेपर भी निंदा या स्तुति नहीं करे। हे उधो! निंदा-स्तुति की बात सदा के लिए त्याग दो। तभी तुम्हें परमार्थ साध्य होगा और निजबोध से निजस्वार्थ प्राप्त होगा। हे उधो! समस्त प्राणियों में भगवद्भाव रखना। यही ब्रह्मस्वरूप होने का एक मार्ग है। इसमें कभी भी धोखा नहीं है। जहां से अपाय अर्थात खतरे की संभावना हो। यदि वही भगवदभावना दृढ़ता से बढ़ाई जाय तो जो अपाय है, वहीं अपाय हो जायेंगे। इस स्थिति को दूर छोड़ जो मैं ज्ञाता हूं, ऐसा अहंकार करेगा और निंदा-स्तुति का आश्रय लेगा वह साधक अनर्थ में पड़ेगा।

हरिया ने संत को सुंदरी की सारी व्यथा सुनाई… कौन थी सुंदरी और क्या थी व्यथा पढ़िये…


गुरूभक्तियोग दिव्य सुख के द्वार खोलने के लिए गुरुचाबी है। गुरूभक्तियोग के अभ्यास से सर्वोच्च शांति के राजमार्ग का मार्ग प्रारंभ होता है। गुरूभक्तियोग का अभ्यास किये बिना साधक के लिए ईश्वर साक्षात्कार की ओर ले जानेवाले अध्यात्मिक मार्ग में प्रविष्ट होना संभव नहीं है। सद्गुरु के पवित्र चरणों में आत्मसमर्पण करना ही गुरुभक्तियोग की नींव है।

विष और विषयों में गहरा अंतर है। एक को खाने से व्यक्ति मरता है और दूसरे का स्मरण करने मात्र से ही मर जाता है। सद्गुरु की ज्ञानरूपी रथ ऐसी सवारी है जो अपने सवार को कभी गिरने नहीं देती न किसी के कदमों में न किसी की नजरों में।

एक कल्पित कथा है। एक गांव में कुछ किसान चौपाल पर बैठकर बातचीत कर रहे थे। तभी उनका एक साथी हरिया दौड़ते हुए उनके पास आया। सभी साथियों ने पूछा, “हरिया! का बात हुई गई? इतना परेशान काहे हो?”

तब हरिया बोला, “का बताये भैय्या! रोज के जैसे आज सुबह भी हम अपनी गाय सुंदरी को चारा खिला रहे थे। पर पता नहीं कब और कैसे हमार मोबइलवा जेब से चारे में गिर गया।”

सभी ने पूछा, “फिर?”

हरिया बोला, ” फिर का? हमार उठावे से पहले ही हमार सुंदरी चारे के साथ मोबइलवा को निगल गई।”

“इका गजब हुई गया!” सभी किसान एकसाथ बोले।

अब का बताये। तब से अब तक हमार सुंदरी बहुत परेशान है।

हरिया रोते हुए स्वर में बोला, पता नहीं का हो गया है। ना खात है, ना पिवत है, न ही दूध देत है। बस एको जगह खड़ी रहती है। बड़ी तकलीफ में है बेचारी!… और जैसे ही हमार फोन बजत है, तब तो उसका दर्दभरा रंभाना हमसे तनिक न देख जात है। का करे भैय्या! हमार तो समझ में कछु नहीं आत है।

समस्या का हल ढूंढने के लिए सभी गांव वालों ने अपनी दिमाग की बत्तियां जलानी शुरू कर दी। परन्तु सुझाव का दीया तो दूर एक चिंगारी भी नहीं जली। अब करते भी तो क्या? डॉक्टर के पास जाने के लिए तो शहर जाना पड़ता और शहर जाने का खर्चा उठाते तो किसीसे उधार लेना पड़ता। उधार लेते तो चुकाते-2 उम्र निकल जाती। हरिया के सिर पर तो पहले से ही उसकी दो बेटियों की शादी का भारी कर्ज था।

आखिरकार सबने कहा, “अब ईश्वर की ही मर्जी है तो हम सब भी का कर सकत है?” उसी वक्त गांव के रास्ते से एक संत गुजर रहे थे। संत को देखकर सबने सोचा कि ये कोई ज्ञानी महापुरुष जान पड़ते हैं। चलो इन्हींसे पूछ लेते हैं। शायद कोई परामर्श मिल सके। जिससे सुंदरी की तकलीफ कम हो जाय।

सभी ने संत के पास जाकर उनको प्रणाम किया। हरिया ने झट अपनी सारी व्यथा उनको सुनाई। संत उसकी व्यथा सुनकर कुछ देर के लिए मौन हो गये। फिर हरिया को बोले कि, पहाड़ी के नीचे जो कुंआ है, सुंदरी को वह उसके पास ले आये।

पहाड़ी के नीचे पहुंचकर संत ने एक किसान से कहा कि अब हरिया के मोबाइल पर फोन कर। ऐसा करने पर इस किसान को सुनने में आया कि जो नम्बर आप डायल कर रहे हैं वह अभी पहुंच से बाहर है, कृपया थोड़ी देर बाद डायल करे। उधर सुंदरी के पेट से फोन की घण्टी भी नहीं सुनाई दी।

हरिया खुशी से उछल पड़ा। संत के चरणों में गिरकर बालकवत पूछने लगा कि हे संत महाराज! इह कैसन हुवत?

संत बोले, गांव के इस भाग में मोबाइल नेटवर्क नहीं पहुँचता है, इसलिए फोन की घण्टी नहीं बजी और सुंदरी को कोई तकलीफ भी नहीं हुई।

अरे वाह! हरिया चहक उठा। सामने देखता है कि सुंदरी घास खा रही है और कुछ घंटों बाद हरिया को अपना मोबाइल भी सुंदरी के ताजे गोबर के साथ मिल गया।

ऊपर लिखित कल्पित कहानी हमें दिक्कतों से जुड़ने का गोपनीय संकेत देते हुए कहती है कि जब कभी हमें मुश्किल परिस्थितियों में कोई सुमार्ग न दिखे, हमारा मन द्वंद्वों के जाल में फंस जाये और हम इस मन के विषय-विकारों के तूफान से बाहर निकलने में असमर्थ महसूस कर रहे हो, तब सद्गुरु की शरण में जाये।

सद्गुरु ही हमें चिंता, शोक और भय की चोटी से वहां ले जायेंगे जहां समग्र मुसीबतों का नेटवर्क फेल हो जाता है। जहां हमारी मन की अटकलें अपना नेटवर्क पकड़ ही नहीं पाते। करना बस इतना है कि सच्चे समर्पण भाव से सद्गुरु को शरणागत हो जाये। इस संपूर्ण विश्व में सद्गुरु ही एक ऐसे सूर्य हैं, जिनके प्रत्यक्ष होने पर मन की समस्त कालिमा और अंधकार अयत्न ही नाश हो जाता है।

सद्गुरु प्राप्ति के पश्चात भी कई साधक दुःखातुर, चिंतातुर और शोकातुर रहते हैं तो उनको अपना निरीक्षण स्वयं करना चाहिए। सद्गुरु से विमुखता ही अर्थात सद्गुरु के सीख से विमुखता ही साधक को दुःख, शोक और चिंता उत्पन्न कराती है। सद्गुरु से विमुखता ही साधक के पतन का कारण बनती है।

अंतर मन में उठते उन प्रश्नों का गुरुजी ने किया समाधान…आप भी पढि़ये….


जो संपूर्ण भाव से अपनी गुरु की अथक सेवा करता है, उसे दुनियादारी के विचार नहीं आते। इस दुनिया में वह सबसे अधिक भाग्यवान है। बस अपने गुरु की सेवा करो! सेवा करो! सेवा करो! गुरुभक्ति विकसित करने का यह राजमार्ग है।

गुरु माने सच्चिदानंद परमात्मा! पूज्य आचार्य की सेवा जैसी हितकारी और आत्मोन्नति करनेवाली और कोई सेवा नहीं है।सच्चा आराम दैवी गुरु की सेवा में ही निहित है। ऐसा दूसरा कोई सच्चा आराम नहीं है। किसी भी प्रकार के स्वार्थ हेतु के बिना आचार्य की पवित्र सेवा जीवन को निश्चित आकार देती है।

शिष्य ने पूछा कि गुरुदेव! क्या सेवा एक प्रकार की मजदूरी है जो एक शिष्य को करनी जरूरी है।

गुरुदेव ने कहा कि मजदूरी मजबूरी में की जाती है, परन्तु सेवा प्रेम में और प्रेम से की जाती है। फिर दोनों में क्या बराबरी?… एक और बात मजदूरी करके मजदूर मालिक से कुछ लेना चाहता है, परन्तु मालिक देने से कतराता है लेकिन सेवा का तो दस्तूर ही अलग है। गुरु अपने सेवक को देना और देना ही चाहते हैं, परन्तु शिष्य है कि जी-जान से सेवा करके भी कुछ लेने की चाह नहीं रखता।

गुरुदेव! आपकी समीपता पाने के लिए हम क्या करें?

गुरुदेव ने कहा कि पहले तो समीपता की परिभाषा जान लो। गुरु के शारिरीक रूप से निकटता, गुरु से निकटता का मापदंड नहीं है। जो दास जीसस के पास रहकर भी जीसस से दूर रहा, लेकिन शबरी दूर रहकर भी श्रीराम के निकट से निकट रही। इसलिए गुरुदेव की समीपता को पाना है तो उनसे भावतरंगो का रिश्ता स्थापित करो, हृदय से हृदय की तारों को जोड़ो।

गुरुदेव! मुझे कभी-2 अपनी योग्यताओं पर अभिमान हो जाता है।

गुरुदेव ने कहा कि, जो साधक, जो शिष्य अपने गुरु को ही सर्वस्व मानता हो, अपने अस्तित्व को गुरु में विलीन कर दिया हो, ऐसे शिष्य में अभिमान किस बात का?…और अभिमान तभी आता है जब गुरु और शिष्य में निकटता ना होकर दूरी ही बनी रहे। उस दूरी में अभिमान का जन्म होता है। गुरु और अभिमान ये दोनों एक तरह से विपरीत शब्द है, जैसे कि अंधकार और प्रकाश।

एकबार अंधकार ब्रह्माजी के पास शिकायत लेकर पहुंचा। उसने कहा, भगवंत! प्रकाश मेरा जन्म से बैरी है। मैंने उसे कभी कोई हानि नहीं पहुंचाई, लेकिन वह है कि हमेशा मेरे अस्तित्व को खत्म करने पर उतालु रहता है। आप ही उसे समझाये।

ब्रह्माजी ने कहा, तुम चिंता मत करो। मैं अभी उसे बुलाकर दंडित करता हूँ।

प्रकाश को तुरंत उपस्थित होने का आदेश दिया गया। प्रकाश के आने पर जब ब्रम्हाजी ने उसे अंधकार की शिकायत बताई, तो प्रकाश ने कहा कि भगवंत! मैं और अंधकार का बैरी! यह कैसे हो सकता है? मैं तो आजतक उससे मिला ही नहीं।

ब्रह्माजी ने कहा, अभी तुम दोनों का आमना सामना करा देते हैं। अंधकार को बुलाया गया, परन्तु वह आया ही नहीं या यूं कहे की आ ही नहीं पाया।

ठीक ऐसे ही जिस साधक के जीवन में मात्र गुरु और उनकी कृपा की स्मृति रहती है, उसके जीवन में अहंकार आ ही नहीं सकता। अपनी योग्यताओं पर गर्वित ना होकर गुरु की कृपा पर आश्रित रहे,उनकी कृपा की स्मृति सदैव बनी रहे। फिर आप अपने योग्यताओं पर अभिमान नही करेंगे, बल्कि गुरु की कृपा पर स्वाभिमानी बने रहेंगे।

गुरुजी! मोक्ष श्रेष्ठ है या भक्तात्मा बनकर अनेकानेक जन्मों तक गुरु की चरणों की सेवा श्रेष्ठ है।

गुरुदेव ने कहा, यह तो आप पर निर्भर करता है। यदि आप मोक्ष के अभिलाषी है तो आपके लिए मोक्ष श्रेष्ठ है, परन्तु यदि आपकी प्रीति गुरुदेव से है तो उनकी सेवा से बढ़कर आपके लिए और क्या हो सकता है?

मोक्ष प्राप्त कर लेना या गुरुसेवा का अवसर पाना दोनों में अंतर ऐसा है, जैसे कि चीनी बन जाना और चीनी के स्वाद का आनंद उठाना। मोक्ष अर्थात जन्म-मरण के आवागमन से मुक्ति! ईश्वर से मिलन! प्रभु के निराकार रूप से एकाकार होना यानी स्वयं ईश्वररूप हो जाना… और वही दिव्यता जब साकार रूप में गुरु बनकर इस धरती पर उतरती है, तो उनके सान्निध्य का, उनसे स्फुरित होती स्पंदनों का ,उनकी चरणों की सेवा का आनंद लेना चीनी की स्वाद का आनंद लेने जैसा है। अब आप स्वयं ही निर्णय लीजिए कि आप मोक्ष की उपाधि चाहते हैं या साकार का सान्निध्य चाहते हैं।