Yearly Archives: 2020

लेहज्जो की पूर्णता तक पहुंचने की यात्रा आपको उत्साहित कर देगी


लेहज्जो की पूर्णता तक पहुंचने की यात्रा आपको उत्साहित कर देगी …

गुरुभक्ति योग के अभ्यास से अमरत्व, सर्वोत्तम शांति और शाश्वत आनंद प्राप्त होता है।

गुरू प्रेम और करुणा की मूर्ति है। आपको अगर उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हो तो आपको भी प्रेम और करुणा की मूर्ति बनना चाहिए। धन्य है, विनम्र लोगों को धन्यवाद है, विनम्र लोगों को क्योंकि उन्हें तुरंत गुरुकृपा मिल जाती है। जिन्होंने गुरु की शरण ली है ऐसे पवित्र आत्माओं को धन्यवाद है, क्योंकि उनको परमसुख अवश्य प्राप्त होता है।

संत कबीर साहब कहते हैं कि,

*कर्ता करी न कर सके गुरु करे सो होय। गुरु समान दाता नहीं जाचक शिष्य समान । तीन लोक की संपदा सो गुरू दीन्हा दान।*

गुरु के जैसा देने वाला कोई नहीं है । गुरु का अर्थ ही है जो दिए चले जाएं । परंतु वह जो दे रहे हैं वह बड़ा सुक्ष्म है,अगर तुम शूद्र चीजों को मांगने गए हो तो वहां से खाली हाथ लौटोगे,अगर तुम विराट को मांगने गए हो तो भरपूर मिलेगा।

गुरु समान दाता नहीं, लेकिन उनका दान तभी संभव हो सकता है जब शिष्य भिखारी की तरह आए। तुम अगर अकड़े हुए आए तुम अगर ऐसे आए जैसे कि तुम कोई हकदार हो, कि मैंने इतनी साधना की है, इतने अनुष्ठान किए हैं और तुम्हें कुछ मिलना चाहिए, तो तुम चूक जाओगे।

याचक शिष्य समान और शिष्य तो ऐसा हो कि परम भिखारी। शिष्य तो ऐसा हो जैसे उसका हृदय सिर्फ भिक्षा का पात्र हो। परम याचक तो गुरु से मेल बनता है, क्योंकि परम दाता से परम याचक का ही मेल बन सकता है। गुरु उड़ेलते हो और तुम उल्टे घड़े की भांति हो तो सब व्यर्थ चला जाएगा। भिक्षुक का अर्थ है जिसका घड़ा सीधा हो।

चीन में एक ज्ञानी संत हुए लिहज्जो।

लिहज्जो के पास एक शिष्य आया और कुछ पूछा, जिज्ञासा प्रकट की।

लिहज्जो ने कहा, “समय आने पर जवाब देंगे। पूछते तो हो लेकिन लेने की हिम्मत है, दे तो दूंगा, दब तो ना जाओगे उसमें ? और तुम्हें पता भी है, तुम क्या मांगते हो?”

इतना सुनते ही शिष्य थोड़ा डर गया। वो साल भर चुप ही रहा लेकिन शिष्य ने देखा कि, गुरू तो इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं दे रहे। सोचा कि शायद इस व्यक्ति को कुछ पता ही नहीं। सालभर बाद गुरु को छोड़कर चला गया। दूसरे गुरू के पास पहुंचा और वहां जाकर कहा कि,

” मैं साल भर लिहज्जो के पास था, कुछ मिला नहीं और इसलिए यहां आया हूं। “

महात्मा ने कहा, “तू अभी यहां से चला जा ,क्योंकि तेरे पास पात्र ही नहीं है। जब लिहज्जो ना भर सके तो मैं तो गरीब आदमी हूं ,मैं तुझे क्या दूंगा लिहज्जो के पास से खाली हाथ लौट आया, पागल तो मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।”

ऐसी बातें सुनकर शिष्य फिर लिहज्जो के पास वापस लौटा। उसने कहा कि, “गुरुदेव बड़ी हैरानी की बात है अब मैं क्या करूं? एक दो जगह गया, उन्होंने कहा जब लिहज्जो के पास गए जब उस विराट सरोवर के पास से प्यासे लौट आए, तो हम तो छोटे डबरे है। हम तुम्हारे काम ना पड़ेंगे । इसलिए मैं वापस आया हूं।”

लिहज्जो ने कहा, “सुन जब मैं अपने गुरु के पास आया तो 3 साल तो मेरे गुरु ने मेरी तरफ देखा ही नहीं, तो और कुछ पूछने का सवाल ही न उठा। क्योंकि वह मेरे तरफ देखे ही नहीं वो सबकी तरफ देखें और मुझे छोड़ दे। और वो इस तरह छोड़ दें जैसे वह खाली जगह है। गुरु कृपा से गुरु का संकेत मैं समझ गया कि मुझे खाली जगह की भांति हो जाना चाहिए। इसलिए शायद गुरुदेव मुझे देखते ही नहीं।और यदि तुम होते तो तुम भाग गए होते, तुम्हारे अहंकार को चोट लगती कि मैं आया हूं और मुझे देखा नहीं जा रहा है। 3 साल जब मैं बैठा रहा और धीरे-धीरे राजी हो गया कि ठीक जो गुरुदेव की मर्जी तो एक दिन गुरु जी ने मेरी तरफ देखा, मानो आनंद की वर्षा हो गई , इतना पुलकित हो गया जैसे मैं कभी नहीं था। क्योंकि 3 साल चुपचाप बैठे रहना ऐसे जैसे हूं ही नहीं,वो देखे ही नहीं औरों से बातचीत करें ,पूछे परंतु मेरी तरफ देखे ही नहीं और एक-दो दिन की बात नहीं 3 साल का लंबा वक्त है। परंतु गुरुदेव की उस दृष्टि से मैं पर्याप्त हो गया मैं भर गया। फिर तो फिक्र ही नहीं फिर 3 साल और बीत गए पहले तो उनसे मुझे शून्य होने का संकेत मिला और जब उनकी दृष्टि मेरी तरफ पड़ी तो मैं समझ गया कि उनका इशारा क्या है कि मुझे देखने वाला दृष्टा हो जाना चाहिए। जैसे उन्होंने देखा ऐसे ही अब मैं अपने को देखूं, 3 साल मै अपने को देखता ही रहा।तब फिर एक दिन गुरूजी फिर एक दिन गुरुजी ने नजर मेरी तरफ की और पहली दफा गुरुदेव मुस्कुराए, धन्य मेरे भाग, अब मैं समझ गया उनका इशारा ।

पहले परम शून्य हो जाओ,

दूसरा इशारा दृष्टा हो जाओ, साक्षी हो जाओ,

और अब आनंदित हो जाओ।

यह संकेत मिलते ही मैं अकारण मुस्कुराने लगा और अकारण हंसने लगा और अकारण उत्सव मनाने लगा। अकारण प्रसन्न होने लगा।

समस्त जगत मेरे लिए आनंद स्वरूप हो गया, गुरुमय हो गया। लोग मुझे पागल समझने लगे। फिर गुरुदेव 3 साल बाद मेरे पास आए उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा उन्होंने कहा, “अब तेरी साधना पूरी हो गई। अब मुझ में और तुझ में कुछ भेद न रहा अब तू जा दूसरों को जगा, तुझे मिल गया अब औरो को दे।”

लिहज्जो ने कहा कि, “और एक तू है जो साल भर यहां बैठा तो जरूर रहा लेकिन क्षण भर को भी शांत ना हुआ , अपने गुरुदेव को निहार न सका और तेरे मन में वही प्रश्न गूंजता रहा कि कब उत्तर मिलेगा? जैसे उत्तर ज्यादा महत्वपूर्ण था और गुरु कम महत्वपूर्ण थे। तुम्हारे प्रश्न तुम्हें बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ते हैं ,क्यों ? क्योंकि अहंकार के कारण उत्तर चाहिए वो भी अहंकार की ही मांग है। अपने अहंकार को गुरू के स्वरूप में विलय कर दो गुरु के चरणों में विलय कर दो, फिर गुरु से कुछ पूछना ना पड़ेगा। कोई भ्रांति शेष न रह जाएगी, जैसे सूर्य के समक्ष प्रकाश के लिए पूछना नहीं पड़ता। सरोवर के समक्ष शीतलता के लिए… और जल के लिए पूछना नहीं पड़ता।

अदभुत थी श्री नारायण देवाचार्य जी की निर्भयता… पढि़ये सुंदर प्रसंग…


जीवन के परम तत्वरूपी वास्तविकता के संपर्क का रहस्य गुरुभक्ति है। गुरु का दास बनना माने ईश्वर का सेवक बनना। जिन्होंने प्रभु को निहारा है और जो योग्य शिष्य को प्रभु के दर्शन करवाते हैं, वे ही सच्चे गुरु हैं, सद्गुरू हैं। आलसी शिष्य को गुरुकृपा नहीं मिल सकती। राजसी स्वभाव के शिष्य को लोकसंग्रह करनेवाले गुरु के कार्य समझ में नहीं आते।

गुरु की कृपा तो सदा रहती हैं। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि शिष्य को गुरु के वचनों में श्रद्धा रखनी चाहिए और उनके आदेशों का पालन करना चाहिए। जिस शिष्य को गुरु के वचनों में श्रद्धा, विश्वास और सदभावना होती है, उसका कल्याण अतिशीघ्र होता है। महापुरुषों के अनुभव का यह वचन जिनके जीवन का अंग बनता है, वे ही गुरुभक्ति के रहस्य को समझकर गुरुतत्व अर्थात ब्रह्म का साक्षात्कार करने का अधिकारी बनते हैं। हमारे शास्त्र इस बात के साक्षी है।

ऐसे ही एक सतशिष्य हो गये श्री नारायण देवाचार्य! उनके अपने गुरु श्री हरिवंश देवाचार्य के प्रति अदभुत निष्ठा थी। गुरुआज्ञा का पालन करने में वे प्राणों तक की बाजी लगाने में संकोच नहीं करते थे। उनके गुरुदेव की आज्ञा थी कि सब प्राणियों में सर्वेश्वर प्रभु का अधिष्ठान जानो, सबसे प्रेम करना, भय किसीसे न करना।

एकबार वे कुछ लोगों के साथ परशुरामपुरी से पुष्करराज जा रहे थे। मार्ग में सिंह के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी। साथी भाग खड़े हुए, परन्तु नारायण देवाचार्य गुरुवाक्य में निष्ठा रखते थे। उन्हें गुरु का आदेश याद था कि सब प्राणियों में सर्वेश्वर प्रभु का अधिष्ठान जानो, सबसे प्रेम करना, भय किसीसे न करना। इसलिए सिंह में भी सच्चिदानंद स्वरूप अपने परमेश्वर, सर्वेश्वर के ही भाव में थे।

वे आगे चलते गये। सिंह के निकट पहुंचे तो देखा कि उसके पैर में तीर चुभा हुआ है। जिसके कारण वह चल नहीं पा रहा है। उन्होंने अपने हाथों से उसका तीर निकाल दिया। सिंह मंत्रमुग्ध सा देखता रहा। नारायण देवाचार्य ने उसके सिर पर हाथ फेरके पुचकारा। पात्र से जल लेकर उसके ऊपर छिड़का और श्री सर्वेश्वर -2 कहते आगे चल दिये।

मार्ग में कुछ शिकारी मिले। बोले महाराज! इधर तो एक सिंह अभी गया है। जिसे हमने तीर मारकर घायल कर दिया है। आप उससे कैसे बच निकले?

आचार्य ने कहा, वह सिंह अब साधु हो गया है। उसका तीर निकालकर मैंने पास के वृक्ष में घोप दिया है। शिकारियों को इसपर विश्वास नहीं हुआ।परन्तु आगे जाकर जब उन्होंने तीर को वृक्ष में लगा देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे लौटकर आये और आचार्य जी के चरणों में गिरकर क्षमा-प्रार्थना की तथा हिंसा वृत्ति त्याग देने का वचन भी दिया।

नारायण देवाचार्य की गुरुवचनों में अटूट निष्ठा और श्रद्धा-विश्वास ने उन्हें गुरुप्रसाद का अधिकारी बना दिया। उन्होंने गुरु की कृपा से आत्मप्रसाद तो पाया ही, साथ ही गुरु का बाह्य उत्तराधिकार भी पाया और आगे चलकर निम्बार्काचार्य पीठाधीश हुये।

आखिर क्यों किया भक्त नंदी ने हलाहल का पान। सुनिए सुना रहे हैं शिव जी…


जो कोई मनुष्य दुखों से पार होकर सुख एवं आनंद प्राप्त करना चाहता हो, उसे सच्चा अंतःकरण से गुरु भक्ति योग का अभ्यास करना चाहिए। गुरु के पवित्र चरणों के प्रति भक्ति भाव सर्वोत्तम गुण है, इस गुण को तत्परता एवं परिश्रम पूर्वक विकसित किया जाए तो, इस संसार के दुःख और अज्ञान के कीचड़ से मुक्त होकर, शिष्य अखुट आनंद और परमसुख के स्वर्ग को प्राप्त करता है।

कैलाश पर्वत की बर्फीली चोटी, एक पवित्र शिखर पर बाघ अंबर बिछा था, उस पर महादेव शंकर ध्यानस्थ थे।धीरे-धीरे यह ध्यान गहन समाधि में विलीन हो गया। इतने में मलंगी में झूमता हुआ महादेव का परम गण नंदी आया। नंदी ने विचार उठा, किसी उच्च लक्ष्य साधने हेतु मेरे प्रभु समाधि में स्थित है। मुझे भी सहयोग देना चाहिए। दिव्य तरंगों को सघन करना चाहिए। यही विचार कर नंदी ने महादेव शंकर के समक्ष धरा पर एक आसन बिछाया, फिर पद्मासन धारण कर तन को तान कर साधना में बैठ गया। साधना के प्रताप से उसके हृदय का सूक्ष्म तार महादेव की ब्रह्मा चेतना से जुड़ गया । एक तार निर्बाध और अटूट जुड़ाव था। कुछ समय बाद एक अनहोनी घटी। दुष्ट जालंधर जो महादेव से घोर शत्रुता रखता था, वह कैलाश में घुसपैठ कर कर गया। छल-बल से महादेव के भार्या देवी पार्वती का अपहरण करके ले गया। शिवलोक में हाहाकार मच गया। देवगण और शिवगण घोर चिंता से व्याकुल हो उठे। उन्होंने सामूहिक निर्णय लिया कि इस हरण वाली दुर्घटना की सूचना महादेव को दी जाए। परंतु कैसे महादेव तो घन समाधि में लीन थे। गणेश जी ने उन्हें उठाने के भरसक प्रयत्न किए, परंतु विफल ही रहे। भगवान की समाधि तो अतल गहराइयों को छू चुकी थी। ऐसे में क्या करें?

विवेक के देवता गणेश जी को युक्ति सूझी उन्होंने महादेव के परम गण नंदी को साधन बनाया। ध्यान में लीन नंदी के कान में सारी दुर्घटना कह दी। इधर नंदी के कान में सूचना गई, उधर भगवान के नेत्र तुरंत उन्मीलित हो खुल गए। महादेव समाधि से उठ गए। कैसा अद्भुत सूक्ष्म जुड़ाव था भक्त और भगवान का। बस तभी से यह ऐतिहासिक घटना एक आराधना पद्धति या प्रथा के रूप में ले गई। आज अनेक शिव मंदिर इस प्रकार निर्मित है, जिनमें महादेव की मूर्ति के ठीक सामने नंदी की प्रतिमा होती है। भक्तजन अपने मनोकामना नंदी के कान में कहते हैं। मान्यता है कि, यह कामना सीधा भगवान शिव तक संप्रेषित हो जाती है।

अब मन में जिज्ञासा उठती है, भला ऐसा कौन सा गुण है इस शिवगण नंदी में, जो भगवान ने स्वयं को समाधि से उठाने का श्रेय उसे दे दिया।

एक दिन यही जिज्ञासा माता पार्वती के हृदय में दस्तक देने लगी। पार्वती जी ने महादेव जी से पूछा कि, आपको नंदी इतना प्रिय क्यों है?

महादेव जी ने कहा क्योंकि, नंदी में सेवा और भक्ति का दोनों का समन्वय है। उसकी सेवा कर्मों में शौर्यता है, धार है, एक सतत वेग है। उसकी भक्ति आराधना में तप है, समर्पण है, निरंतर सुमिरन है इसलिए नंदी मुझे प्राणवत प्रिय है। प्रभु भक्ति भाव और समर्पण तो आपके सभी भक्तों और गणों में है फिर नंदी के भक्ति में ऐसा क्या विशेष है। जो आपके हृदय को गदगद कर दिया है।

देवी अनेक वर्षों पूर्व की बात है। अपने पिता ऋषि शीलाद के द्वारा, नंदी को यह पता चला कि वह अल्पायु है। समस्या है तो समाधान भी होगा। यही विचार कर नंदी भुवन नदी के किनारे साधना करने लगा। अटूट लगन और एकचित्तता थी उसकी सिमरन में। जब एक कोटी सुमिरन पूर्ण हुए तो मैं प्रकट होकर दर्शन देने को विवश हो गया। हे देवी! जानती हो, यह साधना सुमिरन में इतना निमग्न था कि मुझसे वर मांगना उसे ध्यान ही नहीं था। उसे साधना रत छोड़कर मैं फिर विलीन हो गया। ऐसे ही दो बार और हुआ। तृतीय बार जब मैं प्रकट हुआ तब मैंने ही अपना वरदहस्त उठा कर उसे वर प्राप्ति के लिए प्रेरित किया।

जानती हो देवी तब भी नंदी ने दीर्घायु का वर नहीं मांगा। अपने अखंड साधना का ही फल चाहा। उसकी चाहत ही केवल मेरा सान्निध्य है। महादेव मुझे अपने अलौकिक संगति का वर दो।अपना प्रेम में सानिध्य और स्वामित्व दो, मैं तो दास भाव से आपके संग सदा रहना चाहता हूं | मेरा हृदय अन्य कोई अपेक्षा नहीं रखता। सरल हृदय से नंदी ने यह भोले भाले वचन कहें।मेरा हृदय द्रवित हो उठा, मैंने प्रसन्न होकर उसे अपना अविनाशी वाहन और परम गण घोषित कर दिया।

मां पार्वती कहती है कि, किंतु वाहन ही क्यों कोई अन्य भूमिका क्यों नहीं? देवी वाहन का समर्पण अद्वितीय होता है। नंदी का मन इतना समर्पित है कि मैं सदा उस पर आरूढ़ रहता हूं। अर्थात उसके मन पर आरूढ़ रहता हूं, उसकी अपनी कोई इच्छा, कोई मति, कोई आकांक्षा नहीं। नंदी मेरी इच्छा, मेरी आज्ञा, मेरी आदर्शों का वाहक बन गया है इसलिए वह मेरा वाहन है।

ऊपरी लिखित संवाद बड़ा ही गहरा सूत्र हमें दे रहा है। बहुत से साधक को प्रश्न होता है, मन में समर्पण कैसे आता है? स्वयं भगवान शिव जी समझा रहे हैं, साधना और समर्पण का अटूट नाता है, जितनी साधना और सुमिरन होगा उतना ही मन अपनी ठोसता छोड़ता चला जाएगा। लचीला अर्थात समर्पित होता जाएगा। शिष्य के ऐसे ही समर्पित मन पर सतगुरु की आज्ञा आरूढ़ होती है। ऐसा ही शिष्य अपने सद्गुरु का वाहन बन पाता है। अर्थात उनकी आज्ञा का वाहन, उनकी छांव का वाहन, उनकी सिद्धांतों का वाहन बन जाता है।

माता पार्वती कहती है कि सत्य है प्रभु नंदी की भक्ति, साधना और समर्पण तो अनुपम है। अब उसकी शौर्य और कर्म की भी तो विशेषता बताइए। मैं जानने को उत्सुक हूं।

महादेव जी कहते हैं, तुम्हें स्मरण है देवी! समुद्र मंथन कि वह असाधारण बेला,समुद्र को मथते-मथते निकला हलाहल विष संसार के प्राण के लिए हमें उसका पान करना पड़ा परंतु विषपान करते हुए विष की कुछ बूंदे धरा पर गिर गई। इन बूंदों के कुप्रभाव से पृथ्वी त्राहि-त्राहि करने लगी। तभी मेरे नंदी ने अपने जिह्वा से उन विष बिंदुओं को चाट लिया। यह ना सोचा कि मेरा क्या होगा?

देवों ने व्यग्र होकर कारण पूछा। नंदी तुमने ऐसा क्यों किया?

नंदी ने कहा मेरे स्वामी ने प्याला भर विषपान किया। क्या मैं सेवक होकर कुछ बूंदे सेवा में ग्रहण नहीं कर सकता क्या? जगत के त्राण और कल्याण में क्या इतना भी सहयोग नहीं दे सकता। सो ऐसा है नंदी का कर्म, शौर्य, नंदी की अतुलनीय सेवा निष्ठा, सच्चे सेवक, शिष्य के यही लक्षण होते हैं कि गुरु के देवी कार्य में वह संघर्षों का विष पीता है। गुरु के मान के लिए विरोधी परिस्थितियों के हलाहल को पीने से भी नहीं चूकता।अपने स्वामी अपने गुरुदेव के लक्ष्य को पूर्ण करने में पूरा पूरा सहयोग देता है। हम भी नंदी जैसे परम शिष्य बने, कर्म और भक्ति की, सेवा और साधना की मिसाल बने।