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शिष्य के भाव को जान समर्थ गुरु वही प्रकट हुए फिर क्या हुआ?……


जैसे पानी को दूध में डाला जाय तो वह दूध में मिल जाता है और अपना व्यक्तित्व गवा देता है वैसे ही सच्चे शिष्य को चाहिए कि वह अपने आपको सम्पूर्णतः गुरु को सौंप दे उनके साथ एक रूप हो जाये। जैसे छोटे-छोटे झरने एवं नदिया महान पवित्र नदी गंगा से मिल जाने के कारण खुद भी पवित्र होकर पूजे जाते है और अंतिम लक्ष्य समुद्र को प्राप्त होते है उसी प्रकार सच्चा शिष्य गुरु के पवित्र चरणों का आश्रय लेकर गुरु के साथ एकरूप बनकर शाश्वत सुख को प्राप्त होता है।

मनीषीजन कहते है कि- सद्गुरु दया के दरिया होते है परन्तु सद्गुरु के दया के लिए यह विशेषण भी छोटा लगता है क्योंकि दरिया भी सीमित है उसकी भी एक सीमा है वह भी कही न कही जाकर दायरों में बंध ही जाता है परन्तु गुरुदेव की दया सागर से भी अनंत-अनंत गुना विशाल होती है, उनकी दया असीम है जिसकी कोई सीमा नही। कहते है कि अनंत माताओं का हॄदय मिलाकर एक हुआ होगा तब कहि जाकर सद्गुरु का हॄदय बना होगा और ऐसे सद्गुरु से पूछा जाए कि आप क्या चाहते है?? तो मानो सद्गुरु यही कहेगे कि हे मेरे प्यारो! मुझे तुम्हारा मन चाहिए ताकि जिससे मैं तुम्हे मन हीन अवस्था तक पहुंचा सकू। मुझे तुम्हारे मन मंदिर में स्मरण की खुशबू चाहिए, हे मेरे प्यारो! मुझे तुम्हारे मन मे बैठने के लिए भावना का आसन चाहिए।

अष्टावक्र जी ने राजा जनक को ज्ञान प्रदान करने के उपरांत कहा कि- हे राजन! मुझे तुम्हारा मन चाहिए क्योंकि तेरा मन ही समस्त समस्याओं का मूल है फिर उसके बाद उसे ब्रम्हज्ञान की दीक्षा प्रदान की। कहते है कि सौदागर है जो विषयो का, माया का जो व्यापारी है जिसके मन को, चित्त को केवल धन दौलत ही प्यारी है उस हॄदय की तंग गलियों में प्रभु सत्ता समा सकती नही और मन अर्पित किए बिना गुरु कृपा पाई जा सकती नही।

नरेंद्र की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि उन्होंने अपने गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस जी को अपनी यादों की पटल पर पूरा का पूरा उकेर लिया था। मठ से जब घर जाते तो ठाकुर की इतनी याद आती कि फिर दौड़े-दौड़े मठ को चले आते। भरे बाजारों से गुजरते तो मन ही मन ठाकुर से बाते किया चलते, किताबे तो पढ़ते तर्को और विद्वता से पूर्ण परन्तु तब भी मन मे वही अपने गुरुदेव का स्मरण ही चलता। धुरंधर विद्वानों से शास्त्रार्थ करते तब भी ऐसा कभी नही हुआ कि उनके मुख पर उन विद्वानों के समक्ष उनके गुरुदेव का नाम न आया हो। गुरु की ऐसी अलौकिक रौशनी को हर शिष्य शायद हासिल नही कर पाता गुरु की पावन आकृति में जो प्रेरणा छिपी है उस तक हर साधक नही पहुंच पाता, गुरु की प्रेम वर्षा में शायद हर कोई अपने को भिगो नही पाता परन्तु जब साधक भावो की अंजली लेकर गुरु को अर्पित करता है तब सद्गुरु उसके हॄदय में दृढ़ता से प्रतिष्ठित होते जाते है तब कुदरत की जड़ता चैतन्यता में बदल जाती है। धरती आकाश, चन्द्रमा,सूर्य वनस्पति,मिट्टी का कण-कण और प्रकृति का रोम- रोम भी उन लम्हो का साक्षी बनकर धन्य धन्य हो जाता है जैसे जिस समय एक सच्चा प्यासा पानी की तलाश में निकलता है, पानी के सिवाय किसी और विकल्प को स्वीकार नही करता तो ऐसे प्यासो के लिए मानो नदी में भी ऊंची-ऊंची लहरे उठती है, उफान आ जाता है वह जल राशि भी उस संतप्त हॄदय की प्यास से व्याकुल जीव की प्यास को शांत करने के लिए व्याकुल हो जाती है ऐसे ही जब साधक व्याकुल हो तड़पकर अपने सद्गुरु देव को पुकारता है तो मानो हॄदय में प्रतिष्ठित सद्गुरु रूपी सागर ही साधक के आंखों से खारा आंसू बनकर बहते है परन्तु ये याद के आंसू साधक के जीवन मे मिठास भरती जाती है।

नरेंद्र को एकबार किसी विद्यालय में पहुंचना था रास्ता बहुत लंबा था और पैदल ही जाना था साथ मे उनके दो मित्र भी थे यही सोचकर नरेंद्र विकल हो गए इसलिए नही की दूरी बहुत है अपितु इसलिए कि साथ में दो बतंगड़ मित्र भी थे, साथ होंगे तो इधर-उधर की बाते भी होंगी फिर केन्द्रबीन्दु ठाकुर मेरे गुरुदेव मेरी यादों से छूट जाएंगे। ठाकुर की याद का रस पिये बिना दो पल भी गुजारना नरेंद्र को गवारा न था इसलिए उन्होंने कहा कि- मित्रो आपलोग इस रास्ते से चलो मैं उस रास्ते से विद्यालय पर पहुंचता हु।

मित्रो ने कहा- क्यों नरेंद्र वह तो और भी लम्बा रास्ता है?

नरेंद्र ने कहा-मैं जानता हूं लेकिन मुझे उस रास्ते पर किसीसे मिलना है वहा मेरी कोई राह देख रहा होगा।

नरेंद्र अपने अलग रास्ते पर डग भरने लगे जितनी गति से कदम उठा रहे थे उससे ज्यादा गति से उसका मन ठाकुर की ओर उनकी गुरुदेव की ओर बढ़े जा रहा था। भावो की भाषा मे कहा जाय तो गुरुवर से बातचित का सिलसिला शुरू हो चुका था। कुछ दूर आगे जाते ही नरेंद्र ने देखा कि सुनसान मोड़ पर ठाकुर खड़े है नरेंद्र जैसे ही उनके करीब आया ठाकुर ने उन्हें अपने गले से लगाया अपने दर्शन देकर कृतार्थ किया और फिर अदृश्य हो गए।

हम सोचे कि हम न जाने अपना मन किन-किन चिंताओं और मान्यताओं से भरा रखते है। रिश्तों की चिंताएं, रिश्तों की मान्यताएं, कर्मो की चिंताएं, कर्मो की मान्यताएं। यदि सद्गुरु का चिंतन सुमिरण होगा तो यह चिंता और मान्यताएं नही रह पाएगी इसलिए सद्गुरु के प्रति भावना ही सबसे बड़ी उपासना है और सबसे बड़ी साधना है। *सद्गुरु की याद है तो हमारी साधकता भी आबाद है।* सद्गुरु की यादों की कैसी महिमा है कि सद्गुरु की याद है तो हर स्वांस ध्यान और सुमिरन बन जाता है, सद्गुरु की याद है तो मन का हर विचार सत्संग बन जाता है। सद्गुरु की याद है तो हर कर्म सेवा का रूप ले लेती है। सद्गुरु की याद है तो उनका श्रीमुख आंखों के सामने से कभी ओझल नही होता मानो सद्गुरु का अखण्ड दर्शन होता है। इसीको भगवान शिव जी कहते है कि-

यस्य श्रवण मात्रेण

ज्ञान उत्पत्ये स्वयं यस्य

मनसः स्यात प्रसन्नतः।

इसलिए सद्गुरु का स्मरण ही साधना के समर में सबसे बड़ा शस्त्र है। इतिहास के विजयवीर शिष्यो ने हमेशा इसी अस्त्र का सहारा लिया था। इसलिए हे गुरु प्रेमियों! बांधो अपने मन को गुरुवर की यादों के बंधन में, उनकी सुमिरन की डोर में हर स्वांस को गूथ लो तब मुक्ति ही मुक्ति है। जब हम एक कदम एक कोष चलते है तो हमारा मन 100 कोष दौड़ता है। साधना के पथ पर एक कदम और संसार की तरफ मन का 100 कोष दौड़ना। मन की रफ्तार तेज है, क्यों नही हम अपने सद्गुरु की यादों की जहाज पर बैठकर उनके स्मरण की जहाज पर बैठकर मन के इस रफ्तार का लाभ उठा ले और उन्ही की यादों से अपने को धन्य बना ले।

गुरुवर तुमसे यह अर्ज है,

कुछ ऐसा मेरा प्यार हो।

हर पल तेरी याद हो,

हर पल तेरा दीदार हो।

तेरे ध्यान में मन सदा रहे,

रग-रग में तू बसा रहे।

अनुराग का वो नशा रहे,

दिन रात का न खुमार हो।

निकले प्राण तन से जो ऊबकर,

एहसान ये मुझ पर खून करना।

तेरे प्रेम सिंधु में डूबकर,

नय्या मेरी पर हो,

नय्या मेरी पर हो…….

पूज्य बापूजी व वन में रहने वाले साधु का एक रोचक प्रसंग….


साधक अगर श्रद्धा एवं भक्तिभाव से अपने गुरु की सेवा नही करेगा तो उसके तमाम व्रत,तप आदिक कच्चे घड़े में से पानी की तरह टपक कर बह जाएंगे। मन एवं इंद्रियों का संयम गुरु भगवान का ध्यान, गुरु की सेवा में धैर्य, सहनशक्ति, आचार्य के प्रति भक्तिभाव, संतोष, दया, स्वच्छता, सत्यवादिता, सरलता, गुरु की आज्ञा का पालन ये सब अच्छे शिष्य के लक्षण है। सत्य के साधक को मन एवं इंद्रियों पर संयम रखकर अपने आचार्य के घर रहना चाहिए और खूब श्रद्धा एवं आदरपूर्वक गुरु की निगरानी में शास्त्रो का अभ्यास करना चाहिए उसे चुस्तता से ब्रम्हचर्य का पालन करना चाहिए और आचार्य की पूजा करनी चाहिए। शिष्य को चाहिए कि वह आचार्य को साक्षात ईश्वर के रूप में माने मनुष्य के रूप में कदापि नही।

पूज्य बापूजी के प्रेरक जीवन प्रसंग, श्री रामु रावत द्वारा बताए गए प्रसंग ब्रम्हज्ञानी सद्गुरु का हॄदय कितना करुणावान होता है इसका वर्णन शब्दो मे करना सम्भव नही, लाखो करोड़ो माताओं के करुणा को मिला दो तब भी उससे सद्गुरु की करुणा की तुलना नही हो सकती।

2010 की घटना है हरिद्वार आश्रम के पास गंगा की जो धाराएं बहती है उनमें से एक धारा पार करके जंगल मे पूज्य बापूजी के लिए एक अस्थाई कुटिया बनाई थी। एकदिन शाम के 4 – 5 बजे बापूजी नाव से उस पार गए और कुटिया में जाकर ध्यानस्त हो गए सूर्यास्त हो गया।

रामु रावत कहते हैं कि मैं नाव के पास इंतज़ार कर रहा था। रात के 10 -11 बजे बापूजी ध्यान से उठे, आये।  मैने बापूजी को आते हुए देखा तो नाव को पकड़ने के लिए मैं पानी मे घुसने लगा तो बापूजी दूर से बोले ए ! रुक जा पानी मे नहीं घुसना । फिर पास आकर बोले- मुझे तो याद ही नही था कि मैं जंगल मे बैठा हूँ और यह भी ध्यान नही रहा कि नाव चलाने के लिए तू यहां बैठा है। रात हो गई है पैर गीले करना ठीक नही है, ऐसा कर तू भी बैठ जा।

बापूजी ने नाव में मुझे भी बिठा दिया, सेवक को भी बिठा दिया और पूज्य श्री स्वयं पतवार चलाने लगे, थोड़ा आगे जाकर नाव कीचड़ में फंस गई, बापूजी उसे निकालने का प्रयास कर रहे थे परन्तु नाव निकल ही नही रही थी तो मैं पानी मे कूद गया। बापूजी बोले- तेरे को मना किया था न।

मैंने कहा- जी! बापूजी का समय खराब हो रहा था।

-हां बात तो सही है परन्तु अब कैसे करेगा? बापूजी एकदम शांत हो गए मेरे पैर भीग रहे थे तो पूज्य श्री के हॄदय पसीज गया। मैने आजतक अपने जीवन मे बापूजी को इतना करुणाभाव में नही देखा था।

बापूजी बोले- तू एक काम करना, पानी मे भीगा है तो आश्रम में जाकर पहले मालिश करना फिर सोना, रात को पैर गीले करने से बुढापे में परेशानी होती है। मैं नाव खींचकर उस पार ले गया, बापूजी उतरे और आश्रम पहुंचने तक 2 – 3 बार मेरे से बोले मालिश करके ही सोना। कैसा करुणामय हॄदय है पूज्य बापूजी का… ।

हरिद्वार आश्रम गंगा नदी के पास है 2010 का ही प्रसंग है । बापूजी नदी के उस पार घूमने गए एक साधु मिले, वे बापूजी को बोले- महाराज जी ! मैं आपका सात दिन से इंतजार कर रहा हूँ।

बापूजी बोले- साधना कौन सी करते हो और खाते क्या हो?

-मैं चने लेकर आया हूँ रात को चने भिगोता हूँ सुबह खाता हूं और पेड़ पर जो कुटिया है उसमें बैठ के तपस्या जप करता हूँ।

साधु की तपस्या देखकर बापूजी प्रसन्न हुए जब पूज्य बापूजी नाव में बैठे तो मुझे बोले अरे वह साधु सात दिन से चने खा रहा है। सुबह उसको प्रसाद दे आना। अब मैंने सोचा बापूजी के जिसको दर्शन हुए वह आदमी चने क्यों खाये?

मैंने रात को ही किशमिश, मूंगफली, पेठा आदिक प्रसाद लिया और बापूजी से पूछा बापूजी यह प्रसाद साधु को देने जाऊँ।

बापूजी बोले- अच्छा प्रसाद कितना है मुझे दिखा, प्रसाद देखकर बोले उसको बोलना कि एकसाथ नही खाये थोड़ा-थोड़ा और चबा चबाकर खाये। मैं गया तो वे साधु दो पत्थरो को मंजीरो की तरह बजाकर कीर्तन कर रहे थे। मैंने कहा- बापूजी ने प्रसाद भिजवाया है।

-बापूजी ने मेरे लिए भिजवाया है कहते हुए वे साधु प्रेमातिरेग से गद-गद हो गए।

दो-तीन दिन बाद बापूजी शाम को घूमकर जैसे ही नाव से उतरे, बोले – वह जो साधु उस पार रहता है उसको बोलो आज रात को वह उधर न रहे इस पार आ जाये।

नाव लेकर उन साधु के पास हम गये ।

 महराज जी ! आज आप यहां नही बैठिये, आज रात को इधर रहने के लिए बापूजी ने मना किया है।

साधु की बापूजी के प्रति बड़ी श्रद्धा थी वे तैयार हो गए हम उन्हें नाव में बिठाकर इस पार ले आये फिर वे रात को आश्रम में ही रुके।

सुबह हम लोग गंगा नदी के उस पार गए तो देखा कि वहां रात को हाथी आया था उसके पैरों के निशान दिखे और उसने महाराज का सारा सामान तहस-नहस कर दिया था, मटके तोड़ दिए, कनस्तर को तवे की तरह चपटा कर दिया था। मेरा तो हॄदय भर आया कि ब्रम्हज्ञानी महापुरुष की हर एक लीला एवं उनके वचनों में जीवमात्र की कितनी भलाई व गूढ़ रहस्य छिपा होता है, जो उनके वचनों को मानकर चल पड़ता है उसका कल्याण हो जाता है।

पकवान के नहीं प्रेम के भूखे होते हैं भगवान


गुरूभक्तियोग के मूल सिद्धान्त

गुरू में अखण्ड श्रद्धा गुरूभक्तियोग रूपी वृक्ष का मूल है।

उत्तरोत्तर वर्धमान भक्तिभावना, नम्रता, आज्ञा-पालन आदि इस वृक्ष की शाखाएँ हैं। सेवा फूल है। गुरू को आत्मसमर्पण करना अमर फल है।

अगर आपको गुरू के जीवनदायक चरणों में दृढ़ श्रद्धा एवं भक्तिभाव हो तो आपको गुरूभक्तियोग के अभ्यास में सफलता अवश्य मिलेगी।

सच्चे हृदयपूर्वक गुरू की शरण में जाना ही गुरूभक्तियोग का सार है।

करसन चौधरी, जो गुजरात सरकार में मंत्री थे, उनके गाँव मे बापूजी सत्संग के लिए कई बार जाते थे।

एक बार वहाँ गए तो जंगल घूमने गए।

वहाँ एक वृद्ध माता जी थी, उनका बापू जी के प्रति बहुत प्रेम था। परंतु वह बहुत गरीब थी और झोपड़ी में रहती थी।

वे बापू जी के पास नही आ सकी तो बापू जी स्वयं उनकी झोंपड़ी में पहुँच गए।

वे माताजी तो पूज्यश्री को देखते ही चहक उठी और “बापू!…बापू!…” करते हुए भावविभोर हो गयी।

बापू जी ने कहा: ” माताजी! मुझे खाने को दो।”

माता जी ने बाजरे की मोटी -मोटी रोटी और ग्वारफली की सब्जी बनाई थी।

जैसे शबरी ने राम जी को बड़े प्रेम से झूठे बेर खिलाये थे उसी प्रकार बड़े प्रेम व प्रसन्नता से उन्होंने बापू जी को बाजरे की रोटी और ग्वारफली की सब्जी दी।

बापू जी को बोरे का आसन दिया, उनकी झोंपड़ी में और कुछ तो था नही।

उनका प्रेम शबरी जैसा था।

बाजरे की रोटी और ग्वारफली की सब्जी खाकर बापू जी ने कहा: ” आज भोजन में बड़ा आनन्द आया खाने को इतना अच्छा मिला।”

माता जी के आंखों में प्रेमाश्रुओं की धार बहने लगी, वे गदगद हो गई।

बाद में करसन भाई चौधरी बापूजी के आगे रोने लगे।

बापू जी ने पूछा:” ऐसा क्यो करते हो?”

“बापू जी! हम आपके लिए घर से कितने टिफिन लाते है मगर आप कभी नही खाते और उन माता जी का आपने खाया तो हमारे प्यार में कुछ कमी होगी इसलिए हमारा कभी नही लिया।”

“हम तो सभी जीवों का कल्याण चाहते है।

वे तो माताजी थी, दूसरे किसी जीव का भी कल्याण होने वाला हो तो वह हो जाता है,

मैं कुछ नही करता।”