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सात्विक श्रद्धा में ज्ञान टिकता है!


बड़े-बड़े महलों में रहने से आदमी बड़ा नहीं होता, बड़े भाषण करने से आदमी बड़ा नहीं होता अथवा आकाश में हेलीकॉप्टरों में, हवाई जहाजों में उड़ने से आदमी बड़ा नहीं होता, बड़े विचारों से आदमी बड़ा होता है। छोटे विचारों से आदमी छोटा होता है। ब्रह्म के विचार करो “मैं कौन हूँ? यह शरीर आखिर कब तक रहेगा? ये संबंध कब तक रहेंगे? मैं नित्य हूँ, ये अनित्य है। मैं एकरस हूँ, ये अवस्थाएँ बदलने वाली है। मन भी बदलता है, बुद्धि के निर्णय भी बदलते है, मैं अ-बदल हूँ, वह कौन हूँ? सत्संग में सुना है कि अ-बदल तो आत्मा है, तो मैं वही हूँ, ये बड़े विचार है। तो फिर अ-बदल में टिकने का अभ्यास करो, महान बन जाओगे! ऐसे महान, ज्ञानवान, अलग-अलग प्रारब्ध है, अलग-अलग अपनी मौज है। कई ऐसे ज्ञानवान है जो कंदराओं में बैठे है, समाधि कर लिया, स्वरूप को जानकर उसमें विश्रांति…। कई ऐसे है कि लीला करते है, उपदेश करते है। कई ऐसे है विनोद करके जीवन बिताते है, कई पागलों का वेश धरकर बैठे है। कई ऐसे ज्ञानवान है जो नित्य-नियम, जप-तप, कर्म करते है वैसे व्यवस्थित ताकि दूसरे लोग भी उधर की तरफ मुड़ जाएँ, कईयों का ऐसा स्वभाव होता है। कई ज्ञानवान अपने-अपने ढंग से बोध होने के बाद शेष जीवनयापन करते है लेकिन स्वरूप में जग गये, एक बार परमात्मा का दर्शन हो गया, ज्ञान हो गया फिर सारी प्रकृति, सारी परिस्थितियाँ उनके लिए खिलवाड़-मात्र हो जाती है, विनोद-मात्र हो जाती है।


आश्चर्यो त्रि‍भुवनजयी… श्रुति कहती है वो आश्चर्यकारक है। बाले बालवतां यूवे युवा… बच्चों में बच्चों जैसा, युवानों में युवाओं जैसा, गरीबों के साथ गरीबों जैसा, अमीरों के साथ अमीरों जैसा लेकिन अंदर से समझता है कि सब खेल है। अभ्यास करते है तो आत्मज्ञान होना कोई कठिन नहीं है। अभ्यास के बल से ही तो मैं ‘ब्राह्मण’ हूँ, मैं ‘वैश्य’ हूँ, मैं ‘क्षत्रिय’ हूँ, मैं ‘जीव’ हूँ, मैं ‘फलाने का बेटा’ हूँ, मैं ‘फलाना भाई’ हूँ… ये सुन-सुन के तो माना है।  म्‍हारो नाम मंगुबा, म्‍हारो नाम अमथालाल…म्‍हारो नाम मफतलाल… अब मफतलाल क्‍या.. बचपन में पड़ा नाम मफतलाल सुन-सुन के पक्का हो गया। सौ आदमी सो रहे है, “ऐ मफतलाल!”  हाश… ये भी तो अभ्यास से ही पड़ा है, जो भी नाम पड़ा है, जो भी जिसका… ऐसे ही अपने आत्मा में जगने का अभ्यास करो तो वही नाम… ॐ ॐ ॐ ॐ


दुराचार, अश्रद्धा या फाँका(अहंकार) ऐसा दुर्गुण है कि उसमें सब योग्यता नाश हो जाती है। अहंकार जो है.. फाँका…ऐसा दुष्ट है कि उसमें सब सदगुण नाश हो जाते है और श्रद्धा ऐसा सदगुण है कि उसमें सब दुर्गुण बह जाते है। श्रद्धा भी तीन प्रकार की होती है। सात्विक, राजसी, और तामसी। सात्विक श्रद्धा एक बार हो गई, नहीं डिगेगी, उसमें ज्ञान बढ़ जाएगा। जो वचन सुनते ही गुरु के, जिसमे श्रद्धा है, श्रद्धेय के वचन सुनके… समझो मेरी मेरे गुरूदेव में श्रद्धा है , सात्विक श्रद्धा है तो उनके वचन सुनूँगा… बस! मैं अपने जीवन को ऐसे ढाल दूँगा; ये सात्विक श्रद्धा ज्ञान पैदा कर देती है। सात्विक श्रद्धा जिसमें करेंगे उसके सब गुण अपने में आ जाएँगे। भगवान विष्णु में श्रद्धा है, भगवान विष्णु का जो सामर्थ्य है, जो अंतर्यामीपना है वो अपने में आ जाएगा। भगवान विष्णु को अपने स्वरूप का बोध है, अपने को भी होने लगेगा, ऐसा गुरू मिल जाएगा। सात्विक श्रद्धा जो है एक बार हो गई तो हो गई! ज्ञान कराके छोड़ेगी। सात्विक श्रद्धा चाहे हजार मुसीबत आ जाए, हजार प्रतिकूलता आ जाए, श्रद्धेय व्यक्ति का बाह्य आचरण नहीं देखती। श्रद्धेय व्यक्ति के आदेश को… सात्विक श्रद्धा ऐसी है कि जिसमें हम श्रद्धा करते है उसके दोष नहीं दिखेंगे, उनका ज्ञान हमको हजम होगा, उनके प्रति फरियाद नहीं होगी। मेरी सात्विक श्रद्धा है जिसमें तो उसके प्रति मेरे दिल में फरियाद नहीं होगी, जैसे सुदामा… सात्विक श्रद्धा थी। कृष्ण ने दुशाला छीन लिया, नँगे पैर रवाना कर दिया, खाने को कुछ था नहीं, माँगने को आया, एक कौड़ी भी नहीं दी श्रीकृष्ण ने, जो दुशाला दिया था वह भी वापस ले लिया तब भी सुदामा कहता है कि आहा भगवान कितने दयालू हैं! साथ में पढ़े थे, मेरे मित्र है, मेरे मित्र कितने दयालू है प्रभु! मैंने माँगा धन, संपत्ति ,रोजी-रोटी लेकिन कहीं रोजी-रोटी के मोह में फँस न जाऊँ इसलिए  मेरेको कुछ नहीं दिया! कितनी दया किया! बड़े अच्छे है! ये सात्विक श्रद्धा है। …और जब घर पहुँचते है तो सुशीला सज-धजकर महारानी जैसी होकर आ रही है दासियों के साथ। पूछते है कि तू कैसे बदल गई एकदम? झोपड़ी के जगह पर महल! सुशीला ने कहा तुमने वहाँ प्रार्थना की और भगवान ने यहां ऋद्धि-सिद्धियों की सब लीला करके अमीरी में बदल दी! बोले- प्रभू कितने दयालू है.. मेरा भक्त रोजी-रोटी की चिंता में कहीं भजन न भूल जाए इसलिए ऐसा कर दिया। सब छीन लिया तभी भी वाह वाह..सात्विक श्रद्धा ऐसी है! वो अपने ज्ञान का उपयोग करके सही अर्थ लगा देगी! राजसी श्रद्धा.. जबतक आपके अनुकूल चला थोड़ा- बहुत ठीक चला थोड़ा पुचकार ये वो तो राजसी श्रद्धा टिकेगी नहीं। जहाँ थोडा-सा उन्‍नीस-बीस हुआ कि.. मेरा क्या दोष है !!…ऐसे हिलेगी। तामसी श्रद्धा जो है वो तो थोडा-सा उन्‍नीस-बीस हुआ ,विपरीत हो जाएगा ! दुश्मन बन जाएगा श्रद्धेय का! कई लोग ऐसे होते है तामसी प्रकृति के कि भगवान शिव की पूजा करेंगे, देखेंगे कि इच्छा पूरी नहीं हुई , शिवजी का फ़ोटो- वोटो फेंक देंगे।कई लोग देवी-देवताओं के फोटो रखते है, पूजते है, फिर अपनी इच्छा के अनुसार उनका नहीं हुआ तो वो देव को छोड़ के दूसरे देव को, दूसरे देव को छोड़ के तीसरे देव को ..और सात्विक श्रद्धा है तो बस! लग गया तो लग गया! और उसको गुरू के वचन भी ऐसे लगेंगे जैसे शुद्ध वस्त्र को केसर का रंग चढ़ता है। सात्विक श्रद्धा ऐसी चीज है! अगर सात्विक श्रद्धा है तो स्वाभाविक होगा, और स्वाभाविक नहीं होता है तो फिर ऐसा करने से सात्विक श्रद्धा हो जाएगी। ज्ञान का साधन है कि पुण्य क्रिया करें, दूसरों को सुख पहुँचाएँ.. जैसे अपने शरीर को दुःख के समय दुःख होता है ऐसे ही दूसरों को दुःख न दे। जप, व्रत, नियम, शास्त्र-पठन, सत्पुरुषों का सानिध्य, उनके वचनों में विश्वास… ऐसा सब करने से सात्विक श्रद्धा होने लगती है। ये ब्रह्मविद्या का साधन है आत्मज्ञान पाने का। जो आत्मज्ञान पा लिया उसके आगे तैंतीस करोड़ देवताओं का पद कुछ नहीं! जिसने आत्मज्ञान पा लिया उसके आगे इंद्र का राज्य कुछ नहीं! जिसने आत्मज्ञान पा लिया उसके आगे योग समाधि से हजार वर्ष के बनकर कोई बैठे है वो भी कुछ नहीं! आत्मज्ञान एक ऐसी चीज है! हजारों वर्ष की समाधि करके बड़े योगी बैठे है लेकिन आत्मज्ञान नहीं है तो कुछ नहीं! एक दिन वो  फिर नीचे आ जाएँगे! आत्मज्ञान हो गया, बेड़ा पार! तो ये आत्मज्ञान का साधन है… संतों की संगति, सत्शास्त्रों का विचार। कभी कभी लोग धैर्य छोड़ बैठते है।ईश्वर के रास्ते जो आदमी चलता है न …धैर्य न छोडे तो पहुँच जावे, धैर्य छोड़ देते है…कि किसको साक्षात्कार हुआ? इसको तो नहीं हुआ! इसको तो भी नहीं हुआ इसको भी नहीं हुआ! लेकिन …जन्म-जन्म मुनि जतन करहि…जन्म-जन्म तक मुनि जतन करते थे ऐसे लोग आत्मज्ञान पाकर धन्य धन्य हो जाते थे ! अपने को 4 दिन में, 2 साल में, 1 साल में …इतना प्रयत्न नहीं तीव्र क्योंकि  अभीतक कुछ नहीं हुआ! अभी तक कुछ नहीं हुआ! तो कई लोग ऐसे होते है! अच्छा खाओ, पीओ, मौज करो!


तो गुठली डालके, मिट्टी डालके,पानी पिलाके छोड़ देना चाहिए, कुछ समय जम जाए! अब गुठली डालना क्या है? कि ब्रह्मज्ञान का सत्संग महापुरुषों से सुनकर हृदय में रख देना चाहिए। सत्संग सुनके बंदर जैसा गुठली रखके मिट्टी डाला और फिर निकाले तुरंत! गुठली डालके छोड़ देना चाहिए। ऐसे ही संस्कार डालके उसको रख देना चाहिए संस्कार…संस्कार फिर खुले नहीं , जो सुना है ज्ञान का संस्कार उसको जमाना चाहिए। फिर उसको पानी पिलाना चाहिए.. नित्य सत्संग करते रहना ये पानी पिलाना है। सत्संग, सेवा, परोपकार ये उसको पानी पिलाना है !  गुठली में से छोड होता है लेकिन जानवर खा जाए तो? आम नहीं मिलेगा । उसकी रक्षा करना ..रक्षा करना क्या है कि गधा खा न जावे, बकरी उसको चर न जावे, भैंस उसको लपका न मार दे, ऊँट उसको पैर से कुचल न दे ..इसके लिए बाड़ करनी पड़ती है, जानवर आवे नहीं…. खेती में बाड़ करते है न! नहीं करो तो सफाया!
ऐसे ही यह ब्रह्मज्ञान की खेती में बाड़ करने के लिए – अहंकार तो नहीं घुसता गधा? दुष्‍चरित्र  विकार तो नहीं घुसते?
पापाचरण तो नहीं घुसता ?नहीं तो ये पौधा खा जाएँगे! उसकी रक्षा करनी पड़ती है। जैसे पौधे की रक्षा के लिए बाड़  है और जानवरों से बचाव है ,ऐसे ही इसमें खबरदारी की, विवेक की बाड़ बनानी पड़ती है कि लोभ, मोह, विकार वाहवाही ये कहीं हमारा पौधा उखेड़ तो नहीं देगी?

मान पुड़ी है जहर की खाए सो मर जाये… कोई मान में गिरते है, कोई काम में गिरते है, कोई लोभ में गिरते है, कोई मोह में गिरते है। तो ये सब जानवर है। जानवर जैसे पौधा खा लेता है ऐसे ही ये विकार हमारा साधनारूपी पौधा चट कर देते है। …तो धैर्य होना चाहिए, धैर्य के साथ खबरदार। जिसकी सात्विक श्रद्धा होती है उसके अंदर ये गुण अपने आप आ जाते है।


सात्विक श्रद्धा वाले को तो… एकनाथ लगा रहा तो लगा रहा, दिन-रात एक कर दिया बारह साल। जनार्दन स्वामी गृहस्थी है कि साधु है, वो नहीं देखा। राजा के पास नौकरी करते है कि संन्यासी, वो नहीं देखा। बस मेरे गुरू है बात पूरी हो गई।  
एकनाथ को ऐसा साक्षात्कार हो गया! पूरणपुडा को ऐसा हो गया! डटे रहते है। बार-बार गुठली निकाले? नहीं।  


एक लड़का है वह मेहनत करता है, कमाता है, परिश्रम करता है, धनवान बनता है। दूसरा ऐसा है कि सीधा पिता की गोद चला जाता है। पिता की गोद चल गया, करोड़पति पिता है, किसी करोड़पति की गोद चला गया, बन गया करोड़पति।  ऐसे ही सत्संग क्या है? कि भगवान की गोद में आदमी चला जाता है। परमात्मा के सत्संग से सहज सुलभ है परमात्मप्राप्ति।  सत्संग मिले तो उसको फिर उन संस्कारों को जमने देना चाहिए। सत्संग जिनको नहीं मिलता उनके लिए जप, व्रत, तपस्या है। जिनको सत्संग मिलता है उनके लिए तो स्वाध्याय। उन्ही विचारों में अपने को तल्लीन कर देना है। सखी सम्प्रदाय में भी ऐसा मानते है। रामकृष्ण ने साधना की थी सखी सम्प्रदाय की। अपने को स्त्री मानना पड़ता है और एक परमात्मा को ही पुरुष। कलकत्ता में चलता था सखी सम्प्रदाय। अभी भी कई सन्यासी है। एक वृद्ध सन्यासी था वो छह महीना सखी भाव में रहता। चूड़ियाँ, साड़ी फर्स्ट क्लास, घूँघट- वूँगट निकाल गोपी बन जाते और छह महीना हरिद्वार में आकर ऋषिकेश में रहते थे। मैं उनको मिला था। कैसा भी भाव है, भाव बना लो। हम देह नहीं है लेकिन देह का भाव बन गया है तो देह ही हम दिखते है। अपना भाव बढ़िया बना लो। हम परमात्मा के हैं-परमात्मा हमारे हैं। परमात्मा नित्य है तो हम भी नित्य हैं, परमात्मा सुखरूप है तो हम भी सुखरुप हैं। परमात्मा आनंदस्वरूप है तो हम भी आनंदस्वरुप हैं।


ज्ञान के मार्ग में दो बातों से बचें तो ज्ञान हो जाता है जल्दी। एक तो ज्ञान का अभिमान न आवे और दूसरा – निराश न होवे। निराश हो जाएगा तो भी चूक जाएगा। अभिमान आ जाएगा तो भी चूक जाएगा। ज्ञान का अभिमान न आवे और दूसरा निराश न होवे तो ज्ञान मार्ग में चल जाएगा । निराश न होवे माने लगा रहे। संन्यास लें कि नासाग्र दृष्टि रखें… ये सब शुभ विचार है, अच्छी बात है.. नासाग्र दृष्टि रखना ठीक है, आँखों से इधर-उधर और लोग दिखते है संकल्प-विकल्प होते है, शक्ति बिखरती है..नासाग्र दृष्टि रखने से दृष्टि की सुरक्षा होती है, मन की चँचलता कम हो जाती है। ब्रह्मचर्य का पुस्तक पढ़ने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। स्त्रियाँ जो है पुरुषों के संपर्क में ज्यादा न आवे तो उनके ब्रह्मचर्य की रक्षा होगी। पुरूष जो है स्त्रियों के दर्शन-वर्शन में कम आवे, ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। बिना ब्रह्मचर्य की रक्षा के ज्ञान हो भी नहीं सकता। ब्रह्मचर्य रखनेसे मनोबल बढ़ता है, मन में स्थिरता आती है और जिसका ब्रह्मचर्य नहीं, जीवन में कोई शक्ति नहीं, जवानी में तो पता नहीं चलेगा लेकिन ३०-३६ साल की उमर में फिर ..जीवन की शक्ति नाश हो गई तो कोई सामने भी नहीं देखेगा। ब्रह्मचर्य या संन्यास लो… संन्यास का मतलब है कर्म के फल की इच्छा छोड़ना। गीता के छठे अध्याय के पहले श्लोक में है-.

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।

स सन्‍यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥

संन्यास ले लिया अक्रिय हो गए, अग्नि को नहीं छूते, स्त्री को नहीं देखना है संन्यास लेने के बाद , पैसे को नहीं छूना है लेकिन मन के संकल्प नहीं छोड़े तो…? और सब छोड़ा तो भी क्या छोड़ा ? आशाओं को छोड़ना संन्यास है! जगत की तृष्णा, आशा छोड़ दिया तो संन्यास हो जाएगा। संन्यास तो हो गया, आशा छोडने से संन्यास हो जाता है। नासाग्र दृष्टि रखने से एकाग्रता में मदद होती है। ब्रह्मचर्य का पुस्तक पढने से, विचार करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए सरल उपाय है, बहुत सहज है। संसार में सुख आता है, चला जाता है। सुख आकर चला जाता है तो क्या छोड़कर जाता है? दुःख! सुख जब चला जाता है तो आपको क्या होता है? सुख होता है? सुख चला जाता है तो क्या रहता है? दुःख! सुख आता है तब सुख होता है, जाता है तो दुःख दे जाता है और दुःख जब आता है तो दुःख लगता है लेकिन दुःख चला जाता है तो सुख लगता है। …तो एक बार वो दुःख दे जाता है और एक बार वो दुःख देता है। एक बार वो सुख देता है एक बार वो सुख देता है, दुःख जाता है तो सुख छोड़ जाता है न? और सुख जब जाता है तो दुःख दे जाता है।  बात समझ में आती है? दुःख जो है सुख छोड़ देता है और सुख जो है दुःख छोड़ के जाता है लेकिन ये दोनों आने-जाने वाले हुए।  हम लोग चिपके हैं, सुख के साथ सुखी हो गये, दुःख के साथ दुःखी हो गये, इसीलिए हम साक्षात्कार से दूर हो गये। सुख आया उसको भी देखो, दुःख आया उसको भी देखो, अलग हो गए! हो गया ज्ञान ! जमा दो उसको! कल भी बताया था हमने अभी और बताऊँगा । शरीर अच्छा है चमड़ी ठीक है, आप खुजलाओ तो अच्छा नहीं लगेगा लेकिन जहाँ दाद है न, जहाँ चमड़ा खराब है, चमड़े की बीमारी है उधर खुजलाओ तो क्या होता है? सुख मिलता है और बाद में ज्यादा दुःख होता है। तो सुख कहाँ मिलता है? खुजलाने से सुख कहाँ मिलता है? …जहाँ खराबी है और वहीं दुःख होता है।  ऐसे ही जिस अंतःकरण में खराबी है उसको संसार की चीजों में सुख मिलता है। खुजलाहट है संसार की चीज़ें और उतना ही दुःख मिलता है। इसीलिए सब दुःख में मरे जा रहे है। करते सब सुख के लिए है न? तो, अंतःकरण जिसका मलीन है उसको संसार में सुख मिलता है। जितना सुख मिलता है उससे दुगना दुःख हो जाता है, खुजलाते  समय जितना सुख मिला उससे ज्यादा दुःख हुआ। ऐसे ही संसार के जो भी सुख है वो दुःख छोड़ के जाते है। ईश्वर की तरफ चलो तो पहले जरा सहन करना पड़ता है- तितिक्षा, मान- अपमान, ये वो , गुरू की घड़ाई, ये वो सब। पहले तो दुःख होता है। दुःख चला जाता है तो क्या छोड़कर जाता है? सुख! संसार में पहले सुख होता है और छोड़कर दुःख जाता है। और साधन के रास्ते पर पहले जरा कष्ट होता है लेकिन भविष्य में, बाद में क्या छोड़ जाता है? हम लोग ईश्वर के रास्ते चले थे, गुरुओं के चरणों में पहुँचे थे, जंगलों में रहे थे, तो पहले जरा दुःख को स्वीकार कर लिया, तो अभी वो दुःख क्या छोड़कर गया? सुख छोड़ा कि नहीं? और करते कि कोका कोला पीयो, लिमका पीयो, जरा सुख लो, पान का मसाला, तंबाखू डालो  मुँह में… उस समय सुख लेते तो अभी क्या होता? वो सुख क्या छोड़कर जाता? दुःख! आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥
ये आगम, अपाई है, अनित्य है ये संसार के प्रसंग।  उनको देखते जाओ, उनको सह लो, बह रहे है, बीत रहे है। जो बीत रहे है उसको देखने वाला नहीं बीतता- वो साक्षी आत्मा ‘मैं’ हूँ। ऐसा बार-बार चिंतन करने से, ऐसे संस्कारों को जमाने से ज्ञान हो जाता है। ये संस्कार फिर फूट निकलते है, अभी तो सुने है, जमेंगे तो फिर अंदर से फूट निकलेंगे, फिर वृक्ष होगा तो आत्मज्ञान का फल लगेगा। इसमें मेरे को ज्ञान हो रहा है कि नहीं हो रहा है ऐसी बार-बार शंका नहीं करना चाहिये और हमको नहीं होगा, ऐसे विचार नहीं करने चाहिये। साधक को सत्संग के द्वारा ऐसे ही मिल जाता है माल! गाय इतना परिश्रम करके घांस खाती है, पानी पीती है, खुराक खाती है, दूध बनता है और बछड़े को ऐसे ही पिला देती है। ऐसे ही संतों ने कितने और संतों का मुलाकात किया, संपर्क किया, शास्त्र विचार करे, गुरुओं की आज्ञा में रहे, गुरुओं की सेवा किया, क्या- क्या करके उन्होंने ब्रह्मविद्यारूपी अमृत अपने हृदय में प्रगट कर लिया। अब संतों ने तो परिश्रम करके वो बनाया लेकिन सत्संग में ऐसे ही मिल जाता है। सत्संग में समझो ईश्वर की गोद चला जाना है। सत्संग तो सुनते है, फिर कुछ रुकावटें आती है। क्यों आती है? कि सात्विक श्रद्धा नहीं है तो रुकावटें जोर पकड़ेंगी। राजस-तामस श्रद्धा है तो रुकावटें जोर पकड़ेंगी। सात्विक श्रद्धा है तो रुकावटों की ताकत नहीं ज्यादा टिकेगी, सात्विक श्रद्धा रुकावटों को उखाड़कर फेंक देगी।

वह अदभुत अनोखा प्रेमी भक्त


जो नैतिक पूर्णता गुरु की भक्ति आदि के बिना ही गुरुभक्तियोग का अभ्यास करता है उसे गुरुकृपा नही मिल सकती। गुरुभक्तियोग का अभ्यास सांसारिक पदार्थों के प्रति वैराग्य और अनासक्ति पैदा करता है और अमरता प्रदान करता है । सद्गुरु के जीवन प्रदायक चरणों की भक्ति महापापी का भी उद्धार कर देती है । कल गुरु पुर्णिमा का पावन पर्व गुरु के श्री चरणों के पूजन का विशेष पर्व अहो श्री चरण ! पावन श्री चरण ! सुकोमल श्री चरण ! परन्तु इन श्री चरणों पर इतनी सूजन क्यूं बढ़ गयी है, २-३ जगहों पर तो कांटे भी चुभे हैं , एक अंगुठे पर, एक एड़ी पर और तलवे तो पथरीली राहों की फेरियां कर-२ के पत्थर से हो चले हैं । ये श्री चरण थे गौरांग महाप्रभु चैतन्य के और इनको हर क्षण निहारने वाली आँखें थी इनके एक शिष्य जगदानन्द की । बहुत ही अनोखी प्रीति थी जगत की, मतवाले भँवरे की तरह अपने गुरु महाप्रभु के इर्द-गिर्द मंड़राता रहता था । अब यूं तो गुरुदेव भक्ति की मिठाई होते हैं, उनके स्वरुप का दाना-२ मीठा और मधुर होता है पर इस भँवरे की लौ कुछ विशेष ही तौर पर अपने गुरु श्री चैतन्य के चरण कमलों से ही थी । कीर्तन में चैतन्य महाभाव का रस बरसाते, भक्तजन छक-२ कर रस पीते और मलंग हो जाते परन्तु जगत को रस चैतन्य के श्री चरणों से ही मिलता था । चैतन्य कोकिल कंठ से कृष्ण धुन छेड़ते, प्रेमी क्षुध-बुध खो कर धुन में बहने लगते परन्तु जगत की धुन वही चैतन्य के श्री चरण ! भरी मंडली मे वो अपलक गुरु देव के श्री चरणों मे समाया रहता था । महाप्रभु के चरण जगत के हृदय थे, महाप्रभु चलते तो जगत के हृदय में हलचल होती, महाप्रभु थिरकते तो जगत का हृदय थिरकता । उधर महाप्रभु कृष्ण-भाव में तल्लीन होकर नंगे पाव कंकरीले-कंटिले पथों पर दौड़ते पडते । इधर एक-२ कंटीला कांटा जगत के हृदय में बिध देता, चरण थकते तो बोझिलता जगत के हृदय में सौ-२ मन बोझ ड़ाल देता । चैतन्य महाप्रभु तो अक्सर महाभाव में तल्लीन रहते इसलिये देहिक कष्ट कुछ उन्हें खास नहीं व्याप्ते, परन्तु उनके चरणों पर लगे कंकर-कांटों का दर्द जगत के हृदय में टिसें उठाये रखता, थके-माँदे सूजे चरण प्रेमी हृदय को लहूलुहान किये रहते । *”तेरे ये चरण मेरी खुशियों का सबब है तेरे चरणों से बंधी मेरी जान कितना अजब है, दर्द इन चरणों का जिगर मेरा घायल किये जाता है क्योकि तेरे चरणों का हर अहसास मेरे दिल से हो कर जाता है ।”*बस बहुत हो गया, जगत खीझ चुका था । जो चरण भव रोग का उपचार करते हैं आज जगत उन चरणों के उपचार की युक्ति खोजने लगा, अहो ये भी प्रेम का बड़ा अटपटा और झटपटा सा भाव है इसी भाव से भावित हो जगत गोण देश पहुंच गया वहां से चंदन आदिक जड़ी-बूटी वाला तेल ले आया | गोविन्द देख तू रात्रि काल में निमाई (निमाई, महाप्रभु का दूसरा नाम था ।) के चरणों में ये तेल मल देना, पोर-२ में ये तेल रमेगा तो सूजन चुटकियों में उतर जायेगी, कड़े हाथों से मालिश ना करना होले-२ मलते जाना । मेरे निमाई को बहुत सुखद लगेगा, समझ गया ना भाई महाप्रभु की अंगद सेवा में नियुक्त गोविन्द को तेल कलश थमा कर जगत ने घंटा भर उसे हिदायतें दी कि किस प्रकार वो मालिश करे । अब रात्रि काल में गोविन्द ने महाप्रभु के आगे निवेदन किया कि गुरुदेव आज्ञा हो तो ये तेल पैरों में मल दूं, किसने लाया ? जी वो जगदानन्द ने गोण देश से । महाप्रभु तुरंत तुनक उठे आँखें तरेर कर बोले पागल हो गये हो क्या दोनों के दोनों, उस महापंडित जगदानन्द की पंडिताई पानी भरने चली गयी है जो ये चंदन-वंदन का तेल उठा लाया और वो भी सुगंधित तेल । अरे मैं संन्यास धारण कर चुका हूं, संन्यास, भला एक संन्यासी कभी इन सुगंधित प्रसाधनों का उपयोग करता है क्या ? पता नहीं उस मूर्ख को भी क्या सूझी, गोविन्द तो चुप-चाप तेल का कलश आले में रखने चला गया।सुबह-२ जगत ने बडी अधीरता से कलश में झांका, एक बूंद भी इधर से उधर ना हुई थी अब तो गोविन्द की खैर नहीं, कुछ इसी अंदाज में जगत ने आश्रम भर में गोविन्द को खोजा क्यों रे गोविन्द रात को तेल लगाना भूल गया क्या? गोविन्द ने हाथ जोड दिये बस भाई जी तुम और तुम्हारे अनोखे उपचार, पता है आपके उस शानदार तेल ने कल रात को मुझे फटकार का कैसा प्रसाद छकाया, मूर्ख नन्द कह रहे थे प्रभु आपको और मुझे भी, अरे वो तो यूहीं कहते थे रहेंगे तू हट मैं जाता हूं इतना कह कर जगत अपने महाप्रभु पर प्रेम का अधिकार जताने चल दिया । महाप्रभु जगत को आता देख कर पहले ही सतर्कता से बैठ गये, गुरुदेव ये तेल नहीं औषधि है भला एक औषधि लगाने में सन्यासी को क्या आपत्ति हो सकती है । महाप्रभु ने कहा समझ क्यों नही आती रे तुझको, कुछ नेम-धर्म भी होते हैं कि नहीं । तुम लोगों का क्या भरोसा आज तेल लाये हो, कल किसी बढ़िया मालिश करने वाले को ला खड़ा करोगे कि जी वैद्य है जाओ यहां से, अब जगत की हृदय फिर आंसुओं के साथ बह चली वह महाप्रभु की चारपाई तले बैठ गया । अपने प्राणाधार श्री चरणों को सहलाते हुये बोला गुरुदेव आपके चरणों की पीड़ा भले किस से छुपी है इतनी सूजन साफ बताती है कि इन्हें नियमित तेल मालिश की जरुरत है । प्रभु आप कहें या ना कहें, आप के ये चरण सब कुछ कह देते हैं, दिन-रात इनकी कराहट मेरा कलेजा चीरती रहती है । गुरुदेव बस कुछ दिनों के लिये अनुमति दे दें ये कैसा बालवत हट है रे जगत लगता है प्रेम के प्रकोप ने तेरी बुद्धि पूरी ही भ्रष्ट कर डाली है मेरी मान इस तेल को जगन्नाथ जी के मंदिर मे चढ़ा आ । वहां इससे दर्जन भर दिये जलेंगे तेरा कुछ पुण्य भी बढेगा, तेरा कुछ साध भी सधेगा, जा अर्पित कर आ जगन्नाथ जी को ये कहते-२ निमाई ने बेरुखि से हाथ भी हिला दिया बस ! अब उधर अब बडी धारदार प्रतिक्रिया हुई जगत कलश लेकर ठाह से खड़ा हुआ और धम-२ करते चल दिया मगर फिर पलटा और श्री चैतन्य के चरणों में पलके झुका कर नमन किया फिर जैसे सूर्य को जल अर्पित करते है,वैसे ही दूर से ही श्री चरणों में तेल अर्पित कर दिया सुगंधित चमकती धार आंगन में बह गयी, मैने जगन्नाथ जी को तेल अर्पित कर दिया मेरे जगन्नाथ तो आप ही हैं गुरुदेव ! बस इतना कह कर जगत रोता ठिनकता हुआ चला गया ये देख चैतन्य महाप्रभु मुस्करा दिये और प्यार से पलके झपका दी परन्तु उन्हे क्या पता था कि इस जिद्दी बच्चे की ठनक २-४ पल की नहीं है । घर पहुंचते ही जगत ने किवाड़ पर सांकल लगा ली, दो दिनों तक अन्न-जल त्याग कर चारपाई पर ही पडा रहा । चैतन्य के चरणों की पीड़ा हृदय की पीर बन कर सालति रही घायल श्री चरण आंखों के सामने से हटते ही नहीं थे, रह-२ कर वो रोता रहता श्री चरणों की याद में । जगत को जब गुरुदेव का प्यार भरा आंचल याद आता तो उनके पास जाने की खीज पडती तो हमारा धीर-वीर जगत मुठिया भींच-२ कर संकल्प उठाता कि नहीं जाऊंगा,भूल से भी नही जाऊंगा निमाई के पास बुलायेंगे जब भी नही जाऊंगा और बात भी नही करुँगा । कभी नहीं- कभी नहीं जिद्दी आंसुओं से प्रेम गली में ऐसी कीच मची कि सदा संभलकर कर चलने वाले प्रभुजी भी फिसल गये । *” बहा दो प्रेम के आंसू बस चला आऊं मैं, तुम्हें अपने रिझाने का सरल तरीका बताऊं मैं, मैं रहता मन के मंदिर में पता अपना बताऊं मैं “*तीसरे दिवस महाप्रभु ने भोर से पहले ही जगत के द्वार पर दस्तक दे दी । ममता से पुकारा जगत, मेरे जगदे, सुन तो जगदे द्वार तो खोल साक्षात भगवान ने द्वार खट-खटाया था । जगत का कलेजा तो खिल उठा खुशी के मारे उछल पड़ा दौड कर सांकल खोलने ही वाला था कि रुठाई ने पैरों में ताले जड़ दिये नहीं जगत तू तो रुठा हुआ था भूल गया क्या ? जगत ने जबरदस्ती ऐंठन ओढ ली, महाप्रभु का स्वर फिर से उभरा *” भिक्षाम देहि “* फकीर भिक्षा की याचना करने आया है सुना तुने । आज दोपहरी की भिक्षा तेरे यहां ही पाऊंगा नहीं तो तू नहीं खिलायेगा तो कुछ नहीं, आज दिन भर उपवास ही भला । बडा ही सम्मोहक प्रेम-पाश डाल कर गुरुदेव चले गये । अब जब जाल बिछा हो दाना भी डला हो चिडिया भूख से पगलायी जा रही हो तो वह फंसेगी ही फंसेगी ।जगत भी स्वेच्छा से फंस गया फटाक से खडा हुआ सारे कक्ष की धुलाई की । सब्जीमंडी से सारा बाजार ही उठा लाया फिर स्न्नान आदि कर के गुरुदेव के लिये सरस स्वादों, पकवानों की बारात सजा डाली । महाप्रभु निश्चित समय पर अपनी मनोहारी छवि लिये भीतर आ गये, संग में उनका अंगद सेवक गोविन्द भी आया था । प्रभु ने भिक्षापात्र आगे बढ़ा कर गुहार लगाई कि *” भिक्षाम देहि “* । जगत रसोई घर से बडा-सा थाल जिसमें दर्जनो कटोरियों में पकवान सजे थे ले आया । बिना कुछ बोले भिक्षा पात्र के उपर बस थाल रख दिया महाप्रभु ने फिर थाल पर दृष्टि डाली फिर जगत पर जो अब भी मुंह फुलाये खडा था । उसने अब तक एक बार भी निमाई के नैनों से नैन नहीं मिलाये थे भरपुर तौर पर नाराजगी जाहिर कर रहा था । भक्त का रुखा रुख देख निमाई कुछ भी अन्यथा कहने का साहस नही जुटा पाये । निमाई भिक्षा में सादा भोजन ही लेते थे, निमाई ने सोचा कि अब मैं इस पकवान को खाने से मना कर दूंगा तो इसका गुब्बारा और फुल जायेगा, इस लिये निमाई खिल-खिला कर हंस दिये । जगत को तिरछी कनखियों से देखते हुये गोविन्द से बोले जगत ने भिक्षा नहीं प्रीति भोज तैयार किया है लाओ भाई लाओ ! निमाई स्वयं ही पास रखी चौकी उठा कर बैठ गये लाओ भाई लाओ ! ये देख जगत को बडा आंनद हुआ परन्तु जाहिर नहीं होने दिया । कुछ इसलिये उसने अपनी बत्तीसी अपने होठों से बांधे रखी चुप-चाप थाली निमाई को परोस दी फिर रसोई से एक-२ दोने उठा लाया निमाई के थाल में जो भी सब्जी या पकवान जरा कम होता तो जगत कडछी भर उनका स्तर पहले से भी ज्यादा कर देता । महाप्रभु की उंगलियो को किसी भी प्याली की तली ना छुने देता परोसता जाता-परोसता जाता । उधर महाप्रभु जी आज पूर्ण तौर पर प्रेम के वश हो अपने शिष्य को समर्पित थे भक्त जो खिलायेगा जितना खिलायेगा, उन्हें खाना ही होगा मजबूरी है इसलिए प्रभु भोग लगाते जा रहे थे बाकि दिनों की अपेक्षा वो कई गुना ज्यादा भोजन कर चुके थे परन्तु जगत का प्रेम प्रवाह थमने का नाम ही नहीं लेता था । अब दीनानाथ गुरुवर खुद दीनता से बोले बाबा बस दया भी करो ! अब तो अगला निवाला ग्रीवा से नीचे भी नहीं उतरेगा तुम्हारे प्रेम से मैं आखंट भर चुका हूं । ये सुनते ही पंखा झालते गोविन्द की हँसी छूट गई, जगत भी मुस्कुराहट रोक नही पाया परन्तु अभी शीत युद्ध जो जारी रखना था इसलिये कुछ नही बोला बस चुप-चाप थाली समेट ली और महाप्रभु को मुक्त किया।मेरे जगदे तेरे अंदर समाया मेरा स्वरुप भी २ दिन से अन्न-जल के लिये व्याकुल है । उसे कब प्रीति भोज खिलायेगा अच्छा हम तब तक नहीं जायेंगे तेरे घर से, जब तक तू भोजन नहीं कर लेता । इतना कह कर महाप्रभु ने पांव खोल लिये और तनिक सुसताने लगे । जगत की आंखें आदतन श्री चरणों पर जा लगी हृदय के वही पुराने जख्म फिर हरे हो गये । वही श्री चरणों की सूजन देख कर जगत फिर से उदास हो गया, आत्मा से कराह उठी आँखों की प्यालियां लबालब भर आईं । महाप्रभु ने अधखुली आंखों से जगत को देखा और एक दम से अपने चरण धोती की ओंट मे दुबका लिये । गला खंखार कर गोविन्द से बोले गोविन्द ये हमारी आज्ञा है कि तू जगत को अपने सामने बिठा कर प्रसाद खिला देना । अभी हम आश्रम को जाते हैं बडी रुहानी-सी हडबडाहट में गुरुदेव चले गये। रात को जब जगत सो रहा था उसकी पलकों के भीतर एक दिव्य अनुभव उभरा कि प्रेममूर्ति गुरुदेव अपने शत-विशत चरण जगत की गोद में रखे बैठे हैं जैसे एक बालक मैया को अपनी चोट दिखाता है ठीक वैसे ही महाप्रभु नेत्रों मे आंसू लिये जगत को अपने चरण दिखा रहे थे । उनके पास वही तेल का कलश रखा था, उसे अपने दोनों हाथों से उठा कर उन्होंने जगत के आगे बढ़ा दिया प्रेम भरे शब्द मे बोले जगदे बहुत पीड़ा हो रही है, ये तेल मल दे ना । सच्ची गुरुदेव ! जगत चरण सहलाता हुआ उमंग से बोला परन्तु फिर एका-एक गंभीर हो गया और बोला, गुरुदेव शास्त्रों मे सन्यासियों के लिये तेल तो निषेध बताया गया है ना ? अरे पगले तेल निषेध है पर प्रेम तो निषेध नहीं है हम तो इस तेल की बूंद-२ मे समाये तेरे प्रेम को स्वीकार कर रहे हैं । सच गुरुदेव कहीं मेरे कारण आपके सन्यास का कोई नियम भंग तो नही होगा । हप ! मेरा शरीर जरुर सांसारिक नियमों में बंधा है परन्तु मेरा भगवत स्वरुप तो तेरे जैसे प्रेमी गुरुभक्तों की भावनाओं का दास है । पूरी रात अनुभव में जगत अपने गुरुदेव के श्री चरणों मे तेल मलता रहा जी भर के होले -२ हाथों से मालिश करता रहा । इतना संजीव था ये अनुभव कि सुबह आंखे खुलने पर जगत की आत्मा तृप्त थी हृदय की पीर शांत हो चुकी थी । एक नये अहसास और ताजगी के साथ जगत गुरु आश्रम पहुंचा महाप्रभु जगत को देखते ही धन्य-२ दिखे, क्या खिला गुलाब होगा । गुरुदेव तो उससे भी प्यारा मुस्कुराये फिर अचानक उनके नयन चंचल हो गये बडे कौतुक के साथ जगत को देख रहे थे, फिर अपने चरणों को, फिर जगत को मानो जगत की दृष्टि खींच कर अपने चरणों की तरफ लाना चाहते थे । जगत ने ज्यों ही चरणों की ओर देखा हुलस उठा! नजारा सुहाना था गुरुदेव के चरण गुलाबी कमल की पंखुड़ियों जैसे कोमल थे कोई सूजन, कोई घाव उन पर ना था ।बलिहारी-२ करते-२ जगत ने गुरु चरणों को हृदय से लगा लिया और राहत भरी ठंडी सांस भर कर महाप्रभु मुस्कुराते नैनों से जगत को देखते रहे । मानो नैनों की भाषा में ही कह रहे हों तेल ना सही प्रेम का लेप तो सदा ही करते रहना मेरे चरण सदा ही स्वस्थ मिलेंगे ।

अर्जुन देव जी का वह अनोखा शिष्य (भाग -3)


कल हमने सुना कि पहलवान मस्कीनिया अखाड़े में आकर कहने लगा कोई है जो मुझसे लड़ेगा लेकिन तभी “मस्कीनिया पहलवान मैं भिडूंगा तुम्हारे साथ” ऐसी आवाज आई । सबकी गर्दनें उस आवाज़ की तरफ उठ गई, इसी सोच के साथ कि शेर को ललकारने वाला यह कौन बब्बर शेर है, परन्तु यह क्या सामने तो बकरी थी वह भी मरियल सी । मस्कीनिया को ललकारने वाली वह बकरी थी गुरु महाराज जी का दुर्बल-सा शिष्य । कुछ बुजुर्गों ने नेक सलाह देते हुए कहा कि अरे क्यूं पागल हो रहे हो, क्या तुझे पता नहीं कि मस्कीनिया तुझे फूंक मारकर ही उड़ा देगा । कुछ युवकों ने मस्करी भी की हमारे नये-नवेले पहलवान जी शाबाश बहुत अच्छे, फटाफट एक ही धोबी पलटी में मस्कीनिया को चित्त कर दो । मस्कीनया भी अट्टहास करता हुआ बोला अरे ओ सिकुडू पहलवान ! अगर मरने का इतना ही शौक है तो जा किसी कुएं में कूद पड़, क्यूं मुझसे गरीब मार करवा रहा है ? परन्तु शिष्य आंखों में गुरु के लिए मरने का जुनून लिए अखाड़े के बीचों-बीच आकर खड़ा हो गया । अब मस्कीनिया सोचने पर मजबूर हो गया कि आज तक ऐसे निर्भय होकर मेरी आंखों में आंखें डालकर देखने की ताकत तो स्वयं यमराज में भी नहीं । फिर यह अदना-सा आदमी आखिर माजरा क्या है ? फिर उसके दिमाग में आया, कहीं यह किसी मजबूरी के कारण तो नहीं लड़ रहा । उसने कहा सुनो भाई जबकि तुम्हें पता है कि मैं तुम्हें मिट्टी की तरह मसल दूंगा और स्वयं ईश्वर भी तुम्हें नहीं बचा पायेगा तो फिर क्यूं तुम मेरे हाथों मरना चाहते हो ? शिष्य मुस्कुरा पड़ा और सहजता से बोला कि मस्कीनिया जी ! कैसी नादानों वाली बातें करते हो । मिट्टी को अगर आप मिट्टी की तरह मसल भी देंगे तो मिट्टी का क्या बिगड़ेगा, मिट्टी तो मिट्टी ही रहेगी । वैसे भी अनेक जन्मों से यह शरीर सांसारिक रिश्तों के लिए खाक होता आया है । आज मेरे प्यारे गुरुदेव की सेवा के लिए यह अगर मिट जाए तो इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा । खैर मस्कीनिया जी यह बातें आपको समझ में नहीं आयेंगी, आप आगे बढ़िए और मुझे मारिये । शिष्य के इन अध्यात्मिक शब्दों से मस्कीनिया का पहलवान जिगर घायल हो गया । उसने आज तक ऐसे दिव्य वाक्य बड़े-2 धर्म पुजारियों से भी नहीं सुने थे । आखिर कौन से गुरु की बात कर रहा है यह, क्यूं उसकी सेवा में जान देने को भी तैयार है फिर अगर इसके विचार इतने ऊंचे हैं तो इसका गुरु कैसा होगा ? अगर शिष्य काल को ललकार सकता है तो उसके गुरु में कितनी शक्ति होगी । सुनो भाई ! कौन हैं तुम्हारे गुरुदेव, कौन-सी सेवा की तुम बात कर रहे हो ? पता नहीं क्यूं मेरा मन उनकी ओर खिंच रहा है । अपने गुरुदेव का पूरा परिचय देकर मेरी जिज्ञासा को शांत करो । शिष्य गर्व से तन कर बोला कि मेरे गुरु का मैं क्या परिचय दूं वे दिन के सूर्य, रात्रि के चंद्रमा, आसमान की विशालता और ऋतुओं की बहार हैं । मेरे दिल की धड़कन, आंखों की पुतली और मेरा श्रृंगार हैं । उनकी नज़रें झुकने से प्रलय और उठने से सृष्टि का निर्माण होता है, उनकी दिव्य वाणी सुनकर सरस्वती भी लज्जा जाए और उनके दरबार की शोभा क्या कहूं देवलोक से भी बढ़कर है । ऐसे महामानव श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज का मैं अदना-सा शिष्य हूं । उन्होंने मेरी 500 चांदी के सिक्कों की सेवा लगाई है, मैं यह सेवा करने के बिल्कुल भी लायक नहीं था लेकिन उनकी नज़रें इनायत, कर्म नवाजी देखिए कि आज ही यह मुनादी हुई कि आपसे हारने वाले को 500 सिक्के मिलेंगे । नहीं तो क्या कभी हारने वाले को कुछ मिलता है । धन्य हैं मेरे गुरुदेव धन्य हैं ! मस्कीनिया जी आप कुश्ती शुरू करें, आज आपके हाथों मरकर धन के साथ-2 मेरे तन की भी सेवा लगेगी । इतना कहकर महाराज जी का शिष्य भावुक हो गया और उधर पहलवान मस्कीनिया की मरुस्थल-सी सूखी आंखों में नदियां उमड़ आयी । वह शिष्य के सामने दोनों हाथ जोड़कर घुटने के बल बैठ गया फिर रोता हुआ बोला मुझे नफरत हो रही है अपने आप से, इतना बलिष्ठ शरीर बनाने के बाद भी मैंने सबको पलटनी देकर गिराया है, लेकिन महान हैं आपके सदगुरु जो गिरे हुओं को उठाते हैं, धन्य हैं आपके गुरुवर जिन्होंने आप जैसे शिष्य बनाए । आपके गुरुप्रेम ने तो मुझे बिना दंगल किए ही जीत लिया । ऐसा प्रेम मैंने पहले कभी संसार में नहीं देखा । इतना कहकर मस्कीनिया ने आंसू पोंछे, उसकी आंखों में सज्जनता की रोशनी चमक उठी । उसने मन ही मन संकल्प लिया कि चल मस्कीनिया आज कुछ अजब घटाकर दिखा दे । जिस मस्कीनिया ने आज तक सांसारिक पहलवानों को क्षणों में हराया है उसे आज एक शिष्य ने हराया, इसे आज एक शिष्य से हारना होगा । जिस मस्कीनिया ने असंख्य रणबांकुरों को धाराशायी किया है, आज उसे अपनी छाती पर पूर्ण गुरु के शिष्य को बिठाना होगा । अब मस्कीनिया शिष्य की तरफ मुड़ा और खुसर-फुसर करता हुआ धीरे से बोला, तुमने कहा ना शरीर मिट्टी है पता नहीं कब खत्म हो जाए । सो मैं भी थोड़ा पुण्य कमा लूं ! भाई मना मत करना, जैसा मैं कहता हूं बस वैसा करते जाओ । मुझे ज़रा-सा धक्का मारो मैं गिर जाऊंगा फिर तुम मेरी छाती पर बैठ जाना । हिचकिचाना मत क्यूंकि मैं चाहता हूं कि तुम हारकर 500 सिक्के नहीं बल्कि जीतकर पूरे 1000 चांदी के सिक्के ले जाओ । जिसमें 500 तुम्हारे और 500 मेरी तरफ से गुरु चरणों में अर्पित हों । बस अब शिष्य मस्कीनिया के कहे अनुसार उसकी छाती पर बैठ गया और 1000 चांदी के सिक्के जीत लिए । अंत में शिष्य सिक्कों को सेठ की ओर बढ़ाते हुए विनय पूर्वक बोला सेठ जी यह लीजिए 1000 सिक्के । इंतजाम पहले से ही तय होते हैं, देखी आपने उनकी कृपा, मैंने तो 500 सिक्के मिलने की ही आशा रखी थी लेकिन उसने पूरे दे दिए । सेठ का अहंकार चूर-चूर हो चुका था वाकई में वह अपने आप को दरिद्र और शिष्य को रईस देख पा रहा था । उसके मुंह से बस यही शब्द निकले सच में भाई तुम गुरु के सेठ हो । गुरु दरबार में तुम जैसे सेठों के होते हुए हम जैसे सेठों की क्या औकात । इसके तुरंत बाद सेठ 1000 चांदी के सिक्के लेकर गुरु दरबार की तरफ चल पड़ा । सदगुरु हर युग में सदैव मानव जाति के कल्याण हेतु तत्पर रहते हैं । वे शिष्य को किस प्रकार क्या सीख दे दें वो तो वे दाता ही जानते हैं परन्तु सदगुरु की प्रत्येक क्रिया, हर हील-चाल मात्र शिष्य के उत्थान हेतु ही होती है । यदि गुरु कोई सेवा देते हैं तो उसको पूरा करने के साधन पहले ही बना देते हैं । बस आवश्यकता है तो गुरु आज्ञा पर पूर्ण श्रद्धा रखने की और कर्म में पूर्ण प्रयास की । संत और सदगुरु का मत है कि गुरु की आज्ञाओं के प्रति लापरवाही यह स्वयं से दुश्मनी है । जैसे किश्ती में छोटा-सा छिद्र भी पूरी किश्ती को नष्ट करने के लिए पर्याप्त होता है, वैसे ही गुरु आज्ञा के प्रति थोड़ी भी लापरवाही साधक के पतन हेतु पर्याप्त है । कभी-2 गुरु ऐसे आदेश दे देते हैं जो शिष्य के मस्तिष्क के भीतर नहीं उतरते हैं, ऐसे क्यूं होता है क्यूंकि श्रद्धा की कमी है । जहां श्रद्धा की कमी होगी वहीं गुरु आज्ञा के प्रति लापरवाही होगी, संशय होगा । छोटी से छोटी गुरु आज्ञा भी शिष्य के कल्याण के लिए बड़ी सीढ़ी बनती जाती है लेकिन प्रश्न यह है कि हम गुरु आज्ञा पालन के कल्याणकारी प्रभाव को जानकर उसमें कितना डट पाते हैं ।