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पूज्य बापूजी के वचन अपनायें विनाशक योग में भी अविनाशी परमात्मयोग पायें


21 जून (रविवार) को होनेवाला सूर्यग्रहण सम्पूर्ण भारतसहित एशिया, अफ्रीका के अधिकांश भाग, दक्षिण-पूर्वी यूरोप तथा ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी भाग में दिखेगा । यह ग्रहण उत्तर भारत के कुछ भागों में कंकणाकृति और अधिकांश भारत में खंडग्रास दिखेगा । गत वर्ष 26 दिसम्बर के सूर्यग्रहण के पूर्व ऋषि प्रसादमें उस ग्रहण-संबंधी जो भविष्यवाणी प्रकाशित की गयी थी कि इससे भारी उलटफेर होगा…’ उसकी सत्यता उसके पश्चात् काल में और अभी भी देखने को मिल रही है । इस वर्ष 21 जून को होनेवाला सूर्यग्रहण भी भारी विनाशक योग का सर्जन कर रहा है । यह देश व दुनिया के लिए महादुःखदायी है । इस योग से पृथ्वी का भार कम होगा । पूज्य बापूजी ने वर्षों पूर्व सत्संग में संकेत कर दिया था कि ‘‘आसुरी वृत्ति की सफाई का समय आ रहा है, दैवी वृत्ति की नींवें पड़ रही हैं । कुछ समय बाद सफाई होगी, फाइटर भागेंगे, उड़ेंगे ।’’ पूज्य बापूजी ने कई बार सत्संगों में कहा है कि जो ग्रहणकाल में उसके नियम-पालन कर जप-साधना करते हैं, वे न केवल ग्रहण के दुष्प्रभावों से बच जाते हैं बल्कि महान पुण्यलाभ भी प्राप्त करते हैं । इस बार का ग्रहण का योग जप-साधना के लिए अधिक उपयोगी है । महर्षि वेदव्यासजी कहते हैं : ‘‘रविवार को सूर्यग्रहण अथवा सोमवार को चन्द्रग्रहण हो तो चूड़ामणि योगहोता है । अन्य वारों में सूर्यग्रहण में जो पुण्य होता है उससे करोड़ गुना पुण्य चूड़ामणि योगमें कहा गया है ।’’ (निर्णयसिंधु) ग्रहण से होनेवाले दुष्प्रभावों से मानव-समाज को बचाने के लिए ब्रह्मवेत्ता महापुरुष पूज्य बापूजी ने न केवल अपने सत्संगों के माध्यम से शास्त्रों में वर्णित करणीय व अकरणीय बातें जन-जन तक पहुँचायी हैं बल्कि ग्रहण के समय जप, साधन-भजन आदि की व्यवस्था भी अपने आश्रमों में करवायी है । पूज्य बापूजी के असंख्य शिष्य, भक्त, सत्संगी अपने-अपने घरों में भी पूज्यश्री के मार्गदर्शन-अनुसार इस समय नियम-पालनपूर्वक साधन-भजन करते हैं । पूज्य बापूजी के सत्संग में आता है : ‘‘ग्रहण है तो कुछ-न-कुछ उथल-पुथल होगी । यदि अच्छा वातावरण है तो उथल-पुथल अच्छे ढंग से होगी । जैसे मोम पिघलता है तब उसमें बढ़िया रंग डालो तो बढ़िया रंग की मोमबत्ती बनती है और हलका रंग डालो तो हलके रंगवाली मोमबत्ती बनती है ऐसे ही इन दिनों में जैसा, जितना जप-तप होता है उतना बढ़िया लाभ मिलता है ।’’ जो केवल पुण्यकारक ही नहीं अपितु अनिष्टकारक तिथियों, योगों व परिस्थितियों को भी उन्नत होने का साधन बनाने की कला सिखाते हैं वे महापुरुष हैं संत श्री आशारामजी बापू। ऐसे विपरीत या विनाशकारी योगों में क्या करने से बचना चाहिए और क्या करना चाहिए इस बारे में पूज्य बापूजी के सत्संग में आता है : ‘‘सूर्यग्रहण में 4 प्रहर (12 घंटे) और चन्द्रग्रहण में 3 प्रहर (9 घंटे) पहले से सूतक माना जाता है । इस समय सशक्त व्यक्तियों को भोजन छोड़ देना चाहिए । इससे आयु, आरोग्य, बुद्धि की विलक्षणता बनी रहेगी । लेकिन जो बालक, बूढ़े, बीमार व गर्भवती स्त्रियाँ हैं वे ग्रहण से 1 से 1.5 प्रहर (3 से 4.5 घंटे) पहले तक चुपचाप कुछ खा-पी लें तो चल सकता है । बाद में खाने से स्वास्थ्य के लिए बड़ी हानि होती है । गर्भवती महिलाओं को तो ग्रहण के समय खास सावधान रहना चाहिए । शुभ-अशुभ की स्थिरता का विज्ञान चन्द्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी आती है तब चन्द्रग्रहण तथा पृथ्वी और सूर्य के बीच चन्द्र आता है तब सूर्यग्रहण होता है । चन्द्रग्रहण पूर्णिमा को और सूर्यग्रहण अमावस्या को ही होता है । ग्रहण के समय सूर्य या चन्द्र की किरणों का प्रभाव पृथ्वी पर पड़ना थोड़ी देर के लिए बंद हो जाता है । इसका प्रभाव अग्नि-सोम द्वारा संचालित प्राणी-जगत पर भी पड़ता है और सूर्य-चन्द्र की किरणों द्वारा जो सूक्ष्म तत्त्वों में हलचल होती रहती है वह भी उस समय बंद हो जाती है । हमारे जो सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम अवयव हैं उनमें भी हिलचाल नहींवत् हो जाती है । यही कारण है कि ग्रहण के समय कोई भी गंदा भाव या गंदा कर्म होता है तो वह स्थायी हो जाता है क्योंकि पसार नहीं हो पाता है । इसलिए कहते हैं कि ग्रहण व सूतक में भोजन तो न करें, साथ ही ग्रहण से थोड़ी देर पहले से ही अच्छे विचार और अच्छे कर्म में लग जायें ताकि अच्छाई गहरी, स्थिर हो जाय । अच्छाई गहरी, स्थिर हो जायेगी तो व्यक्ति के स्वभाव में, मति-गति में सुख-शांति आयेगी, आयु, आरोग्य व पुष्टि मिलेगी । अगर गंदगी स्थिर होगी, रजो-तमोगुण स्थिर होंगे तो जीवन में चिंता, शोक, भय, विकार और व्यग्रता घुस जायेगी । खाद्य पदार्थ ऐसे बचायें दूषित होने से ग्रहण के पहले का बनाया हुआ अन्न ग्रहण के बाद त्याग देना चाहिए लेकिन ग्रहण से पूर्व रखा हुआ दही या उबाला हुआ दूध तथा दूध, छाछ, घी या तेल इनमें से किसीमें सिद्ध किया हुआ अर्थात् ठीक से पकाया हुआ अन्न (पूड़ी आदि) ग्रहण के बाद भी सेवनीय है परंतु ग्रहण के पूर्व इनमें कुशा डालना जरूरी है । सूतक से पहले पानी में कुशा, तिल या तुलसी-पत्र डाल के रखें ताकि सूतक काल में उसे उपयोग में ला सकें । ग्रहणकाल में रखे गये पानी का उपयोग ग्रहण के बाद नहीं करना चाहिए किंतु जिन्हें यह सम्भव न हो वे उपरोक्तानुसार कुशा आदि डालकर रखे पानी को उपयोग में ला सकते हैं, ऐसा कुछ जानकारों का कहना है । ग्रहण का कुप्रभाव वस्तुओं पर न पड़े इसलिए मुख्यरूप से कुशा का उपयोग होता है । इससे पदार्थ अपवित्र होने से बचते हैं । कुशा नहीं है तो तिल डालें । इससे भी वस्तुओं पर सूक्ष्म-सूक्ष्मतम आभाओं का प्रभाव कुंठित हो जाता है । तुलसी के पत्ते डालने से भी यह लाभ मिलता है किंतु दूध या दूध से बने व्यंजनों में तिल या तुलसी न डालें । ग्रहणकाल में भूलकर भी न करें ग्रहण में अगर सावधानी रही तो थोड़े ही समय में बहुत पुण्यमय, सुखमय जीवन होगा । अगर असावधानी हुई तो थोड़ी ही असावधानी से बड़े दंडित हो जायेंगे, दुःखी हो जायेंगे। ग्रहणकाल में (1) भोजन करनेवाला अधोगति को जाता है । (2) जो नींद करता है उसको रोग जरूर पकड़ेगा, उसकी रोगप्रतिकारकता का गला घुटेगा । (3) जो पेशाब करता है उसके घर में दरिद्रता आती है । जो शौच जाता है उसको कृमिरोग होता है तथा कीट की योनि में जाना पड़ता है । (4) जो संसार-व्यवहार (सम्भोग) करते हैं उनको सूअर की योनि में जाना पड़ता है । (5) तेल-मालिश करने या उबटन लगाने से कुष्ठरोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है । (6) ठगाई करनेवाला सर्पयोनि में जाता है । चोरी करनेवाले को दरिद्रता पकड़ लेती है । (7) जीव-जंतु या किसी प्राणी की हत्या करनेवाले को नारकीय योनियों में जाना पड़ता है । (8) पत्ते, तिनके, लकड़ी, फूल आदि न तोड़ें । दंतधावन, अभी ब्रश समझ लो, न करें । (9) चिंता करते हैं तो बुद्धिनाश होता है । ये करने से सँवरेगा इहलोक-परलोक (1) सूर्यग्रहण के समय रुद्राक्ष-माला धारण करने से पाप नष्ट हो जाते हैं परंतु फैक्ट्रियों में बननेवाले नकली रुद्राक्ष नहीं, असली रुद्राक्ष हों । (2) मंत्रदीक्षा में मिले मंत्र का ग्रहण के समय जप करने से उसकी सिद्धि हो जाती है । (3) महर्षि वेदव्यासजी कहते हैं : ‘‘चन्द्रग्रहण के समय किया हुआ जप लाख गुना और सूर्यग्रहण के समय किया हुआ जप 10 लाख गुना फलदायी होता है ।’’ तो स्वास्थ्य-मंत्र  जप लेना, ब्रह्मचर्य का मंत्र भी सिद्ध कर लेना । ग्रहण के समय किया  हुआ ऐसा-वैसा कोई भी गलत या पाप कर्म अनंत गुना हो जाता है और इस समय भगवद्-चिंतन, भगवद्-ध्यान, भगवद्-ज्ञान का लाभ ले तो वह व्यक्ति सहज में भगवद्-धाम, भगवद्-रस को पाता है । ग्रहण के समय अगर भगवद्-विरह पैदा हो जाता है तो वह भगवान को पाने में बिल्कुल पक्का है, उसने भगवान को पा लिया समझ लो । ग्रहण के समय किया हुआ जप, मौन, ध्यान, प्रभु-सुमिरन अनेक गुना हो जाता है । ग्रहण के बाद वस्त्रसहित स्नान करें ’’ स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल & मई 2020, पृष्ठ संख्या 35 & 36, अंक 328 & 329

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संत महापुरुषों की जयंती मनाने का उद्देश्य


पूज्य बापू जी का 84वाँ अवतरण दिवसः 13 अप्रैल 2020

मेरा जन्मदिवस-उत्सव आप मनाते हैं लेकिन यह समझना भी आवश्यक है कि मेरा और आपका अनादि काल से कई बार जन्म हुआ है । भगवान अपने प्रिय अर्जुन को कहते हैं-

बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।

‘हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं । उन सबको तू नहीं जानता किंतु मैं जानता हूँ ।’ (गीताः 4.5)

जीव क्यों नहीं जानता है ? क्योंकि जीव नश्वर वस्तुओं का संग्रह करने और उनसे सुख लेने के लिए जो चिंतन करता है उससे उसकी मति व वृत्ति स्थूल हो गयी है । इसलिए वह अपने जन्मों को नहीं जानता है और ईश्वर अपने अवतारों को जानते हैं क्योंकि ईश्वर में विषय-विलास से सुख लेने की मति व वृत्ति नहीं है । ईश्वर को अपने आत्मस्वरूप का भान रहता है । ‘जो जन्मता है, बढ़ता है, बूढ़ा होता है और मर जाता है वह मेरा शरीर है ।’ – ऐसा जिन सत्पुरुषों को अनुभव होता है वे भी अपने शरीर के जन्म को एक निमित्तमात्र बनाते हैं, अपने वास्तविक स्वरूप को जानते हैं । ऐसे पुरुष भगवान के उस रहस्य को समझकर अपने अखंड स्वभाव में जगे रहते हैं ।

जयंतियाँ क्यों मनायी जाती हैं ?

व्रत, उपवास तन-मन के शोधन के लिए किये जाते हैं । पर्व और उत्सव अपनी सूक्ष्म क्षमताओं-निराशाओं को दूर हटाने और अपनी दिव्यता के संकेत को पाने के लिए मनाये जाते हैं । जयंतियाँ मनाने के पीछे यह उद्देश्य है कि इनके द्वारा  वांछनीय उमंगों, भावनाओं, आत्मविश्रांति व उन्नत ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो, वांछनीय दृष्टि प्राप्त हो और अवांछनीय दृष्टि बदल जाय । फिर चाहे भगवान श्रीराम जी की, भगवान श्रीकृष्ण की, महात्मा बुद्ध की, गुरु नानक जी की, साँईं लीलाशाह जी की या चाहे किन्हीं सत्पुरुष की जयंती मनाओ ।

जो शुद्ध-बुद्ध, निरंजन-निराकार परमात्मा है उसको अवतरित करने के लिए वातावरण बनाना पड़ता है । हजारों-हजारों चित्त जब शुभकामना करते हैं और मार्गदर्शन चाहते हैं तब वह सच्चिदानंद जिस अंतःकरण में विशेषरूप से अवतरित होता है उसे अवतार कहते हैं । बाकी तो परमात्मा राम बनकर आये, कृष्ण बन के आये तो श्रोता या पाठक बन के भी वही परमात्मा बैठा है, यह बात भी उतनी ही सच्ची ।

कीड़ी में नानो बन बेठो हाथी में तू मोटो क्यूँ ?

बन महावत ने माथे बेठो हांकणवाळो तू को तू ।।….

ऐसा खेल रच्यो मेरे दाता ज्याँ देखूं वाँ तू को तू ।।

अनादि काल से सृष्टि चली आ रही है, राम थे तब भी तुम थे, कृष्ण थे तब भी तुम थे, सृष्टि के आदि में तुम थे, मध्य में तुम थे, अब भी तुम हो और प्रलय हो जायेगा तब भी तुम्हारा नाश नहीं होता है, वास्तव में तुम वह परब्रह्म-परमात्मा का सनातन स्वरूप हो । इस समझ को उभारने का अवसर मिले, इसका अनुभव करने का साधन मिले इसलिए जयंतियाँ मनायी जाती हैं ।

वे देर-सवेर विजयी हो जाते हैं

इन जयंतियों, सत्संगों, पर्व-उत्सवों के द्वारा साहसी आगे बढ़ते हैं । पराक्रमी सफल होते हैं । अकेला साहस जगाकर बैठें नहीं, पुरुषार्थ भी करें, पराक्रम करें । जो प्रतिकूलताओं से दबते नहीं, उनके साथ समझौता नहीं करते और उन्हें देखकर अपने चित्त को परेशान नहीं करते हैं बल्कि ‘महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, झूलेलाल जी, साँईं लीलाशाह जी महाराज, श्रीकृष्ण और श्रीराम में जो चैतन्य रम रहा था वही चैतन्य मेरा आत्मा है’ – ऐसा सोच के पग आगे रखते हैं वे देर-सवेर विजयी हो जाते हैं ।

यह विवेक करने का दिवस है

जन्मदिवस बधाई हो !…. वास्तव में यह दिवस विवेक करने का दिवस है । किसी की 70 वर्ष उम्र हो गयी तो सोचे कि ’70 साल  कैसे गये, उनमें क्या गलती हो गयी अथवा क्या अहंता आ गयी ?…. अब 71वाँ साल आता है, उसमें यह गलती और अहंता न आये ।’ इस प्रकार सोचते हैं तो दिव्यता की तरफ यात्रा होती है लेकिन ‘मैं इतना धन कमाऊँगा, ऐसा करूँगा, ऐसा बन के दिखाऊँगा…..’ ऐसा सोचते हैं तो यह न जन्म दिव्य है न कर्म दिव्य है । ये अपने को उलझाने वाली योजनाएँ हैं । श्रीकृष्ण के दृष्टिकोण से आप तत्परता से कर्म करें लेकिन कर्तृत्व भाव, भोक्तृत्व भाव, फल-लोलुपता, फलाकांक्षा आदि नहीं रखें तो अनुभव हो जायेगा कि

असङ्गो ह्ययं पुरुषः

‘मैं इन सब परिस्थितियों से असंग, ज्ञानस्वरूप, प्रकाशमात्र, चैतन्यस्वरूप, आनंदस्वरूप हूँ….’ – इस प्रकार भगवान अपने स्वतःस्फुरित, स्वतः सिद्ध स्वभाव को जानते हैं, ऐसे ही आप भी अपने स्वतः सिद्ध स्वभाव को जान लें तो आपका जन्म और कर्म दिव्य हो जायेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2020, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 327

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कोरोना वायरस पर विशेष


विपदा से पहले लौटें अपनी जड़ों की ओर

मांसाहार व अभक्ष्य आहार का त्याग जैसे भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों की अवहेलना के घातक दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं यह अब सभी को खूब प्रत्यक्ष हो रहा है । विश्वभर में आतंक मचाकर तबाही कर रहा कोरोना विषाणु (वायरस) इसका एक ताजा उदाहरण है । कोरोना वायरस रोग ने एक महामारी का रूप धारण कर लिया है । केवल 2 महीने में चीन में कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 77770 के ऊपर पहुँच गयी है, जिसमें 2666 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है । अब तक यह वायरस ईरान, अफगानिस्तान, ईराक, ओमान आदि 33 से अधिक देशों में फैल चुका है और पूरे विश्व में संक्रमित लोगों की संख्या 80239 से अधिक है । भारत में भी इसने प्रवेश किया था लेकिन फिलहाल स्थिति नियंत्रण में बतायी गयी है । इसके पहले सार्स रोग ने खूब तबाही मचायी थी जो पशुओं से मनुष्य-शरीर में आया था ।

कहाँ से आये ये कोरोना जैसे वायरस ?

वैज्ञानिकों के अनुसार कोरोनावायरस प्राणी से मनुष्य में संक्रमित हुआ वायरस है । मांसाहार करने के लिए जानवरों को प्राप्त करने और मांस तैयार करने की प्रक्रिया में लिप्त मांसाहार के व्यापारी और उसे खाने के शौकीन लोग जानवर के स्पर्श, श्वासोच्छवास, सेवन आदि द्वारा अपने जीवन को जानलेवा बीमारियों एवं अकाल मौत के मुँह में धकेल देते हैं । शाकाहारी जीवन जियें तो क्यों ऐसी महामारियाँ होंगी ? मांसाहारी व्यक्ति केवल अपने लिए प्राणघातक नहीं है अपितु शाकाहारियों के लिए भी खतरा है क्योंकि ऐसे वायरस से रोग फिर मनुष्यों से मनुष्यों में फैलते हैं ।

अब चीन ने जंगली पशुओं के व्यापार और उनके उपभोग पर रोक लगा दी है ।

मांसाहार और पशु-संक्रमण से मनुष्य में प्रविष्ट वायरस व रोग

वायरस का नाम कौन सा रोग फैलाया
नॉवेल कोरोनावायरस कोरोनावायरस रोग 2019
एच.आई.वी. एडस
एच5एन1 एच5एन1 ऐवियन इन्फ्लुएंजा अथवा बर्ड फ्लू
ईबोला ईबोला वायरस रोग
निपाह निपाह वायरस संक्रमण
सार्स कोरोनावायरस सार्स
एच1एन1 स्वाइन फ्लू

कैसे करें रोकथाम ?

1. शाकाहार ऐसे वायरसों से रक्षा करता है ।

2. ये वायरस उन्हीं पर हमला करते हैं जिनकी रोगप्रतिकारक शक्ति कमजोर होती है अतः इसकी रोकथाम का सबसे अच्छा और सरल तरीका है कि देशी गाय के गोबर के कंडे अथवा ‘गौ-चंदन धूपबत्ती’ को जलाकर उस पर देशी घी या नारियल तेल की बूँदें, गूगल, कपूर डाल के धूप करें । इसमें वायरस पनप नहीं सकता । इससे सभी जगह उसकी रोकथाम की जा सकती है । साथ ही इससे विभिन्न बीमारियों के विषाणु, जीवाणु नष्ट होकर आरोग्यप्रद, सुखमय वातावरण का निर्माण होगा । दूरद्रष्टा महापुरुष पूज्य बापू जी ने उपरोक्त प्रकार के गोबर के कंडे के धूप का पिछले कई दशकों से व्यापक प्रचार-प्रसार किया है और स्वास्थ्य, रोगप्रतिरोधक शक्ति वर्धक ‘गौचंदन धूपबत्ती’ एवं इसी के साथ स्मृतिवर्धन का लाभ भी दिलाने हेतु ‘स्पेशल गौ-चंदन धूपबत्ती’ की खोज की । वही तथ्य आज चिकित्सा-ऩिष्णातों की समझ में आ रहा है कि गाय के गोबर के कंडे पर किया गया धूप वातावरण को ऐसे खतरनाक विषाणुओं से भी मुक्त रखने में कारगर है !

3. पूज्य बापू जी के सत्संग में आने वाले एवं ‘ऋषि प्रसाद’ में छपने वाले रोगप्रतिकारक शक्तिवर्धक अन्य उपायों का अवलम्बन लेते रहना चाहिए ।

ठोकर खाने से पहले ही सँभल जायें

कोरोनावायरस रोग की भीषण महामारी से त्रस्त होकर आज विश्व  को शाकाहार और भारत के महापुरुषों के सिद्धान्तों की ओर तो आखिर में मुड़ना ही पड़ रहा है । लेकिन कितना अच्छा होता कि पहले से ही मांस भक्ष्ण न करने की महापुरुषों की उत्तम सीख को मानकर निर्दोष मूक प्राणियों की हिंसा से और इस रोग से बचा जाता !

जब-जब शास्त्रों व महापुरुषों की दूरदृष्टिसम्पन्न हित व करूणाभरी सलाह को ठुकराया जाता है तब-तब देर-सवेर उसके घातक परिणाम भुगतने ही पड़ते हैं और मजबूर होकर शास्त्रों-महापुरुषों के सिद्धान्तों को मानना पड़ता है । ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं-

संयम-ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए ।  हमारे ऋषियों-मुनियों के इस सिद्धान्त को अनदेखा करके जो देश ‘फ्री-सेक्स’ की विचारधारा अपनाने की ओर चले वहाँ एड्स जैसी जानलेवा बीमारियाँ आ धमकीं, वहाँ से दूर-दूर तक फैलीं और उन देशों को अरबों डॉलर खर्च करके संयम की शिक्षा देनी पड़ रही है और फिर भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं । अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनिसेफ द्वारा प्रकाशित इऩ्नसेंटी रिपोर्ट कार्ड नम्बर 3 के अनुसार ‘अमेरिका के स्कूलों में यौन-संयम की शिक्षा देने के लिए 1996 से 2001 के बीच सरकार ने 40 करोड़ से अधिक डॉलर (आज के 28 अरब 65 करोड़ रूपये) केवल संयम की शिक्षा के अभियान में खर्च किये ।’ वे ‘दिव्य प्रेरणा-प्रकाश – युवाधन सुरक्षा’ अभियान का लाभ लें तो नाममात्र के खर्च में कितने उत्तम परिणाम उन्हें मिल सकते हैं !

ब्रह्मचर्य या ऋतुचर्या के पालन की बात हो, ॐकार चिकित्सा, मंत्र चिकित्सा हो या ध्यान-प्रार्थना हो – तन मन-मति को स्वस्थ, प्रसन्न, सुविकसित और प्रभावशाली बनाने और बनाये रखने का ज्ञान खजाना पूज्य बापू जी जैसे भारत के महापुरुषों के पास है । इस ज्ञान का महत्त्व न जानने वालों ने स्वास्थ्य और सुविधा के लिए बड़ी-बड़ी महँगी-महँगी दवाइयाँ व मशीनें खोजीं लेकिन समस्याएँ कम न हुईं बल्कि और भी बढ़ीं । आखिर थक-हारकर आज पुनः स्वास्थ्य व शांति के लिए विश्ववासियों को भारत की ऋषिप्रणीत इन प्रणालियों की शरण स्वीकारनी पड़ रही है । इसी प्रकार हमारी गौ-चिकित्सा की ओर भी ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ सहित सारा विश्व आज आशाभरी दृष्टि से टकटकी लगाये देख रहा है ।

विश्व को उपरोक्त जैसी विभिन्न तबाहियों से बचना हो तो भारत के ऋषि-मुनियों और ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुषों के ज्ञान की ओर ही मुड़ना होगा… स्नेहपूर्वक न मुड़े तो ठोकरें खाकर भी मुड़ना होगा…. इसके सिवा कोई चारा ही नहीं है । फिर हे प्यारे प्रबुद्धजनो ! हे विश्वमानव ! व्यर्थ में ठोकरें क्यों खाना ?

विदेशी लोग तो चलो, हमारी संस्कृति की महानता से अपरिचित हैं इसलिए वे ठोकर खाकर सँभल रहे हैं पर हमारा जन्म तो भारतभूमि में हुआ है । ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के सुसंस्कारों की सरिताएँ आज भी हमारे देश में बह रही हैं । व्यापक ब्रह्मस्वरूप में जगह ऐसे संयममूर्ति महापुरुष, जिनके दर्शनमात्र से लोगों की भोग-वासना छूटने लगती है और वे परमानंद पाने के रास्ते चल पड़ते हैं, जिनके आवाहनमात्र से 14 फरवरी के काम-विकार पोषक, विनाशकारक ‘वेलेंटाइन डे’ को मनाना छोड़कर करोड़ों लोग उऩ्नतिकारक निर्विकार, पवित्र प्रेम दिस अर्थात् ‘मातृ-पितृ पूजन दिवस’ मनाने लगते हैं, जिन सदाचार के मूर्तिमंत स्वरूप महापुरुष ने शाकाहार पर जोर देकर असंख्य लोगों के शराब, कबाब और व्यसन छुड़ाये और इसीलिए जिनके लिए ‘श्री आशारामायण’ कार ने लिखा हैः ‘कितने मरणासन्न जिलाये, व्यसन मांस और मद्य छुड़ाये ।।’ उन पूज्य बापू जी के सत्संग-मार्गदर्शन की आज समाज को अत्यंत आवश्यकता है… ऐसी समस्त विपदाओं से केवल सुरक्षा के लिए ही नहीं अपितु व्यक्ति, परिवार, देश और विश्व के सर्वांगीण विकास के लिए भी !

एक-एक ठोकर खाकर हमारे महापुरुषों का एक-एक सिद्धान्त स्वीकारने के बजाय अगर हम उन सिद्धान्तों के उद्गमस्वरूप महापुरुष का ही महत्त्व समझें, उनका सत्संग, आदर-सम्मान करें और उनके बताये मार्ग पर चलें तो इन रोग-बीमारियों से मुक्ति तो बहुत छोटी बात है, तनाव चिंता, दुःख, शोक, उद्वेग एवं बड़ी भारी मुसीबतों से भी मुक्ति और अमिट परम आनंद, परम शांति की प्राप्ति करके मनुष्य जन्म का पूर्ण सुफल भी प्राप्त किया जा सकता है । हम इस बात को कब समझेंगे ? कब जागेंगे ? (संकलकः धर्मेन्द्र गुप्ता)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2020, पृष्ठ संख्या 7-9 अंक 327

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