मानवमात्र का धर्म और परम धर्म

मानवमात्र का धर्म और परम धर्म


एक शरीर और उसकें संबंधियों में क्रमशः अहंता और ममता करके जीव ने स्वयं ही अपने आपको संसार के बंधन में जकड़ लिया है । अब धर्म का काम यह है कि जीव की अहंता और ममता को शिथिल करके उसे संसार के बंधन से सर्वदा के लिए छुड़ा दे । ऐसे धर्म का स्वरूप यही है कि मनुष्य केवल अपने सुख से फूल न उठे और अपने ही दुःख से मुरझा न जाय । उसे चाहिए कि वह समस्त प्राणियों के सुख-दुःख के साथ अपना नाता जोड़ दे । सब के सुख में सुखी हो और सबके दुःख में दुःखी । इससे अहंकार का बंधन कटता है और ममता भी शिथिल पड़ती है । परंतु इतना ही धर्म नहीं है । धर्म की गति इससे आगे भी है ।

मनुष्य में कुछ विशेषता होनी चाहिए । वह विशेषता क्या है ? बस, इतनी ही है कि किसी को दुःखी देखकर उसका हृदय दया से द्रवित हो जाय और वह उसके प्रति सहानुभूति के भाव से भर जाय । यद्यपि सहानुभूति भी एक बहुत बड़ा बल है, इससे दुःखियों को बड़ी शक्ति प्राप्त होती है, तथापि जो सज्जन कुछ प्रत्यक्ष सहायता कर सकते हैं वे तन-मन-धन से दीनों की रक्षा करें । उनकी प्रभुत्ता और ऐश्वर्य की सफलता इसी में है ।

जो दुःखी प्राणियों की उपेक्षा करके अथवा किसी भी प्राणी से द्वेषभाव रखकर केवल सूखे पूजा-पाठ में लगे रहते हैं, उन्हें कभी शांति नहीं मिल सकती और न तो उन्हें परमात्मा की प्रसन्नता ही प्राप्त हो सकती है । भागवत (4.14.41) में कहा गया है कि समदर्शी और शांतस्वभाव ब्राह्मण भी यदि दीन-दुःखियों की उपेक्षा करता है तो उसका सारा तप एवं ज्ञान नष्ट और निष्फल हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे फूटे घड़े से पानी बह जाता है ।

प्रशंसनीय तो वह है जो अपने कष्टों को मिटाने की क्षमता होने पर भी उन्हें सहन करे अर्थात् स्वयं दुःख सहन करके दूसरों का दुःख मिटावे, अपनी इच्छा अपूर्ण रखकर दूसरे की शास्त्र-सम्मत इच्छा पूर्ण करे । यह सत्य है कि इससे अपनी थोड़ी-बहुत साम्पत्तिक, पारिवारिक और शारीरिक हानि होने की सम्भावना है परंतु परमार्थ-लाभ के सामने यह हानि कुछ भी नहीं है । क्योंकि हानि तो होती है केवल सांसारिक पदार्थों की और लाभ होता है परमार्थ का । ऐसा मनुष्य अपने धर्म-पालन के द्वारा परम कल्याण का अधिकारी होता है । यह तो हुई जीव के सामान्य धर्म की बात । एक परम धर्म भी है ।

परम धर्म का ज्ञान तो भी बड़े सौभाग्य से होता है । वह श्रीमद्भागवत में सुनिश्चित रूप से बतलाया गया है । ब्रह्माजी बार-बार शास्त्रों का अवलोकन करके इसी  निश्चय पर पहुँचे कि समस्त शास्त्रों का तात्पर्य भगवान के नामों के जप,  कीर्तन और अर्थ-चिंतन द्वारा परमात्मा के निरंतर स्मरण में ही है । शास्त्रों में इसे ही ‘परम धर्म’ के नाम से कहा गया है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 10, अंक 337

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अमृतबिन्दु – पूज्य बापू जी

जो संसार का बनकर भगवान का भजन करता है, उसको बरकत नहीं आती लेकिन जो भगवान का हो के भगवान का भजन करता है, भगवान के साथ अपनेपन का संबंध मान के भजन करता है उसका चित्त जल्दी से परमात्म-प्रसाद पा लेता है ।

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