एक भगत था, खानदानी लड़का था । वह कुछ ऐसे-वैसे संग में आ गया तो तो गुरु जी के पास जाना कम कर दिया । गुरु जी ने पूछाः बेटा ! आता क्यों नहीं ?”
बोलाः “साँईं ! आपको क्या पता, शादी तो शादी है ! इतने दिन तो मैं अकेला था इसलिए आपके पास आता था । अभी जीने का ढंग मेरे को आ गया ।”
“बात क्या है ?”
‘साँईं ! ऐसी पत्नी मिली है कि ब्रह्माजी ने विशेष अमृत से उसका सिंचन किया है । मैं नौकरी से छूटता हूँ तो सीधा घर पहुँचना पड़ता, नहीं तो वह इंतजार करती रहती है । मैं जाता हूँ तब हम एक दूसरे के गिलासों को आपस में छुआते हैं फिर वह पानी पीती है ।”
महाराज ने देखा कि ‘यह मामला एकदम गम्भीर है, बिना ऑपरेशन के ठीक नहीं होगा । महाराज भी थे अलबेले, एक बूटी देकर बोलेः “बेटा ! कल रविवार है । लैला कुछ बनाये उसके पहले तू बाहर घूमने चले जाना और यह बूटी पी लेना । इससे तेरा शरीर थोड़ा गर्म होगा फिर एकदम ठंडा हो जायेगा । तेरे को मैं युक्ति बताता हूँ । वैसा करना तो तेरे प्राण दसवें द्वार पर आ जायेंगे । फिर तूँ ‘ऊँ….ॐ… करते हुए जाकर पड़ जाना और शरीर ढीला छोड़ देना । तू बिल्कुल मुर्दा जैसा हो जायेगा । अंदर की तेरी चेतना बनी रहेगी लेकिन श्वास की गति नहींवत् हो जायेगी । फिर देखना तेरे बिना पानी नहीं पीने वाली क्या-क्या करती है ।”
गुरु योगी थे, कुछ युक्ति बतायी, कुछ अपना योगबल लगा दिया ।
अगले दिन वह जवान बाहर गया और बूटी पी ली । देखा कि गुरु जी ने जो बताया था वह हो रहा है । लौटा और पत्नी को बोलाः “मैं मर रहा हूँ, दर्द… बुखार… पता नहीं क्या हो रहा है !”
पत्नी बोलीः “मालपुआ, खीर और रबड़ी बनायी है, छींके में रखी है, भोजन करो ।”
सिंध में उस समय मकान ऐसे बनते थे कि कमरे की छत थोड़ी खुली रहती थी । पहले अलमारियाँ नहीं थीं तो बिल्ली और चूहों से बचाने के लिए भोजन, दूध अथवा मक्खन को छींकों में रखते थे ।
जवान बोलाः “पेट में दर्द है अभी तो…।” ऐसा करके वह जमीन पर पड़ गया ।
पत्नी ने देखा कि ‘ये तो चले गये । अब यदि स्यापा करूँगी तो यह खीर, रबड़ी-वबड़ी सब फेंकनी पड़ेगी । और यदि सासु के कमरे में स्टूल लेने जाती हूँ तो सासु पूछेगी कि ‘मेरा बेटा आया कि नहीं ?’ तो क्या करें !’
पत्नी ने शव को घसीटा और उसकी छाती के ऊपर पैर रख के खीर-रबड़ी उतारी और फटाफट खा के मुँह ठीक करके ‘हाय रे… मैं तो मर गयी रे….’ धमाधम… ऐसा शुरु किया कि महाराज ! वह तो वही जाने…. कहा गया हैः
….स्त्रियाः चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं
देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ।।
स्त्री का चरित्र और पुरुष का भाग्य देवता भी नहीं जान सकते तो बेचारे मनुष्य को क्या पता ! उसको तो गुरु ने कहा थाः “बेटा ! तू साक्षी होकर देखते रहना ।”
सास-ससुर आये, कुटुम्बी-पड़ोसी इकट्ठे हो गये कि ‘क्या हुआ ?’
पत्नी बोलीः “आये, ‘भूख-भूख….’ किया । मैंने उनको खीर दी, थोड़ी मैंने खायी-न-खायी… बोल रहे थेः “बुखार है, बुखार है….।” मैंने बोलाः “आप खाओ-खाओ….” और जरा सा खा के पड़ गये । मेरा तो भाग्य फूट गया । इससे तो मैं अभागिन मर जाती । अब मैं कैसे जिंदगी गुजारूँगी ?….”
ऐसा करके रोना-धोना हुआ । माँ उधर रो रही है । इतने में वे बाबाजी पसार हुए, लोग बोलेः “साँईं ! यह तो आपका शिष्य था ।….”
गुरु जी बोलेः “हमारा शिष्य पहले था, अब तो इस देवी का शिष्य हुआ था । देवी ! तुम्हारा शिष्य सोया है, जरा जगाओ ।”
वह बोलीः “महाराज ! मैं तो उसकी पत्नी हूँ । आप तो दयालु हो, कुछ करो । इससे तो मैं मर जाऊँ, ये जिंदा हो जायें ऐसा कुछ करो ।”
“फिर तो काम हो सकता है । तू उसकी अर्धांगिनी है, आधी है आधी… । मैं एक मंत्र जानता हूँ, जिससे उसकी मौत कटोरी के पानी में उतर आयेगी । फिर वह पानी जो पियेगा वह सोयेगा, यह उठेगा ।”
गुरु ने तो मार दिया दाँव । मंत्र पढ़ा और उसकी पत्नी को बोलेः “लो देवी !”
पत्नीः “मैं पियूँगी तो मर जाऊँगी ।”
“अरे, वह दूसरी कर लेगा ।”
“दूसरी इसको सुख नहीं देगी महाराज ! इसलिए यह मुझे न पिलाओ ।”
अड़ोसी-पड़ोसी, मित्र सब बोल रहे थे कि ‘हम मर जाते…’ लेकिन कहने भर के थे । आखिर उस नववधू ने कहाः “महाराज ! आप ही यह पी लो । हम बराबर भंडारा-वंडारा करेंगे । संत परोपकारी होते हैं, दूसरों की भलाई के लिए संतों ने तो अस्थियाँ तक दे दीं । आप कोई कम नहीं हैं ।”
महाराज अंदर समझ रहे हैं कि ‘हाँ भाई हाँ… मेरे पास तो मंत्र है, मेरे को तो कुछ होगा नहीं ।’ महाराज पी गये और उस जवान के कान में फूँक मार दी । जगने का जो कूट-शब्द () था वह बोल दिया । वह तो जगा । पत्नी बोलीः “मेरा पति….”
जवान बोलाः “चल बंदरी ! तू आयी तभी से माँ-बाप और गुरु से पीठ हो गयी ।”
वह तो चलता भया । खोज मारा कंदराओं को, ऋषियों के आश्रमों को और समर्थ ब्रह्मवेत्ता सदगुरु को खोजकर उनके मार्गदर्शन में ध्यान भजन करके अलख जगाते हुए एक ब्रह्मवेत्ता संत हो गया । ऐसे भी जवान होते हैं !
और जो लोग इस अंधे काम-विकार, विषय वासना के चक्कर में पड़े कि
जब तक चमकें चाँद सितारे,
हम हैं तुम्हारे, तुम हो हमारे ।
वादा किया है भूल न जाना….
यह तो बेवकूफी का आश्वासन है । परमात्मा के सिवाय तुम्हारे साथ कोई वादा नहीं निभा सकता । एक परमात्मा है जो तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ता और संसार के शरीरधारी तुम्हारा साथ कभी बनाये रख नहीं सकते । जो मौत के बाद भी तुम्हारे साथ रहता है वह परमात्मा कभी नहीं बोलता कि ‘मैंने वादा दिया है’ और वही निभाता है । जो लोग बड़े-बड़े वादे देते हैं वे या तो बेवकूफ हैं या तो ठगते हैं ।
ये सब बाहर के भरोसे हैं । बाहर की सत्ता, बाहर के व्यक्ति, बाहर के धन-पद का भरोसा नहीं, ईश्वर पर भरोसा जिसने रखा है उसका कल्याण हो गया ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 7,9 अंक 337
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ