मृदघटवत् सुखभेद्यो दुःसन्धानश्च दुर्जनो भवति ।
सुजनस्तु कनकघटवद्दुर्भद्याश्चाशु सन्धेयः ।।
‘दुर्जन मनुष्य मिट्टी के घड़े के समान सहज में टूट जाता है और फिर उसका जुड़ना कठिन होता है । सज्जन व्यक्ति सोने के घड़े के समान होता है जो टूट नहीं सकता और टूटे भी तो शीघ्र जुड़ सकता है ।’
नारिकेलासमाकारा दृश्यन्ते हि सुहृज्जनाः ।
अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः ।।
‘सज्जन पुरुष नारियल के समान दिखते हैं अर्थात् ऊपर से कठोर और भीतर से कोमल व मीठे तथा दुर्जन व्यक्ति बेर-फल के समान बाहर से ही मनोहर होते हैं (अंदर से कठोर हृदय के होते हैं ) ।’
स्नेहेच्छेदेऽपि साधूनां गुणा नायान्ति विक्रियाम् ।
भङ्गेऽपि हि मृणालानामनुबध्नन्ति तन्तवः ।।
‘स्नेट टूट जाय तो भी सज्जनों के गुण नहीं पलटते हैं, जैसे कमल की डंडी के टूटने पर भी उसके तंतु जुड़े ही रहते हैं ।’
(हितोपदेश, मित्रलाभः 92,94,95)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 19 अंक 341
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