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षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश लिखनेवाले गद्दारों का पर्दाफाश-4


यहाँ तक कि यदि गलती से हम दीदी जी और मैय‍ा जी के दर्शन करने चले जायें

तब हमें धमकियां मिलती है ।।

गुरु के आश्रम में रहनेवाले साधकों को केवल अपने गुरुको इष्ट के रूप में देखना चाहिए. गुरु के सिवा और किसी के दर्शन करने की इच्छा उनको होती है तो वे गुरु के शिष्य ही नहीं है. आश्रम के साधक कभी किसी मंदिर के देवी देवता के दर्शन की भी इच्छा नहीं रखते क्योंकि

“हरि हर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय,

सतगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय.”

यह गुरु भक्ति योग का सिद्धांत है. फिर भी कोई गुरुके आश्रम से विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवालों के दर्शन करने जाता है तो वह आश्रम के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है. दीदीजी किस तरह आश्रम के मैगजीन ऋषि प्रसाद के सेवादारों से यह सेवा छुडाकर अपनी पत्रिका के प्रचार में लगाती थी यह सब मैंने प्रभुजी को लिखे पत्र में प्रमाण के साथ सिद्ध किया है. इसे पढ़ लेना. दीदी ने मेरे गुरुदेव की शिष्याओं को अपनी चेलियाँ बनाकर रखी है यह सब जानते है. मुझे गुरुदेव के निष्ठावान समर्पित ऐसे साधक भी मिले है जिनकी श्रद्धा हिलाने के लिए दीदीजी ने उनको कहा था “जिस लड़की ने फ़रियाद की है उसकी बात में भी सच्चाई होगी.” जिस नेता ने गुरुदेव से गद्दारी की है ऐसे नेता को जन्मदिन की बधाई भी दीदी ने दी है और उनकी प्रशंसा की है. क्या गुरु नानक को जेल में डालनेवाले बाबर बादशाह को अंगद देव या कोई भी सिख जन्म दिन की बधाई दे सकता है? क्या संत तुलसीदास को जेल में डालनेवाले राजा अकबर को कोई रामभक्त जन्म दिन की बधाई दे सकता है? क्या गुरु हर गोविन्द को जेल में डालनेवाले जहांगीर को कोई सिख जन्म दिन की बधाई दे सकता है? इन से ज्यादा और मैं क्या प्रमाण दूँ दीदी की कृतघ्नता के?   

ऐसे लोगों के दर्शन करने जानेवाले को संचालक अगर धमकी ही देते है तो यह उनकी उदारता है. मैं अगर संचालक होता तो ऐसे लोगों को आश्रम से निकाल देता जो आश्रम के विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवालों के दर्शन करने जाते हो.

षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश लिखनेवाले गद्दारों का पर्दाफाश-3


हम चाहते है कि बापूजी की अनुपस्थिति मे  मैया जी,, दीदी जी का आश्रम

में सत्संग चले, इस बात की मांग हम उठाये थे, लेकिन हमें बहुत बड़ा

खामियाजा भुगतना पड़ा ।।

गुरुदेव की अनुपस्थिति में आश्रम में किसका सत्संग चलाना चाहिए इसका निर्णय गुरुदेव करते है. दुसरे किसीको यह अधिकार नहीं है कि वो अपनी चाह के अनुसार किसको आश्रम में सत्संग करने के लिए बिठा दे. गुरुदेव ने कभी भारती दीदी को आश्रम में सत्संग करने की अनुमति नहीं दी. ६ साल पहले अमेरिका से एक साधक आये थे उन्होंने गुरुदेव से आश्रम में दीदी का सत्संग कराने की आज्ञा मांगी तब गुरुदेवने उस साधक को थप्पड़ मारकर अमेरिका भगा दिया था. जब गुरुदेव नहीं चाहते हो कि दीदी आश्रम में सत्संग करें तो भी जो गुरुदेव की आज्ञा के विपरीत अपनी मनमानी से दीदी के सत्संग की इच्छा रखते है वे गुरु के शिष्य ही नहीं है. उनको गुरु के आश्रम में रहने का अधिकार नहीं है. उनको दीदी के आश्रम में चले जाना चाहिए. जो शिष्य गुरु के आश्रम में अपनी मनमानी करना चाहते है वे गुरुमुख नहीं है, मनमुख है. दीदी को जब गुरुदेव ने अपनी संस्था से अलग कर दी हो तब उनका उस संस्था से कोई सम्बन्ध नहीं रहता. फिर भी वे अपना अधिकार जमाने के लिए आश्रम के संचालकों के विरुद्ध बाहर के साधकों को भिडाने की कोशिश करने लगे तब मुझे उनकी पोल खोलनी पड़ी. मेरे पत्रों के द्वारा साधकों को सावधान किया. उस पत्र में तो उनकी द्वेषपूर्ण वाणी के १२ मिनट के प्रवचन में वे कितने झूठ बोलते है यह बताया गया है. अगर उनके जीवन के झूठ कपट पर मैं लिखूं तो एक पुस्तक बन सकती है जिसका नाम प्रभुजी की पोलखोल रख सकते है पर मैं किसीकी दुकानदारी बंद करना नहीं चाहता. उस पत्र के बाद उन्होंने स्वयं तो मेरे गुरदेव के साधकों में फूट डालने का काम याने आश्रम के साधको और बाहर के साधकों में फूट डालने का काम बंद कर दिया पर उनके भक्तों के द्वारा यह काम अभी भी चल रहा है यह इस तथाकथित समर्पित साधक के पत्र से स्पष्ट होता है. अगर यह बंद नहीं होगा तो मुझे उस पुस्तक को अंग्रेजी, हिंदी आदि भाषाओं में विश्वभर में प्रकाशित करना पड़ेगा. और उस पर एक डाक्यूमेंट्री विडियो भी बनानी पड़ेगी जिसका नाम होगा “भूत भारती भंडाफोड़.” उसका भी विश्वभर में प्रचार होगा फिर दीदी की दुकानदारी बंद हो जायेगी. दीदी अगर अपनी दुकानदारी चालु रखना चाहती है तो अपने भक्तों को आश्रम की निंदा करने से रोकें.

षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश लिखनेवाले गद्दारों का पर्दाफाश-2


आश्रम को पूरी तरह एक व्यापारिक केंद्र बना दिया गया और हम समर्पित

साधकों को बिन पगार के नौकर के जैसा फायदा के लिये यूज किया जा रहा है ।।

आश्रम में जो भी समाज सेवा की प्रवृत्तियाँ ६ साल पहले होती थी वही आज भी हो रही है. गुरुदेव ने आश्रम को आत्मनिर्भर रखने पर जोर दिया है, दूसरी संस्थाओं की तरह दाताओं के आधार पर साधकों का निर्वाह न हो और निष्काम कर्म करके अपने अंतःकरण की शुद्धि करके आत्म ज्ञान पाने की योग्यता को बढाने के लिए ये प्रवृत्तियाँ चलाने का आदेश गुरुदेव ने दिया है. उनको जो व्यापारिक प्रवृत्ति कहते है वे अपने गुरु पर ही दोषारोपण करते है. प्रत्येक गुरु को किस ढंग से अपने शिष्यों को आगे बढ़ाना इस का निर्णय करने की स्वतंत्रता होती है. राम कृष्ण परमहंस अपने शिष्यों से विविध साधना कराते थे पर स्वामी विवेकानंद ने सन्यासियों को भी समाज सेवा में लगा दिए जो परम्परा से विरुद्ध था. आदि शंकराचार्य के द्वारा स्थापित संन्यास धर्म में समाज सेवा को कोई स्थान नहीं था. पर स्वामी विवेकानंद ने इस में परिवर्तन किया. जो आध्यात्मिक लक्ष्य वाले थे ऐसे संन्यासियों को भी समाज सेवा में लगा दिया क्योंकि वह उस समय की मांग थी. यह आध्यात्मिक प्रवृत्ति और समाज सेवा का समन्वय था. पर उस समय स्वामी विवेकानंद के कुछ गुरुभाइयों ने विरोध किया था पर जब उनको यह मालूम हुआ कि उनके गुरुने उनका हाथ स्वामी विवेकानंद के हाथ में सौंपा था तब वे शांत हो गए.

आत्मज्ञान पाने के लिए जब सत्यकाम जाबाल गुरु हारिद्रुमत गौतम के पास गए तब गुरु ने सत्यकाम को कोई साधना नहीं सिखाई, दुबली पतली ४०० गायें देकर कहा कि उनको जंगल में ले जाओ. जब १००० गायें हो जाए तब लौटना. तब सत्यकाम ने यह नहीं सोचा कि गुरु अपना गौधन बढाने के लिए मेरा एक बिना पगार के नौकर के रूप में उपयोग कर रहे है. गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके सत्यकाम जंगल में चले गए. जब १०००  गायें हो गई तब सत्यकाम को ब्रह्ज्ञान के चार पादों का उपदेश एक बैल, अग्नि देव, एक हंस, और एक मदगु नामक पक्षी के द्वारा मिला और सत्यकाम को आत्मज्ञान हो गया.

हमारे गुरुदेव ने जो प्रवृत्तियाँ करने का आदेश दिया है वे तो समाज सेवा के उद्देश्य वाली सेवाएं है पर संत एकनाथ जब गुरु जनार्दन स्वामी की सेवा में थे तब उन्होंने समाज सेवा के कार्य नहीं किये, गुरु की व्यक्तिगत सेवा के कार्य किये. फिर भी उन्होंने यह नहीं सोचा कि गुरु मेरा उपयोग एक बिना पगार के नौकर के रूप में कर रहे है. उन्होंने गुरुसेवा निष्काम भाव से की तो उनको गुरुकृपा से आत्मज्ञान हो गया.

हनुमानजी को भी उनके इष्ट श्री राम ने अपने निजी कार्य करने का आदेश दिया. सीताजी उनकी पत्नी थी और उनको खोजना कोई समाज सेवा का कार्य नहीं था, फिर भी हनुमानजी ने ऐसा नहीं सोचा कि रामजी मेरा उपयोग एक बिना पगार के नौकर के रूप में कर रहे है. उन्होंने इष्ट की प्रसन्नता के लिए सेवा की तो इष्ट की कृपा से उनको आत्म ज्ञान हो गया.

गुरुदेव के द्वारा जो सेवा दी गई हो उसको करनेवाले शिष्य को यदि ऐसा विचार आता है कि उसका उपयोग बिना पगार के नौकर के रूप में किया जाता है तो वह समर्पित साधक नहीं है, गुरुका शिष्य भी नहीं है. ऐसे लोग चाहे कितनी भी सेवा करें उनको निष्काम सेवा से जो लाभ अंतःकरण की शुद्धि के रूप में मिलना चाहिए, वह नहीं मिलेगा क्योंकि वे अपने आपको गुरु का सेवक नहीं मानते, बिना पगार का नौकर मानते है. ऐसे लोग बाहर से गुरु के शिष्य दीखते हो तो भी भीतर से गुरु के सिध्धांत का विरोध करते है इसलिए वे कालान्तर में मनमुखता के शिकार हो जाते है. और दूसरों को भी मनमुख करने का पाप करते है.