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भाई लद्धा की गुरूभक्ति व सत्ता और बलवन्द अहंकार …….(भाग-3)


अब तक हमने पढ़ा कि गुरु अर्जुनदेव जी के दरबार के दो गवैया सत्ता और बलवन्द उन्हें अपने हुनर पर योग्यता पर बड़ा अभिमान था और उनकी इच्छा अनुसार उन्हें उनकी बहन की शादी धूमधाम से करवानी थी उनकी इच्छा गुरु द्वारा पूर्ण न होने पर अपने अभिमान के वशीभूत होकर उन्होंने गुरुदरबार छोड़ने का निश्चय कर लिया। करुणावत्सल गुरुदेव उन्हें समझाने आज उनके द्वार पर आकर खड़े हैं।

सत्ता ने कहा सुनो महराज हम तुम्हारे दरबार मे वापस नही जाने वाले और हां इस भ्रांति को मत पालना कि तुमसे टूटकर हम बर्बाद हो जाएंगे तुम तो अपनी सोचो अपनी हम भी देखते है हमारी संगीत कुशल के बिना तुम्हारे दरबार मे संगत कैसे जुड़ती है।

सत्ता और बलवन्द मर्यादा की हदों को बड़ी बेशर्मी से भय मुक्त होकर तोड़ रहे थे वे अपने आपको गुरुदरबार का कर्णधार समझने की अक्षम्य भूल कर रहे थे जैसे एक तारा आसमान को आंखे दिखाए और कहे कि ए आसमान मैने तेरा साथ छोड़ दिया है अब देखता हूं कि तेरा साम्राज्य कैसे रौशन होता है लेकिन मूढ़ तारा यह नही जानता कि आसमान के पास तो उससे भी बेहतर असंख्य अनंत तारे है भला वह उसके टूटने बिखरने पर क्यों ध्यान दे उसके चले जाने से आसमान पर कोई फर्क नही पड़ने वाला। हां तारा आसमान से टूटने के बाद जरूर टूटा तारा के नाम से बदनाम होगा। तुच्छ सी चमक बिखेरने के बाद वही कहीं अन्धेरे मे गुम हो जाएगा।

सत्ता और बलवन्द कि स्थिति भी कुछ ऐसी थी। बलवन्द ने कहा हम ही थे महराज जिनके दम पर आपकी ख्याति थी हमारे स्तम्भ तले ही आपकी छत टिकी हुई थी आपकी गुरुगद्दी यहां तक पहुँचाने में भी हमारा और हमारे पूर्वजों का हाथ है। भला जो आपके पहले गुरु हो गए उनको कौन जानता था ? यह तो हमारे पूर्वज मर्दाना जी के सारंगी के धुन का कमाल था जो लोग उनसे जुड़ने लगे वरना दो दाने अन्न के भी नसीब न होते उन्हें।

गुरुअर्जुनदेव जी अब तक अपना और अपने शिष्यों का अपमान बड़ी बेफिक्री से सहन कर रहे थे परंतु इन कटु शब्दो ने उन्हें भीतर तक आहत कर दिया उनके सब्र का बाँध टूट गया। श्री गुरु नानक देव जी के प्रति उगले जहर को वे बर्दाश्त न कर पाए शांत चेहरे की सौम्यता क्रोध में तब्दील हो गई। कोमल हृदय की निर्मल भावनाये उग्र हो उठी आंखे उन दोनों के अविश्वसनीय व्यवहार के आगे बन्द हो गई और कह उठे बस, बस अब और नही अरे तुम तो बिल्कुल ही बेराह हो गए हो जाओ गुरुओं को अपमानित करने वालो अब तुम्हे कहीं इज्जत नही मिलेगी मैंने तो तुम्हे उठाकर पहाड़ की चोटी पर बिठाया था परन्तु अफसोस तुम अपनी कूदने की आदत न छोड़ पाए और पतन की खाई में जा गिरे अब यहां से तुम्हे कोई नही निकाल सकता।

सुनो नगरवासियों अगर किसी ने इनकी ओर से मुझसे क्षमा मांगी या भविष्य में इनकी पैरवी करने की कोशिश भी की तो उसे नज़र किया जाएगा। नजर एक सजा है जिसमे अपराधी का मुंह काला करके गले मे ढोल डालकर गधे पर घुमाया जाता है तो अगर किसी ने इनकी ओर से मुझसे क्षमा मांगी या भविष्य में इनकी पैरवी करने की कोशिश भी की तो उसे नसर की सजा दी जाएगी इतना कहकर गुरुमहाराज जी वापस दरबार की तरफ लौट आये आज पहली बार गुरुमहाराज जी के चेहरे पर संगत ने क्रोध की ऐसी लकीरे देखी थी जिस गुरुदरबार में सिर्फ रहमते और वरदान ही लुटाये जाते हैं वहाँ से शाप मिलता पहली बार दुनिया ने देखा था लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि कुँए से सब अपनी पिपासा शांत नही कर पाते कई उसमे डूब कर मर भी जाते हैं चूल्हे पर सब गृहणियां रोटी नही बना लेती कुछ अपने हाथ भी जला बैठती है।

बस सत्ता और बलवन्द इसी दूसरे किस्म के थे गुरुमहाराज जी ने दरबार मे पहुंचकर काफी देर तक किसी से कोई बात नही की चुपचाप आसन पर बैठे रहे उनकी आंखों की पुतलियाँ हिरन की भांति सब शिष्यो पर दौड़ रही थी अचानक ये नज़रें कहीं अटक गई।

झाड़ू पोंछा लगाने वाले एक अदने से शिष्य ने जब गुरुमहाराज जी की दृष्टि को अपनी ऊपर गड़ी देखा तो वह सहम गया उसके दिल की धड़कनें तेज हो गई शरीर सिकुड़ने लगा मानो धरती में ही समा जाना चाहता हो किसी से पूछ भी नही सका आख़िर गुरुजी मेरी तरफ क्यों देख रहे हैं । तभी गुरुमहाराज जी बोले उठो शिष्य की कपकपी छूट गई उठो और यहां आओ जी मैं लड़खड़ाती जुबान में च इतना ही बोल पाया संगत भी कभी उस शिष्य को तो कभी गुरुमहाराज जी को सवालिया दृष्टि से निहारने लगी जिस प्रकार शेर एक लोमड़ी का शिकार करने के बाद दूसरे शिकार की तलाश में निकल पड़ता है गुरुजी भी और शिष्यो पर नज़र विहार करने लगी जिस जिस ओर नज़र जाती वहां वहां सब दुबक जाते हर पीछे वाला अपने आगे वाले गुरुभाई की पीठ के पीछे ऐसे अपने आपको समेटता जैसे कछुआ किसी खतरे के आभास पर अपने अंगों को समेटता लेकिन गुरूमहाराजजी ने तीन और शिष्यो को ऐसे ही खड़ा किया कोई नही जानता था कि अब क्या होगा थोड़ी देर बाद गुरुमहाराज जी गम्भीरता की गुफा से निकले और एक रूहानी मुस्कुराहट की छटा बिखरते हुए बोले कि आज के बाद तुमलोग सत्ता और बलवन्द की जगह गाओगे और कल से नही बल्कि आज और अभी से गाओगे। आओ यहां पर, इतना सुनते ही पूरा प्रांगण जयघोष के बुलन्द स्वर से गूंज उठा बुजुर्ग भी बच्चों की तरह तालिया बजा उठे लेकिन उन चारों के आंखों में पानी छा गया। वे हैरान स्तब्ध से गुरु को निहारने लगे।

गुरुजी कैसी लीला कर रहे हैं । क्या वाकई मे ऐसा हो सकेगा? जिन हाथो ने आज तक झाडू पोछे मारे है। हसीये और कुल्हाड़ीया चलाई है क्या वे हारमोनियम चला पायेंगे। जो गले केवल अल्लङ शब्द बोलना जानते है। क्या वे सुन्दर राग अलाप सकेंगे? कई प्रश्न उनके अंदर करवटे लेने लगे। लेकिन अगले ही पल इनके प्रश्नो को दरकिनार कर गुरू आदेश को अपने सिर माथे ले वे चारो शिष्य मंच पर आसीन हो गये।

संगत भी सामने दरियों पर अविश्वसनीय घटना देखने के लिए बैठ गयी। उन चारो ने कुछ क्षण आंखे बंद कर मूक भाषा मे गुरु से प्रार्थना की। कि हे करूणानिधान आप ही सर्व गुणो के ज्ञाता है। आप ही सभी योग्यताए प्रदान करने वाले हैं। एकाएक उनके चेहरे पर एक अजीब सी संजीदगी छा गयी। आंखे खोलने पर ऐसा लगा ही नही कि पहली बार संगत का सामना कर रहे है। एक के बाद एक चारो ने साज हाथो मे उठाया उसके बाद जो वाक्या घटा वह आलौकिक था। हम सभी ने स्वयं अपने जीवन मे देखा है और हमारे कई गुरु भाइयो का अनुभव भी है कि जिन्होंने सेवा के क्षेत्र मे जो कार्य पहले कभी किसी ने नही किया और यदि उसमे हमारे पूज्य बापूजी की भी आज्ञा हो जाती है तो उस कार्य मे हमारी योग्यता का अद्भुत निखार होता है। उस सेवा मे दैविक निखार होता है। सदगुरु की आज्ञा का बङा ही महत्त्व है। सदगुरु वो हस्ती होते है जो पाढ़े को कह दे कि चल वेद पढ़ना शुरू कर तो पाढ़ा भी वेद की ऋचाएं पढ़ना शुरू कर देता है इसलिए हमे अपनी योग्यताओ का अभिमान नही बल्कि गुरु की कृपा और उनकी सेवा का अनुरागी बनना चाहिए। तानपूरे पर ताने छिङी, तबले पर थाप पङी और कंठो से राग वे भी ऐसे जैसे तानसेन जिंदा हो उठा हो।

साक्षात सरस्वती गले मे उतर आई हो। देखते ही देखते पूरा माहौल संगीतमय हो गया संगत झूम उठी पैरो की तलियो और चुटकीया उनको साथ देने लगी। साथ ही साथ सभी विस्मित थे। हो भी क्यो ना। आज गुरूदेव चिङियो से बाज का शिकार करवा रहे थे।

खरगोश शेर की चाल चल रहा था। पोखर समुद्र की तरह हिलोरे ले रहा था अंततः इस दिव्य सभा को गुरूदेव की आज्ञा पर समाप्त किया गया। सब लोग गुरु सत्ता की महिमा बुनते हुए अपने अपने घरो को चले गए।

उधर सत्ता और बलवन्द की जिन्दगी मे मानो गृहण लग गया। गुरु के ठुकराये हुए पर सबकी ठोकरे पङने लगी जो लोग उन्हे गुरु भाई कहकर सम्मान देते थे। अब बेमुख देकर अपमानित करने लगे। एक होता है गुरमुख और एक बेमुख। लोग उन्हे बेमुख कहकर अपमानित करने लगे जो उनको देखकर ही इज्जत से झुक जाया करते थे वे ही अब नफरत उगलने लगे सभी ने उसने संबंध विच्छेद कर दिया। जिस प्रकार भरे मेले मे भी एक अंधा व्यक्ति अपने आपको अकेला ही पाता है। ठीक उसी तरह सत्ता और बलवन्द भी भरे नगर मे तन्हा होकर रह गये यही नही धीरे-धीरे उनका शरीर फटकर चिथङो की शक्ल इख्तियार करने लगा वे भयंकर कोङ से गृस्त हो गये। जिन शरीरो से कभी इत्र, चंदन की खुश्बू आया करती थी उन्ही से बदबू आने लगी। घर वालो ने उन्हे घर से बाहर कर दिया जिन सगो के लिए उन्होंने गुरु से बैर किया वही बेगाने हो गये।

अब सत्ता और बलवन्द के लिए सभी के दरवाजे बंद थे। होते भी कैसे ना जो मां की गोद को ठुकरा दे फिर उसे पालना भी नसीब नही होता। सत्ता और बलवन्द का एक-एक पल सदी जैसा लंबा हो चला हर सांस अंदर जाकर ऐसे पीङा मचाती। जैसे किसी ने कंटीली तार अंदर डालकर फिर खीच निकाला हो वे दिन रात तङपते हर पल अपने किये पर पछताते यूं ही रोते पछताते कई महिने बीत गये। एक दिन उनकी पतझड़ भरी जिंदगी मे फिर से बसंत ने दस्तक दी।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी….

शिष्य की कसौटी, सत्ता और बलवन्द का अहम…(भाग-2)


कल हमने पढ़ा कि बहन की शादी के लिए सत्ता और बलवन्द ने गुरु से धन राशि मांगी। गुरु द्वारा पर्याप्त धन न मिलने पर दोनों भाइयों ने अपना मन खराब करना शुरू किया।

सत्ता कहता है कि- मैं तो कोस रहा हूँ उस दिन को जब हम गुरु के चाकर बने कहाँ फंस गए यहां ? अगर संसार मे कहीं गाते तो राजाओं जैसे ठाठ होते, नौकर होते, हवेलिया होती और पता नही क्या-क्या होता हमारे पास।

लावा भी एक समय के बाद आग उगलनी बन्द कर देता है लेकिन इन दोनों ने तो वह हद भी पार कर दी एक के बाद एक पलटने खाते हुए दोनों भाई पतन की खाई में गिरते जा रहे थे। उन्हें कोई रोकने वाला नही था, कोई रोकता भी कैसे ? जब उन्होंने खुद ही गिरने की ठान ली थी। अब यदि कोई रोगी खुद ही अपने जख्म पर खुजली करनी न छोड़े तो डॉक्टर या दवाई क्या करेगी ? बात तो तब और बिगड़ जाती है जब रोगी को खूजलाने में मज़ा आने लगे तब तो इलाज मुश्किल ही नही असम्भव हो जाता है।

सत्ता और बलवन्द को भी गुरु निंदा की खुजली में चैन मिल रहा था अंततः उनका दुर्भाग्य कि उन्होंने एक दुःसाहसिक फैसला किया सत्ता ने कहा- बलवन्द ठीक है फिर हम भी दिखा देंगे कि हम क्या हैं, कल से दरबार मे गाना बन्द, देखते है कितने लोग आते हैं वहाँ ? हमारे शब्द सुनने के लिए ही तो संगत जुटती थी अब जब दरबार की शोभा ही न रहेगी तो लोग आकर क्या करेंगे और तब गुरुजी को हमारी कीमत जान पड़ेगी।

सत्ता और बलवन्द की दुर्बुद्धि क्या अनाप शनाप सोच रही थी उन्हें ज़रा भी आभास नही रहा कि जिस गुरु ने उन्हें उंगली पकड़कर चलना सिखाया आज उन्ही पर वे उंगलिया उठा रहे थे जिस गुरु ने उनके गले मे मीठे स्वर भरे उसी को वे कड़वे उल्हाने दे रहे थे।

दोनों भाइयों की पूरी रात करवटे लेते हुए बीत गई जिन आंखों में सुंदर स्वप्न सजा करते थे वे अनिद्रा की शिकार रहे। इस दौरान जुबान बेशक बन्द रहे लेकिन मन का पाप करना जारी रहा कुछ ही घण्टो के बाद सुबह हो गई पहले से बिल्कुल अलग रंग विहीन सुबह, मातमी विरानगी की चादर ओढ़े, आज न उनके आंगन में पक्षी चहचहाये न ही ठंडी पवन बही उन दोनों ने भी न तो रोज की तरह सुबह सुमिरन साधना की और न ही संगीत का रियाज किया।

उधर गुरु दरबार मे निश्चित समय मे संगत जुड़नी शुरू हो गई सबको इन्तेज़ार था कि सत्ता और बलवन्द आएं और उनको भाव विह्वल कर देने वाले शब्द सुनाएं। लेकिन जब 20 – 25 मिनट बीतने पर भी संगत ने सत्ता बलवन्द को गैरहाजिर पाया तो गुरुदेव के समक्ष उत्सुकता जाहिर की। गुरुदेव ने थोड़ा और इन्तज़ार करने को कहा। जब करीब 1 घण्टा होने को आया तो गुरु जी ने आदेश दिया- दो सेवादार जाएं और उन्हें घर से बुला लाएं। गुरुआज्ञा पाकर 2 सेवादार तुरन्त उनके घर की ओर रवाना हुए वहां पहुंचकर जब दरवाजा खटखटाया तब जो घटा उसकी उन्होंने कल्पना भी नही की।

दरवाजा तपाक से खुला सत्ता बलवन्द ने लाल आंखों से गुरु सिक्खों को घूरा उन्हें अंदर बुलाना तो दूर की बात उनकी दुआ सलाम का जवाब भी नही दिया और गरजते हुए बोले- क्यों आये हो यहां, किसने भेजा है तुम्हे ?

सेवादार बेचारे सहम गए क्योंकि वे सारे घटना कर्म से अनजान थे डरते-डरते बोले आपको गुरुमहाराज जी ने याद फ़रमाया है।

सत्ता बलवन्द के अहंकार की अग्नि को जैसे घी मिल गया वे तुरन्त बोले- क्यों ? एक ही दिन में अक्ल ठिकाने आ गई तुम्हारे गुरु की, जाओ कह दो उन्हें जाकर कि अब हम नही आएंगे वहां। ढूंढ सकते है तो ढूंढ ले वे कोई नए सत्ता और बलवन्द को.. इतना कहकर उन्होंने सेवादारों के मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया सेवादार रुआंसे से हो वापस गुरुदरबार पहुंचे।

हूबहु सारी घटना गुरुजी को सुनाई। गुरुजी एकपल के लिए गम्भीर हो गए लेकिन दया के सागर दूसरे ही पल मुस्कुरा पड़े और बोले अरे कोई बात नही आ जायेंगे। उस एक पल की गम्भीरता कोई साधारण न थी गुरुदेव साफ देख रहे थे उनके शिष्य पतन के दलदल में धँसे जा रहे है इस कारण वे चिंतातुर हो उठे हालांकि वे सुख दुख से परे है आनंद के स्रोत है लेकिन फिर भी इसपल दुखी हो उठे क्योंकि वे शिष्य अपने ही तो है, क्योंकि गुरु सब खत्म होते देख सकते हैं भारी से भारी नुकसान सहन कर सकते हैं लेकिन अपने शिष्य का पतन उन्हें भी व्यथित कर देता है। दूसरे ही पल उन्होंने अपने दुख को छिपा लिया सोचा कि कहीं मुझे चिंतित देख संगत का हौसला न गिर जाए। जैसे एक माँ को असहनीय दर्द हो रोना निकलने को होता है वह बच्चे के आगे नही रोती क्योंकि अगर माँ रो देगी तो बच्चा भी रोने लगेगा घबरा जाएगा।

गुरुजी ने तब अपने एक और श्रेष्ठ काबिल और जिम्मेदार शिष्य को उठाया कहा- जाओ भाई गुरुदास बिना विलम्ब किये सत्ता और बलवन्द को ससम्मान ले आओ। भाई गुरुदास जी गुरुवर के खजाने के रत्न थे लेकिन किसी को क्या पता था कि यहां उनका मूल्य भी कौड़ी के बराबर पड़ेगा। भाई गुरुदास जी जैसे कवावर शिष्य को अपनी दहलीज पर आया देखकर सत्ता और बलवन्द का अहंकार सातवे आसमान पर पहुंच गया उनके भौवे और चढ़ गई। भाई गुरुदास अपनी हर सम्भव कोशिश में असफल हो वापस गुरुदरबार लौट आये। गुरुदेव चुप और संगत भी चुप बिल्कुल सन्नाटा छा गया सबके मन मे चल रहा था कि गुरुवर सत्ता और बलवन्द को अब उनकी गुस्ताखी का दण्ड अवश्य देंगे। अचानक गुरुजी आसन से खड़े हुए सबलोग एकबार के लिए सहम गए शायद गुरुदेव क्रोधित होकर श्राप देंगे यही कल्पना सबकी थी लेकिन यह क्या गुरुदेव के वाक्य तो शीतल निकले झरने के समान श्राप की जगह वे तो वरदान देने को आतुर थे शमा के लाखों दियों से सत्ता बलवन्द की किश्मत चमक उठी।

गुरुदेव कृपामयी शब्दो में बोले कि- आप घबराए नही हमखुद जाएंगे सत्ता और बलवन्द को मनाने इतना सुनना था कि सबकी आंखे छलक पड़ी भावनाओ की समुद्र में एक-एक हॄदय बहने लगा और सारा दरबार जयघोष के स्वर से गूंज उठा। देवता भी धन्य-धन्य कर उठे। हो भी क्यों न आज एक सूरज जुगनू को मनाने चल पड़ा, एक समुद्र बून्द से पानी उधार मांगने को आतुर था। गुरुमहाराज जी सभी शिष्यो सहित सत्ता और बलवन्द के घर की तरफ कुच किये। पूरा रास्ता भक्तो के लश्कर से सज गया जयघोष के नाद से धरती गगन निनालित हो उठे यहां एक कुपथि शिष्य की रुसवाई हरने स्वयं गुरुदेव उनके घर जा रहे हैं। यह प्रकृति के बिल्कुल विपरीत हो रहा था पहली बार कुआँ चलकर प्यासे के पास जा रहा था यही भाव लेकर कि ए पगले मुसाफिर ! अगर तू मुझे छोड़कर चला गया तो भला कौन तेरी पिपासा शांत करेगा, कौन तेरी व्याकुलता हरेगा ? ठीक है मैं छोटी सी तो शर्त रखता हूं कि पानी के लिए तुझे थोड़ा झुकना पड़ेगा दोनों हाथ जोड़कर अंजुली बनानी पड़ेगी, क्या तू इतना भी नही कर सकता ? अरे झुकने से तू ही तो प्राप्त कर रहा तेरी ही हर रग ताजगी से भर रही है मुझे भला इसमे क्या मिलना है ?

थोड़ी ही देर बाद गुरुदेव के पवित्र चरण सत्ता बलवन्द की दहलीज पर आकर थम गये संगत की जयघोष ने घर के अंदर बैठे सत्ता बलवन्द को चौकन्ना कर दिया।

गुरु की कॄपा देखिए वैसे तो घर के बाहर भिखारी रुकते है और दहलीज के अंदर मालिक लेकिन शिष्य को मनाने के लिए वह जगत दाता आज स्वयं भिखारियों के स्थान पर फरियादी की भांति खड़ा था और असल भिखारियों को दाता के स्थान पर बिठा रखा था। दुनिया को गुरु के रूठने का भय होता है लेकिन यहां गुरु को शिष्य के रूठने पर चिंता हो रही है तभी गुरुदेव ने अपनी नरम उंगलियों से कठोर दरवाजे पर एक दस्तक दी और सत्ता बलवन्द को आवाज लगाई.. हालांकि उन दोनो को ऐसे आना चाहिए था जैसे बछड़ा अपनी माता की पहली आवाज पर ही दौड़ा चला आता है लेकिन अफसोस ऐसा कोई प्रतिक्रिया नही हुई अंदर श्मशान सा सन्नाटा पसरा रहा। गुरुदेव ने दूसरी आवाज दी, इस बार भी दरवाजा नही खुला लेकिन सत्ता बलवन्द के मन की नफरत बुड़बुड़ाते हुए मुख से बाहर निकल आई।

गुरुवर ने फिर तीसरी बार आवाज दी, अब की बार सत्ता बलवन्द दरवाजा खोलकर कुछ ऐसे बाहर आये जैसे पानी बांध को तोड़कर निकलता है। न कोई सिजदा, न सलीका, न अदब और न झुकी नज़रे, सत्ता बलवन्द के सारे आत्मिक श्रृंगार कोयला बन चुके थे। जो सिर गुरुवर को देखते ही श्री चरणों मे गिर जाया करते थे वे सुखी लकड़ी की तरह अकड़े रहे। सत्ता ने छूटते ही एक अभद्र वाक्य बोला- क्यो महराज अब क्या करने आये हो यहाँ ?

गुरुवर शांत सागर की तरह सत्ता की तरफ देखकर मुस्कुराते रहे। बलवन्द ने भी सत्ता के सुर में सुर मिलाते हुए बदमिजाजी में दो कदम और बढ़ा दिए, जाओ महराज जाओ अब हम नही कदम रखेंगे वहां ढूंढ लो और कोई गवैया अगर ढूंढ सकते हो तो।

गुरुवर मधुपगे शब्द में बोले- अरे पगलो ! मुझे संसार के तानसेनो से क्या वास्ता ? भला घर मे शहद हो और मैं बाहर गुड़ मांगने जाऊ यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? चलो सब तुम्हारा इन्तज़ार कर रहे हैं जाकर दोनों भाई अपनी सेवा सम्भालो।

तभी सत्ता बोला- सुनो महराज ! हम कहीं नही जाने वाले और हां! इस भ्रम को मत पालना कि तुमसे टूटकर हम बर्बाद हो जाएंगे तुम तो अपनी सोचो हम भी देखते हैं हमारे संगीत कौशल के बिना तुम्हारे दरबार मे संगत कैसे जुड़ती है।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी….

शिष्य की कसौटी, सत्ता और बलवन्द का अहं (भाग-1)


गुरु ही मार्ग है, जीवन है और आखिरी ध्येय है। गुरु कृपा के बिना किसी को भी सर्वोत्तम सुख प्राप्त नही हो सकता, गुरु ही मोक्ष द्वार है गुरु ही मूर्तिमन्त कृपा है। गुरु और शिष्य के बीच जो वास्तविक सम्बन्ध है उसका वर्णन नही हो सकता वह लिखा नही जा सकता वह समझाया नही जा सकता। सत्य के सच्चे खोजी को करुणास्वरूप ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास श्रद्धा और भक्तिभाव से जाना चाहिए उनके साथ चिरकाल तक रहकर सेवा करनी चाहिए। शिष्य की कसौटी करने के लिए गुरु जब विघ्न डालें तब धैर्य रखना चाहिए। बाग में फूलो को छू रहे हो तो कांटो से बचना क्योंकि कांटे कहीं न कहीं इन फूलों के आस पास छिपे बैठे है कब चुभ जाएंगे आपको पता भी नही चलेगा ऐसा भी नही कि मुकाबला बराबर का है।फूल एक है तो कांटो की संख्या उससे कहीं अधिक है इसलिए किसी शायर ने कहा कि..

“ऐ फूलों के आशिको खबरदार

फूल को निगाह में रखने से पहले

याद रखना कि तुम कांटो की निगाह में हो”

यही बात तो एक साधक के साथ घटित होती है ज्यों ही वह भक्ति रूपी फूल को पाने के लिए आगे बढ़ता है वह शैतान की नज़र में आ जाता है। शैतान अर्थात कलुषित मन, अगर भूल से भी वह शैतान के कांटों में फंस जाए तो उसका सबकुछ ठगा जाता है। वर्षो की सेवा समर्पण औऱ तपस्या एक दूधिया अथक प्रयासों के बाद उज्ज्वल शुद्ध दुध इकट्ठा करता है उसे इस दूध के अच्छे दाम मिल सकते हैं लेकिन अगर खटाई की एक बूंद इस दूध में गिर जाए तो उसका सारा दूध मिलकर भी इस खट्टे की बून्द को बेअसर नही कर पाता जबकि वह एक बूंद ही सारा दूध खराब कर देती है।

भक्ति मार्ग का सबसे बड़ा कांटा और खट्टी बून्द है हमारा अहंकार, इसी के शिकार हुए थे सत्ता और बलवन्द। दोनों सगे भाई थे और गुरु श्री अर्जुनदेव जी के दरबार के गवैया थे। उनके गले मे साक्षात् सरस्वती का वास था जिस समय दोनों भाई कोई राग अलापते तो जैसे सूरज भी ठिठक कर सुनने लगता, पक्षी उड़ना भूलकर थम जाते, नदिया की कल-कल आवाज उनके सुर से सुर मिलाती सुबह शाम शब्द कीर्तन की मधुर धुनों पर वे सबको मोहित किया करते थे। पूरा दिन गुरु दरबार मे सेवा करने और रात को अपने घर चले जाना बस यही उनकी दिनचर्या थी।

दरबार का हर प्रेमी उन्हें बेइंतहा प्यार और सम्मान देता था लेकिन कहते हैं न “अती सर्वत्र वर्जयेत” अति किसी भी चीज की नुकसान देह होती है। अगर हद से ज्यादा मीठा खाया जाए तो वह भी मधुमेह का कारण बन जहर सिद्ध होता है। यही सत्ता और बलवन्द इन दोनो भाइयों के साथ हुआ जैसे ही वे शब्द गान करके मंच से नीचे उतरते संगत उनके प्रशंसा में तारीफों के पुल बांध देती हालांकि वे अक्सर मंच से कहा करते थे कि “मैं निर्गुण यारे को गुण नाही आपे तरस पइयो ये” लेकिन प्रशंसा के इस हाल को वे गुरु चरणों मे अर्पित करना भूल जाते इस वजह से वे अहम के गिरफ्त में कैसे फंसते गए उन्हें स्वयं भी पता न चला।

अब सत्ता और बलवन्द गुरु के लिए नही बल्कि व्यक्तियों के समूह के लिए गाने लगे। हर ऊंचा राग आंखे बंद कर पूरे स्वाद के साथ गाने के बाद तुरन्त उनके नेत्र खुल जाते और संगत के चेहरों पर कुछ ढूंढने लगते जी हां ! यह ढूंढ होती थी वाहवाही की, तालियों की, यही सुनने की कि भैया कमाल कर दिया आज तो मजा आ गया और तो और कम संगत होने पर उन दोनों के चेहरों पर उदासी छा जाती, लग्न और उत्साह वाले भाव गुम से हो जाया करते। उनकी स्थिति उस मूढ़ व्यक्ति की सी हो गई जो सर्प के सिर पर सजे मणि को तो पा लेना चाहता है लेकिन सर्प डसेगा भी यह उसको ख्याल नही रहता।

प्रशंसा बहुत चमकीली होती है सबको अपनी ओर खिंचती है परन्तु अफसोस उसका ठिकाना अहम रूपी जहरीले सर्प के ऊपर है।

सत्ता और बलवन्द प्रशंसा रूपी मणि के चक्कर में अहम के सर्प से डसे गए उन्हें लगने लगा कि दरबार मे वे कुछ खास हैं उनका स्थान अन्य लोगो से अलग है। धीरे-धीरे इसका कुप्रभाव उनके व्यवहार में भी झलकने लगा अब वे सबकी दुआ सलाम का जवाब देना जरूरी नही समझते किसी को खुद पहले प्रणाम कहना तो जैसे उनकी शान के खिलाफ हो गया। ऐसा नही था कि गुरुमहाराज जी सत्ता बलवन्द की इस आंतरिक स्थिति से अनजान थे। उन्होंने कई बार सोचा भी कि इन्हें समझाया जाय लेकिन हरबार रुक गए क्योंकि वह जानते थे कि अहम का रोग किसी को हो जाता है तो वह किसी की बात कम ही सुनता है।

अहंकारी के कान खराब हो जाते हैं अगर उसे कुछ कह दिया जाय तो उससे क्रोधरूपी विष ही बाहर आता है।

यूँ ही समय बीतता गया एक दिन सत्ता, बलवन्द की बहन के लिए एक अच्छे परिवार से रिश्ता आया दोनों की दिली ख्वाहिश थी कि वे अपनी बहन की शादी इतने धूम धाम से करें कि सबकी आंखे फ़टी की फटी रह जाएं, चारो ओर धाक जम जाए। लेकिन इन सबके लिए जरूरत थी धन की। अब चूँकि उनके पूरे परिवार का पोषण गुरु घर से होता है इसलिए शादी का प्रबंध भी गुरु घर से होना स्वभाविक था इसलिए सत्ता और बलवन्द गुरुमहाराज जी के आगे उपस्थित हुए और सारी स्थिति बयान कर डाले।

गुरुमहाराज जी ने विनती सुनी और कहा- कल दरबार मे जितना भी चढावा चढ़ेगा तुम सब ले जाना और उससे अपनी बहन का विवाह कर लेना।

दोनों खुशी से उछल पड़े सोचा कि रोज जितना धन चढावे में आता है उतने से तो हम शादी में चार चांद लगा देंगे। अगली सुबह समय से 20 मिनट पहले ही वे गुरुदरबार की ओर चल पड़े उनके मन मे एक अलग ही उमंग थी कुछ ऐसे ही जैसे एक बच्चे में होती है जब वह मेला देखने जाता है झूला पर झूलने की चाह और अच्छी-अच्छी मिठाइयों की कल्पना बच्चे में कुछ अलग ही उत्साह भर देती है वह तेज तेज़ कदमो से मेले की ओर बढ़ता है। आज सत्ता और बलवन्द के कदम भी तेजी से गुरु दरबार की ओर बढ़ रहे थे।

गुरुदरबार मे पहुँचते ही उन्होने अपने साज सजाने शुरू कर दिए उनकी हर क्रिया में विशेष अधीरता सी थी लेकिन यह क्या आज संगत को क्या हुआ ? मात्र गिनती के ही लोग उपस्थित थे जबकि इस समय तक तो पूरा पंडाल भर जाया करता था खैर कोई बात नही संगत अभी आती ही होगी यह सोचकर वह मंच पर बैठ गए और सबसे पहले अपने सबसे प्रसिद्ध शब्द के राग छेड़े उनका जोश देखने लायक था पूरा पंडाल उनके आवाज़ से झंकृत हो उठा। संगत जैसे आंनद के किसी दिव्य रथ पर सवार हो चली ढोलक, छैनो आदिक की झंकार पर सबके पांव थीरक उठे।

सत्ता और बलवन्द ने भी अपनी कौशल की सारी पूंजी लगा दी उन दोनो का पूरा शरीर पसीने से तर हो गया लेकिन धीरे-धीरे उनका जोश ठंडा पड़ने लगा, ऊंचा स्वर मध्यम होने लगा, तान की मधुरता खोने लगी सुर बोझ से लगने लगे कारण शब्द कीर्तन का निश्चित समय खत्म होने की दहलीज पर था और प्रेमी इतने से थे जैसे आंटे में नमक। अन्य दिनों के मुकाबले आज आधी संगत भी नही आई थी समय पूरा होते ही शब्द कीर्तन का कार्यक्रम समाप्त हुआ संगत ने माथा टेका और अपने अपने घर चले गई लेकिन सत्ता और बलवन्द कि तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई एक गुम सी चुप्पी ने उनके होठो पर ताले जड़ दिए। पांव शरीर का भार सहन करने से मना करने लगी।

तभी गुरुमहाराज जी बोले- वाह सत्ता और बलवन्द वाह ! तुम दोनों ने तो आज समा बांध दिया जाओ जितना भी चढावा चढा है सब ले जाओ धूमधाम से अपनी बहन की शादी करो।

गुरुदेव के ये शब्द उन दोनों के हॄदय में व्यंग्यबाण की तरह चुभे उन्हें ऐसा लगा मानो भरी सभा मे खड़ा कर उन्हें तमाचा मार दिया गया हो। एक सेवादार ने आसन से माया इकट्ठी की और पोटली में बांधकर इनको दे दी भेंट में इतना कम धन मिला था कि उससे भव्य शादी तो दूर की बात जनाज़े के लिए बांस और कफ़न तक भी बड़ी मुश्किल से जुटे वे इस पोटली को लेकर दरबार से ऐसे निकले जैसे सैकड़ो एकड़ जमीन के हकदार को दो गज जमीन देकर गांव से निकाल दिया गया हो।

अब कहानी बिगड़ चुकी थी उन दोनो के अंदर ही अंदर लावा सुलगने लगा था। माथे पर अंकित नफेतर घृणा के बल, उनके दिल का हाल साफ बयान कर रही थी। घर सामने था लेकिन घर की दहलीज उन्हे इतनी ऊंची प्रतीत हो रही थी जैसे किसी ऊंची दीवार को लांघ रहे हो अभीतक वे दोनों आपस मे सँवाद शून्य थे लेकिन जैसे फोड़ा पकने के बाद मवाद अपने आप बाहर रिसने लगती है। सत्ता बलवन्द के विकृत मन की मवाद भी मोह के रास्ते फुट पड़ी।

सत्ता बोला- देखा भैया ! कैसा हश्र किया हमारा, जैसा दूध में गिरी मक्खी के साथ किया जाता है ऐसा हमारे साथ हुआ सारी उम्र हमने गला फाड़-फाड़कर शरीर बैठा दिया और आज अगर हमने चंद पैसे मांगे तो हमे यह चिल्लर पकड़ा दिया गया इससे तो एक भिखारी भी संतुष्ट न हो। भरी पूरी बारात का सेवा पानी तो बहुत दूर की बात है ऐसा धोखा तो कोई दुश्मन को भी नही देता जैसा उन्होने हमे दिया, जरूर गुरुमहाराज जी ने ही संगत को आज आने से मना किया होगा।

बलवन्द ने अपने शब्द से जहर उगला- हां भैया ! हमारे ही स्वरों पर तो मोहित होकर दुनिया यहां आती है, हम ही से प्रभावित होकर लोगो ने धन न्योछावर किया और उस धन से दरबार निर्मित हुआ आज हमारे लिये ही धन में तोट (कमी) आ गई।हमने सब इकट्ठा किया और आज मालिक ये गुरु बन बैठे हैं।

सत्ता फिर बोला- मैं तो कोस रहा हूँ उस दिन को जब हम गुरु के चाकर बने कहां फंस गए यहां ? अगर हम संसार में कहीं गाते तो राजाओं जैसे ठाठ होते नौकर होते, हवेलियाँ होती और पता नही क्या-क्या होता हमारे पास।

कल हम पढ़ेंगे कि कैसे सत्ता और बलवन्द गुरु से विपरीत दिशा की ओर चल पड़े….