कई समर्पित शिष्यों को रांची
के किसी आश्रम में सद्गुरु परमहंस योगानंदजी अपने सानिध्य से सींच रहे थे ।
एक दिन काशी नाम का समर्पित
युवान शिष्य के अंतर्मन में एक विचित्र जिज्ञासा उठी।
हे गुरुवर! आप तो सर्वज्ञ है सर्वान्तर्यामी है। किसी की
कोई भी बात भला आपसे कहां छिपी है। आप तो भुत भविष्य और वर्तमान तीनों के ज्ञाता
है। आप से अधिक भला कौन जान सकता है… कि मेरे भविष्य में क्या लिखा है ?
कहिए ना गुरुवर मेरा भविष्य
कैसा होगा? ।”
काशी के कुतूहल भरे प्रश्न
को सुनकर योगानंद जी मौन हो गए। काशी से रहा न गया उसने अपना हट फिर दोहराया।
इस बार गुरुवर का मौन टूटा
और भविष्य का रहस्य उद्घाटन करते हुए वे बोले “काशी तुम्हारी शीघ्र ही मृत्यु
होने वाली है।”
आश्रम में सेवा समर्पण से यह
बात काशी को उतना आघात न कर सकी क्योंकि सेवा और सद्गुरु को समर्पण जीव को अभय और
निर्भय बना देता है। काशी ने यह सुनते ही दोनों हाथ जोड़ नेत्रों को मूंद लिया सिर
को श्रद्धा वद झुका लिया उसके भीतर से भावनाओं का झरना फूट पड़ा है।
“हे गुरुवर! मृत्यु के बाद
अगर मुझे दोबारा मानव का चोला मिला तो आप मुझे स्वीकार कर लोगे ना? मुझे संसार की भीड़ में से
ढूंढ कर अपने श्री चरणों में ले आओगे ना ?आपके श्री चरणों का आश्रय मुझे दोबारा मिल पाएगा ना गुरुदेव
….।”
काशी एकटक गुरुदेव को देखता
हुआ कहे जा रहा था
“हे गुरुदेव! तुम दया के
सिंधु कहलाते हो ।
*एक बूंद की मुझको भी प्यास
है,*
*साथ निभाया तूने मेरा हर पल
तू ही मेरे साथ है।*
*परंतु बात इस जन्म की ही
नहीं अगले जन्म की बात है।* *जानता हूं तेरा संग एक जन्म का नहीं,*
*परंतु फिर भी इस नाचीज की
इतनी ही अरदास है।*
*ना छोड़ देना अकेला मुझको इस
बीहड़ जंजाल में,*
*माया का जहां हर पल होता
तांडव नाच है।”*
काशी ऐसे गुरुदेव के समक्ष
प्रार्थना किए जा रहा था।
काशी के सच्चे ह्रदय से
निकले भाव को सुनकर गुरुदेव ने आखिर कह ही दिया कि
“ऐसा अवश्य होगा काशी अगर
ईश्वर ने चाहा तो।
काशी ने कहा “ईश्वर ने
चाहा तो? गुरुवर!
मैं आपके सिवा किसी दूसरे ईश्वर को नहीं जानता, आपके अलावा मेरा किसी और से परिचय नहीं और मैं भला किसी
दूसरे को ईश्वर का दर्जा दे भी कैसे सकता हूं? हर तरह का उपहार और प्रसाद मैंने आपसे ही पाया है। मैं
सिर्फ आपकी करुणा से परिचित हूं और मुझे विश्वास है केवल आप की दया पर..
*जानता हूं आप संसार रूपी वन
में मुझे भटकने नहीं देंगे।*
*अपना बालक समझ मुझे शरण में
ले लेंगे*
मुझ पर दया करना गुरुदेव…
मुझे दोबारा अपने पावन आंचल में ले लेना.. ले लेना ना… यह कहता हुआ काशी गुरुदेव
के श्री चरणों में सिर रखकर रोने लगा।
*माना मुझे मनाना आता नहीं, पर चल पड़ा हूं तुझे मनाने
को।* *दिल की कसक रुकती नहीं मजबूर हो तुझे पाने को।*
*न थम रहा ना रुक रहा तूफा ये
कैसा बढ़ रहा ?*
*एक आस एक तड़प एक विश्वास है
बस मात्र तुझे पाने को ।*
काशी के आंसुओं ने आज एक घोर
जंग लड़ी और आखिरकार इस जंग में वे विजय भी हुए। जन महिमा मई गुरुदेव के हृदय को
द्रवित करने का लक्ष्य लेकर आंसुओ ने आंखों में कदम रखा था उस लक्ष्य को उन्होंने
बेध डाला ।
गुरुदेव ने काशी की अरदास को
स्वीकार किया उसे फिर से मिलने का अटल वचन दे डाला।
कुछ समय पश्चात योगानंद जी
को किसी जरूरी काम से बाहर जाना पड़ा । उन्होंने काशी को बुलाया “सुनो काशी
चाहे कुछ भी क्यों ना हो कोई तुम्हें कितना भी कहीं भी ले जाने का हट क्यों ना
करें तुम आश्रम के दिव्य स्पदंन में ही रहना। यहां से बाहर मत जाना। काल के सर्प
का फन दुर्गम से दुर्गम स्थान पर छिपे शिकार को खोज लेता है । परंतु मेरी आज्ञा के
सुरक्षित किले में बैठे भक्त का वह काल कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसलिए तुम सावधान
रहना किसी के भावनात्मक या किसी भी प्रकार के दबाव में आकर इस आश्रम के प्रांगण से
बाहर मत जाना। यह मेरी आज्ञा है।
योगानंद परमहंस जी तो चले गए परंतु
दुर्भाग्य की करामात देखिए कि उसी दिन काशी के पिता रांची आश्रम पहुंच गए ।
वे काशी पर दबाव डालने लगे
कि वह आश्रम छोड़कर घर पुनः चले लगातार पंद्रह दिनों तक कोशिश करने पर भी जब वे
असफल रहे। तो काशी को अनेकानेक प्रलोभन देने लगे।
” बेटा तू मेरे साथ चल मैं
तेरा दाखिला सबसे बड़े विद्यालय में कराऊंगा वहां ऊंची शिक्षा पाकर तू डॉक्टर, वकील, इंजीनियर वगेरह जो बनना चाहे
बन सकता है।
फिर दुनिया के सब एसो आराम
तेरे कदमों में होंगे यहां मजदूरों की तरह जीवन क्यों यापन कर रहा है?”
परंतु जब इन प्रलोभनों से भी
बात ना बनी तो भावनात्मक हथकंडा अपनाया गया।
” काशी बस एक बार अपनी बीमार
मां को देख आ फिर तु भले ही रांची लौट आना।”
“क्या पता तुझे देख वह फिर से
हरी हो जाए । जिसने तुझे जन्म दिया है क्या उसे तू एक बार अपना चेहरा दिखा कर नया
जन्म नहीं सकता?
काशी अडीग रहा । गुरु भक्त
की निष्ठा के सामने सांसारिक पिता को बार-बार घुटने टेकने पड़े । काशी ने उनके साथ
जाने से साफ इनकार कर दिया।
अब काशी के पिता नियंत्रण खो
बैठे और आश्रम परिसर में जोर-जोर से चिल्लाकर प्रलाप करने लगे।” काशी तुझे इस
आश्रम को छोड़कर घर चलना ही होगा यह एक पिता की आज्ञा है और तुझे इसका पालन करना
ही होगा। अगर तू खुद नहीं चला तो तुझे घसीटकर यहां से ले जाऊंगा और हां याद रखना
जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद भी ली जा सकती है ।”
पुलिस की मदद… नहीं नहीं
मेरे कारण मेरे गुरुदेव के पवित्र आश्रम में पुलिस आए लोग मेरे गुरुदेव का उपहास
करें मै यह पाप का बोझ नहीं उठा सकता। गुरु के सम्मान को खंडित करने से अच्छा मै
मृत्यु को गले लगा लू।
काशी ने मन ही मन निर्णय कर
लिया और काशी पिता के साथ घर चला गया ।
लेकिन यह उसकी स्थूल देह ही
थी जो आश्रम से बाहर गई। परंतु उसका मन गुरु प्रेम में और आश्रम में ही रह गया।
दूसरी ओर काशी के पिता सफलता
का अनुभव कर रहे थे। परंतु असलियत में यह उनकी हार थी। सदा धिक्कारी जाने वाली
हार।
जिस अहंकार को तुष्ट होता
देखकर वे खुशी के उन्माद में खोए थे। दरअसल वह जीवनभर रिसने वाले विषाद की मवाद
थी।
मां पिता का वह स्नेह जिसने
कभी काशी को पाला था अब वही काशी को बंधनकारक अनुभव होने लगा। गुरुदेव से दूरी
उसके प्राणों को तन से दूर ले जाने लगी। और एक दिन इतना दूर ले गई कि फिर काशी
वापस कभी ना लौटा। गुरुदेव की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई और काशी की मृत्यु हो गई।
उधर योगानंद जी जैसे ही
आश्रम लौटे उन्होंने अन्य शिष्यों से काशी के बारे में पूछा। सर्वज्ञ अंतर्यामी
गुरुदेव पूछने की केवल औपचारिकता निभा रहे थे ।
मानो वे कुछ पल के लिए अपनी
सर्वज्ञता भूलना चाहते थे ।अपनी दूरदर्शिता पर पर्दा डाल देना चाहते थे ।
वे चाहते थे कि कोई आए और
उन्हें कहे कि काशी हमेशा की तरह अपनी सेवा में संलग्न है ।वह आश्रम के भीतर ही
है। उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। परंतु हर शिष्य के मौन ने उन्हें उनकी चाह से उल्टा
ही जवाब दिया। जब उन्हें उनके पीछे से आश्रम में घटी एक एक घटना का पता चला। तो वे
तुरंत कोलकाता के लिए निकल पड़े। काशी के घर पहुंचते ही उन्हें सबसे पहले जो लोग
दिखाई पड़े दुर्भाग्य से वे सूतक वस्त्रों में खड़े थे ।
योगानंद जी का संदेह अब
विश्वास में बदल गया।
योगानंद जी काशी के पिता के
पास पहुंचे और वेदना भरी आवाज में बोले..
” छीन लिया ना तुमने मुझसे
मेरा काशी । अपनी आज्ञा के बंधन में बांधकर मै काशी के जीवन की जिस दुर्घटना को
टालना चाहता था तुम्हारी हठधर्मिता ने उसी दुर्घटना को ला खड़ा कर दिया। यह तुमने
अच्छा नहीं किया। आखिर क्या देना चाहते थे तुम यहां लाकर काशी को ?
सांसारिक सुख सुविधाएं वैभव
विलास यश ऐश्वर्य। तुम क्या जानो इन सबसे ऊपर उसका ध्येय सत्य को पाना था। मेरा
काशी…यदी थोड़ा समय और दिया जाता तो वह परम लक्ष्य को अवश्य पा जाता ।
योगानंद जी अगले ही पल नम नेत्रों से बोल उठे..
“मैंने उसे अपनी गर्भ में
धारण किया था। अपने गोद में अपने ह्रदय में स्थान दिया था मैंने उसे। आज मुझसे
मेरा काशी छीनकर तुमने मेरे हृदय पर प्रहार किया है। पल पल विदीर्ण होता मेरा
ह्रदय मैं तुम्हें कैसे दिखाऊं?”
उसके जीवन की हर विकट
परिस्थिति को प्रसव पीड़ा की तरह सहा था मैंने ।
कैसे बताऊ तुम्हें अपनी वेदना? तुम नहीं समझ सकोगे.. कभी
नहीं। क्योंकि तुम केवल एक सांसारिक पिता हो और मेरा काशी मुझ में सब संबंध खोजता
था माँ, बंधु, पिता, भाई.. मैं भी हर संबंध में
छिपा प्रेम को उस पर लुटा देना चाहता था। तुमने मेरी पूर्ण होती अभिलाषा में बाधा
उत्पन्न की है। तुम ही कारण हो तुम ही…।
आज दो पिता आमने-सामने थे एक
वह जो ऊपर से नीचे लाने वाला है और दूसरा वह जो नीचे से ऊपर ले जाने वाला पिता है।
एक जीवन से मृत्यु की ओर ले जाता है तो दूसरा मृत्यु के बाद आरंभ होने वाले जीवन
का मार्ग सुझाता जाता है।
एक सीमित सा पोखर है और
दूसरा पिता विशाल सागर है ।
एक मोह के विष से महत्वाकांक्षाओं के बादल तले
स्वार्थ की बारिश से जीवन को सींचता है और दूसरा पिता बिना किसी स्वार्थ के
निष्काम भावना से अपनी कृपा की आकाश तले दिव्य प्रेम के पावन जल से जीवन को सींचता
है । कहीं कोई बराबरी नहीं ।
दोनों में कोई तुलना नहीं
इसलिए केवल पिता ही नहीं संसार के सारे संबंधों की ममता को भी यदि तुला के एक
पलड़े में रखा जाए और दूसरे पलड़े में गुरु का एक पल का भी स्नेह रखा जाए तो तराजू
वही झुकेगा जहां गुरु का दिव्य प्रेम है।
शेख सादीक तो यहां तक कहते
हैं की गुरू की डांट भी पिता के स्नेह से बढ़कर होती है अर्थात बाहर से कठोर होते
हुए भी गुरू की स्नेह सागर संसार मे कोई तुलना नहीं।
काशी के पिता भी आज गुरु
योगानंद के अधिकार व स्नेह के सामने अपने को बौना महसूस कर रहे थे। उन्हें उनकी
भूल रह रहकर ऐसी टीस दे रही थी जिसका इलाज अब वह किसी औषधि में नहीं था ।
आत्मग्लानि और पश्चाताप से उनका ह्रदय भर आया।
उनके शब्दकोश में एक भी शब्द
ऐसा न था जिसे वह अपनी सफाई में योगानंद जी के सामने रख पाते परंतु यह कथा यहीं
खत्म नहीं हो सकती। काशी का गुरुदेव से मांगा वह वचन और गुरुदेव का उसे पूरा करने
का वायदा अभी इस प्रसंग का घटना बाकी था।
योगानंद जी को बेसब्री से
इंतजार था उन पलो का जब उनका काशी संसार में दोबारा जन्म लेगा। सुबह उपयुक्त समय आ
पहुंचा। काशी ने माता के गर्भ में स्थान लिया वहीं से काशी की आत्मा पुकार करने
लगी गुरुदेव मैं आ रहा हूं.. आपका काशी दुबारा जन्म ले रहा है । आपको अपना वचन तो
याद है ना गुरुदेव। मुझे अपना लेना। गुरुदेव! मुझे माया के जंजाल में अकेला मत
छोड़ना। आपके श्री चरणों का स्नेह, सेवा का सौभाग्य यह सब दोबारा मेरी झोली में डाल दोगे ना
गुरुदेव। यह भीख है उस याचक की जो संसार में बहुत बार बहुत कुछ खो चुका है।
मुझे अपने पास बुला कर धनवान
होने का गौरव दे देना गुरुदेव । मैं आपके अभाव की दरिद्रता को कदापि सह नहीं सकता।
काशी मानो गर्व से अपने
गुरुदेव प्रार्थना कर रहा था….
*अगर तू नहीं है मेरी जिंदगी
में, नहीं
जिंदगी से है कोई वास्ता।*
*सच कहता हूं तू ना मिला अगर
इस जिंदगी का मौत ही है रास्ता ।*
विवेकानंद जी के शब्दों में विवेकानंद जी कहा करते थे,
जिस समय एक सच्चा प्यासा
पानी की तलाश में निकलता है पानी के सिवाय किसी और विकल्प को स्वीकार नहीं करता।
तो ऐसे प्यासे के लिए मानो नदी में भी ऊंची ऊंची लहरें उठती हैं। उफान आ जाता है।
वह जल राशी भी उस संतप्त हृदय की प्यास से व्याकुल जीव की प्यास को शांत करने को
व्याकुल हो उठती है ।
गुरुदेव योगानंद के साथ भी
कुछ यही घटा । वे अपने शिष्य काशी के लिए व्याकुल हो उठे। जो समस्त मानवता को
धैर्य का पाठ पढ़ाते हैं ऐसे गुरुदेव भी प्रेम के वश होकर खुद ही धैर्य की परीक्षा
में उत्तीर्ण हो गए।
कुछ दिनों के बाद योगानंद जी
ने एक द्वार खटखटाया दंपत्ति बाहर आए “क्या आपके यहां कोई संतान जन्म लेने
वाली है?” दंपत्ति
ने हैरानी से एक दूसरे की तरफ देखा और फिर प्रश्नवाचक दृष्टि से योगानंद जी को
देखा “आपको यह सूचना किसने दी?” योगानंद जी ने कहा “इस प्रश्न को छोड़िए आपके लिए इतना
जानना ही काफी है कि आपके यहां एक पुत्र जन्म लेगा उसका वर्ण गौर और मुखाकृति
चौड़ी होगी । उसके माथे के ऊपर सामने की ओर झुका होगा।घुघराले बालों का गुच्छा
होगा। उसकी वृत्ति आध्यात्मिक होगी। परंतु आप यह सब कैसे कह सकते हैं ?”
“क्योंकि आपका होने वाला
पुत्र मेरा शिष्य काशी है।” मेरा काशी। दंपत्ति के आग्रह करने पर योगानंद जी
ने उन्हें सबकुछ विस्तार से बताया सारी घटना को जानने के बाद दंपति भी स्वयं को
सौभाग्यवान समझने लगे कि वे इस अलौकिक लीला का हिस्सा है। उन्हें गुरुदेव की सेवा
करने का सुअवसर मिला है।
आखिरकार वह सौभाग्यशाली पल आ
ही गया जब काशी ने जन्म लिया। ठीक वैसा ही रूपरंग जैसा गुरुदेव ने बताया था।
और उसके जन्म लेते ही गुरुदेव उसे दर्शन देने वहा स्वयं पहुंचे ।
कैसा होता है यह गुरु शिष्य
का अलौकिक प्रेम। कैसा होता है यह गुरु शिष्य का अलौकिक संबंध जिसके समक्ष काल भी
हाथ जोड़कर नतमस्तक हो जाता है।
इसलिए गुरु शिष्य का संबंध
पवित्रम संबंध है । संसार के तमाम बंधनों से छुड़ाकर यह संबंध मुक्ति के मार्ग पर
प्रशस्त करता है । यह संबंध जीवन पर्यंत का संबंध है।
यह बात अपनी ह्रदय की डायरी में स्वर्ण अक्षरों से लिख लो।