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सबसे बड़ा भक्त…. (बोध कथा)


जिज्ञासु ने पूछा गुरूजी क्या आपकी कृपा सार्वजनिक रूप से सब पर बरसती है। या कुछ उन लोगो पर जिनकी कुछ तैयारी होती है क्या कुछ ही पर कृपा होना पक्षपात नही है कृपा करके भागवत भाव के बारे मे कुछ समझाइये।
गुरूदेव ने कहा कि पक्षपात मूढ़ों को लगता है महात्मा को पक्षपात क्या?

सर्वज्ञ नामक एक महान कवि हो गये हैं जिन्होंने तेलगु, कन्नड़ दोनो भाषाओ मे काव्य लिखा। सब उन महर्षि सर्वज्ञ का सम्मान करते थे भगवान की कृपा किस पर होती है किस पर नही एक कविता मे वे समझाते है। भगवान् का पक्षपात क्या या अधिकार भेद क्या? प्रातःकाल मे भगवान सूर्यनारायण के उदय होते ही रात्रि भाग जाती है प्रकाश दौड़ दौड़कर आता है। अपने आप चलकर सुर्य को दोनो के भेद का ज्ञान नही। सुर्य से अंधकार के बारे मे पूछने पर वह इतना ही कहेगा कि अंधकार क्या है हमने देखा भी नही सुना भी नही पढा भी नही क्या है यह वह जानता भी नही कि अंधकार क्या है। वे अपने काव्य मे लिखते हैं कि मोम सुर्य के प्रकाश को देखते ही पिघल जाती है और कीचड़ सुखने लगता है और कौवे की आंख लौटने लगती है। उल्लू की चली जाती है और ब्राह्मण बिंद नाचने लगते है कि सुर्य को अर्घ्य देने का समय आ गया और चोर भाग जाते हैं।

सुर्य किसी बात को जानता नही वह न कौवे को आंख देता है न उल्लू की छीन लेता है न चोर को भगाता है न ब्राह्मण को हर्षित करता है सब अपने अपने स्वभाव के अनुसार सुर्य को अनुकूल प्रतिकूल देखते है सुर्य तो निर्विकार है। इसी पर एक कथा सुनाता हूँ सुनो।

विष्णु के दरबार मे सजे सजाये डीग्री वाले भक्त बहुत थे सबको ऐसा लगता था कि हम नजदीक है हम नजदीक है परंतु क्या पता वे निकटता के अभिमान से कितनी दूर रहते थे। उन्होंने एक दिन भगवान से पूछा प्रभु आपका सबसे प्रिय भक्त कौन है? उन्होंने सोचा था कि भगवान उन मे से ही किसी के विषय मे बोल देंगे कि वह हमे प्रिय है ।
एक दिन सब भक्तो के बीच मे भगवान बैठे थे सब बड़ी डीग्री वाले लोग थे। वे सब अपने अपने विषय मे बढ़ा बढ़ा कर बोल रहे थे।

एक दिन अचानक भगवान के पेट मे दर्द हो गया। वे चिल्लाने लगे हाय हाय मरा। अरे यह तो ज्यादा दुखने लगा। सब लोग सुनते ही भागे। कोई वैद्य लाता कोई डॉक्टर कोई हकीम और कोई होम्योपैथिक को लाया। वहाँ जल्दी ही बड़ा समाज इक्कठा हो गया। दर्द बढ़ता ही गया। अभी मरता अभी मरता हाय हाय भगवान चिल्लाते ही रहे और डाक्टर हो तो ले आओ। किसी के इलाज से फायदा नही हुआ।
दर्द घटने की बजाय बढ़ता ही चला। इतने मे एक नया हकीम आया। सोचता कि भगवान को अच्छा करने से और भी मरीज मिल जाएंगे। हकीम ने कहा इस रोग को हम जानते है बहुत खराब रोग है मगर इस रोग को हम अच्छा कर सकते है सबने कहा क्या रोग है कैसे ठीक होगा? हकीम ने कहा महान विचित्र रोग है नया रोग है। इसका नाम है भक्तो का मीटर। क्या करने से अच्छा होगा कि मनुष्य का कलेजा लाने से अच्छा होगा। हम गारंटी लेते है। कलेजे से हम कुछ दवा बनाकर देंगे।

सब लोग बोले हम लायेंगे हम लायेंगे। सब यह सोचकर भागे कि भगवान को कलेजा बहुत लोग दे देंगे। उनको अपने कलेजे का विचार आया ही नही सब लोग निराश होकर वापस आये। उनको कलेजा मिला ही नही। अब नारद जी ने कहा कि हम लाते है नारद को सबसे बड़ा भक्त माना जाता है नारदजी भी राउण्ड मारकर आ गये लेकिन कुछ हाथ नही लगा।

नारदजी एक स्थान पर बारह बरस पहले गये थे। उनसे एक दम्पति ने अपने लिए पुत्र मांगा नारद ने उनके लिए भगवान से प्रार्थना की। भगवान् ने कहा पुत्र भाग्य मे नही है नही हो सकता। इस बार उधर से निकले तो चार पांच बच्चे खेल रहे थे ।

नारद भगवान के पास आकर बोले भगवान कलेजा तो मिला नही हम भी सहभागी है आपके दर्द मे, लेकिन आपने कहा था कि उस दम्पति के भाग्य मे बच्चे नही है वहाँ तो हमने चार पांच बच्चे देखे। हमे आश्चर्य हो गया आपकी बात कैसे असत्य हो गयाी। नारदजी ऐसे समय मे भी भगवान के रोग को भूलकर उस बात को ही याद करने लगे।

भगवान् कहने लगे नारद बहुत दुखता है जाओ। उससे मिलो पूछो किसने बच्चे दिये? भगवान को कलेजा चाहिए कहाँ से मिल सकता है उसी से पूछो। नारद सब पता लगाकर उस महात्मा के पास गये। वह नदी किनारे कुटी बनाकर ॐ नमः शिवाय धुन मे मस्त बैठा था। उसे ध्यान लगा हुआ था। ध्यान भंग करना शास्त्र मे मना है इसलिए नारद वीणा बजाते हुए बहुत काल तक खड़े हुए।

ध्यान से उठने पर सामने नारदजी को देखकर भक्त ने पूछा नारदजी तुम क्यों आये हो? नारदजी बोले भगवान के पेट मे बहुत दर्द है। मनुष्य का कलेजा चाहिए पर मिलता ही नही भक्त बहुत बिगड़ गया मुर्ख तुमने क्यो इतनी देर की फाड़ कर ले क्यो नही गये मेरा कलेजा। चलो अभी चलो वह नारद के साथ भगवान के पास अस्पताल मे आ गया उसने तभी कलेजा फाड़कर दे दिया। लो भगवान। बस अच्छा हो गया।

भगवान बोले सब लोग हम भगत हम भगत बोलते हो कलेजा तुममे नही था क्या? गुरु को किसी पर विशेष कृपा बरसाने की जरूरत नही पड़ती। विशेष कृपा क्या बरसाना? कृपा बरसाना हमारे अपने हाथ मे नही। साधक का हृदय उनकी शुध्दि ही गुरू की कृपा को खीच देती है ईश्वरीय कृपा को खीच लेती है।

साधक का हृदय गुरु की कृपा का एक आकर्षक केंद्र है भूल यही है कि हम अपनी सांसारिक दृष्टि से गुरु को देखते है जैसे संसार को देखते है समझते है वैसे ही गुरू भी है नही नही। गुरु की विलक्षणता को समझना इतना आसान नही। गुरु को तुम उपरी भक्ति या दिखावे से ठग नही सकते और उपर से तुमको लगे कि गुरु को मैने ठग लिया है तो यह भ्रांति है छलावा है।

गुरू को जिस दिन ठग लिया उस दिन तुम न रह पाओगे सब गुरु ही गुरू होगे। तुमने कहा कि कृपा समान होती है यह पात्र को देखकर तो जिस दिन से तुमको गुरु ने स्वीकार किया उसी दिन से कृपा मैया तुम्हे कृतार्थ करने के लिए तुम्हारे द्वार पर खड़ी हो जाती है। बस अपना दरवाजा खोल दो ताकि गुरु की कृपा अंदर प्रवेश करे तो दरवाजा कैसे खोले? पूर्ण रूप से गुरु के हो जाओ। यही एक मात्र उपाय है। इसके सिवाय कोई उपाय नही।

तुलसीपत्र में तुल गए भगवान…. (बोध कथा)


बाबा मुक्तानंद जी से किसी ने पूछा कि बाबा कहा जाता है कि गुरू को शिष्य की उतनी ही जरूरत होती है जितनी शिष्य को गुरू की । शिष्य की गुरू को जरूरत होती तो ठीक है परन्तु क्या गुरू की भी शिष्य को जरूरत होती है । बाबा ने कहा शिष्य को बारम्बार पग-2 पर अपने से ज्यादा, अपने प्राणों से भी ज्यादा गुरू की जरूरत होती है परन्तु गुरू को शिष्य की जरूरत नहीं होती ।

मनुष्य गुरू को ना समझने के कारण मूर्खतावश उनसे दूर रहता है, परन्तु एक बार वह उन्हें समझ ले तो वह गुरू का ही बन जाता है । जो गुरुभक्त है उसके भक्त हरिहर भी बन जाते हैं गुरुभक्ति का ऐसा महत्व है इसलिए बड़े -2 महात्मा भी गुरुभक्ति की तरफ झुक गये, जो भगवान को ढूंढने जाता है वह भगवान को ढूंढता ही रहता है परन्तु जो गुरू की सेवा करता है उसको भगवान ढूंढने आते हैं कि वह भक्त कहां सेवा कर रहा है ।

सुतीक्ष्ण भरद्वाज मुनि का शिष्य था, बड़ा भक्त था गुरू का । राम जी भरद्वाज जी से जब मिले, भरद्वाज ने रामजी का साक्षात्कार करके बहुत आभार माना कि उसकी साधना सफल हो गई । गुरुभक्ति की महिमा को समझ कर रामजी भरद्वाज के सुतीक्ष्ण की कुटीर में उससे मिलने आये, कुटीर के अंदर गुरू और भगवान को देखकर सुतीक्ष्ण बाहर आया ।

भरद्वाज में सुतीक्ष्ण की महान भक्ति थी, रामजी को देखकर उसे कुछ विस्मय नहीं हुआ, भरद्वाज उसके लिए राम से बहुत ज्यादा बड़े थे । बड़ों के आने से नमस्कार करना आचार है और ना करना ठीक नहीं, सुतीक्ष्ण सोचने लगा पहले किसको नमस्कार करूं ! पर उसने पहले गुरू को ही नमन किया फिर रामजी को । गुरू के साथ ही हरिहर आये हैं रामजी उसे सच्चा गुरुभक्त जानकर बड़े प्रसन्न हो गये ।

भरद्वाज को राम जी लंबी तपस्या के बाद मिले थे, परन्तु सुतीक्ष्ण को भरद्वाज की कृपा से बिना कठिन तपस्या के ही मिल गये । शिष्य जब पूरा गुरू का बन जाता है उसके जीवन का बीमा ही गुरू हो जाते हैं तब गुरू का प्रेम देखकर ऐसा भासता है कि गुरू को शिष्य की जरूरत है । अगर कोई पूछे भगवान को भक्त की अपेक्षा है क्या ? नहीं तो भगवान को भक्तों से मोह क्यूं है ?

भक्तों को भगवान से मोह होने के कारण उन्हें भी मोह है गुरू को शिष्य की अपेक्षा भी नहीं और उपेक्षा भी नहीं । तुलसीदास जी कहते हैं भरत के समान ही राम भी भरत को प्रेम करते हैं राम को सब जगत जपता है और राम भरत को जपते हैं । भरत के राम को सतत जपने से ही राम भरत को जपते हैं । हां दुनिया में कभी कुछ महत्वपूर्ण कार्य करने के हेतु गुरू शिष्य को तैयार करते हैं ।

कुछ काम करने के लिए गुरु शिष्य को शक्तिशाली बनाते हैं । जागतिक कार्य के लिए उस शिष्य का कुछ प्रयोजन होता है, प्रयोजन तो ठीक है लेकिन जरूरत नहीं । सच्चे प्रेम का एक परिणाम होता है, प्रेम सच्चा होना चाहिए बनावटी नहीं । सेवा परायण, भक्तियुक्त, नियमबद्ध शिष्य में गुरू को प्रेम होना स्वभाविक है, परंतु वह जरूरत नहीं समझते । अभी कुछ लोग बगीचे में काम कर रहे हैं, छुपकर करते रहते हैं सेवा उनके प्रति ज्यादा प्रेम होना स्वभाविक है मेरा, यह कोई पक्षपात नहीं है ।

इक भक्त कवि कहता है कि भगवान द्वारा पृथ्वी पर अपना बोझ डालने से पृथ्वी एक फीट नीचे धंस जाती थी ऐसे भगवान को भक्ति के वश रुक्मणी ने तुलसी के पत्ते पर तोल दिया । भक्ति का प्रभाव ऐसा ही होता है कि पृथ्वी के बोझ से भी भारी भगवान हलके होकर तुलसी के पत्ते पर तुल गये । हनुमान जी ने अपनी भक्ति से भगवान को वश में कर रखा था, “जपत पवनसुत पावन नाम अपने वश कर राखे राम” यह भक्ति का प्रभाव है ।

भगवान तो फिर भी स्वतंत्र ही हैं, भागवत में एक संवाद है कि एक ने कहा कि कृष्ण देवकी का पुत्र है तब दूसरे ने कहा वह पुत्र नहीं वह तो सबका पिता है । यह तो सत्य है लेकिन अपने प्रेम के कारण देवकी ने उस ईश्वर को पुत्र बना लिया । शिष्य को तो गुरू की जरूरत है परन्तु शिष्य अपनी करनी से, अपनी कर्मठता से, अपनी सेवा से ऐसा कर लेता है, अपनी भक्ति से ऐसा कर लेता है कि गुरू को ही उसकी जरूरत है ।

ऐसा प्रश्न किया गिलहरी ने कि प्रभु राम भी हो गए हैरान…. (बोध कथा)


प्रभु श्री राम चन्द्र जी ने गिलहरी से पूछा तु वहाँ सेतु पर क्या कर रही थी? गिलहरी ने कहा प्रभु मै भी सेतु निर्माण मे सहयोग दे रही हूं। प्रभु ने कहा तु किस प्रकार से सहयोग दे रही है?

गिलहरी बोली प्रभु मै तो बहुत छोटा जीव हूं। कुछ ज्यादा तो नही कर सकती थी फिर भी मन मे सोचा कि नल नील जिस सेतु का निर्माण कर रहे है वह बन तो अच्छा रहा है लेकिन उन पत्थरो के बीच मे जो रिक्त स्थान छुटे है उनके कारण सेतु समतल नही बन पा रहा है ऊंचा नीचा दिख रहा है उन्ही रिक्त स्थानो मे मै रेत डाल रही हूं ताकि सेतु समतल हो जाये जब आप उस पर चले तो आपके कोमल चरणो को कोई कष्ट ना हो।

गिलहरी के भाव सुनकर प्रभु अत्यंत प्रसन्न हो गये। इतना छोटा सा जीव और इतनी महान भावना। बात इतनी नही है कि हमारे पास सामर्थ्य कितना है बात इतनी मुख्य है कि हमारे भाव। अगर आपके पास अपने प्रभु के लिए मिटने, कुछ करने की भावना है तो छोटा सा प्रभाव भी आपके इष्ट और आपके प्रभु को प्रसन्न कर देगा।

शबरी या केवट के पास कुछ ज्यादा सामर्थ्य या साधन न थे । परंतु वे भाव के धनी थे। उन्होंने भावो की जमीन पर अपने प्रेम के पौधो को सीचना शुरू किया परिणाम प्रेम रूपी पौधा फल फूलो से लदा हुआ विशाल वृक्ष बन गया। उनकी भावना ही पानी थी भावना ही खाद्य भावना ने ही प्रकाश बनकर उन पौधो को सहलाया था।

आज गिलहरी के भावों ने भी प्रभु को गदगद कर डाला प्रभु ने फिर पूछा अच्छा यह तो बता यहाँ इतने वानर इतने भालू व रीछ है अगर तु किसी के पैरो तले आ गयी या कोई पत्थर या शिलाखंड तेरे आगे आ गया तो तु तो कुचली जाऐगी। गिलहरी ने सुना तो उत्तर देने की बजाय प्रभु से प्रश्न ही कर दिया। प्रभु यह बताइये कि प्राणी की मृत्यु कितनी बार आती है? एक या दो बार। प्रभु ने कहा एक बार।

तब गिलहरी ने जो कहा वह वास्तव मे भावना से ओतप्रोत एक साधक के शब्द थे।
पुण्य कर्मो की पूंजी हो
भक्ति का जब हो भंडार
तब मिलता है अंतिम समय
प्रभु का दर्शन एक बार

मरकर आपकी सेवा मे मै आज धन्य हो जाऊँगी। मृत्यु भी आज वरदान बनेगी। मै परम लक्ष्य को पाऊँगी। प्रभु मरना एक बार है तो मुझे ऐसी मृत्यु दो जो सार्थक हो। मैने सुना है बड़े बड़े ॠषि मुनि चाहते हैं कि अंत समय मे अपने इष्ट का दर्शन हो यदि मेरा अंत भी आपके दर्शन करते हुए आपकी सेवा मे हो तो मृत्यु भी वरदान बन जाएगी।

कौन नही जानता इस धरा पर आकर सबने मृत्यु का वर्णन किया चाहे वह सिकन्दर था जिसने अमर फल पाने का बहुत प्रयत्न किया था या फिर रावण जिसने अपने आपको अमर मान लिया था।

एक दिन मृत्यु के आगोश मे सो गये। हमारी भी मृत्यु निश्चित है अगर भक्त की बात करे तो वह ऐसी ही मृत्यु चाहता है। वह चाहता है कि मेरा सर्वस्व मेरा सब कुछ अपने प्रियतम के कार्य मे लग जाय। कुछ भी मेरे पास छुट न पाय उसकी सोच उसका चिन्तन उसका तन मन हर समय सिर्फ यह चाहता है क्या करूं? कैसे करूं? कि सब अर्पित हो जाये।

इतिहास साक्षी है असंख्य उदाहरण है जिनमे शिष्यो ने इस कदर सर्वस्व मिटाया कि उनकी मृत्यु भी सज गयी।

बात उस समय की है जब दशम पादशाह श्री गुरु गोविंद सिंह जी धर्म की रक्षा हेतु मुगलो व पहाड़ी राजाओ के साथ निरन्तर युद्ध मे संलग्न थे। एक के बाद एक युद्ध निरन्तर चल रहा था। इन युद्धों मे न जाने कितने शिष्य थे जो गुरु के लिए मिट रहे थे लेकिन ऐसा नही युद्ध समाप्त हो गया ये तो हर दिन की कहानी बन चुकी थी।

उन्ही दिनो गुरूदेव आनंदपुर के किले मे अकेले बैठे थे। उनकी मुख मुद्रा अत्यंत गंभीर थी लग रहा था जैसे किसी गहरे चिन्तन मे हैं। तभी किसी सेवक ने कहा गुरूदेव एक माताजी है जो आपसे मिलने की जिद कर रही है हमने उन्हे बहुत रोका लेकिन मानने को तैयार ही नही गुरूदेव ने कहा आने दो।

माता ने कमरे मे प्रवेश किया गुरूदेव के चरणो मे प्रणाम कर माता अश्रु धारा बहाने लगी। गुरूदेव ने उन्हे शांत करने का प्रयास किया पूछा माताजी क्या दुख है माता ने कहा गुरूदेव मेरी पीड़ा आप ही दुर कर सकते हैं। माता बताओ तो सही दुख क्या है? माता ने अश्रु पोछे और कहा गुरूदेव मेरे पति पिछले युद्ध मे सेवा करते हुए शहीद हो गये थे परंतु मै खुश थी क्या हुआ अगर मै विधवा हो गई मेरे पुत्र अनाथ हो गये लेकिन मेरे पति ने गुरू के लिए प्राण त्यागकर जीवन सार्थक कर लिया। गुरुदेव उसके बाद मेरे दो पुत्र भी आपकी सेवा मे शहीद हो गये।

गुरुदेव ने कहा तब तो माता तुम्हारी पीड़ा और आंसू जायज हैं। मां ने तुरंत कहा नही गुरुदेव मेरे दुख का कारण यह नही मुझे तो गर्व है कि मेरी सन्ताने आपके लिए शहीद हुई हैं। गुरूदेव ने कहा माता फिर क्यो रो रही हो? माता ने कहा गुरूदेव मेरे दुख का कारण कुछ और है मेरे कष्ट का कारण मेरा अन्तिम बेटा है वह अपने पिता और भाइयो के रास्ते पर नही चल पा रहा है। गुरूदेव ने कहा क्यो वह कायर है मरने से डरता है मां ने कहा नही गुरूदेव ऐसा नही है वह अस्वस्थ है बिछावन पर पड़ा है। वह चाहता है अपने भाइयो की तरह सेवा करना लेकिन नही कर पा रहा गुरूदेव आप ही कृपा करें। आप उसे स्वस्थ कर दे। आप सर्व समर्थ है सब कुछ ठीक कर सकते हैं।

मै नही चाहती कि मेरा अन्तिम पुत्र बिमारी से मरे। मै चाहती हूँ कि वो भी आपकी सेवा मे प्राणो को न्योछावर करे। गुरूदेव आप कृपा करें। गुरुदेव ने माता की भावना अथाह समर्पण और निष्ठा को देखा तो प्रसन्न हुए और कहा मां तेरे पुत्र को मै नही ठीक करूंगा तेरे पुत्र को ठीक करेंगी तेरे गुरु के प्रति निष्ठा तेरे गुरू के चरणो मे विश्वास तेरे गुरु के प्रति अथाह समर्पण की भावना।

जा माता तेरा पुत्र अवश्य ठीक होगा गुरुदेव के इन्ही वचनो का प्रसाद ले माता घर चली गई। कुछ दिनो के बाद माता का पुत्र सच मे स्वस्थ हो गया इतिहास कहता है कि माता ने अपने तीसरे व अन्तिम पुत्र को भी गुरू की सेवा मे शहीद करवा दिया। मृत्यु आनी है गुरू की सेवा मे आ जाय तो उससे बढ़कर मृत्यु नही हो सकती। उस माता का अथाह समर्पण हमारे लिए शिक्षा है माता ने तन मन धन सब रूप मे सेवा कर डाली।

जिसका धन उसकी संतान हो उसी को न्योछावर कर दिया हम लाख बार सोचते है सेवा करने से पहले हम कुछ बचाकर रख लेना चाहते है लेकिन वो ऐसी भक्त थी जो सोचती थी कि कुछ बच न जाय सब सेवा मे लग जाय। आज जीवन मिला है मौका मिला है तो क्यो न सब न्योछावर कर डालू। कल का क्या पता हम भी भक्त बने हमे भी मौका मिला है लाभ ले लें इस अवसर का, वर्ना मरना तो है ही।