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अदभुत थी श्री नारायण देवाचार्य जी की निर्भयता… पढि़ये सुंदर प्रसंग…


जीवन के परम तत्वरूपी वास्तविकता के संपर्क का रहस्य गुरुभक्ति है। गुरु का दास बनना माने ईश्वर का सेवक बनना। जिन्होंने प्रभु को निहारा है और जो योग्य शिष्य को प्रभु के दर्शन करवाते हैं, वे ही सच्चे गुरु हैं, सद्गुरू हैं। आलसी शिष्य को गुरुकृपा नहीं मिल सकती। राजसी स्वभाव के शिष्य को लोकसंग्रह करनेवाले गुरु के कार्य समझ में नहीं आते।

गुरु की कृपा तो सदा रहती हैं। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि शिष्य को गुरु के वचनों में श्रद्धा रखनी चाहिए और उनके आदेशों का पालन करना चाहिए। जिस शिष्य को गुरु के वचनों में श्रद्धा, विश्वास और सदभावना होती है, उसका कल्याण अतिशीघ्र होता है। महापुरुषों के अनुभव का यह वचन जिनके जीवन का अंग बनता है, वे ही गुरुभक्ति के रहस्य को समझकर गुरुतत्व अर्थात ब्रह्म का साक्षात्कार करने का अधिकारी बनते हैं। हमारे शास्त्र इस बात के साक्षी है।

ऐसे ही एक सतशिष्य हो गये श्री नारायण देवाचार्य! उनके अपने गुरु श्री हरिवंश देवाचार्य के प्रति अदभुत निष्ठा थी। गुरुआज्ञा का पालन करने में वे प्राणों तक की बाजी लगाने में संकोच नहीं करते थे। उनके गुरुदेव की आज्ञा थी कि सब प्राणियों में सर्वेश्वर प्रभु का अधिष्ठान जानो, सबसे प्रेम करना, भय किसीसे न करना।

एकबार वे कुछ लोगों के साथ परशुरामपुरी से पुष्करराज जा रहे थे। मार्ग में सिंह के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी। साथी भाग खड़े हुए, परन्तु नारायण देवाचार्य गुरुवाक्य में निष्ठा रखते थे। उन्हें गुरु का आदेश याद था कि सब प्राणियों में सर्वेश्वर प्रभु का अधिष्ठान जानो, सबसे प्रेम करना, भय किसीसे न करना। इसलिए सिंह में भी सच्चिदानंद स्वरूप अपने परमेश्वर, सर्वेश्वर के ही भाव में थे।

वे आगे चलते गये। सिंह के निकट पहुंचे तो देखा कि उसके पैर में तीर चुभा हुआ है। जिसके कारण वह चल नहीं पा रहा है। उन्होंने अपने हाथों से उसका तीर निकाल दिया। सिंह मंत्रमुग्ध सा देखता रहा। नारायण देवाचार्य ने उसके सिर पर हाथ फेरके पुचकारा। पात्र से जल लेकर उसके ऊपर छिड़का और श्री सर्वेश्वर -2 कहते आगे चल दिये।

मार्ग में कुछ शिकारी मिले। बोले महाराज! इधर तो एक सिंह अभी गया है। जिसे हमने तीर मारकर घायल कर दिया है। आप उससे कैसे बच निकले?

आचार्य ने कहा, वह सिंह अब साधु हो गया है। उसका तीर निकालकर मैंने पास के वृक्ष में घोप दिया है। शिकारियों को इसपर विश्वास नहीं हुआ।परन्तु आगे जाकर जब उन्होंने तीर को वृक्ष में लगा देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे लौटकर आये और आचार्य जी के चरणों में गिरकर क्षमा-प्रार्थना की तथा हिंसा वृत्ति त्याग देने का वचन भी दिया।

नारायण देवाचार्य की गुरुवचनों में अटूट निष्ठा और श्रद्धा-विश्वास ने उन्हें गुरुप्रसाद का अधिकारी बना दिया। उन्होंने गुरु की कृपा से आत्मप्रसाद तो पाया ही, साथ ही गुरु का बाह्य उत्तराधिकार भी पाया और आगे चलकर निम्बार्काचार्य पीठाधीश हुये।

आखिर क्यों किया भक्त नंदी ने हलाहल का पान। सुनिए सुना रहे हैं शिव जी…


जो कोई मनुष्य दुखों से पार होकर सुख एवं आनंद प्राप्त करना चाहता हो, उसे सच्चा अंतःकरण से गुरु भक्ति योग का अभ्यास करना चाहिए। गुरु के पवित्र चरणों के प्रति भक्ति भाव सर्वोत्तम गुण है, इस गुण को तत्परता एवं परिश्रम पूर्वक विकसित किया जाए तो, इस संसार के दुःख और अज्ञान के कीचड़ से मुक्त होकर, शिष्य अखुट आनंद और परमसुख के स्वर्ग को प्राप्त करता है।

कैलाश पर्वत की बर्फीली चोटी, एक पवित्र शिखर पर बाघ अंबर बिछा था, उस पर महादेव शंकर ध्यानस्थ थे।धीरे-धीरे यह ध्यान गहन समाधि में विलीन हो गया। इतने में मलंगी में झूमता हुआ महादेव का परम गण नंदी आया। नंदी ने विचार उठा, किसी उच्च लक्ष्य साधने हेतु मेरे प्रभु समाधि में स्थित है। मुझे भी सहयोग देना चाहिए। दिव्य तरंगों को सघन करना चाहिए। यही विचार कर नंदी ने महादेव शंकर के समक्ष धरा पर एक आसन बिछाया, फिर पद्मासन धारण कर तन को तान कर साधना में बैठ गया। साधना के प्रताप से उसके हृदय का सूक्ष्म तार महादेव की ब्रह्मा चेतना से जुड़ गया । एक तार निर्बाध और अटूट जुड़ाव था। कुछ समय बाद एक अनहोनी घटी। दुष्ट जालंधर जो महादेव से घोर शत्रुता रखता था, वह कैलाश में घुसपैठ कर कर गया। छल-बल से महादेव के भार्या देवी पार्वती का अपहरण करके ले गया। शिवलोक में हाहाकार मच गया। देवगण और शिवगण घोर चिंता से व्याकुल हो उठे। उन्होंने सामूहिक निर्णय लिया कि इस हरण वाली दुर्घटना की सूचना महादेव को दी जाए। परंतु कैसे महादेव तो घन समाधि में लीन थे। गणेश जी ने उन्हें उठाने के भरसक प्रयत्न किए, परंतु विफल ही रहे। भगवान की समाधि तो अतल गहराइयों को छू चुकी थी। ऐसे में क्या करें?

विवेक के देवता गणेश जी को युक्ति सूझी उन्होंने महादेव के परम गण नंदी को साधन बनाया। ध्यान में लीन नंदी के कान में सारी दुर्घटना कह दी। इधर नंदी के कान में सूचना गई, उधर भगवान के नेत्र तुरंत उन्मीलित हो खुल गए। महादेव समाधि से उठ गए। कैसा अद्भुत सूक्ष्म जुड़ाव था भक्त और भगवान का। बस तभी से यह ऐतिहासिक घटना एक आराधना पद्धति या प्रथा के रूप में ले गई। आज अनेक शिव मंदिर इस प्रकार निर्मित है, जिनमें महादेव की मूर्ति के ठीक सामने नंदी की प्रतिमा होती है। भक्तजन अपने मनोकामना नंदी के कान में कहते हैं। मान्यता है कि, यह कामना सीधा भगवान शिव तक संप्रेषित हो जाती है।

अब मन में जिज्ञासा उठती है, भला ऐसा कौन सा गुण है इस शिवगण नंदी में, जो भगवान ने स्वयं को समाधि से उठाने का श्रेय उसे दे दिया।

एक दिन यही जिज्ञासा माता पार्वती के हृदय में दस्तक देने लगी। पार्वती जी ने महादेव जी से पूछा कि, आपको नंदी इतना प्रिय क्यों है?

महादेव जी ने कहा क्योंकि, नंदी में सेवा और भक्ति का दोनों का समन्वय है। उसकी सेवा कर्मों में शौर्यता है, धार है, एक सतत वेग है। उसकी भक्ति आराधना में तप है, समर्पण है, निरंतर सुमिरन है इसलिए नंदी मुझे प्राणवत प्रिय है। प्रभु भक्ति भाव और समर्पण तो आपके सभी भक्तों और गणों में है फिर नंदी के भक्ति में ऐसा क्या विशेष है। जो आपके हृदय को गदगद कर दिया है।

देवी अनेक वर्षों पूर्व की बात है। अपने पिता ऋषि शीलाद के द्वारा, नंदी को यह पता चला कि वह अल्पायु है। समस्या है तो समाधान भी होगा। यही विचार कर नंदी भुवन नदी के किनारे साधना करने लगा। अटूट लगन और एकचित्तता थी उसकी सिमरन में। जब एक कोटी सुमिरन पूर्ण हुए तो मैं प्रकट होकर दर्शन देने को विवश हो गया। हे देवी! जानती हो, यह साधना सुमिरन में इतना निमग्न था कि मुझसे वर मांगना उसे ध्यान ही नहीं था। उसे साधना रत छोड़कर मैं फिर विलीन हो गया। ऐसे ही दो बार और हुआ। तृतीय बार जब मैं प्रकट हुआ तब मैंने ही अपना वरदहस्त उठा कर उसे वर प्राप्ति के लिए प्रेरित किया।

जानती हो देवी तब भी नंदी ने दीर्घायु का वर नहीं मांगा। अपने अखंड साधना का ही फल चाहा। उसकी चाहत ही केवल मेरा सान्निध्य है। महादेव मुझे अपने अलौकिक संगति का वर दो।अपना प्रेम में सानिध्य और स्वामित्व दो, मैं तो दास भाव से आपके संग सदा रहना चाहता हूं | मेरा हृदय अन्य कोई अपेक्षा नहीं रखता। सरल हृदय से नंदी ने यह भोले भाले वचन कहें।मेरा हृदय द्रवित हो उठा, मैंने प्रसन्न होकर उसे अपना अविनाशी वाहन और परम गण घोषित कर दिया।

मां पार्वती कहती है कि, किंतु वाहन ही क्यों कोई अन्य भूमिका क्यों नहीं? देवी वाहन का समर्पण अद्वितीय होता है। नंदी का मन इतना समर्पित है कि मैं सदा उस पर आरूढ़ रहता हूं। अर्थात उसके मन पर आरूढ़ रहता हूं, उसकी अपनी कोई इच्छा, कोई मति, कोई आकांक्षा नहीं। नंदी मेरी इच्छा, मेरी आज्ञा, मेरी आदर्शों का वाहक बन गया है इसलिए वह मेरा वाहन है।

ऊपरी लिखित संवाद बड़ा ही गहरा सूत्र हमें दे रहा है। बहुत से साधक को प्रश्न होता है, मन में समर्पण कैसे आता है? स्वयं भगवान शिव जी समझा रहे हैं, साधना और समर्पण का अटूट नाता है, जितनी साधना और सुमिरन होगा उतना ही मन अपनी ठोसता छोड़ता चला जाएगा। लचीला अर्थात समर्पित होता जाएगा। शिष्य के ऐसे ही समर्पित मन पर सतगुरु की आज्ञा आरूढ़ होती है। ऐसा ही शिष्य अपने सद्गुरु का वाहन बन पाता है। अर्थात उनकी आज्ञा का वाहन, उनकी छांव का वाहन, उनकी सिद्धांतों का वाहन बन जाता है।

माता पार्वती कहती है कि सत्य है प्रभु नंदी की भक्ति, साधना और समर्पण तो अनुपम है। अब उसकी शौर्य और कर्म की भी तो विशेषता बताइए। मैं जानने को उत्सुक हूं।

महादेव जी कहते हैं, तुम्हें स्मरण है देवी! समुद्र मंथन कि वह असाधारण बेला,समुद्र को मथते-मथते निकला हलाहल विष संसार के प्राण के लिए हमें उसका पान करना पड़ा परंतु विषपान करते हुए विष की कुछ बूंदे धरा पर गिर गई। इन बूंदों के कुप्रभाव से पृथ्वी त्राहि-त्राहि करने लगी। तभी मेरे नंदी ने अपने जिह्वा से उन विष बिंदुओं को चाट लिया। यह ना सोचा कि मेरा क्या होगा?

देवों ने व्यग्र होकर कारण पूछा। नंदी तुमने ऐसा क्यों किया?

नंदी ने कहा मेरे स्वामी ने प्याला भर विषपान किया। क्या मैं सेवक होकर कुछ बूंदे सेवा में ग्रहण नहीं कर सकता क्या? जगत के त्राण और कल्याण में क्या इतना भी सहयोग नहीं दे सकता। सो ऐसा है नंदी का कर्म, शौर्य, नंदी की अतुलनीय सेवा निष्ठा, सच्चे सेवक, शिष्य के यही लक्षण होते हैं कि गुरु के देवी कार्य में वह संघर्षों का विष पीता है। गुरु के मान के लिए विरोधी परिस्थितियों के हलाहल को पीने से भी नहीं चूकता।अपने स्वामी अपने गुरुदेव के लक्ष्य को पूर्ण करने में पूरा पूरा सहयोग देता है। हम भी नंदी जैसे परम शिष्य बने, कर्म और भक्ति की, सेवा और साधना की मिसाल बने।

इस व्यापारी की कथा के पीछे छुपा था महत्वबुद्धि का गहरा मर्म…


गुरुभक्तियोग की नींव गुरु के प्रति अखंड श्रद्धा में निहित है। शिष्य को समझ में आता है कि हिमालय की एकांत गुफा में समाधि लगाने की अपेक्षा गुरु की सेवा करने से वह उनके ज्यादा संयोग में आ सकता है। गुरु के साथ अधिक एकता स्थापित कर सकता है। गुरु को संपूर्ण बिनशर्ती आत्मसमर्पण करने से अचूक गुरुभक्ति प्राप्त होती है।

भगवद्गीता के 18 वे अध्याय का यह श्लोक –

*”यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।”*

यह श्लोक साधको व शिष्य समाज को सफल अध्यात्मिक यात्रा का सूत्र दे रहा है। यहाँ श्रीकृष्ण के नाम के पूर्व योगेश्वर शब्द का प्रयोग किया गया। योगेश्वर अर्थात ईश्वर की निराकार सत्ता का साकार स्वरूप। जब वह परम शक्ति एक महान लक्ष्य को लेकर मानवता के पथ प्रदर्शक बनकर सद्गुरु या जगद्गुरु रूप में अवतरित होती है, तो वह योगेश्वर कहलाती है।

भगवान श्रीकृष्ण इसी विषय में उद्घोष करते हैं कि अपने भक्तों के कल्याणार्थ धर्म की संस्थापना के लिए मैं बार-2 निराकार से साकार होता हूँ। साकार रूप में विराजमान गुरुसत्ता का महिमा श्रीकृष्ण गा रहे हैं।

भगवान शिव माँ पार्वती से कहते हैं,

*अत्रिनेत्र शिव साक्षात द्विबाहुश्च हरिस्मृतः।*

हे पार्वती! गुरु ही स्वयं ब्रह्म हैं। शंकर के समान उनके तीन नेत्र प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, परन्तु फिर भी वे भगवान शिव हैं। श्रीविष्णु के समान उनके चार हस्त नहीं है, किन्तु वे इस धराधाम पर दो हाथोंवाले विष्णु ही हैं। ब्रह्माजी की भांति वे चार मुखधारी भी नहीं हैं, परन्तु फिर भी वे साक्षात ब्रह्मा हैं।

सद्गुरु के इसी ईश्वरीय स्वरूप का साक्षात्कार हरयुग में शिष्यों ने अपने अन्तरघट में किया है। अतः समय-2 पर वही परम सत्ता योगेश्वररूप में, गुरुरूप में धरा पर प्रकट होती हैं। गुरुरूप में आकर अज्ञानता में पड़े समाज को ज्ञान प्रदान कर उन्हें परम लक्ष्य की ओर वहीं गुरुसत्ता अग्रसर करती हैं। सद्गुरु ही साक्षात योगेश्वर हैं।

श्लोक में जहां भगवान योगेश्वर श्रीकृष्ण कहकर संबोधित किया गया है, वहीं अर्जुन के लिए कहा गया कि ‘पार्थो धनुर्धर ‘ अर्थात केवल अर्जुन नहीं, धनुर्धर अर्जुन! क्योंकि धनुष से ही अर्जुन की गरिमा है। गाण्डीव रहित अर्जुन तो मोहग्रस्त है, विकारग्रस्त है, निराश है, उत्साहहीन है। बिना युद्ध के ही पराजित है। अतः गाण्डीव से ही अर्जुन की शोभा है। परन्तु वास्तव में यह अर्जुन है कौन?… अर्जुन कोई और नहीं अध्यात्मपथ के राही एक साधक, शिष्य का ही प्रतीक है।

अर्जुन का जीवन संघर्षों से परिपूर्ण था। वह कभी बाहर के शत्रुओं से तो कभी भीतर के मोह आदि विकारोरूपी शत्रुओं से घिरा रहता था। धर्म के मार्ग पर बढ़ते हुए, सत्य के मार्ग पर अग्रसर होते हुए उसे हरक्षण विपरीत परिस्थितियों से जुझना पड़ता था।

इसीप्रकार भक्तिमार्ग पर अग्रसर एक शिष्य के जीवन में भी विपरीत परिस्थितियों की आँधी चलायमान रहती है। उसे भी कभी अपने मन के विकारों, संस्कारों से कभी बाहरी परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। किन्तु यहां विचारणीय तथ्य है, कौन से शिष्य इन विषम परिस्थितियों को सफलतापूर्वक पार कर पाते हैं? कौन से शिष्य मार्ग की चुनौतीयों को चुनौती देकर अपने लक्ष्य तक पहुंच पाते हैं? क्योंकि यह तो प्रमाणित है कि उत्साहहीन, निस्तेज, परिस्थितियों से उदासीन हुआ शिष्य कभी मंजिल की प्राप्ति नहीं कर सकता।

वह शिष्य जो प्रमादी व आलसी है उसके जीवन में गुरुआज्ञा से अधिक मन और इंद्रियों का सुख ही महत्वपूर्ण है। उसके लिए विजयश्री का आलिंगन करना असंभव है। जो शिष्य अपने ध्येय के प्रति, पुरुषार्थ के प्रति बेपरवाह है, उसके लिए सफलता प्राप्त करना तो दूर भक्तिपथ पर चलना भी दूभर होता है। परन्तु आखिर क्यों एक शिष्य अपने कर्म के प्रति लापरवाह हो जाता है? अपने ध्येय के प्रति उदासीन क्यों हो जाता है? उत्साहहीन क्यों हो जाता है?

ऐसा केवल तभी होता है जब उसके लिए लक्ष्य की महत्ता या गुरु की प्रसन्नता की प्रधानता कम हो जाती है।… क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी वस्तु के लिए लापरवाह तभी होता है, जब उसकी दृष्टि में उस वस्तु की कीमत कम हो जाती है। इस पक्ष को एक दृष्टांत के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।

एक व्यापारी था। उसे अपनी कलम भूल जाने की आदत थी। कहीं भी हस्ताक्षर के लिए कलम उपयोग में लाता तो वही टेबल पर ही भूल जाता। अपनी उसी आदत से वह परेशान था।

उसके मित्र ने उसे सलाह दी कि आप एक सोने की कलम बनवा लीजिए और ऊपर एक हीरा भी लगवा लीजिए।

व्यापारी ने कहा कि मेरी कलम भूलने की आदत से अगर सोने की कलम भी भूल गया तो?

मित्र ने कहा, ऐसी बात नहीं होगी।

व्यापारी ने कलम बनवा ली। 6 महीने बाद जब व्यापारी पुनः अपने मित्र से मिला तो बड़ी ही प्रसन्नता से बोला कि अब मेरी कलम भूलने की आदत चली गई। देखो मेरी कलम मेरी जेब में ही है।

मित्र ने कहा, यह कमाल है कलम की कीमत का! तुम्हारी दृष्टि में अब यह कलम इतनी कीमती हो गई है कि तुम अनजाने में भी इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते, इसके प्रति लापरवाह नहीं हो सकते। लापरवाही भी वही आती है जहां वस्तु की कीमत कम हो जाती है।

इसलिए एक शिष्य भी अपने धर्म के प्रति, अपने कर्म अर्थात सेवा-साधना के प्रति तभी लापरवाह होता है, जब उसके जीवन में इनकी कीमत कम हो जाती है। ऐसा शिष्य कभी अपने लक्ष्य को पूर्ण नहीं कर पाता। किन्तु इस समस्या का समाधान है ‘धनुर्धर पार्थ’!

धनुर्धर शब्द अर्जुन के पुरुषार्थ अथवा कर्मठता का परिचायक है। उसी अर्जुन के समक्ष विजय है जो गाण्डीव से सुसज्जित है, शस्त्रों से लैश है। एक शिष्य को भी विजय प्राप्त करने हेतु अपने शस्त्रों को धारण करना होगा। उसे कर्मशील व विभूतिवान बनना होगा। हरक्षण पुरुषार्थ में रत रहना होगा। राह की बाधाओं का, विपरीत परिस्थितियों का अपनी साधना के ओज, से गुरु की कृपा के ओज से डटकर सामना करना होगा।

जब ऐसा गांडीवधारी अर्थात पुरुषार्थी शिष्य अपने योगेश्वर गुरु के दिखाए मार्गपर सतत बढ़ता है, तो सफलता को भी उसके कदम चूमने ही पड़ते हैं। ऐसे ही शिष्य को फिर सुरमा की उपाधि से अलंकृत किया जाता है।

*सींचते हैं कर्मभूमि को अपने पुरुषार्थ से,*

*साधनारत रहते हैं नित्य भावना निस्वार्थ से।*

*गुरुआज्ञा धर शीश पर जो आगे बढ़ते जाते हैं,*

*वहीं तो भक्तिपथ के सुरमा कहलाते हैं!!*