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पकवान के नहीं प्रेम के भूखे होते हैं भगवान


गुरूभक्तियोग के मूल सिद्धान्त

गुरू में अखण्ड श्रद्धा गुरूभक्तियोग रूपी वृक्ष का मूल है।

उत्तरोत्तर वर्धमान भक्तिभावना, नम्रता, आज्ञा-पालन आदि इस वृक्ष की शाखाएँ हैं। सेवा फूल है। गुरू को आत्मसमर्पण करना अमर फल है।

अगर आपको गुरू के जीवनदायक चरणों में दृढ़ श्रद्धा एवं भक्तिभाव हो तो आपको गुरूभक्तियोग के अभ्यास में सफलता अवश्य मिलेगी।

सच्चे हृदयपूर्वक गुरू की शरण में जाना ही गुरूभक्तियोग का सार है।

करसन चौधरी, जो गुजरात सरकार में मंत्री थे, उनके गाँव मे बापूजी सत्संग के लिए कई बार जाते थे।

एक बार वहाँ गए तो जंगल घूमने गए।

वहाँ एक वृद्ध माता जी थी, उनका बापू जी के प्रति बहुत प्रेम था। परंतु वह बहुत गरीब थी और झोपड़ी में रहती थी।

वे बापू जी के पास नही आ सकी तो बापू जी स्वयं उनकी झोंपड़ी में पहुँच गए।

वे माताजी तो पूज्यश्री को देखते ही चहक उठी और “बापू!…बापू!…” करते हुए भावविभोर हो गयी।

बापू जी ने कहा: ” माताजी! मुझे खाने को दो।”

माता जी ने बाजरे की मोटी -मोटी रोटी और ग्वारफली की सब्जी बनाई थी।

जैसे शबरी ने राम जी को बड़े प्रेम से झूठे बेर खिलाये थे उसी प्रकार बड़े प्रेम व प्रसन्नता से उन्होंने बापू जी को बाजरे की रोटी और ग्वारफली की सब्जी दी।

बापू जी को बोरे का आसन दिया, उनकी झोंपड़ी में और कुछ तो था नही।

उनका प्रेम शबरी जैसा था।

बाजरे की रोटी और ग्वारफली की सब्जी खाकर बापू जी ने कहा: ” आज भोजन में बड़ा आनन्द आया खाने को इतना अच्छा मिला।”

माता जी के आंखों में प्रेमाश्रुओं की धार बहने लगी, वे गदगद हो गई।

बाद में करसन भाई चौधरी बापूजी के आगे रोने लगे।

बापू जी ने पूछा:” ऐसा क्यो करते हो?”

“बापू जी! हम आपके लिए घर से कितने टिफिन लाते है मगर आप कभी नही खाते और उन माता जी का आपने खाया तो हमारे प्यार में कुछ कमी होगी इसलिए हमारा कभी नही लिया।”

“हम तो सभी जीवों का कल्याण चाहते है।

वे तो माताजी थी, दूसरे किसी जीव का भी कल्याण होने वाला हो तो वह हो जाता है,

मैं कुछ नही करता।”

पूज्य बापूजी के नैनीताल का यह प्रसंग आपको भाव विभोर कर देगा….


जैसे कुंदन स्वर्ण को और उज्जवल बनाने के लिए सुनार भट्ठी में डालता है ऐसे ही सद्गुरु शिष्य को अधिक गुरु बनाने के लिए, अधिक उसको तेजस्वी बनाने के लिए उससे कभी-कभी कठोर व्यवहार करते है। जिसका मन कुछ सह नही सकता उसका मन गुरु से कुछ प्राप्त भी नही कर सकता इसलिए सहनशक्ति बढाने के लिए गुरु कठोरता का व्यवहार करते है उनकी मधुर चेष्टाएँ भी मधुर है लेकिन कठोर व्यवहार भी मधुर है।

माँ के हाथ से मिला हुआ रसगुल्ला भी मीठा है माँ के हाथ से मिला हुआ कटु से कटु व्यंजन भी मीठा होता है, क्यों? क्योंकि तमाम कटुता को दूर करने के लिए तमाम रोग को दूर करने के लिए माँ को ऐसा करना ही चाहिए।

पूज्य श्री कहते है कि- मैं गुरु के चरणों मे जब नैनीताल पहुंचा तब स्वामी जी वहां नही थे, हम 40 दिन इंतज़ार में थे बुहारी करके रहते थे स्वामी जी की कुटिया के इर्द गिर्द सफाई कर देते थे। आम के खोखे के पेटियों से एक छोटा

सा कुटीर बना था, खोखा ही बना था ऐसा कह दो ऊपर सड़े गले पतरे थे। कहां तो गत्तों की दिवाल और वो भी नैनीताल में और ऊपर सड़े गले पतरे और छत भी इतना ऊंचा कि उसमे झुक कर जाना पड़ता था, सर्वांग आसन नही कर सकते थे।

जो स्वामी जी के बगीचे का माली था वो वहां रहता था हम भी वहीं रहे दाल या मूंग उबाल के खाते थे और चालीस दिन तक पड़े रहे कि आज आयेंगे, आज आयेंगे, आज स्वामी जी आएंगे… जब स्वामी जी आये तो उन्होंने कहा- घर चले जाओ।

मैने कहा- स्वामी जी 40 दिन से यहां आपके इंतज़ार में था और आपके चरणों मे समर्पित होने को आया हूँ।

बोले- बस हो गया दर्शन.. हो गया जाओ अभी आज्ञा का पालन करो, जाओ यहां से।

-हम तो हां ना भी कैसे करें? चुप रहा आंखों से आंसू बरसे देखे फिर स्वामी जी बोले- अच्छा ऐसे करो थोड़ा दिन रह लो फिर तुम चले जाना घर।

फिर 30 दिन और रहा।

एक दिन बीता दूसरा दिन बीता पूछा नही कि तुम रोटी खाते हो कि नही? बीती हुई बात है विश्वास करो तो तुम्हारी मर्जी न करो तो तुम्हारी मर्जी। ये बीती हुई बात है सुनी हुई नही है, पढ़ी हुई नही है बीती हुई है। फिर कुछ दिनों बाद स्वामी जी ने पूछा कि- क्या खाता है?

मैंने कहा- जी ! मूंग की दाल रख दिया हूँ और तपेली में डाल देता हूं और होती रहती है और ध्यान भजन में से टाइम मिलता है तो खा लेता हूं और फिर अपना ध्यान भजन में बैठ जाता हूं।

स्वामी जी ने कहा- अच्छा खाली मूंग की दाल खाता है।

मैंने कहा- हां ! और आज आप आने वाले थे ऐसा मुझे पता चला तो मैंने ज्यादा बनाई है और आप, स्वीकार हो जाये तो…….

-ठीक है अच्छा ले आना।

तो हमने तो बनाई थी मेरी दानत खराब थी सीधी बात है हमने बनाई थी कुछ ज्यादा बनाये। 40 दिन दाल पी के शरीर कृष हो गया है तो स्वामी जी को दाल अर्पण करूँगा तो स्वामी जी के हाथ की एक दो रोटी मिल जाएगी तो मैं दाल रोटी खा लूंगा स्वामी जी भी खा लेंगे। दानत खराब थी वहां तक पहुंचने के बाद भी कभी मन धोखा देता है। दाल की तपेली ले गया श्री चरणों मे।

स्वामी जी ने कहा- विरवान ! भाई और तुम सब्जी ज्यादा नही बनाना दाल तो ये सन्त की है, दाल और फुलका खा लेते है, हम थके हुए है जल्दी करो। तो स्वामी जी को उनके रसोइये को जितनी दाल की आवश्यकता थी निकाल दी बाकी जो बची कटोरी जितनी, दो कटोरी तो बोला कि अपनी दाल ले जाओ। मैं रख दिया मैं कहा- अब फुलका के लिए बुलाएंगे अब बुलाएंगे। न कोई फुलका न कोई फुलकी, न कोई पूड़ी न कोई पकोड़ा चलो ठीक है ! स्वामी जी का हाथ का फुलका नही मिला, चलो ठीक है लेकिन दाल तो स्वीकार हुई अब कुछ स्वीकार हुआ नही अब, नही अब नही फिर दाल पिया प्रेम से फिर सोचा रात को स्वामी जी का भोजन बनेगा तो उस समय स्वामी जी सोचेंगे थोड़ी दाल पिया होगा बेचारा भूखा होगा रात को फुलके मिल जाएंगे। दानत देखो मनुष्य की।

रात हुई स्वामी जी को कुछ अल्पाहार जो कुछ अल्पाहार करते थे कभी भोजन करते थे तो कभी चने खा लेते थे अधिक तंदुरुस्त रहने का ख्याल होता है तपस्वियों के लिए, आत्मा में रमने वालो को पेट भरने का थोड़े ही होता है। तो स्वामी जी ने तो अपना पा लिया और विरवान ने भी खाया पिया और मैं हुआ और मैं…. आप जरा विचार करो कि नैनीताल माना बर्फ पड़ती हिमालय का हिस्सा है, हिमालय से मिला हुआ है बहुत ठंड होती है वहा सर्दी के दिन और फिर नैनीताल में सर्दी के दिन तो नही थी लेकिन नैनीताल माने सर्दी सर्दी। तो अभी ऐसी सर्दी पड़ती है यहां परन्तु इससे ज्यादा वहां होती थी गर्मियों में तो शरीर कुल्फी हो जाता था और वह जो कुटिया थी वह तो मैंने बयान किया और फिर रात को खाये नही तो सारी रात कुंडलिनी जागे और कुछ जगे भी नही। ऐसी फिर स्वामी जी ने रात को आवाज लगाई वीरवान को ए विरवान ! कुछ चूहे थे तो पिंजरा मंगाया और हमने सोचा कि स्वामी जी विरवान को बोल रहे है कि सन्त को फुलका देके आओ भूख में तो सूखा फुलका भी अमृत होता है लेकिन वह फुलका नही मिला फिर दूसरे दिन तो मैंने डट के दाल बनाई स्वामी जी ने अपना बनवाया और खाया और हमने स्वामी जी भोजन कर लिए फिर अपना खा लिया। ऐसे करते करते दिन बीत गए एक दिन पूछा कि- खाता है तो पैसे कहां से लाता है ?

मैने कहा- घर छोड़ा था तो मुरादी थी न वह थैली लेके भागा था। अब दान का क्या खाना। भाई और हमदोनो साथ मे रहते है इसलिए कोई चोरी का तो हुआ नही हम अपने दोनों हिस्से को थोड़े लेकर भागे। इन पैसों में से थोड़ा भंडारा किया, थोड़ा कुछ किसी आश्रम में रहा तो वहां दक्षिणा दिया ऐसा करते-करते यहां मैं पहुँच गया हूं, अब थोड़े पैसे है।

अब कितने पड़े है?

मैने कहा- अब बाकी दो रुपये है और एक आना दो आना था।

उस जमाने आनो का जमाना था जमाना बदला न था। 6 नए पैसो का पूरा एक आना तो 2 रुपये और कुछ आने 2 आने थे ऐसा कहते-कहते मेरी आँखों से आंसू आ गये। मैंने कहा कभी कभी तो ऐसा होता है कि स्वामी जी आज्ञा करेंगे चला जा तो गाड़ी में तो खड़िया पंटल की नाई बैठ जाऊंगा और आजतक मांगा नही और मांगने का भी नही लेकिन स्वामी जी कह देंगे चले जाओ तो 2 रुपये में तो बस वाला भी नही ले जाएगा। क्या अब करूँ? कभी-कभी तो स्वामी जी ऐसा भी विचार आता है इसलिए मुझको जाने की आज्ञा नही करना।

स्वामी जी ने कहा- नही-नही ! तुम चिंता नही करो 25 रुपया तुम्हारे नाम का कोई दे गया है इधर और आटा भी दे गया है। अब था तो उन्ही का कौन दे जाएगा। 4 नारंगी, 25 रुपया और आटा पकड़ा दिया बोला-अब ये फुलका बनाके खाया करो और पैसे रखो। इतने में तो मेरा कोई मित्र था हम घर मे थे तो उसको हमने पैसे दे रखे थे 600 रुपया उसके काम मे, तो हमने चिट्ठी लिख दी तो उसने 100 रुपये भेजे। स्वामी जी को जब पता चला तो वह किराया कराके फिर हमें स्वामी जी ने घर भेज दिया फिर भी आपलोगो की कृपा से मन मे ऐसे नही हुआ कि मैंने घर बार छोड़ा, इतना तिलांजलि दिया, पत्नी को छोड़ दिया, 40 दिन इंतज़ार किया और स्वामी जी ने खिलाया भी नही पिलाया भी नही और फिर वापस घर मे लौटा दिया उस कीचड़ मे, ऐसे गुरु नही चाहिए। ऐसा यदि दुर्भायग्य का विचार आता तो आज मैं यहां नही होता।

स्वामी जी की आज्ञा है घर मे रहो, भजन करो। मैं घर मे आया 13 दिन रहा लेकिन रहना मुश्किल था फिर नर्मदा किनारे पहुंच गया फिर चिट्ठी लिखी कि आपकी आज्ञा तो मैंने पालन किया है लेकिन अब स्वीकार करो ऐसा करके फिर मुलाकात हुई और बात बन गई।

स्वामी शिवानंद जी कहते है कि- पवित्र वेदों के रहस्य उद्घाटक एवं पूर्ण ब्रम्हरूप महान गुरु को मैं नमस्कार करता हु जो ज्ञान, विज्ञानरूप वेदों की सार को भृमर की तरह चूसकर अपने भक्तों को देते है। सच्चे शिष्य को अपने हॄदय के कोने में अपने सम्माननिय गुरु के चरण कमलों को सदैव प्रतिष्ठित रखना चाहिए।

शिष्य की कसौटी, सत्ता-बलवन्द का अहम…(भाग-4)


अब तक हमने जाना कि सत्ता और बलवन्द कोढ़ के रोग से ग्रस्त हो गये। गुरू निंदा करने के कारण, गुरु से द्वेष करने के कारण उन्हे खुब पीड़ा होती। यहाँ तक कि श्वास लेने मे भी उन्हे पीङा होती लेकिन एक दिन उनकी पतझड़ भरी जिंदगी में फिर से वसंत ने दस्तक दी। एक सज्जन पुरूष का दिल उन्हे देखकर पसीज गया। उन्होंने बताया कि केवल एक व्यक्ति ऐसा है जो तुम्हे क्षमा करवा सकता है। वह है लाहौर का लद्धा उपकारी। श्री गुरु अर्जुनदेव जी का अद्वितीय शिष्य। उसकी परोपकार की भावना की वजह से ही उसका नाम लद्धा उपकारी पड़ा। उसके गरीब खाने से कोई भी खैराती खाली नही लौटता। वह हर परिस्थिति मे सबकी मदद करता है।

सत्ता बलवन्द को अपने अंधकारमय जीवन मे आशा की थोड़ी सी किरण फुटती दिखाई दी। दोनो भाई तुरंत लाहौर की तरफ बढ़ चले। पसजे रिसते हुए अपने शरीरो को जैसे तैसे घसीटते हुए भुखे प्यासे थके हारे कई दिनो के बाद वे लद्धा उपकारी की हवेली पहुंचे। वहाँ खैरातीयो का हुजूम जमा था एक एक करके सब अंदर जा रहे थे और प्रसन्न होकर बाहर निकल रहे थे ।

सत्ता बलवन्द दूर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर देखते रहे। आगे बैठने की उनकी हिम्मत ही नही हो पा रही थी। अंदर एक डर भी था। अगर यहाँ से ठुकरा दिया गया तो कहां जाएंगे? आखिर काफी देर के बाद दोनो ने साहस जुटाया और द्वारपाल से बिनती की भाई हमे एक बार लद्धा उपकारी से मिला दो। हम सत्ता और बलवन्द है गुरू घर के गवैया है। यह समाचार जैसे ही लद्धा उपकारी ने सुना वह एकदम तमतमा गया। क्या? सत्ता और बलवन्द मेरी हवेली पर? उनकी यहाँ आने की हिम्मत कैसे हुई? बेमुख होकर मुझसे मिलने की, उन्होंने सोच भी कैसे ली?

गुरु से नाता तोड़कर मेरे से नाता जोडना भला कैसे संभव है। क्या कभी अंधकार और प्रकाश इक्कठा हुए है। खट्टा और दुध कभी गले मिल पाये है। हम बेमुखो का दर्शन करके नर्को के भागीदारी नही बनना चाहते है जाओ कह दो उनसे वे जो गुरु के महलो से खाली आ गये वह मुझ गरीब की झोपड़ी से क्या पा सकेंगे? जिनकी मंशा पर्वत पाकर भी संतुष्ट नही हुए मुझ जैसी खाई उन्हे क्या सुकून दे पाएगी। लौट जाएं वे यहाँ से।

सत्ता और बलवन्द ने यह सुना तो उनका कलेजा ही फट गया। पीङा अश्रु बनकर आंखो से छलक पङी। एक एक अंग वेदना से चित्तकार कर उठा। फड़कते होठ पछतावे की गाथा बयान करने लगे। वे दोनो दौड़कर फाटक के भीतर लद्धा तक पहुंच गये। घुटनो के बल बैठकर फरियाद कर उठे। बोले लद्धा हमे बख्शवा दो। लद्धा हमारा गुरुवर से मिलन करवा दो। अरे हम वे पंतग है जो ऊंचा उङने की चाह मे डोर से ही टूट गये इस कारण कंटीली झाड़ियो मे ही जा फंसे। हमसे भुल हो गयी हम समझ ही ना सके कि हम इतना ऊंचा जो उड़ पाये है वह इसी डोर के कारण। इसी ने हमे अर्श से फर्श तक पहुंचाया है। हमारे मे अपनी कोई सामर्थ्य कहां? हम पर दया करो लद्धा हमे क्षमा करवा दो क्षमा करवा दो नही तो इन झाङियो के कांटे हमे जख्म पर जख्म देकर हमारा जीवन छीन लेंगे इतना कहते हुए सत्ता बलवन्द सुबक सुबक कर रोने लगे।

उनके आंसू कोई मगरमच्छी आंसू नही बल्कि हकीकत के थे उनका पछतावा कोई नाटक नही अपितु जमीनी सच्चाई थी। लद्धा उपकारी उनकी दयनीय हालत देखकर पिघल गया। उसका मन भर आया। उसने कहा हालांकि तुम दोनो क्षमा के काबिल नही हो लेकिन अपने किये पर तुम्हे ग्लानि है। अफसोस है और गुरूवर तो ऐसे दयासिंधु हैं जो सिर्फ पछतावे पर ही क्षमा कर देते हैं। जो अगर एक बार भी सच्चे दिल से गलती कबूल करे तो वे उसका बड़े से बड़ा पाप भी बख्श देते हैं।

चलो मै तुम्हारी ओर से गुरुदेव से माफी मांगने चलता हूँ। इतना सुनना था कि सत्ता और बलवन्द के चेहरे खिल उठे। आंखे खुशी से चमकने लगी लेकिन तुरंत एक बात ने उनकी खुशी पर प्रहार कर दिया। वे उदास हो गये। लद्धा उपकारी ने पूछा आखिर अब गमगीन आलम क्यों? दोनो सकुचा गये। लद्धा ने कहा नि:संकोच अपनी दुविधा बताओ। तब सत्ता हिचकिचाते हुए बोला-  वो गुरुदेव हाँ हाँ बताइये लद्धा उपकारी ने फिर कहा।

सत्ता बोला वो गुरुदेव ने कहा था कि जो हमे बख्शवाने आएगा वह नसर किया जाएगा। लद्धा उपकारी ठहाका लगाकर हंसा और बोला। इसमे कौन सी मुश्किल है मेरा मुँह काला करके गधे पर घूमने से अगर गुरूदेव तुम्हे बख्श दें तो इससे आसान मार्ग और क्या होगा? जैसा बुल्लेशाह ने कहा कि कंजरी बणिया मेरी इज्जत ना घट दी मैनू नच नच यार मणावा दी।

कहते हैं लद्धा उपकारी खुद नसर होकर सत्ता और बलवन्द को साथ ले रवाना हुए। मुंह कालित से पुता हुआ और गधे पर सवार हो वह उनको बख्शवाने गुरु दरबार की ओर चल पङा। गली मोहल्ले कुचे कुचे मे खबर फैल गई। लोग सिर जोङ जोङ कर बाते करने लगे। जिसको असलियत पता होती तो वह लद्धा उपकारी को देवता मानता मगर सत्यता से वाकिफ न थे। वे उसका उपहास करते। लेकिन लद्धा पर न तो प्रशंसा के फूलों और न ही व्यंग्य के तीरो का कोई असर हुआ। वह बङी अडीगता से अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता रहा।

चर्चा फैलते फैलते श्री गुरु अर्जुनदेव जी तक भी पहुंची। वे हतप्रभ रह गये। क्या लद्धा उपकारी स्वयं नसर होकर आ रहा है। उन बेमुखो को इज्जत दिलाने हेतु खुद बेइज्जत होकर आ रहा है दुसरो को फुलो की सेज देने के लिए उसने खुद कांटो पर अपने कदम रख दिये हैं। अपने गुरु भाइयो से इतना प्यार कि अपना रूतबा शोहरत नाम सब दाँव पर लगा दिया और वह भी हमारी सजा देने से पहले ही। गुरुदेव का मन पुलकित हो उन हृदय मे प्रेम का सागर हिलोरे लेने लगा। पवित्र हाथ कृपा लुटाने को बैचेन हो उठे। आंखे लद्धा उपकारी की हाजरी का इंतजार करने लगी। जिस प्रकार कुम्हार अपने बनाए घड़े को एक बार हाथो मे लेकर बड़े प्रेम से निहारता है और उसको ठोकता भी है परंतु मन ही मन फक्र महसूस करता है।

गुरु अर्जुनदेव जी भी लद्धा उपकारी के बारे मे वैसा ही महसूस कर रहे थे। तभी एक सेवादार ने लद्धा उपकारी के आगमन की खबर गुरूदेव को दी वे तुरंत अपने कक्ष से बाहर आये। ठीक सामने था लद्धा उपकारी। उसके चेहरे पर न नसर होने की कोई ग्लानि थी न शर्म के भाव न कोई झेप। बस दीनता की चादर ओढ़े नम्रता का श्रृंगार किये और दासता का परिचय लिये वह नजरें झुकाकर उनके सामने खड़ा था गुरुदेव की आंखे काफी देर तक उसे निहारती रही। उस पर अपनी प्रेम वर्षा बरसाती रही। अंततः चुप्पी तोड़ते हुए गुरुदेव बस यही बोलें – हूहूहू लद्धा उपकारी दोनो हाथ जोड़े शीश झुकाकर धीमे से स्वर मे बोला हुजूर गुस्ताख को माफी बख्शो। हालांकि हम आपके सामने दम भरने के लायक भी नही फिर भी अर्ज है आपकी बगिया के दो सुंदर फूल आपके पवित्र मंदिर को छोड़कर संसार की दलदल मे जा गिरे थे। लेकिन अब उन्हे अपनी भूल का अहसास हो गया है। फिर आप तो दयालु हैं प्रभु गिरे हुओं को उठाते हैं। निमानो को मान बख्शते हैं उन फूलों को भी फिर से अपने चरणो मे ले लें। प्रभु जैसे गाय अपने खोये बछङे को दुबारा ढूँढ लेती है बहारें पतझङ के मारे पेड़ों को फिर से हराभरा कर लेती है। हे नाथ वैसे ही आप अपने भूले बच्चो पर दया कीजिए।हम तो स्वभाव से ही भुलनहार है। अगर हम भूलें ही न करते तो फिर आप किसको बख्शते?

सुन फरियाद पीरां दीयां, पीरा मैं आख (बोल के) सुणावां (सुनाऊँ) केहनु,(किसे)!

तेरे जेहा (जैसा) मैनू (मुझे) होर न कोई

मेरे जेहियां (जैसे) लख तैनू (तुझे)!!

फुल न कागज बदिया वाले

दर तो धक ना मैनू

जे मेरे विच ऐब न हुंदे

तूँ बख्शेंदा केहनु।

लद्धा उपकारी की फरियाद गुरुदेव के दिल को छू गयी। वे मंद मंद मुस्कराने लगे हालांकि सब जानते थे लेकिन लीला करते हुए बोले लद्धा तुम कौन से फूलों की बाते कर रहे हो भला हमारी कौन सी बगिया है? लद्धा उपकारी ने बिना विलंब किये सत्ता बलवन्द को आगे कर दिया प्रभु यही है आपके फूल। इनकी शोभा आपके चरणो मे ही है। इनकी भूल को क्षमा कर दें दाता। भले ही इनके हिस्से का दंड आप मुझे दे दें। आपकी रुसवाई इनकी चमङी फाङ कोङ रूप मे बाहर रीस रही है। यहाँ से तो भक्तिरस निकलता ही अच्छा लगता था। प्रभु ये दोनो आपकी आंखो की पुतलिया है। इन्हे आंखो मे ही रहने दीजिये। इन्हे अपना लिजिये भगवन। क्षमा कर दीजिए दया कीजिए दाता।

इतना कहते कहते लद्धा उपकारी घुटनो के बल बैठकर रो पङा। सारी सभा की आंखे भी नम हो गयी। सब भावनाओ के सैलाब मे बह गये। सैकङो लोगो की भीङ मे सन्नाटा छा गया। अगर आवाज भी थी तो लद्धा उपकारी की आहों की। गुरु महाराज जी भी भावुक हो उठे अपने स्थान पर तटस्थ न रह सके। लपक कर लद्धा को गले से लगा लिया बोले लद्धा तुमने हमको जीत लिया हम अपने वचनो को काट सकते हैं लेकिन तुम्हारी फरियाद से मुंह मोड़ने की ताकत हममे नही। आज हम तुम्हारी हर इच्छा पूर्ण करेंगे। तुम कहो तो आसमान के तारे तुम्हारे नाम से चमकेगे। सूरज तुम्हारी दहलीज पर पानी भरेगा और धरती तुम्हारे दम पर टिकेगी आज जो चाहो मांग लो लद्धा।

लद्धा नतमस्तक हुआ। सत्ता बलवन्द को क्षमा करने की ही गुहार करता रहा। गुरुदेव बोले लद्धा तुम इनकी चिंता मत करो अब ये मेरी छाया तले आ चुके हैं। मै इन्हे अभयदान बख्शता हूँ। कुछ और चाहो तो बताओ तब लद्धा ने सत्ता बलवन्द की ओर संकेत करते हुए कहा गुरुवर इन शरीरो से इन्होंने सेवा की है लेकिन इनकी ये काया कोढ़ से गल चुकी हैं। हे मन की पीङा हरने वाले नाथ इनके तन की पीड़ा भी हर लो। इस भयानक कष्ट से इन्हे मुक्त कर दो। गुरूदेव बुलन्द आवाज मे बोले निःसंदेह लद्धा इनका यह रोग भी कटेगा लेकिन। लेकिन क्या प्रभु जिस जिव्हा से इन्होंने गुरुजनो की निंदा की । उसी से जब उनकी स्तुति करेंगे। तभी इतना सुनते ही सत्ता बलवन्द गुरु के चरणो मे गिर पङे। सभा जयकारो से गुंज गया।

इतिहास साक्षी है कि कुछ समय के बाद शब्द कीर्तन करते हुए सत्ता बलवन्द का कोढ़ भी खत्म हो गया। शुभ और महान कार्य मे सफलता प्राप्त होना केवल और केवल गुरु कृपा से ही संभव है ।इसलिये एक सच्चे सेवक को चाहिए कि वह सदा लोगो की प्रशंसा से बचे। निष्काम भावना से सेवा करे और अपने भीतर कर्तापन का भाव न आने दे तभी गुरु की महती कृपा निरन्तर बहती रहेगी और सफलता मिलती रहेगी।