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सेवा व भक्ति में लययोग नहीं चल सकता


अयोध्या में एक बार संतों की सभा हो रही थी । एक सज्जन हाथ में बड़ा पंखा लेकर संतों को झलने लगे । पंखा झलते समय उनके मन में विचार आया, ‘आज मेरे कैसे सौभाग्य का उदय हुआ है ! प्रभु ने कितनी कृपा की है मेरे ऊपर कि मुझे इतने संतों के मध्य खड़े होकर इनके दर्शन तथा सेवा का अवसर मिला है !’ इस विचार के आने से उनके शरीर में रोमांच हुआ । नेत्रों में आँसू आये और विह्वलता ऐसी बढ़ी कि पंखा हाथ से छूट गया । वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े । कुछ साधुओं ने उन्हें उठाया । बाहर ले जाकर मुख पर जल के छींटे दिये । सावधान होने पर उन्होंने फिर पंखा लेना चाहा तो साधुओं ने रोकते हुए कहाः “तुम आराम करो । पंखा झलने का काम सावधान पुरुष का है । तुमने तो सत्संग में विघ्न ही डाला ।”

सेवा लीन होने के लिए नहीं है । लययोग के ध्यान में अपने को सुख मिलता है, प्रियतम (प्रभु) को सुख नहीं मिलता । अतः सेवा व भक्ति में लययोग नहीं चल सकता ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2020, पृष्ठ संख्या 16 अंक 332

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महापातक-नाशक, महापुण्य-प्रदायक पुरुषोत्तम मास


(अधिक मासः 18 सितम्बर 2020 से 16 अक्तूबर 2020 तक)

अधिक मास 32 महीने 16 दिन और 4 घड़ियों (96 मिनट) के बाद आता है । हमारा भारतीय गणित कितना ठोस है ! ग्रह मंडल की व्यवस्था में इस कालखंड के बाद एक अधिक मास आने से ऋतुओं आदि की गणना ठीक चलती है ।

एक सौर वर्ष 365 दिनों का और चान्द्र वर्ष 354 दिनों का होने से दोनों की वर्ष-अवधि में 11 दिनों का अंतर रह जाता है । पंचांग-गणना हेतु सौर और चान्द्र वर्षों में एकरूपता लाने के लिए हर तीसरे चान्द्र वर्ष में एक अतिरिक्त चान्द्र मास जोड़कर दोनों की अवधि समान कर ली जाती है । यही अतिरिक्त चान्द्र मास अधिक मास, पुरुषोत्तम या मल मास कहलाता है ।

पुरुषोत्तम मास नाम कैसे पड़ा ?

मल मास ने भगवान को प्रार्थना की तो भगवान ने कहाः “जा ! ‘मल मास’ नहीं तो ‘पुरुषोत्तम मास’ । इस मास में जो मेरे उद्देश्य से जप, सत्संग, ध्यान, पुण्य, स्नान आदि करेंगे उनका वह सब अक्षय होगा । अंतर्यामी आत्मा के लिए जो भी करेंगे वह विशेष फलदायी होगा ।”

तब से मल मास का नाम पड़ गया ‘पुरुषोत्तम मास’ । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि “इसका फलदाता, भोक्ता और अधिष्ठाता-सब कुछ मैं हूँ ।”

पुरुषोत्तम मास में क्या करें, क्या न करें ?

इस मास में-

1. भूमि पर (चटाई, कम्बल, चादर आदि बिछाकर) शयन, पलाश की पत्तल पर भोजन करने और ब्रह्मचर्य-व्रत पालने वाले की पापनाशिनी ऊर्जा बढ़ती है तथा व्यक्तित्व में निखार आता है ।

2. आँवला व तिल के उबटन से स्नान करने वाले को पुण्य और आरोग्य की प्राप्ति होती है ।

3. आँवले के वृक्ष के नीचे भोजन करने से स्वास्थ्य लाभ व प्रसन्नता मिलती है ।

4. सत्कर्म करना, संयम से रहना आदि तप,  व्रत, उपवास बहुत लाभदायी है ।

5. मकान-दुकान, नहीं बनाये जाते तथा पोखरे, बावड़ी, तालाब, कुएँ नहीं खुदवाये जाते हैं ।

6. शादी-विवाह आदि सकाम कर्म वर्जित हैं और निष्काम कर्म कई गुना विशेष फल देते हैं ।

घोर पातक से दिलाता मुक्ति

राजा नहुष को इऩ्द्र पदवी की प्राप्ति हुई थी । अनधिकारी, अयोग्य को ऊँची चीज मिलती है तो अनर्थ पैदा हो जाता है । नहुष ने इन्द्रपद के अभिमान-अभिमान में महर्षि अगस्त्य का अपमान किया । अगस्त्य जी और अन्य ऋषियों को अपनी डोली उठाने में नियुक्त कर दिया । जीव का तब विनाश होता है जब श्रेष्ठ पुरुषों का अनादर-अपमान करके अपने को बड़ा मानने की कोशिश करता है ।

नहुष अगस्त्य ऋषि को रूआब मारने लगाः “सर्प-सर्प !…. ” अर्थात् शीघ्र चलो, शीघ्र चलो ! संस्कृत में शीघ्र चलो-शीघ्र चलो को ‘सर्प-सर्प बोलते हैं ।

अगस्त्य ऋषि ने कहाः “सर्प-सर्प… बोलता है तो जा, तू ही सर्प बन !”

उस शाप की निवृत्ति के लिए नहुष को अधिक मास का व्रत रखने का महर्षि वेदव्यास जी से आदेश मिला और इतने घोर पातक से वह छूट गया ।

इतना तो अवश्य करें

पूरा मास व्रत रखने का विधान भविष्योत्तर पुराण आदि शास्त्रों में आता है । पूरा मास यह व्रत न रख सकें तो कुछ दिन रखें और कुछ दिन भी नहीं तो एकाध दिन तो इस मास में व्रत करें । इससे पापों की  निवृत्ति और पुण्य की प्राप्ति बतायी गयी है । परंतु उपवास वे ही लोग करें जो बहुत कमजोर नहीं हैं ।

सुबह उठकर भगवन्नाम-जप तथा भगवान के किसी भी स्वरूप का चिंतन-सुमिरन करें, फिर संकल्प करें- ‘आज के दिन मैं व्रत-उपवास रखूँगा । हे सच्चिदानंद ! मैं तुम्हारे नजदीक रहूँ, विकार व पाप-ताप के नजदीक न रहूँ । भोग के नजदीक नहीं, योगेश्वर के नजदीक रहूँ इसलिए मैं उपवास करता हूँ ।’

फिर नहा धोकर भगवान का पूजन करें । यथाशक्ति दान पुण्य करें और भगवन्नाम-जप करें । सादा-सूदा फलाहार आदि करें ।

10 हजार वर्ष गंगा स्नान करने से अथवा 12 वर्ष में आने वाले सिंहस्थ कुम्भ में स्नान से जो पुण्य होता है वही पुण्य पुरुषोत्तम मास में प्रातःकाल स्नान करने से हो जाता है ।

जो पुरुषोत्तम मास का फायदा नहीं लेता उसका दुःख-दारिद्रय और शोक नहीं मिटता । यह मास शारीरिक-मानसिक आरोग्य और बौद्धिक विश्रान्ति देने में सहायता करेगा । भजन-ध्यान अधिक करके पुरुषोत्तमस्वरूप परमात्मा को पाने में यह मास मददरूप है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2020, पृष्ठ संख्या 11, 12 अंक 332

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भगवान समस्याएँ क्यों देते हैं ? – पूज्य बापू जी


बच्चा जो अपने लिये चाहे वही माँ-बाप करते जायें तो बच्चे का कभी विकास नहीं हो सकता । लेकिन माता-पिता जानते हैं कि बच्चे को किस वक्त क्या चीज देने से उसका कल्याण होगा । ऐसे ही हमारे माता-पिता के भी मात-पिता परमात्मा हैं, वे सब जानते हैं कि आपको किस समय सुख की जरूरत है, किस समय दुःख की जरूरत है, किस समय अपमान की जरूरत है, किस समय बीमारी की जरूरत है, किस समय तन्दुरुस्ती की जरूरत है, वे सब जानते हैं इसलिए सुव्यवस्थित ढंग से देते रहते हैं । अगर वे नहीं जानते होते तो तुम जो चाहते वह होता रहता और तुम जो चाहते हो वह होता रहता न, तो अभी तुम यहाँ (ब्रह्मज्ञान के सत्संग) में नहीं होते । तुम जो चाहते वह होने लगता तो तुम अभी ब्रह्मविद्या सुन के अपनी 21 पीढ़ियों का उद्धार करने का पुण्य कमाने इस जगह पर पहुँच नहीं पाते ।

एक महात्मा थे । वे ईश्वर से कुछ नहीं माँगते थे तो उनकी वाणी में बड़ा प्रभाव था । उनका दर्शन करके लोग आनंदित हो जाते थे, चित्त प्रसन्न हो जाता था । लोग बढ़ने लग गये । महात्मा तो दयालु होते ही हैं, प्राणिमात्र के परम सुहृद होते हैं तो लोग आ के  अपना दुखड़ा रोये, कोई कुछ दुखड़ा रोये ।

महात्मा एक दिन समाधि में बैठे और भगवान को कहाः “देखो, मैंने आज तक तुम्हारे से कुछ नहीं माँगा और अपने लिए माँगूगा नहीं । मेरे पास जो भी व्यक्ति आते हैं उनकी जो समस्याएँ हैं, उन्हें हल कर दे बस ! इतना कर दे ।”

भगवान ने कहाः “महाराज ! छोड़ो इस बात को । मैं जो करता हूँ, ठीक है ।”

लेकिन महाराज भी ब्रह्मवेत्ता थे, उन्होंने कहाः “तुम जो करते हो वह ठीक है तो भी मैं जो कहता हूँ वह भी ठीक है, हस्ताक्षर कर दो ।”

“अब मैंने तो वचन दिया है कि ज्ञानियों से मैं परे नहीं हूँ । आप अगर आग्रह करते हो तो मैं हस्ताक्षर कर देता हूँ किंतु महाराज जी ! इसमें मजा नहीं है ।”

“ठीक है, देख लेंगे पर एक बार मेरे पास जो भी आते हैं उनकी सब समस्याएँ हल कर दो । करो हस्ताक्षर ।”

भगवान का हाथ पकड़ के उस बात पर हस्ताक्षर करा दिया । लोगों की तो रातों-रात समस्याएँ हल हो गयीं ।

शनीचर की  रात थी, समस्याएँ हल हो गयीं, रविवार को देखा तो कोई व्यक्ति ही नहीं कथा में ।

महाराज ! बाबा जी ने धीरज बाँधा, ‘चलो, लोगों ने समझा होगा की बाप जी गये हैं बाहर, चलो ।’

सोमवार को देखा, कोई व्यक्ति नहीं, मंगल को देखा, कोई व्यक्ति नहीं । बुधवार को भी देखा कि कोई व्यक्ति नहीं आया तो बाबा जी ने ध्यान किया और भगवान से पूछा ।

भगवान बोलेः “महाराज ! आप बोलते थे कि ‘उनकी समस्याएँ हल कर दो, उनकी सब इच्छाएँ पूरी कर दो ।’ अब उनको इच्छित पदार्थ मिल गये तो उन्हीं में फँस गये । कुछ थोड़ी बहुत गड़बड़ करके भी मैं इधर लाता था ताकि वे सत्य को पा लें । आपने मेरे से हस्ताक्षर करा दिया इसलिए वे तो अपने मौज-मजा (विषय-भोगों) में मरने को जा रहे हैं, नरक की तरफ जा रहे हैं ।”

बाबा ने कहाः “भगवान ! तुम्हारी बात ठीक थी ।”

कुछ अटक-सटक न होती तो हमारे जीवन का विकास नहीं होता । इसका मतलब यह नहीं कि हम चाहेंगे कि आपको समस्याएँ मिलें, हम यह नहीं चाहते । लेकिन परमात्मा जो करता है वह ठीक करता है । कभी कोई समस्या हल हुई…. कभी कोई आयी…. ऐसा करते-करते सब समस्याओं का जो मूल कारण है जन्म-मृत्यु, वह जन्म-मृत्यु की समस्या हल हो जाय न, तो बाकी समस्याओं का महत्त्व नहीं रहेगा । बार-बार जन्म लेना, फिर मरना… यह बड़े-में-बड़ी समस्या है । इस बड़ी समस्या को दूर करने के लिए भगवान छोटी समस्याएँ देते हैं ताकि वहाँ जाओ जहाँ इनकी पहुँच नहीं है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2020, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 332

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