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विवेकी और वैरागी…. एक से बढ़कर एक ! – पूज्य् बापू जी


गुरु से दीक्षा लिये हुए दो साधक कहीं यात्रा करने जा रहे थे । उन्होंने दीक्षा लेकर साधुत्व स्वीकार कर लिया था । उनमें से एक था विवेकी और दूसरा था वैरागी । सत्संग सुना, विवेक जगाना है तो बन गये साधु । अब दोनों गुरुभाई यात्रा करते-करते 8वें दिन कहीं पहुँचे ।

विवेकी से वैरागी ने कहाः “मैं भिक्षा ले आता हूँ । तुम आज ज्यादा थके हो ।”

वह भिक्षा लेने गया तो इतने में विवेकी  के पास एक बड़ी खूबसूरत नटखटी आयी । विवेकी की दृष्टि पड़ीः “हे प्रभु ! बचाओ ।…..”

सिर नीचा करके वह रोने लगा । वह मीठी-मीठी बातें कहती जाय लेकिन विवेकी रोता चला जाय, रोता जाय । इतने में वैराग्यवान भिक्षा लेकर आ रहा था । उसको देखकर वह नौ दो ग्यारह हो गयी ।

उसने पूछाः “गुरुभाई ! क्यों रो रहे हो ? मैं आ गया हूँ भिक्षा लेकर, क्या भूख लगी है ? क्या रात को किसी जीव-जंतु ने काटा है ? क्या शरीर में पीड़ा हो रही है या किसी ने आपको सताया है ? बोलो न गुरुभाई ! बोलो न !”

गुरुभाई ने आँख उठायी, बोलाः “भिक्षा ले आये ?”

“हाँ ! क्यों रो रहे थे ?”

उसने फिर रोना चालू कर दिया और रोते-रोते टूटे-फूटे शब्दों में कहा कि ‘तुम गये और ‘माया’ माने जो दिखे और टिके नहीं, साथ सदा रहे नहीं, वह क्या-क्या रूप लेकर आयी थी ।

छोटी-मोटी कामिनी, सभी विष की बेल ।

वैरी मारे दाँव से, वो मारे हँस-खेल ।।

‘तुम बड़े सुंदर हो, तुम बड़े ऐसे हो, तुम्हारी आँखें ऐसी हैं, तुम्हारा ललाट ऐसा है, तुम्हारा यह ऐसा है….’ कहकर इस मरने-मिटने वाले शरीर की सराहना करके मुझे संसार-व्यवहार की तरफ और दुनियावी माया की तरफ घसीटने वाली भगवान की माया आयी थी । अभी तो मैं भगवान के रास्ते चला ही नहीं हूँ और यह मोहिनी माया आ गयी इसीलिए मैं रो रहा था ।”

इतना सुनता ही वैरागी भी रोने लग गया । पहला तो अभी ठीक से चुप नहीं हुआ और दूसरा रोने लग गया । विवेकी ने समझाया कि “भाई ! मेरा रोना तो तुमने चुप कराया । मैं तो अभी सिसकियाँ ले रहा हूँ और तुम्हें चुप कराता हूँ किंतु तुम चुप नहीं होते हो, क्या बात है ?”

“भैया ! तुम्हारे पास विवेक था । माया आयी तो तुमने सिर नीचा किया और रोने लग गये…. लग गये……लग गये तो लगे ही रहे । तुमने तो सिर नीचा किया और रोकर जान छुड़ायी । मेरे में तो उतनी भी अक्ल नहीं है, अगर मेरे पास आ जाती तो मैं क्या करता !”

विवेकीः “भैया ! मेरे पास वह माया आयी तब मैं रोया किंतु तुम इस बात को लेकर पहले ही रो रहे हो । तुम मेरे से ज्यादा विवेक-वैराग्यवान हो ।”

दोनों गुरु के द्वार पहुँचे । गुरु ने कहाः “बेटे ! तुम दोनों का ध्यान, जप सफल है । तुमने विवेक और वैराग्य का आश्रय लिया है । जिसने विवेक वैराग्य का आश्रय लिया है उसका थोड़ा सा जप भी भगवान बड़ा करके मानते हैं । बेटे ! अब तुम्हें मैं ईश्वर-साक्षात्कार के योग्य समझता हूँ, बैठो ।”

दोनों सत्शिष्यों पर गुरु का हृदय छलक गया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 25 अंक 330

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पूर्णता किससे – कर्मकाण्ड, योग या तत्त्वज्ञान से ? – पूज्य बापू जी


भगवान वेदव्यासजी के शिष्य थे जैमिनी । जैमिनी न  अपने शिष्य को कर्मकाण्ड, यज्ञ-याग सिखाया और कहाः “वत्स ! अब तू स्वर्ग का अधिकारी हो गया ।”

यज्ञ, जप-तप करने से बुद्धि पवित्र होती है ।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिनाम् ।।

‘यज्ञ, दान और तप – ये बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने  वाले हैं ।’ (गीताः 18.5)

शिष्य बोलाः “गुरु जी ! स्वर्ग का अधिकारी तो हो गया लेकिन स्वर्ग का सुख भोगेंगे तो जैसे जब तक धन है तब तक तो भोग-सुविधायुक्त अट्टालिका (जैसे – आज के फाइव स्टार होटल) में रखेंगे और जब धन समाप्त होगा तो फिर बाहर निकाल देंगे, ऐसे ही जब तक पुण्य है तब तक तो स्वर्ग में रहेंगे पर पुण्य नष्ट होते ही वहाँ से गिरा दिये जायेंगे तो फिर दुःख होगा । किसी के गर्भ में जायेंगे, गर्भ नहीं मिलेगा तो नाली में बहना पड़ेगा । इसलिए गुरुवर ! ऐसा कोई ज्ञान, ऐसा कोई मार्ग बताओ जिस इस दुर्गति के चक्र से बचा जा सके ।”

गुरु ने कहाः “हाँ बेटा ! तुमने बिल्कुल ठीक कहा । हमारे कर्म से जो कुछ मिलता है उसकी खोट तुम समझ गये हो । इसलिए तुमको वैराग्य हो गया है । अब यह कर्म का साधन तुम्हारे लिए नहीं है । अब तुम पतंजलि के पास जाओ और वहाँ जाकर समाधि लगाओ ।

पतंजलि ऋषि ने प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि तक की कला सिखायी । सविकल्प समाधि….. बड़ा आनंद, बड़ी शांति…. भूख-प्यास को जीत लिया, शरीर स्वस्थ… यह सब होने के बाद निर्विकल्प समाधि में पहुँचे, काफी समय निर्विकल्प आनंद में रहे । जब समाधि टूटी तो प्रकाश हुआः “पतंजलि महाराज ! आपकी कृपा से समाधि  तक मैं पहुँचा, अष्टसिद्धि, नवनिधियों तक तो पहुँचा पर अष्टसिद्धि, नवनिधि हनुमान जी के पास भी थी । फिर भी जो वस्तु पाने के लिए हनुमान जी श्रीरामजी के पास गये थे, ऐसी वस्तु जो कभी न छूटे…. पतंजलि प्रभु ! मुझे वह वस्तु चाहिए । जो बाहर से मिलेगी वह छूटेगी । जो पहले थी, अभी है और बाद में भी रहेगी, मुझे उसका ज्ञान चाहिए, उसमें स्थिति चाहिए !”

पतंजलि महाराज बड़े प्रसन्न हुए, बोलेः “बेटा ! अब हमसे तुम्हारा काम नहीं चलेगा । अब तुम भगवान वेदव्यास जी के पास जाओ ।”

वेदव्यासजी इतनी ऊँची कोटि के संत थे ! उन्होंने तत्त्वज्ञान देकर जैमिनी के शिष्य का अविद्याजन्य आवरण, जिसके प्रभाव से जो विद्यमान है वह नहीं दिखता और जो विद्यमान नहीं है वह दिख रहा है, वह हटा दिया ।

व्यासजी को देवताओं ने, ऋषियों ने प्रार्थना कीः “भगवान तो कर्मबंधन से भेजते हैं किंतु गुरुदेव कर्मबंधन काट के भगवद्-तत्त्व में स्थित कर देते हैं तो कोई ‘गुरु-दिवस’, ‘गुरुपूजन दिवस’ भी होना चाहिए ।” तो गुरु दिवस, गुरुपूजन दिवस आषाढ़ी पूर्णिमा तय हुआ लेकिन फिर उन्होंने कहाः “हम आपका पूजन कहाँ करने आयें ?” तो विशालहृदय व्यास जी कहते हैं कि “जहाँ भी वैदिक ज्ञान, ब्रह्मविद्या का प्रसाद देने वाले सत्पुरुष हैं उनके पूजन में मैं अपना पूजन मान लेता हूँ, उनके आदर में मैं अपना आदर मान लेता हूँ और उनके अनादर में मेरा अपना अनादर मान लेता हूँ ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 24 अंक 330

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अनुसंधान एवं विश्लेषण है सफलता की कुंजी – पूज्य बापू जी


व्यक्ति जिस किसी क्षेत्र में जितना एकाग्र होता है उतना ही चमकता है । पशु और मनुष्य के बच्चे में मौलिक फर्क यह है कि पशु का बच्चा डंडे खाकर जो बात 6 महीने में अनुकरण करता है या सीखता है, वही बात मनुष्य का बच्चा 6 मिनट में सीख के, करके दिखा देगा । इसलिए मनुष्य ऊँचा है । और मनुष्यों में भी जो 6 मिनट की जगह पर 4 मिनट में वही बात समझ लेता है या अनुकरण कर देता है वह ज्यादा ऊँचा है । 4 मिनट की अपेक्षा 2 मिनट और 2 मिनट की अपेक्षा 1 मिनट और 1 मिनट की अपेक्षा जो इशारे में ही समझ जाता है वह और ज्यादा बुद्धिमान माना जाता है, उसका स्थान ऊँचा होता है । तो जितना-जितना मन एकाग्र होता है, सूक्ष्म होता है उतना वह ऐहिक जगत में या आध्यात्मिक जगत में उन्नत होता है ।

गुरुकुल के गुरु ने एक विद्यार्थी को बुलाया और बोलेः “लो यह काँच की पेटी, इसमें मछली है । मछली क्या-क्या चेष्टाएँ करती है, उसका विश्लेषण करना और उस पर जरा विचार करके एक घंटे के बाद मुझे बताना ।”

एक घंटे बाद विद्यार्थी ने वर्णन करके बताया कि “मछली पहले ऐसे हुई फिर ऐसे हुई, बाद में ऐसे हुई….।”

गुरु जी ने कहाः “बस इतना ही….! और भी कुछ खोज । और भी बहुत कुछ होता है । एक घंटा और देते हैं ।”

उसने और खोजा तो बड़ा एकाग्र हुआ और मछली की और भी जो कुछ चेष्टाएँ हो रही थीं वे सामने आयीं ।

गुरु जी ने फिर कहाः “एक घंटा और देते हैं, अभी और भी है ।”

तो ज्यों-ज्यों उसने अनुसंधान किया त्यों-त्यों उसकी मन की वृत्ति सूक्ष्म हुई । एकाग्रता बढ़ी।

गुरु जी कहाः “बेटा ! यह मछली का तो निमित्त था, अब कोई भी बात होगी तो तेरा मन अनुसंधान करने की योग्यतावाला हो गया । अब तू अपने कार्यों में अच्छी तरह से सफल हो पायेगा । विश्लेषण करने की तेरी क्षमता का विकास हुआ है ।”

ऐसे ही आपके जीवन में जब दुःख आये तो विश्लेषण करो, सुख हुआ तो विश्लेषण करो और भोग मिला तो विश्लेषण करो, भोग का नाश हुआ तो विशलेषण करो कि ‘आखिर किसका कुछ सदा के लिए टिका है ?’ दुःख या सुख आये तो विचार करो कि ‘क्यों आया ?’ कितने दिन टिकता है, देखो । सावधान होकर दुःख के द्रष्टा बनोगे तो दुःख तुम्हें दुःख का भोक्ता नहीं बनायेगा । ऐसे ही सावधान होकर सुख को भी देखो कि ‘आखिर कब तक ?’ आकर्षित हुए, वस्तु मिली, आखिर क्या ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 18 अंक 330

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