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अंतर्यामी झूलेलाल तो सबके अंदर प्रकट हो सकते हैं – पूज्य बापू जी


चेटीचंड उत्सव मनाना मतलब अपनी कायरता को भगाना, अपनी खोट को दूर करने की कुंजी आजमाना, अपने में प्राणबल फूँकना, अपने शौक को दूर करना । चेटीचंड के दिन सब मतभेदों को भूलकर लोग मिल जाते हैं । सेठ भी नाचता है, नौकर भी नाचता है, मुनीम भी नाचता है तो नेता भी नाचता है, भाई भी नाचता है तो बच्चे भी नाचते हैं ।

जहाँ धर्म, प्रेम, स्नेह की बात होती है वहाँ से भेदभाव, बड़प्पन-छोटापन, अहं की सिकुड़न जले जाते हैं ।

मुझे वेद पुरान कुरान से क्या ?

मुझे प्रेम1 का पाठ पढ़ा दे कोई ।

1 निर्विकारी प्रेम

जीवन में प्रेम की कमी होती है तब संघर्ष होता है । प्रेम की जगह जब अहंकार लेता है, श्रद्धा व स्नेह की जगह जब अहंकार और वाहवाही लेते हैं तभी समाज में अव्यवस्था पैदा होती है । उस अव्यवस्था को दूर करने के लिए निर्गुण-निराकार परमात्मा की शक्ति सगुण-साकार रूप में आती है तब उसको ‘अवतार’ बोलते हैं । जैसे कंस के अहंकार को और चाहिए, और चाहिए… करते हुए शांति नहीं मिली, वह जुल्म बढ़ाता चला गया तो भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ । मिर्खशाह ( मिरखशाह ) का ‘मुझे और सत्ता चाहिए, और राज्य चाहिए…’ यह अहंकार पेट न भर सका, उसने जुल्म किये तो झूलेलाल जी अवतरण हुआ ।

जुल्म करना तो पाप है लेकिन जुल्म सहना दुगना पाप है । जुल्म का बदला जुल्म से नहीं पर जुल्म का बदला साधना से चुकाओ । कोई तुम्हारे सामने तलवार लेकर खड़ा हो जाय तो तुम भी अगर तलवार ले के खड़े हो गये तो दोनों एक जैसे हुए । वह बाहर की तलवार उठाता है तो तुम भीतर स्नेह की तलवार लो कि उसकी बाहर की तलवार गिर जाय ।

अगर आराम चाहे तू, दे आराम खलकत2 को ।

सताकर गैर लोगों को, मिलेगा कब अमन तुझको ।।

2 दुनिया के लोगों

मैं आपसे निवेदन करूँगा कि आप पड़ोस में, कुटुम्ब में, घर में ऐसा वातावरण पैदा करो कि बच्चों के अच्छे संस्कार पड़ें, पड़ोस की बेटियाँ, पड़ोस की बहनें एक-दूसरे से स्नेह से चलें ।

अपने घर, पड़ोस और जीवन की समस्या जितना हो सके स्नेह से सुलझायी जाय ।

अहंकारी तत्त्वों को भगवान सद्बुद्धि दें, झूलेलाल उनके अंदर अवतरित हों । बाहर के झूलेलाल तो रतनराय और देवकी के घर प्रकट हुए पर अंतर्यामी झूलेलाल आपके अंदर प्रकट हो सकते हैं ।

इस पर्व पर ज्योत जलायी जाती है । ज्योत जलाने का मतलब है आपके अंदर जो आत्मज्योत समायी हुई है वह ज्योत जगे तो आप सदा के लिए जन्म-मरण के चक्कर से छूट सकते हो । ताहिरी ( मीठे चावल ) किसी के घर की, कुहर ( उबले हुए चने, चौली आदि ) किसी के घर के, सूखा प्रसाद किसी के घर का परंतु बाँटते हैं तो सबको देते हैं । धर्म हमको समानता, स्नेह, प्रेम सिखाता है, धर्म हमको बाँटकर खाना सिखाता है ।

दूसरे का बँगला देखकर हम अपनी झोंपड़ी नहीं गिरायें, दूसरों का लेना-देना और दूसरों का ठाठ-बाट देख के हम अपनी श्रद्धा और सात्त्विकता नहीं गँवायें । हमारा जीवन श्रद्धायुक्त हो । जैसे दरिया के तट पर वे सीधे-सादे सिंधी सज्जन श्रद्धा से जाकर बैठे, अंदर से शांत हुए तो वे तो तर गये पर साथ ही दूसरों को तारने का रास्ता भी बना के गये ।

कायरता छोड़कर उत्साही बनने का संदेश

कायरता जैसा दुनिया में कोई पाप नहीं । अहंकार, ईर्ष्या तो पाप है पर कायरता भी पाप है । जब-जब दुःख, मुसीबत, कायरता आये, मुश्किल मुँह दिखाये अथवा भय या चिंता आये तो घबराओ नहीं, आप घूँटभर पानी पियो, स्नान करो या हाथ-मुँह धोओ और थोड़ी देर परमात्मा का चिंतन करो, भगवन्नाम या ॐकार की ध्वनि करो, परमात्मा का नाम लो तो आपके अंदर उत्साह पैदा होगा, ज्योत जगेगी, आपको क्या व्यवहार करना है यह अंदर से प्रेरणा मिलेगी ।

स्नेह, श्रद्धा और भक्ति आपके जीवन को ऐसा मोड़ दें कि आपको बाहरी शराब न पीनी पड़े, बाहर से फैशन न करना पड़े । आश्रम में सदा यह कोशिश की गयी है कि लोग बाहर की प्यालियाँ छोड़कर अंदर की प्यालियाँ पियें । अगर परमात्मा की शरणागति नहीं लेते तो हजार-हजार की शरणागति लेनी पड़ती है । मिर्खशाह और डरे हुए लोगों ने नास्तिकता की शरणागति ली थी पर जो सीधे-सादे सिंधी थे वे दरवेश ( संत ) और भगवान के शरणागत थे । उन्होंने अपने कुल तो तारे, अपना जन्म तो सफल किया, साथ ही दूसरों के लिए भी जन्म सफल करने का द्वार खोल गये । हजार साल से ज्यादा समय हो चुका है पर उनकी कमाई हमसे बिसरती नहीं है । हर चेटीचंड पर हम लोग अपने जीवन में उत्साह, प्राणबल, श्रद्धा और स्नेह को बढ़ाने के लिए बहिराणा साहिब की शोभायात्रा निकालते हैं, प्रसाद बाँटते हैं और अपने जीवन को ताजा करते हैं । जीवन में चिंता आये तो आप चिंता को इतना मूल्य न दो, डर आये तो इतना न घबराओ, मिर्खशाह से बड़े मिर्खशाह आयें पर परमात्मा के आगे ये कुछ नहीं हैं, अपने आत्मा का घात न करना, परमात्मा में शांत होना ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2022, पृष्ठ संख्या 11, 12 अंक 351

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हिचको मत


ईश्वरप्राप्ति के पथिक को अपने मार्ग पर कैसे बिना रुके, निशंक आगे बढ़ना चाहिए यह अपने एक जीवन-प्रसंग के माध्यम से बताते हुए स्वामी अखंडानंद कहते हैं- एक बार मैं दिल्ली से श्री हरिबाबा जी महाराज के बाँध पर जा रहा था और मुझे ट्रेन में बैठाने के लिए एक सज्जन आये थे । उन्होंने मेरा टिकट खरीदा फिर वजन करने वाली मशीन पर मेरा वजन लिया । उस मशीन के टिकट पर लिखा था ‘हिचको मत’ । हम प्लेटफार्म पर चले गये । सोचा, गाड़ी में बैठ जायें ।’ द्वितीय श्रेणी का टिकट था पर पूरी ट्रेन में कहीं कोई द्वितीय श्रेणी का डिब्बा नहीं दिखा । अब ? ‘हिचको मत’ मंत्र याद करके हम प्रथम श्रेणी के डिब्बे में ही बैठ गये । मेरे साथ छोटे जी ब्रह्मचारी थे । कुछ देर बाद ही टी.टी. ने हमारा टिकट देखा और कहाः ″आप लोग द्वितीय श्रेणी में बैठिये ।″

मैंने कहाः ″तुम बैठा दो !″

उसको तो पता था नहीं, वह बेचारा जाकर पूरी ट्रेन देख आया पर कोई द्वितीय श्रेणी का डिब्बा नहीं मिला । हारकर लौट आया और उसी प्रथम श्रेणी के डिब्बे पर उसने खड़िया से द्वितीय श्रेणी लिख दिया !

जब दूसरा स्टेशन आया और गाड़ी रुकी तब छोटे जी मेरे लिए कुएँ का पानी लेने के लिए उतरे पर उनके लौटने के पहले ही ट्रेन चल पड़ी । मुझे फिर याद आया ‘हिचको मत’ और मैंने झट जंजीर खींच दी । गाड़ी खड़ी हो गयी और छोटे जी दौड़कर डिब्बे में आ गये । गार्ड ने आकर हमारे टिकट ले लिये और अलीगढ़ पहुँचने पर उसने टिकट दे दिये, कुछ बोला नहीं !

अलीगढ़ से दूसरी ट्रेन से हम बबराला स्टेशन पर शाम को पहुँच गये । यहीँ से बाँध के लिए जाना था । लेने भी कोई नहीं आया था । 9 मील लम्बा रास्ता था और गाड़ी कोई मिलती नहीं थी । अब क्या हो ?

मैंने छोटे जी से कहाः ″छोटे जी ! हिचको मत । थोड़ा सामान तुम उठाओ और थोड़ा मैं उठाता हूँ और चलते हैं ।″ चल पड़े । आगे बढ़े तो उसी गाँव की एक गाड़ी जा रही थी । उसमें दो स्त्रियाँ बैठी थीं । वे उतर गयीं और प्रणाम करके बोलीं- ″स्वामी जी ! आप लोग गाड़ी में बैठ जाइये ।″

मैंने कहाः ″हम गाड़ी में नहीं बैठेंगे, हमारा सामान तुम गाड़ी में रख लो ।″ इस तरह ‘हिचको मत’ से सामान की समस्या हल हो गयी । कुछ और आगे बढ़े तो देखा कि पीछे से एक बैलगाड़ी वाला अहीर तेजी से अपना रथ दौड़ाता, बिरहा गाता आ रहा है । ‘हिचको मत’ मंत्र याद करके मैंने उससे पूछ लियाः ″क्यों भाई ! हमें ले चलोगे ?″

वह बोलाः ″जरूर महाराज ! बैठ जाइये, हम तो जा ही रहे हैं ।″ बैठ गये । फिर भी बाँध पहुँचते-पहुँचते रात के 12 बज गये । सब लोग सो चुके थे । अब ? हम सीधे वहाँ चले गये जहाँ हमारे ठहरने का इंतजाम  किया गया था । ( हमें पहले ही बता दिया गया था कि अमुक स्थान पर श्री हरि बाबा जी महाराज ने हमारे लिए नयी कुटिया बनवायी है । ) देखा कुटिया में ताला लगा है !

हिचको मत मंत्र याद करके मैंने ताले को पकड़कर जरा जोर से खींचा तो खुल गया । हम अंदर चले गये और मजे से अपनी दरी-चादर जो भी थी उसे बिछाकर सो गये ।

यह जो हम लोग अपने जीवन में दुविधा रखते हैं – हर बात में दुविधा, हर बात में दुविधा – यह जीवन-यात्रा की उत्तम विधा नहीं है । तो हमें हिचकते-हिचकते नहीं, बिना हिचके आगे बढ़ना चाहिए और खूब उत्साह से जीवन-यात्रा करनी चाहिए ( बशर्ते हम जिसमें आगे बढ़ रहे हैं वह अहितकर कर्म न हो, सद्गुरु एवं शास्त्र विपरीत कर्म न हो ) । हमारा जीवन आगे बढ़ने के लिए है, दुविधा में पढ़कर रुकने के लिए नहीं । आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, बढ़ते ही चलो, बढ़ते ही चलो । चरैवेति, चरैवेति ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2022, पृष्ठ संख्या 25, 26 अंक 351

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सहजता, सरलता व परदुःखकातरता की साक्षात् मूर्ति मेरे गुरुदेव ! – पूज्य बापू जी


कितने परदुःखकातर व सरल !

जो भी करो सावधानी से, तत्परता से, लापरवाहीरहित होकर करो । कोई बड़ा काम करने से व्यक्ति बड़ा नहीं होता, छोटा काम करने से व्यक्ति छोटा नहीं होता । मैं मेरे गुरुदेव ( पूज्यपाद भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज ) के साथ पत्थर उठाता था, गुरुदेव भी उठाते थे 75-80 साल की उम्र में । रास्ते में पत्थर पड़े दिखते तो गुरुदेव बोलतेः ″किसी को कष्ट होगा, ठोकर लगेगी ।″ उन पत्थरों को उठा लेते और इकट्ठे करके ऊपर पहाड़ी पर ले जाते और कुटिया बनाते कि साधक रहेगा ।

75 से 80 साल की उम्र में गुरुदेव आबू पर्वत पर पधारे थे । एक पहाड़ी थी उसको दीवाल करके गुफा बनाना चाहते थे तो मिस्त्री को बुलाया और उसके सहायक के रूप में गारा बना-बना के देने का काम गुरुदेव ने किया । फिर उस गुफा को दरवाजा लगाना था तो आबू के बाजार से दरवाजा खरीदा, मजदूर जरा महँगा मिल रहा था तो खुद अपने सिर पर उठाकर ले आये ।

कैसी आत्म-सहजता !

मेरे गुरुदेव लकड़ियाँ चुन के ले आते थे । आदिपुर में गुरुदेव की कुटिया थी । एक बड़ा प्रसिद्ध सेठ तोलानी जिसने अपने नाम का महाविद्यालय भी बनवाया था और निर्यातक ( एक्सपोर्टर ) था, वह दर्शन करने आया । बापू जी घूमने गये थे । वह सेठ बैठ-बैठ के थका । गुरुदेव का सेवक उनको ढूँढने गया तो बापू जी एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ से सिर पर रखा लकड़ियों के टुकड़ों का गट्ठर पकड़ के आ रहे थे । सेवक बोलता हैः ″बाबा ! पिता जी ! यह क्या कर रहे हो ? तोलानी सेठ जैसे तो इंतजार कर रहे हैं और आपने लकड़ियाँ चुनने में इतनी देर कर दी ! अब ऐसे चलोगे तो वह क्या मानेगा ?″

बोलेः ″कुछ भी माने क्या है ? दो वक्त की रोटी बन जायेगी, तेरे कोयले बच जायेंगे । इसमें क्या बुरा है ?″

किसी पर प्रभाव डालने के लिए आप जो भी कुछ करते हैं उससे आप अपनी आत्म-सहजता को दबाते हैं ।

बड़े-बड़े सेठ जिनके दर्शन का इंतजार कर रहे हैं वे गट्ठर लेकर आ रहे हैं । आश्रम में गट्ठर पटका ।

सेठ बोलाः ″ये लीलाशाह साँईं हैं ?″

सेवक बोलाः ″हाँ ।″

″अच्छा तो यह रजाई, यह फलाना, यह सामान…″

गुरुदेव बोलेः ″अच्छा-अच्छा ठीक है, प्रसाद लो… अच्छा जाओ आप ।″

उसको जल्दी भगा दिया और कोई गरीब चौकीदार था उसे बुलाकर बोलेः ″अरे, ले यह रेशम की रजाई आयी है । पिऽऽयूऽऽ…. लीलाशाह तेरे द्वारा भोगेगा, ले जा ।″ सब सामान बाँट दिया ।

कितनी सहजता ! कितनी स्वाभाविकता ! कोई परवाह ही नहीं कि ‘लोग क्या कहेंगे !’

जो पुजवाने के लिए कुछ करता है वह पूजने योग्य होता ही नहीं । जिसको पुजवाने की इच्छा ही नहीं वह वास्तव में पूजने योग्य ही होता है । गुरुदेव ने कभी नहीं कहा कि ‘तुम मेरे शिष्य बनो अथवा मुझे आदर से देखो या प्रणाम करो ।’ ऐसा उन महापुरुष के जीवन में कभी हम सोच भी नहीं सकते लेकिन मैं तन से तो प्रणाम करता हूँ, मन से करता हूँ, मति से भी करता हूँ ।″

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2022, पृष्ठ संख्या 17, 19 अंक 351

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