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Adhyatmik Prashnotari

परिप्रश्नेन


साधिकाः बापू जी ! हमें पता है कि संसार नश्वर है, जो कुछ हमें भास रहा है वह नष्ट होने वाला है फिर भी मन इसी की ओर बार-बार क्यों दौड़ता है ?

पूज्य बापू जीः यह आपने सुना है, अभी ठीक से जाना नहीं है, ठीक से माना नहीं है । जैसे साँप आ जाय और कोई कहे कि ‘रुके रहो’ तो भी आप भाग जाते हैं क्योंकि आप ठीक से मानते हैं कि साँप काटेगा तो हानि होगी । ऐसे ही यह अभी सुना हैकि ‘संसार नश्वर है, मिथ्या है’ किन्तु पुरानी वासनाएँ हैं, आकर्षण है इसलिए बार-बार मन उधर जाता है । ‘क्यों जाता है, कैसे जाता है ?’ इस पचड़े में मत पड़ो । जहाँ भी जाय, ‘सब मिथ्या है ।’ ऐसा दृढ़ता से मान लो । संसार में यथायोग्य व्यवहार करो । आप बेटी हो तो माँ के साथ निभाओ, पत्नी हो तो पति के साथ निभाओ, बहन हो तो बहन के साथ निभाओ । इनके साथ कम-से-कम समय में निभा के जीवात्मा हो तो परमात्मा के साथ निभा के एकाकार हो जाओ, इसमें क्या चिंता की बात है ? जिससे बिछुड़ नहीं सकते उसी में शांत, आनंदित….. ‘ऐसा क्यों, वैसा क्यों ?…’ इस पचड़े में मत पड़ो, चलने दो । जिसको संसार सच्चा लगता है उसके लिए संसार महानरक है, दुःखालय है, अशाश्वत है, अनित्य है किंतु जिनको परमात्मा सत्य लगता है उनके लिए संसार वासुदेवमय है । तो संसार को भोगी की दृष्टि से देखो तो वह तुम्हें तुच्छ बना देता है इसलिए बड़ा तुच्छ है और भक्त व तत्त्ववेत्ता की दृष्टि से देखो तो सब वासुदेव की लीला है ।

साधकः गुरु जी ! सत्संग में सुना है कि ‘मैं चैतन्य आत्मा हूँ, मुक्तात्मा हूँ’ फिर भी प्रतिकूलता आती है तो दुःख होता है और अनुकूलता आती है तो सुख होता है – ऐसा क्यों होता है ?

पूज्य बापू जीः ‘यह मेरे को होता है’ ऐसा सोचो ही नहीं बल्कि ऐसा सोचो कि ‘अनुकूलता का सुख इन्द्रियों को होता है, मन को होता है । प्रतिकूलता का दुःख भी इन्द्रियों और मन को होता है और इन इन्द्रियों और मन में मैं हूँ आभासमान, परमात्मरूप से मैं हूँ सत् । इन्द्रियों और मन के बहकावे में आना मेरी पुरानी आदत है । इस आदत के कारण सुख-दुःख होता है तो होता है लेकिन वह हो-हो के चला जाता है । दुःख भी नहीं टिकता और सुख भी नहीं टिकता पर जो टिकता है वह मेरा परमात्मा और मैं ज्यों-के-त्यों हैं, फिक्र किस बात की !

चिंतन कणिकाएँ-पूज्य बापू जी

नश्वर चीजें जितनी भी मिलती हैं उतनी गुलामी और बढ़ा देती हैं लेकिन परमात्मा घड़ीभर के लिए भी मिलता है तो सदा-सदा के लिए बेड़ा पार कर देता है ।

दुनिया का धन-वैभव जहाँ काम नहीं देता वहाँ आत्मवैभव, आत्मप्रसाद परलोक में भी जीव की रक्षा करता है ।

विषयों की आसक्ति, जगत में सत्यबुद्धि यह बंधन का कारण है और विषयों मैं वैराग्यवृत्ति, परमात्मा में सत्यबुद्धि यह मुक्ति का कारण है ।

सच पूछो तो परमात्मा से या आनंद से, परम सुख से तुम रत्ती भर भी दूर नहीं हो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 4 अंक 342

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परिप्रश्नेन…


साधकः भगवान सबके अंदर हैं फिर भी किसी के अंदर अच्छाई होती है, किसी के अंदर बुराई – ऐसा क्यों हो जाता है ?

पूज्य बापू जीः अरे, देखो बबलू ! विद्युत के विभिन्न उपकरणों में विद्युत एक ही होती है लेकिन गीजर पानी गरम करता है और कसाईखाने की मशीनें गायों को, बकरों को, जानवरों को काट डालती हैं । फ्रिज में पानी ठंडा होता है, माइक से आवाज दूर तक पहुँचती है । जैसा यंत्र बना है, यंत्र के प्रभाव से वैसी-वैसी अनेक क्रियाएँ, लीलाएँ होती हैं किंतु फिर भी सत्ता (बिजली) ज्यों की त्यों है । अगर क्रियाएँ, लीलाएँ अनेक न हों तो सृष्टि कैसे ? यह सृष्टि की विचित्रता है ।

जैसे सिनेमा में क्या होता है ? प्लास्टिक की पट्टियाँ और रोशनी होती है फिर भी उसमें रेलगाड़ी आयी, व्यक्ति कट गया…. दूसरी रेलगाड़ी आयी, लोग अच्छे से उतरे, तीसरी रेलगाड़ी आयी, उसमें से जानवर ही निकले । ऐसा क्यों होता है ? अरे, ऐसे ही तो चलता है सिनेमा ! सिनेमा दर्शक के लिए नये-नये रूप, रंग आदि-आदि दिखाकर उसका मनोरंजन करने के लिए है । ऐसे ही संसार में जो विचित्रता है वह भगवान को धन्यवाद देकर आनंद बढ़ाने के लिए है, तुम्हारा ज्ञान बढ़ाने के लिए समता बढ़ाने के लिए है ।

‘ऐसा क्यों होता है ? ऐसा क्यों होता है ?… अगर ऐसा नहीं होता तो तुम इधर (सत्संग में) भी नहीं होते । ऐसा हुआ तभी इधर आ गये । ऐसा क्यों न हो ? हमारा भगवान सर्वसमर्थ है । पौने आठ अरब से ज्यादा मनुष्य हैं लेकिन एक मनुष्य का चेहरा दूसरे से नहीं मिलता – ऐसा क्यों होता है ? ऐसी उसकी कला-कारीगरी है, उसकी महानता है !

साधिकाः बापू जी ! मैं ऐसा क्या करूँ जिससे मेरी भक्ति खूब बढ़े, खूब प्रगाढ़ हो ? मैं ध्यान करूँ, जप करूँ, अनुष्ठान करूँ, क्या करुँ ?

पूज्य श्रीः अरे ‘क्या करूँ, क्या करूँ ?….’ छोड़ दे । तू केवल मर जा बस ! ‘मैं करूँ, करूँ करूँ….मैं कौन होती हूँ करने वाली ?….

करन करावनहार स्वामी । सकल घटा के अंतर्यामी ।।

हे माधव ! मैं तो हूँ ही नहीं ।’ ऐसा चिंतन कर । ‘मैं करूँ, करूँ…. ‘क्या ? तरंग क्या करेगी ? तरंग अपना तरंगपना छोड़ दे तो सागर है । ऐसे ही करूँ, करूँ, करूँ… छोड़ दे, ‘मैं प्रभु की, प्रभु मेरे… ॐ आनंद, ॐ शांति ।’ ‘करूँ, करूँ…. करके काहे मजूरी करना ? करने वाले को मर जाने दे तो आत्मा का अमर पद प्रकट हो जायेगा । ठीक है न ! इन प्रश्नोत्तरों से जो मुसीबतें हटती हैं वे मेहनत से नहीं हटतीं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021 पृष्ठ संख्या 34 अंक 339

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परिप्रश्नेन…


प्रश्नः मन वश क्यों नहीं होता ?

पूज्य बापू जीः मन में महत्त्व संसार का है और भगवान का भी उपयोग करते हैं जैसे नौकर का उपयोग करते हैं । भगवान तू यह कर दे, यह कर दे, यह कर दे…’ । महत्त्व है मिथ्या शरीर का और मिथ्या संसार का इसलिए मन वश नहीं होता । अगर भगवान का महत्व समझ में आ जाय और शरीर मरने वाला है, जो मिला वह छूटने वाला है… अहा ! शरीर दूसरा मिले कि न मिले इसमें संदेह है लेकिन जो मिला है वह छूटेगा कि नहीं छूटेगा इसमें संदेह नहीं है – ऐसा अगर दिमाग में ठीक से बैठ जाय तो धीरे-धीरे विषय-विकारों से मन उपराम होगा और भगवान में लगेगा । महत्त्व मिथ्या को देते हैं और भजन भगवान का करते हैं तो उसमें भगवान का भी उपयोग करते हैं । जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, महात्मा से कुछ माँगते हैं उनके हृदय में महात्मा से और भगवान से भी उनकी माँगी हुई चीज का महत्त्व ज्यादा है ।

कई लोग कहते रहते हैं कि ‘हमारे को ऐसा कर दो… हमारा ऐसा हो जाय, ऐसा हो जाय… ।’

अरे ! क्या अक्ल मारी गयी ! ‘मैं तो सदा तुम्हारा सुमिरन करूँ, मैं ऐसा करूँ… ।’ अरे ! जो हो रहा है उसमें सम रहो । ऐसा करूँ… सा करूँ…’

सोचा । अब यदि वैसा होगा तो आसक्ति हो जायेगी, नहीं होगा तो रोओगे । तुम न आसक्ति में आओ, न रोने में आओ, सम रहो । जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा ही होगा ।

जो अपनी मन की चाह पूरी करता रहेगा, मनचाहा सुख लेता रहेगा उसके चाहे 10 हजार जन्म बीत जायें, ईश्वरप्राप्ति नहीं होगी । मन के चाहे में सुखी होगा और न चाहे में दुःखी होगा तो ईश्वरप्राप्ति नहीं होगी । मन तो जिंदा रहेगा, वासना तो बढ़ेगी इसलिए सच्चे भक्त बोलते हैं- ‘मेरी सो जल जाय, हरि की हो सो रह जाय ।’ तो कोई घाटा नहीं पड़ता । हरि की चाह बहुत ऊँची है और हितकारी है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 338

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