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मेरे लिए तो स्वयं बादशाह भोजन माँगकर लाये हैं !


एक बार बादशाह अकबर अपने मंत्री बीरबल के साथ शिकार खेलने जंगल में गये। काफी देर हो गयी पर उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। वे दोनों रास्ता भटकने से खूब थककर एक जगह पर रुक गये। बीरबल ने जमीन साफ की और बैठकर भगवन्नाम जपने लगेः ‘ॐ राम…. हरि ॐ…. ॐ गुरु….’

कुछ देर आराम करने के बाद अकबर बोलाः “चलो बीरबल ! भूख लग रही है। कहीं भोजन ढूँढते हैं।”

बीरबल तो भगवन्नाम जपते हुए आनंद से पुलकित हो रहे थे। बादशाह ने बीरबल को ऐसे बैठे देखकर पूछाः “क्या तुम नहीं चलोगे ?”

बीरबलः “हुजूर ! ऐसा एकांत तो कभी-कभी मिलता है। मैं यहीं बैठकर भगवान का नाम जपूँगा।”

“बीरबल ! तुम्हारे केवल मंत्रजप से ईश्वर भोजन नहीं दे देंगे। इसके लिए तुम्हें कुछ करना पड़ेगा। बिना प्रयास के कुछ नहीं मिलेगा।”

बीरबल मुस्कराये, बोलेः “ईश्वर की इच्छा से सब कुछ सम्भव है।”

“ऐसा केवल तुम सोचते हो बीरबल !” बादशाह वहाँ से चला गया। कुछ दूरी पर उसे एक घर दिखा, वहाँ पहुँचा। घर में रहने वालों ने उसे सत्कार के साथ भोजन कराया। तृप्त होने के बाद अकबर ने बीरबल के लिए भी भोजन बँधवा लिया।

अकबर जब वापस लौटा तो उसने बीरबल से कहाः “देखो बीरबल ! हमने प्रयास किया तो हमें भोजन मिल गया और खाकर तृप्त भी हो गये। हम तुम्हारे लिए भी भोजन लेकर आ गये हैं। यहाँ खाली बैठ के जपने से तुम्हें क्या मिला ?”

बीरबल मुस्कराये और अकबर के हाथों से भोजन लेकर शांतिपूर्वक उसे खाने लगे। बादशाह ने उनसे दोबारा प्रश्न किया तो बीरबल बोलेः “जहाँपनाह ! मुझे भगवन्नाम-जप की शक्ति का नया एवं प्रत्यक्ष अनुभव हुआ है। आप बादशाह होकर भी भोजन ढूँढने-माँगने गये जबकि जिनके नामजप में मैं तल्लीन था, उन्होंने मेरी भूख का ख्याल रखते हुए बादशाह के हाथों मेरे लिए भोजन भिजवाया और बैठे-बैठे खिलाया। जहाँपनाह ! मेरे अंतर्यामी प्रभु और उनके नामजप की महिमा अपार है।”

बादशाह अकबर बीरबल की ओर विस्मय की दृष्टि से एकटक देखता रहा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 28 अंक 296

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हे विद्यार्थियो तुम किस ओर जा रहे हो?


कोई भी मनुष्य पूर्ण रूप से पापी नहीं हो सकता। कुछ-न-कुछ पुण्य का अंश तो रहता ही है। उसी पुण्य के अंश से आप अपने हित के लिए आध्यात्मिक चर्चा सुनते हो, इस प्रकार की पुस्तकें पढ़ते हो और किसी पाप के प्रभाव से सुनते हुए, पढ़ते हुए भी आचरण में नहीं ला पाते हो। यदि आप दृढ़ संकल्प कर लो तब सदाचार के पालन में और दुराचार के त्याग में पको कोई दूसरा रोकने वाला नहीं है। आप अपने द्वारा बढ़ाये हुए (गलत) अभ्यास की दासता (गुलामी) से बँधे हो लेकिन इस प्रकार के (गलत) अभ्यास को विपरीत अच्छे अभ्यास से हटा सकते हो।

सुंदर देना सीखो

जब आप दूसरों से सम्मान चाहते हो, प्यार, प्रेमपूर्वक व्यवहार अथवा कोई प्रिय वस्तु चाहते हो तब आप दूसरों को उनके अनुकूल सम्मान तथा अधिकार, प्यार अथवा प्रिय वस्तु देने के अवसर पकड़ते रहो। जो आप दे सकते हो वह देते रहो तभी दूसरों से पा सकोगे।

कुछ ऐसे भी दीन, दरिद्र व्यक्ति होते हैं जिनके पास देने के लिए सुंदर वस्तु तथा मधुर वाणी द्वारा सुंदर प्यार के या सम्मान के शब्द होते ही नहीं। ऐसे व्यक्ति पुण्यहीन हैं। कुछ पुण्यवान आरम्भ से प्रेमभाव के धनी होते हैं। देने का जिनका सुंदर भाव या स्वभाव हता है उनके पास देने के लिए बहुत कुछ होता है और वे देते ही रहते हैं। कोई तो सदा शुभ, सुंदर, प्रिय के ही दानी होते हैं और कोई अशुभ, असुंदर को ही फेंकते हुए दूसरों को चोट पहुँचाते हैं।

एक संत को एक विरोधी व्यक्ति गालियाँ देने लगा पर संत कुछ न बोले, खड़े रहे। तब उसने थूक दिया। संत फिर भी न बोले। उस दुष्ट ने कहाः “तू खड़ा क्यों है ?” संत ने कहाः “मेरे हिस्से का और भी जो देना शेष है वह भी दे दो जिससे आगे देने को बाकी न रहे, इसी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ।”

कोई संत कभी सह के दूसरे की बुराई खत्म करते हैं तो कभी डाँट के उसके दोषों को भगा देते हैं और उसे पवित्र बनाते हैं। कितने दयालु होते हैं संतजन ! अशुभ, अप्रिय, अपवित्र देना पाप है। शुभ, सुंदर, पवित्र को देना सुंदर पुण्य है।

पुण्य और पाप की पहचान

आप बालक हो या युवक हो, इतने पुण्यवान तो हो ही कि इस समय ये अपने हित की बातें पढ़ रहे हो या सुन रहे हो। अब यह भी समझ लो कि आप अपने पुण्यों को सुख का उपभोग करते हुए घटा रहे हो या दूसरों की सेवा करते हुए बढ़ा रहे हो। पुण्य के योग से जिनकी बुद्धि शुद्ध है वे नीच कार्य, ओछे काम करने वालों से अथवा श्रेष्ठ माननीय पुरुषों या किसी विद्वान से विरोध नहीं करते।

जिनकी मति मंद है अथवा जिन्हें पुण्य का ज्ञान ही नहीं है, जिन पर पाप सवार रहता है वे व्यक्ति नीति नियम का विरोध करने में ही खपते रहते हैं। सीढ़ियों के कोनों में, दीवालों पर थूककर गंदा करते हैं। दल बनाकर टिकट लिए बिना ही रेलयात्रा करते हैं। जंजीर खींचकर जहाँ चाहते हैं वहीं उतर जाते हैं। सैंकड़ों यात्रियों को कष्ट होता है परंतु पाप का अभ्यासी अहंकार, आगे मिलने वाले प्रतिकूलता, दुःख की चिंता नहीं करता। पुण्यवान व्यक्ति आरम्भ से अर्थात् बाल्यकाल से ही वह कर्म नहीं करते जिससे दूसरों को कष्ट हो सकता है।

पुण्य के प्रताप से अच्छी मतिवाले व्यक्ति नीति नियम के विरूद्ध काम करने वालों को नम्रतापूर्वक रोकते हैं। यदि मूर्ख लोग नहीं मानते तब उनके द्वारा किये जा रहे अनुचित कर्म को स्वयं सँभालने (बिगड़ते हुए कार्य को बिगड़ने से बचाने व सुधारने) का प्रयत्न करते हैं। जिन बातों में समय व्यर्थ जाय, खर्च की अधिकता से खर्च देने वालों को कष्ट हो, साथ ही पढ़ाने के लिए धन की आय कम होने से रिश्वत लेनी पड़ती हो या कर्ज लेना पड़े तब तो विद्यार्थी के लिए पाप है।

अपनी आवश्यकताएँ बहुत कम रखना, कर्म खर्च में निर्वाह करना, सादे वस्त्र पहनना, वस्त्र तथा रहने का स्थान साफ रखना, शुद्ध, सतोगुणी भोजन करना, ईश्वर पर  विश्वास रखऩा पुण्यवान विद्यार्थी के सुलक्षण होते हैं।

पूर्व के जन्म में तन से सेवा करते हुए जितने अधिक पुण्य किये जाते हैं, अगले जन्म में उतना ही अधिक बलवान शरीर मिलता है। पूर्वजन्म में वाणी द्वारा विनम्रतासहित मान देते हुए जितने अधिक पुण्य बन जाते हैं, उतना ही अधिक इस जन्म में सद्गुण एवं शील की अधिकता के कारण आरम्भ से ही सम्मान मिलता है। पूर्वजन्म में जितना अधिक मानसहित दान करने से पुण्य बढ़ते हैं उसके फल से इस जन्म में धन और सुंदर रूप मिलता है।

सत्शिक्षा से विमुख और कुशिक्षा से प्रेरित हुए जो विद्यार्थी किसी वस्तु का मूल्य न देकर उसे छीन लेते हैं, जो टिकट न ले के यात्रा करते हैं वे पाप कमाते हैं। उन्हें कभी-न-कभी कई गुना बढ़कर हानि का दुःख भोगना पड़ता है। जो पुण्यहीन विद्यार्थी सत्शिक्षा न मानकर कुसंग के प्रभाव से दुर्व्यसनी, विलासी बन जाता है वह गलत सोचवाला, बुरी नजर से देखने वाला अपना पाप बढ़ाता है।

जो अपने संग के प्रभाव से दुराचारी, दुर्व्यसनी को सदाचारी, संयमी बना लेता है वह पुण्य का भागीदार होता है। किसी विद्यार्थी का अध्ययन छुड़ाकर उसे खेल तमाशों में, सिनेमा में ले जाना पाप है और व्यर्थ के खेल तमाशों तथा सिनेमा से रोक के अध्ययन में लगाना पुण्य है। किसी को पतन करने वाले कर्म के लिए प्रेरित करना पाप है। किसी शुभ कार्य के लिए प्रेरित करना पुण्य है। जब आपके मन में दूसरों के पास कोई भी वस्तु देखकर उसे लेने का लालच लग रहा हो या ईर्ष्या, डाह(जलन) पैदा हो रही हो, तब आपको याद आ जाना चाहिए कि ‘पाप की वृत्ति है, यही कुशिक्षा तथा कुसंगति का  प्रभाव है।’

जब कभी लोभ जागृत हो रहा हो या किसी के रूप को देखकर कामवासना जागृत हो रही हो अथवा किसी प्रकार की प्रतिकूलता में क्रोध उत्तेजित हो रहा हो, किसी के प्रति दुष्ट भाव जागृत हो रहा हो, किसी की निंदा होने लगी हो, उसी समय आपको स्मरण आ जाय कि ‘पाप का आक्रमण है’ और उसी क्षण आप उस पापवृत्ति को देखते हुए उसके पीछे समय तथा शक्ति का दुरुपयोग न होने दो तभी आप पाप-पोषण से बचकर उसी शक्ति से पुण्य का शोषण कर सकते हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 292

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आद्य शंकराचार्य जी का जीवन


जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य जी का जीवनकाल मात्र 32 वर्ष का था। धर्म व दर्शन के क्षेत्र में तो उनका बहुत बड़ा योगदान है। मानव जीवन के अन्य पहलुओं के लिए भी उनके सद्ग्रंथों से अमूल्य प्रेरणाएँ मिलती हैं।

बालकों के लिए आदर्शः शंकर

आदर्श बालक का हृदय निर्मल व पारदर्शी होता है। वह जो सोचता है वही कहता है और उसी के अनुसार आचरण करता है। उसकी वह निखालिसता और सरलता ही सबको उसकी ओर आकृष्ट करती है।

एक आदर्श बालक जिस लक्ष्य को अपना लेता है,  उसको भूलता नहीं। लक्ष्य का निश्चय करके वह तुरंत उसके पूरा करने में जुट जाता है। वह धीर होता है और किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता। इन सब गुणों से युक्त शंकर एक विलक्षण बालक थे। उनकी अल्प आयु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया था। उन्होंने मृत्यु को निकट से देखा। छोटी सी उम्र में ही वैराग्य के बीज उनके कोमल चित्त में अंकुरित हो गये। लगभग 7 वर्ष की उम्र में उन्होंने चारों वेदों व वेदांगों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। कितनी तीव्र लगन थी उनमें ! कोई भी बालक ऐसी प्रतिभा को प्राप्त कर सकता है यदि वह शंकर की तरह जितेन्द्रिय, एकाग्रचित्त और जिज्ञासु बने तो।

गुरुभक्तों के लिए प्रेरणास्रोत शंकर

अब बालक शंकर को ब्रह्मजिज्ञासा हुई। अतः किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की खोज में वे अपने घर से निकल पड़े। श्री गोविंदपादाचार्य जी को पाकर शंकर बहुत प्रसन्न हुए। गुरु से विनीत भाव से प्रार्थना कीः “अधीही भगवो ब्रह्म !” अर्थात् भगवन् ! मुझे ब्रह्मज्ञान से अनुगृहीत करें।

बालक को देखकर उन्होंने प्रश्न कियाः “वत्स ! तुम कौन हो ?” बस, अपना परिचय देते हुए बालसंन्यासी शंकर के मुँह से वाग्धारा प्रवाहित हो उठीः

न भूमिर्न तोयं न तेजो न वायु-

र्न खं नेन्द्रियं वा न तेषां समूहः।।

अनैकान्तिकत्वात्सुषुप्त्येकसिद्ध-

स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम्।।

‘मैं पृथ्वी नहीं हूँ, जल भी नहीं, तेज भी नहीं, न वायु, न आकाश, न कोई इन्द्रिय अथवा न उनका समूह भी। मैं तो सुषुप्ति में भी सर्वानुगत एवं निर्विकार रूप से स्वतः सिद्ध हूँ, सबका अवशेषरूप एक अद्वितीय केवल शिवस्वरूप हूँ।’

गुरुगोविंदपादाचार्य जी ने बालक शंकर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और उन्हें विधिवत् संन्यास की दीक्षा दी। वे गुरुचरणों में रहकर ब्रह्मसूत्र, महावाक्य चतुष्टय आदि की गहन शिक्षा लेने लगे।

एक बार नर्मदा नदी में बाढ़ आ गयी। नदी का पानी बढ़कर गुरुगोविंदपादाचार्यजी की गुफा तक पहुँच गया। वे ध्यान में लीन थे। उन्हें किसी प्रकार का विक्षेप न हो इसलिए संन्यासी शंकर सेवा में तल्लीन थे। पानी बड़ी तेजी से बढ़ रहा था। परिस्थिति बड़ी विकट थी पर शंकर की गुरुभक्ति व सेवानिष्ठा भी अटूट थी। शंकर ने उठाया अपना कमंडल और गुफा के द्वार पर रख दिया। बस, नर्मदा की बाढ़ उसी कमंडल में अंतर्लीन हो गयी। शंकर का समर्पण और ब्रह्मज्ञान पाने की तड़प देखकर गुरुदेव का हृदय छलक पड़ा और गुरुकृपा ने शंकर को ‘स्व’ स्वरूप ब्रह्मस्वरूप में स्थित कर दिया।

इन्हीं शंकराचार्य जी ने अद्वैत वेदांत का प्रचार कर भारतीय संस्कृति की धारा में प्रविष्ट हो चुके पलायनवाद, दुःखवाद, भेद-दर्शन, भ्रष्टाचार आदि दोषों को हटाया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 13,26 अंक 292

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