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Rishi Prasad 268 Apr 2015

सफलता के लिए आध्यात्मिकता जरूरी


यूरोप में विश्वविद्यालय का एक छात्र रेलगाड़ी में यात्रा कर रहा था। पास में बैठे एक बुजुर्ग व्यक्ति को माला से भगवत्स्मरण करते देख उसने कहाः महाशय ! इन पुराने रीति-रिवाजों को आप भी मानते हैं ?”
बुजुर्गः “हाँ, मानता हूँ। क्या तुम नहीं मानते ?”
छात्र हँसा और अभिमानपूर्वक बोलाः “मुझे इन वाहियात बातों पर बिल्कुल विश्वास नहीं। फेंक दो आप गोमुखी और माला को तथा इस विषय में विज्ञान क्या कहता है समझो।”
“विज्ञान ! मैं विज्ञान को नहीं समझता। शायद आप समझा सको मुझे।” आँखों में आँसू भरकर दीनतापूर्वक उस बुजुर्ग ने कहा।
“आप मुझे अपना पता दे दें। मैं इस विषय से संबंधित कुछ वैज्ञानिक साहित्य भेज दूँगा।”
बुजुर्ग ने अपना परिचय पत्र निकालकर उस छात्र को दिया। छात्र ने परिचय पत्र को सरसरी नजर से देख अपना सिर शर्म से झुका लिया। उस पर लिखा था – लुई पाश्चर, डायरेक्टर, वैज्ञानिक अनुसंधान, पेरिस’।
लुई पाश्चर फ्रांस के विश्वप्रसिद्ध सूक्ष्मजीव विज्ञानी तथा रसायनयज्ञ थे। विश्वभर में बड़े पैमाने पर उपयोग में लायी जाने वाली ‘पाश्चराइजेशन’ की विधि इन्होंने ही खोजी थी। साथ ही इन्होंने कई लाइलाज रोगों से बचाने वाले टीकों (वैक्सीन्स) की भी खोज की थी।
नोबल पुरस्कार विजेता आइंस्टीन ने भी भारत के ऋषियों द्वारा बतायी गयी साधना-पद्धति को अपनाकर विज्ञान के क्षेत्र में कई अनुसंधान किये। 2007 में नोबल शांति पुरस्कार जीतने वाली IPCC टीम के सदस्य व कई पुरस्कारों से सम्मानित अमित गर्ग, जो भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद (IIMA) में प्रोफेसर हैं, वे कहते हैं- “गुरुमंत्र के नियमित जप से मुझे आध्यात्मिक और सांसारिक हर क्षेत्र में अच्छी सफलता मिली। पूज्य गुरुदेव संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग से मुझे अपने मैनेजमेंट विषय तथा शोध के बारे में अंतर्दृष्टि और महत्त्वपूर्ण संकेत मिलते हैं, जिनका समुचित उपयोग मैं सफलतापूर्वक अपनी कक्षा में तथा अनुसंधान के कार्यों में करता हूँ।”
2014 में इंडियन कैमिकल्स सोसायटी की तरफ से युवा वैज्ञानिक पुरस्कार पाने वाले पूज्य बापू जी से दीक्षित अरविंद कुमार साहू कहते हैं-
“मंत्रजप से मेरी स्मरणशक्ति और बौद्धिक क्षमता में अद्भुत विकास हुआ। पूज्य गुरुदेव ने एक सत्संग कार्यक्रम में मुझे वैज्ञानिक बनने का आशीर्वाद दिया। गुरुदेव के सान्निध्य में आने व सेवा करने से मेरे जीवन में सदगुणों एवं ज्ञान का खूब-खूब विकास हुआ है।”
‘नेशनल रिसर्च डेवलपमेंट कॉरपोरेशन’ के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित युवा वैज्ञानिक एवं वैश्विक स्तर पर ख्यातिप्राप्त फिजियोथेरेपिस्ट डॉ. राहुल कत्याल कहते हैं- “पूज्य बापू जी से प्राप्त सारस्वत्य मंत्रदीक्षा प्रतिभा-विकास की कुंजी है।”
कनाडा के ‘नासा’ वैज्ञानिक नोर्म बर्नेंस व ईरान के विख्यात फिजीशियन श्री बबाक अग्रानी भी पूज्य बापू जी के सान्निध्य में आध्यात्मिक अनुभूतियाँ पाकर गदगद हो उठे थे।
भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि से सच्चा सुख, शांति नहीं मिल सकती है। आध्यात्मिक उन्नति से ही व्यक्तिगत जीवन का सम्पूर्ण विकास हो सकता है। सर्वांगीण उन्नति के लिए सत्संग, सद्भाव, संयम-सदाचार, सच्चाई आदि सदगुणों की आवश्यकता है। आध्यात्मिकता सभी सफलताओं की जननी है। आध्यात्मिक पथ पर चलने से सफलता के लिए आवश्यक सभी गुण जैसे – ईमानदारी, एकाग्रता, अनासक्ति, उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति, पराक्रम आदि सहज में मानव के स्वभाव में आ जाते हैं। जिन्होंने भी स्थायी सफलताएँ पायी हैं, उसका कारण उनके द्वारा आध्यात्मकिता में की गयी गहन यात्रा ही है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 23, अंक 268
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प्रत्येक हिन्दू बालक को संस्कृत सीखनी ही चाहिए


महात्मा गाँधी
शिक्षकों का प्रेम मैं विद्यालयों में हमेशा ही पा सका था। अपने आचरण के विषय में बहुत सजग था। आचरण में दोष आने पर मुझे रोना ही आ जाता था। मेरे हाथों कोई भी ऐसा काम, जिससे शिक्षकों को मुझे डाँटना पड़े अथवा शिक्षकों का वैसा ख्याल बने तो वह मेरे लिए असह्य हो जाता था।
संस्कृत विषय चौथी कक्षा में शुरु हुआ था। विद्यार्थी आपस में बातें करते कि ‘फारती बहुत आसान है।’ मैं भी आसान होने की बात सुनकर ललचाया और एक दिन फारसी के वर्ग में जाकर बैठा। संस्कृत के शिक्षक को दुःख हुआ। उन्होंने मुझे बुलाया और कहाः “यह तो समझ कि तू किनका लड़का है ! क्या तू अपने धर्म की भाषा नहीं सीखेगा ? तुझे जो कठिनाई हो वह मुझे बता। मैं तो सब विद्यार्थियों को बढ़िया संस्कृत सिखाना चाहता हूँ। आगे चलकर उसमें रस के घूँट पीने को मिलेंगे। तुझे यों ही हारना नहीं चाहिए। तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ।”
मैं शिक्षक के प्रेम की अवमानना न कर सका। आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर का उपकार मानती है क्योंकि जितनी संस्कृत मैंने उस समय सीखी, उतनी भी न सीखी होती तो आज संस्कृत शास्त्रों में मैं जितना रस ले सकता हूँ, उतना ने ले पाता। मुझे तो इस बात का पश्चात्तपा होता है कि मैं अधिक संस्कृत न सीख सका। क्योंकि (काफी) बाद से मैं समझा कि किसी भी हिन्दू बालक को संस्कृत का अच्छा अभ्यास किये बिना रहना ही न चाहिए।
भाषा पद्धतिपूर्वक सिखायी जाय और सब विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से सीखने-सोचने का बोझ हम पर न हो तो भाषाएँ सीखना बोझरूप न होगा बल्कि उसमें बहुत ही आनन्द आयेगा। असल में तो हिन्दी, गुजराती, संस्कृत एक भाषा मानी जा सकती हैं।
माँ के दूध के साथ जो संस्कार मिलते हैं और जो मीठे शब्द सुनाई देते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा लेने से छूट जाता है। राष्ट्रीयता टिकाये रखने के लिए किसी भी देश के बच्चों को नीची या ऊँची, सारी शिक्षा उनकी मातृभाषा के जरिये ही मिलनी चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2015, पृष्ठ संख्या 20, अंक 265
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यदि बचाओगे दूसरे के अधिकार तो सब करेंगे आपको प्यार


विजयनगर के प्रजावत्सल सम्राट थे कृष्णदेव राय। वे अपनी प्रजा के सुख-दुःख देखने के लिए अक्सर राज्य में भ्रमण करने के लिए जाते थे। एक बार इसी हेतु से वे अपने बुद्धिमान मंत्री तेनालीराम तथा कुछ सिपाहियों के साथ निकले। एक-एक गाँव देखते-देखते दूर निकल गये। शाम हो गयी। सभी थक गये। नदी किनारे उचित जगह देखकर महाराज ने कहाः ‘तेनालीराम ! यहीं पड़ाव डाल दो।”

विश्राम के लिए तम्बू लग गये। सभी भूख-प्यास से बेहाल थे। आसपास नजर दौड़ाने पर महाराज को थोड़ी दूर मटर की फलियों से लदा खेत दिखा। महाराज ने कुछ सिपाहियों को बुलाकर कहाः “जाओ सामने के खेत में से फलियाँ तोड़कर हम दोनों के लिए लाओ और तुम भी खाओ।”

सिपाही जैसे जाने के लिए पीछे मुड़े तो तेनालीराम ने कहाः “महाराज ! इस खेत का मालिक तो यह वह किसान है जिसने इस खेत में फसल लगायी और इसे अपने पसीने से सींचा है। आप इस राज्य के राजा अवश्य हैं पर खेत के मालिक नहीं। बिना उसकी आज्ञा के इस खेत की एक भी फली तोड़ना अपराध है, राजधर्म के विरूद्ध आचरण है, जो एक राजा को कदापि शोभा नहीं देता।”

महाराज को तेनालीराम की बात उचित लगी, सिपाहियों को आदेश दियाः “जाओ, इस खेत के मालिक से फलियाँ तोड़ने की अनुमति लेकर आओ।”

सिपाहियों को खेत में देख खेत का मालिक घबरा गया। सिपाहियों ने कहाः “महाराज स्वयं तुम्हारे खेत के नजदीक विश्राम कर रहे हैं और अपनी भूख मिटाने के लिए खेत से थोड़ी सी फलियाँ तोड़ने की अनुमति चाहते हैं।” यह सुन उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा ! प्रसन्नता और राजा के प्रति अहोभाव से उसका हृदय भर गया। वह दौड़ा-दौड़ा महाराज के पास पहुँचा।

राजा को प्रणाम किया और कहाः “महाराज ! यह राज्य आपका है, यह खेत आपका। आप प्रजापालक हैं, मैं आपकी प्रजा हूँ। मुझसे अनुमति लेने की आपको कोई आवश्यकता थी फिर भी आपने एक गरीब किसान के अधिकार को इतना महत्व दिया ! आप धन्य हैं !”

किसान खुद सिपाहियों के साथ खेत में गया और फलियाँ तोड़कर महाराज के सामने प्रस्तुत कीं, फिर आज्ञा लेकर गाँव गया।

थोड़ी देर बाद वह वापस आया। उसके साथ गाँव के कुछ लोग और भी थे जो अपने साथ सभी के लिए तरह-तरह की भोजन-सामग्री लाये। इतना अपनापन, प्रेम व सम्मान पाकर महाराज बड़े प्रसन्न हुए।

बुद्धिमान तेनालीराम मुस्कराकर बोलेः “जब हम अपने अहं को न पोसकर दूसरें के अधिकारों का ख्याल रखते हैं तो लोग भी हमारा ख्याल रखते हैं, उनके दिल में हमारे लिए आदर और प्यार बढ़ जाता है और वास्तविक आदरणीय, सर्वोपरि, सर्वेश्वर परमात्मा भी भीतर से प्रसन्न होते हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2014, पृष्ठ संख्या 18, अंक 260

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