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वीरांगना का शौर्य और छत्रपति का मातृभाव


दक्षिण भारत का एक छोटा सा राज्य था बेल्लारी। उसका शासक कोई वीर पुरुष नहीं बल्कि शौर्य की प्रतिमा विधवा नारी मलबाई देसाई थीं। छत्रपति शिवाजी की सेना ने बेल्लारी पर चढ़ाई की। शिवाजी की विशाल सेना का सामना वहाँ के मुट्ठीभर सैनिक कैसे करते ! किंतु बेल्लारी के सैनिक खूब लड़े। छत्रपति ने उन शूरों के शौर्य को देख के उनकी खूब प्रशंसा की।

पर बेल्लारी की सेना की पराजय तो पहले से निश्चित थी। वह हार गयी और मलबाई को बंदी बनाकर सम्मानपूर्वक छत्रपति शिवाजी के सामने लाया गया। इस सम्मान से मलबाई प्रसन्न न थीं।

बाई ने शिवाजी से कहाः “एक नारी होने के कारण मेरा परिहास क्यों किया जा रहा है ? छत्रपति ! तुम स्वतंत्र हो और थोड़ी देर पहले मैं भी स्वतंत्र थी। मैंने स्वतंत्रता के लिए पूरी शक्ति से संग्राम किया है किंतु तुमसे शक्ति कम होने के कारण मैं पराजित हुई। अतः तुम्हें मेरा अपमान तो नहीं करना चाहिए। तुम्हारे लोगों का यह आदर दान का अभिनय अपमान नहीं तो और क्या है ? मैं शत्रु हूँ तुम्हारी, तुम मुझे मृत्युदंड दो।”

छत्रपति सिंहासन से उठे, उन्होंने हाथ जोड़ेः “आप परतंत्र नहीं हैं, बेल्लारी स्वतंत्र था, स्वतंत्र है। मैं आपका शत्रु नहीं हूँ, पुत्र हूँ। अपनी तेजस्विनी माता जीजाबाई की मृत्यु के बाद मैं मातृहीन हो गया हूँ। मुझे आपमें अपनी माता की वही तेजोमयी मूर्ति के दर्शन होते हैं। आप मुझे अपना पुत्र स्वीकार कर लें।”

मलबाई के नेत्र भर आये। वे गद्गद कंठ से बोलीं- “छत्रपति ! तुम सचमुच छत्रपति हो। हिंदू धर्म के तुम रक्षक हो और भारत के गौरव हो। बेल्लारी की शक्ति तुम्हारी सदा सहायक रहेगी।”

महाराष्ट्र और बेल्लारी के सैनिक भी जब ‘छत्रपति शिवाजी महाराज की जय !’ बोल रहे थे, तब स्वयं छत्रपति ने उद्घोष किया, ‘माता मलबाई की जय !’

हिन्दू एकता एवं हिंदवी स्वराज्य के लिए जीवन अर्पण करने वाले भारत के वीर सपूत छत्रपति शिवाजी महाराज ने ‘मलबाई का राज्य कभी अंग्रेजों के अधीन नहीं हो सकता’ इसका विश्वास होते ही उन्हें स्वतंत्र रहने देने का उद्घोष किया और हिन्दू एकता और संस्कृति रक्षा का स्वर्णिम इतिहास रचा।

धन्य हैं मलबाई जैसी संस्कृतिनिष्ठ वीरांगना, जिन्होंने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी और धन्य हैं छत्रपति शिवाजी जैसे संस्कृति-प्रेमी शासक, जिन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थरहितता का परिचय देते हुए अपने देश, धर्म व संस्कृति को महत्त्व देकर मलबाई को हराने के बाद भी सम्मानित किया और बंदी नहीं बनाया बल्कि उनके हृदय की स्वतंत्रता की जागृत ज्योति देखकर, उनकी राष्ट्रनिष्ठा देख के उन्हें स्वतंत्र ही बने रहने दिया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 27 अंक 298

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सम्पन्न घरों के कुशाग्र बच्चों की ऐसी दुर्दशा क्यों ?


अमेरिकन विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार मार्क ट्वेन का चौंकाने वाला खुलासा

हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे बड़े होकर उनके परिवार का नाम रोशन करने वाले बनें लेकिन ऐसी कौन सी कमी रह जाती है कि माँ-बाप जिन बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाने हेतु सब कुछ करते हैं वे ही बच्चे चोरी, धोखाधड़ी, नशाखोरी, स्वेच्छाचार आदि आपराधिक कार्यों में फँसकर उनके नाम पर धब्बा बन जाते हैं।

इस संबंध में अमेरिका के प्रसिद्ध साहित्यकार मार्क ट्वेन ने गम्भीरता से अध्ययन कर जो निष्कर्ष निकला वह विचारणीय है। उन्होंने अपराधी बालकों के एक गिरोह के चार बच्चों के पारिवारिक जीवन का अध्ययन किया। वे सभी बालक सम्पन्न घरों के थे। एक दिन उन्होंने किसी की नील गाय पकड़ ली और उसे मारकर उसकी खाल एक दुकानदार को बेच दी। दुकानदार ने खाल भीतर रख दी और बाहर आकर फिर काम करने में लग गया। लड़कों ने इतने ही क्षणों में कमरे की पीछे वाली खिड़की तोड़ ली और वह खाल निकाल के फिर से उसी दुकानदार को बेच दी। दुकानदार सस्ती खालें मिलने से प्रसन्न था और बच्चों की आमदनी बढ़ रही थी। एक ही खाल इन बच्चों ने चार बार बेची। इस बार दुकानदार अंदर गया तो एक ही खाल देखकर सन्न रह गया !

मार्क ट्वेन ने इन बच्चों की घरेलू परिस्थितियाँ व उनका स्कूली जीवन देखा तो पाया कि ये बच्चे स्कूल में तीक्षणबुद्धि माने गये हैं पर घर में उनके माता-पिता में से किसी ने उन्हें शायद ही किसी दिन 10-15 मिनट देकर उनकी परिस्थितियाँ पूछी हों, उनके संस्कारों पर ध्यान दिया हो। सरंक्षण और उचित मार्गदर्शन के इस अभाव ने इन बच्चों के साहस और बुद्धिमत्ता को यहाँ तक  ला दिया।

उनके माता-पिता ने मार्क ट्वेन के परामर्श को स्वीकार कर अपने किशोरों को प्रतिदिन निश्चित समय पर सही मार्गदर्शन देना प्रारम्भ किया तो वे ही बच्चे बड़े पदों पर पहुँचे।

शिक्षा के साथ सुसंस्कार भी जरूरी

संसार के पद तो बहुत छोटे हैं, यदि बच्चों को शिक्षा के साथ किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की दीक्षा एवं सत्संग मिल जाय तो वे महापुरुष भी  बन सकते हैं, अनंत सामर्थ्य-स्रोत ब्रह्मांडनायक परमात्मा का ज्ञान अपने भीतर प्रकट कर सकते हैं। फिर उनके चरणों में कई डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, बड़ी-बड़ी डिग्रियों वाले ही नहीं, देवता भी नतमस्तक होकर अपना भाग्य बनाने को उत्सुक होंगे।

सुसंस्कार कहीं बाजार से मिलने वाली चीज नहीं है। बच्चों को संस्कारवान बनाना है तो जहाँ अच्छे संस्कार मिलते हैं ऐसे बापू जी के बाल संस्कार केन्द्रों या गुरुकुलों में उन्हें भेजना चाहिए। महापुरुषों के जीवन-चरित्र पढ़ाना-सुनाना चाहिए और उन्हें प्यार से समझाना चाहिए कि ‘बेटा ! तुम्हारे अंदर भी महापुरुषों का यह…. यह…. सदगुण है…. ऐसी-ऐसी योग्यता है…. तुम इन्हें बढ़ाकर अवश्य महान बन सकते हो।’ बच्चे कोमल पौधे की तरह होते हैं, उन्हें जिस ओर मोड़ना चाहें उधर मोड़ सकते हैं। और हम अपने बच्चों से जिन सदगुणों की अपेक्षा रखते हैं, अगर वे हम अपने जीवन में ले आयें तो फिर बच्चों को सिखाने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करने पड़ेंगे, वे सहज में ही उन सदगुणों से प्रेरित होकर उच्च दिशा में चल पड़ेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 18, अंक 297

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वह अपने चरित्र का विनाश नहीं कर सकता


अधिक धन होने से, अधिक शिक्षा से, उच्च पद मिलने से चरित्र की शुद्धि नहीं होती है। आज की उच्च शिक्षा पाकर लोग एक दूसरे पर कुर्सी चलाते हैं, गाली-गलौज करते हैं, एक दूसरे के विरूद्ध दुरालोचना छपवाते हैं क्योंकि आज शिक्षा में यह संस्कार नहीं रह गया है। जिस देह को लेकर मनुष्य यह सब अनर्थ करता है, वह थोड़े दिनों की है, ठीक वैसे ही जैसे होटल में किराये पर कमरा ले लिया जाता है।

कंकर चुनि चुनि महल बनाया लोग कहें घर मेरा।

ना घर मेरा ना घर तेरा चिड़िया रैन बसेरा।।

इस जीवन के परे भी कुछ सत्य है। उस सत्य (परमात्मा) की खोज न करने से ही जीवन के सब पाप हैं। जिसके जीवन में जीवनोत्तरकालीन (जो मृत्यु के बाद भी, जन्म के पहले भी और सदा साथ रहता है, उस परमात्मा को पाने का) लक्ष्य है, वह जाने या अनजाने आने वाले धन, सुख-भोग अथवा पद-प्रतिष्ठा के लिए अपने चरित्र का विनाश नहीं कर सकता है।

तुझसे है सारा जग रोशन

ओ भारत के नौजवान !

संयम सदाचार को मत छोड़ना,

भले आयें लाखों तूफान।।

 

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 19, अंक 297

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