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ध्यान में पूज्य गुरुदेव का संकेत


भगवान हमें प्रेरणा और उत्साह देते हैं। उन भगवान से प्रार्थना करें कि वे हमारे दिल में शीघ्र ही ज्ञान-पिपासा पैदा करें, हमारा साहस बढ़ायें। जीवन की शाम हो जाय, उससे पहले जीवनदाता प्रभु से हमारी मुलाकात हो जाये।

सच्चे हृदय से प्रार्थना करोगे तो आपका मन पवित्र होता जायेगा, रक्त का कण-कण पवित्र होता जायेगा। और भगवदीय धर्म पाने की बुद्धि बनती जाएगी। जो कुछ सत्कर्म एवं दान पुण्य करो, सब भगवान को अर्पण करो तो उसका फल अनन्त हो जाएगा। अहंकार के कारण मन बुद्धि को अपना मानकर जीव परेशानी पैदा करता है। उस मन-बुद्धि को भी परमात्मा को अर्पण कर दो। सत्संग और हरिकीर्तन से आपका अंतःकरण शुद्ध होता है, हृदय पावन होता है और हृदय में भक्तिभाव अठखेलियाँ करता है।

आपके संस्कार मुझे अच्छे लग रहे हैं। भगवान करें कि आपको बार-बार सत्संग सुनने का अवसर प्राप्त हो और आपका भक्तिभाव सदैव बढ़ता रहे। जो घड़ियाँ सत्संग में बीतीं, वे ही सफल हैं। आप सत्संग सुनें और याद न रहे फिर भी वह कितना लाभदायी है, यह तो भगवान जानते हैं। अकेले में मन को बाँध रखना संभव नहीं। जितनी देर आप सत्संग में बैठते हो, उतनी देर के लिए तो आप संतसभा में संतत्व को उपलब्ध हो जाते हो। सत्संग की महिमा आप प्रत्यक्ष देख सकते हो कि जब तक सत्संग में बैठते हो तब तक वाणी का, विकारों का संयम अपने-आप हो जाता है। काम, क्रोध, भय, शोक, लोभ अपने-आप चले जाते हैं।

राजा जनक सत्संग सुनते थे तो उनकी सातवीं पीढ़ी के राजा अज की मुक्ति हुई। कुल में कोई बेटा ब्रह्मज्ञानी संत का सत्संग सुनता है, ईमानादारी से भक्ति करता है तो उसके पितरों का कल्याण होता है। उसके पुत्र-पौत्रों का कल्याण होता है। उसके अपने कल्याण होने में क्या संदेह ? इसे आप समझ नहीं सकते, पर आपने बहुत कमाई की है।

ʹसूरज ढलता है तो पक्षी अपने घोंसले की ओर जाते हैं, वैसे ही प्रभु ! तू मुझे वह पंख देना कि जीवन की शाम होने से पहले मैं तेरी और उड़ान भर सकूँ, ऐसी मेरी मनोबुद्धि हो जाये। किसी ने हीरे-मोती कमाये, कोई जवाहरात कमाएगा लेकिन मैं तो तेरे नाम की कमाई कर लूँ, ऐसी दया करना प्रभु !ʹ यह प्रार्थना तुम करते रहना।

तुम सुबह उठो तो भगवान से  कहो किः ʹप्रभु ! मैं तेरा हूँ। मेरे मन-बुद्धि भी तेरे हैं। तू इसे अच्छे रास्ते पर चलाना।ʹ

रात को सोते वक्त परमात्मा का चिंतन करते करते सो जायें। भोजन करें तो भी अंतर्यामी परमात्मा को भोग लगाकर ही करें। समय निकाल कर ʹईश्वर की ओरʹ पुस्तक बार-बार पढ़ते रहें और विचार करें। ज्यादा समय निकाल सकें तो एक या दो सप्ताह मौनमंदिर में एकांत में जाएँ और अंतर की यात्रा करें। इससे शरीर के रोग तो मिटते हैं, मन के रोग भी मिटते हैं। ध्यान योग साधना शिविर में जाने का लाभ ले सकें तो समय निकालकर अवश्य लें। रात्रि को सोते समय भी थोड़ा सा ध्यान करके सोवें।

साधक आत्मा में विश्रांति पाता है तो गुरु की प्रेमपूर्ण कृपा उस पर बरसती है। गुरु उसको गुप्त बातें बताते हैं। गुप्त बातें भी दो प्रकार की होती हैं- एक तो वे जो अपने जीवन में अनुभव हुए हों। जैसे कि ʹमुझे ऐसा प्रकाश हुआ…. ऐसे देवदर्शन हुए… मुझे मेरे गुरु ने ऐसे डाँटा था…. मेरे गुरु ने ऐसी कृपा की थी…. मैं ऐसे-ऐसे विकारों में गिरा था…. मैं ऐसे विकारों से बचा था…. मेरे पास ऐसी-ऐसी सिद्धियाँ आई थीं…. ऐसे ऐसे चमत्कार हुए थे… किन्तु चमत्कार प्रकृति में होते हैं अतः मेरे गुरु देव ने मुझे प्रकृति से परे जाने की प्रेरणा की थी।ʹ आदि-आदि। गुरु लोग इस प्रकार के अनुभव और आपबीती बताते हैं। दूसरी बात, वे अपना वास्तविक स्वरूप, जो आपबीती से परे हैं, ब्रह्मांड से परे है, उस तत्त्व की बात बताते हैं। गुरु बताते हैं-

“वत्स ! जो मैं देह रूप होकर दिख रहा हूँ, वह मैं नहीं हूँ। यह एक देह, नात-जात या मत-पंथ मेरा नहीं है। जो दिख रहा हूँ, वैसा मैं नहीं हूँ। किसी देश में या प्रांत में या किसी काल में या किसी रूप में जैसा दिखता हूँ, वैसा मैं नहीं हूँ। तू ईश्वर के नाते मुझे मिला और मैं तुझे ईश्वर से मिलाने के लिए मिला। तेरा और मेरा मधुर संबंध है। हे वत्स ! प्यार से भरी तेरी आँखें और श्रद्धा की धाराएँ मुझे प्रेमवश करती हैं। तूने बार-बार श्रद्धा-भक्ति से मुझे देखा है। इसलिए हे वत्स ! मैं तुझे अपना अनुभव कहता हूँ। तू ध्यान से सुन। मेरे हृदय को छूकर निकलती हुई वाणी तेरे हृदय को पावन करती है। तेरे प्रेम की धारा मेरे अनुभव को खींचती है और मेरे प्रेम की नजर तेरे पर बरसती है।

जैसे पक्षी को फँसाने के लिए शिकारी जाल बिछाते हैं वैसे मैंने उपदेश देने के लिए वाणीरूपी जाल बिछाकर तेरे कानों को अपनी तरफ खींचा और तू इससे सहमत हुआ। इसलिए मैं तुझे अपनी ओर खींचता हूँ। तू प्रतीति में मत जाना, निज प्राप्ति में आना। तुझे इस आकृति में मैं दिख रहा हूँ, इतना ही मैं नहीं हूँ। ऐसी जगह नहीं , जहाँ से तू मुझसे बाहर निकल सके। ऐसा कोई समय नहीं, जब मैं नहीं हूँ। ऐसा कोई कर्म नहीं जो तू मुझसे छिपा सके। तत्त्व से तू मेरा अनुभव करे तो तू मुझमें ही रहता है, मुझमें ही बोलता है। मैं तुझे यह गोपनीय बात बता रहा हूँ।”

गुरु ने अपने श्रीमुख से कहाः “देह की आकृति से मैं लेता-देता, कहता सुनता दिखता हूँ, इतना मैं नहीं हूँ। तू देह में बँधा है, इसलिए देह में रहकर तुझे जगाना होता है।”

श्रीमद् राजचंद्र ने ठीक कहा हैः

देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत।

ते ज्ञानीना चरणमां हो वंदन अगणीत।।

“हे वत्स ! तू देह को ʹमैंʹ मत मानना। यह देह तो प्रतीति मात्र है। तू अपने स्वरूप की प्राप्ति करने आया है। जब तक तू लक्ष्य को नहीं पायेगा, मैं तेरा पीछा नहीं छोड़ूँगा। मेरे दिल में तेरे कल्याण के सिवाय और कुछ नहीं है। हे साधक ! कई बार तू गलती करता है, फिर प्रायश्चित करता है, रोता है, पुकारता है। कई बार मेरे से दूर होकर विकारों में जाता है, लेकिन मैं तेरे से दूर नहीं हो सकता हूँ। मैं तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ। तेरी मनमानियाँ भी जानता हूँ। संसार में तू संभल-संभलकर कदम रखना। तू कहीं भी रहे लेकिन मुझमें रहना। जैसे श्रीकृष्ण और उद्धव का मिलन हुआ था, जैसे श्रीकृष्ण और अर्जुन का मिलन हुआ था, जैसे अष्टावक्र और जनक का मिलन हुआ था वैसे ही तेरा और मेरा मिलन हो जाये, साक्षात्कार हो जाये, यही उद्देश्य बनाय रखना। हे साधक ! तेरा और मेरा बाहर का मिलन हो, ऐसा मिलन नहीं। तू अपने को देह मानता है। देह तो आती जाती है और तू मुझे भी आता-जाता मानता है।

बाहर के ये संबंध तो मिटने वाले हैं लेकिन हे वत्स ! तेरा और मेरा संबंध अमिट है। आत्मा और परमात्मा का संबंध, भगवान और भक्त का संबंध तथा गुरु और शिष्य का संबंध सत्य है, अमिट है। जितना तू सत्य में ठहरता जायेगा, उतना ही तू मुझसे एक होता जायेगा।”

गुरु ने अपने सिद्धावस्था के अनुभव सुनने की इच्छा शिष्य में देखी तब अपने दृष्टिपात में, अपनी नूरानी निगाहों से स्नान कराके अपने शिष्य को कहाः

“हे वत्स ! कई बार तूने मुझे श्रद्धा-भक्ति से निहारा है। मैं भी तुझ पर आत्मप्रेम न्यौछावर किया है।”

शिष्य ने गुरुदेव से कहाः “गुरुदेव ! आपका प्रेम माँ की तरह ममता से पूर्ण और उऩ्मुख करने वाला है। संसारियों के प्रेम से आपका प्रेम निराला है, बेजोड़ है। प्रभु ! मैं बार-बार इन मलिन हाथों से आपके प्रेम को बिखेरता जाता हूँ, फिर भी आप नाराज नहीं होते हो। कभी नाराज हुए दिखते हो तो भी हमें बचाने के लिए संकेत करते हो।”

शिष्य की योग्यता का परिचय पाकर गुरु ने दोहरायाः “पुत्र कुपुत्र हो सकता है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती।

वत्स ! तुम जहाँ भी जाओगे, वहाँ तुम्हें कई प्रलोभन मिलेंगे। तुम्हारी और हमारी प्रेमसगाई में विघ्न डालने  वाले कई लोग होंगे, कई बाधाएँ आयेंगी। उन बाधाओं को चीरते-चीरते तुम उस प्रेमास्पद की प्रेमभरी यादों में सराबोर रहना। वत्स ! प्रेम की पराकाष्ठा ही परमात्मा का साक्षात्कार है। तू अपने परमात्मपद को संभालना। कभी तुझे मान-बड़ाई घेर लेंगे और कभी तू विकारों में गिरेगा। यदि तू विकारों से सफलतापूर्वक बच निकला तो तुझे पुजवाने की इच्छा होगी और तेरी वह इच्छा बनी रहेगी तो मुझे उससे दुःख होगा कि तू पूज्यपद में पहुँचे बिना ही पुजवाने की इच्छा करता है। पुजवाने की इच्छा परमपद में पहुँचने में बाधक है। वत्स ! जब तक तू पूज्यपद में नहीं ठहरा तब तक मेरा प्रयत्न बंद नहीं होगा, मुझे चैन नहीं मिलेगा। मेरे चैन के खातिर साधना करते रहना, श्रद्धा-भक्ति बढ़ाते रहना। साधना छोड़ना मत। साधना छोड़ेगा तो विकार और अहंकार तुझे धोखा देंगे। तू मेरे हाथों की कठपुतली बनकर रहना। तू गुरु के दैवी कार्यों में लगे रहना, ताकि विकारी कार्य तुझे बरबाद न करें। तू मेरे प्रेम-दरवाजे पर खड़े रहना, ताकि काम का दरवाजा तेरे लिए आकर्षक न बने। तू राम के दरवाजे पर ही डटे रहना क्योंकि,

जहाँ राम तहँ नहीं काम। जहाँ काम तहँ नहीं राम।।

जब-जब तुझे काम सताये तब-तब तू अपने राम को पुकारना। उस स्थान को तुरंत छोड़ देना। वत्स ! मैं तेरी कमजोरियाँ जानता हूँ। तेरी संभावना भी जानता हूँ। तेरे अंदर छिपा हुआ देवत्व मुझे प्रतीत हो रहा है। मैं तेरी पुरानी निर्बलता भी जानता हूँ और जब तेरी पुरानी आदतों की ओर देखता हूँ तो मुझे नहीं होता कि तुझे विकारों में गिराने वाली परिस्थितियों में, संसार की अग्नि में जाने की इजाजत दूँ। लेकिन तेरी प्रेमाभक्ति पर, तेरी साधना पर मुझे भरोसा है। मैं हिम्मत करता हूँ कि तू श्रद्धा बनाये रखेगा, तू साधना करता रहेगा। तू मुझसे विश्वासघात नहीं करेगा, मेरे रत्नों को नाली में नहीं डाल देगा। तुझ पर मुझे विश्वास है। इसलिए मैं तुझे संसार में जाने की इजाजत देता हूँ।

संसार में तू जाये तो संभल-संभलकर कदम रखना। संसार में उत्साह से कर्त्तव्यपालन करना। संसार का कार्य उत्साह से करना लेकिन परिणाम की चिन्ता मत करना। यदि परिणाम चाहे भी तो शाश्वत चाहना और शाश्वत परिणाम आत्म-साक्षात्कार ही है। तू अहंकार, वासना या काम की कठपुतली होकर कार्य नहीं करना, राम की कठपुतली होकर कार्य करना। तभी तू राम में विश्रांति पायेगा। जितना तू राम में विश्रांति पायेगा उतना ही मेरा चित्त प्रसन्न होगा। जब-जब विकारों का सामना हो, तब सावधान रहना। तू फिसल जाये यह दुःख की बात है, पर निराशा की बात नहीं है। तू फिर-फिर से खड़ा होना। मैं फिर से तेरा हाथ पकड़ूँगा। तू डरना मत। मेरा विशाल प्यार तेरे साथ है। तू मुझे इतना प्यार करता है, तो मैं कंजूस क्यों बनूँगा ? तू अपने ʹमैंʹ को मिटाता है तो हे वत्स ! मैं अपने-आप को दे डालने का इन्तजाम करता हूँ।

मैं अपने और गुरुदेव के बीच की बातें तो कह ही देता हूँ। मैं तेरे और मेरे बीच के अनुभव का इन्तजार करता हूँ। मेरे पास आने पर तुझे जो अनुभूतियाँ हुईं, उनमें रूकना मत, आगे ही चलते रहना। मैं तुझे जितना उन्नत देखना चाहता हूँ, उसके लिए तू प्रयत्न करना। तू प्यार और उत्साह बढ़ाकर प्रयत्न करते रहना। मैं तुझे समता के सिंहासन पर बिठाना चाहता हूँ। तेरे चित्त की दशा सुख-दुःख में, मान-अपमान में, शीत-उष्ण में सम रहे, यही मेरी आकांक्षा है।

वत्स ! तू ऐसा सोचना किः ʹमेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान में सम रहूँगा ? ऐसे दिन कब आयेंगे कि गुरुदेव मुझे अपने-आपका दान दे डालेंगे ? ऐसे दिन कब आयेंगे कि गुरु और शिष्य की दूरी खत्म हो जायेगी ?ʹ

गुरु के अनुभव में शिष्य टिक जाये और शिष्य, शिष्य न रहे, पर गुरु बन जाये। वत्स, तू ऐसी ही तमन्ना करना। आत्मपद पाने का लक्ष्य बनाय रखना। अभी तो तू अज्ञान से घिरा है, प्रलोभन भी बहुत आयेंगे, नासमझ लोग तुझे समझाने आएँगे, पर तू बाहर की सहायता मत लेना। क्या परमात्मा की सहायता से तेरी तृप्ति नहीं होगी ? बाहर के व्यक्ति और बाहर के कार्यों के सहारे तू अपनी यात्रा खत्म मत करना। बाहरी सहारों में उलझ मत जाना। अंतरयात्रा को भूल मत जाना।

तुझे संसार में जाने की इजाजत तो देता हूँ, पर सावधान भी करता हूँ क्योंकि मैं तुझे प्यार करता हूँ। तू अपने को कभी अकेला मत समझना, कभी अनाथ नहीं समझना। दीक्षा के दिन से तेरा-मेरा मिलन हुआ है, तब से तू अकेला नहीं है। मैं सदा तेरे साथ हूँ। देह की दूरी चाहे दिखे, पर आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मराज्य में देश काल की कोई विघ्न-बाधाएँ आ नहीं सकती। तू आत्मराज्य में प्रवेश पाता जायेगा।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 9-12, अंक 71

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ध्यान का अर्थ – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


कम से कम सुनें, कम से कम मन में संकल्प-विकल्प उत्पन्न हों, कम-से-कम इन्द्रियों को भोजन दें। जैसे, केवल पानी में इतनी शक्ति नहीं होती लेकिन पानी को जब गर्म किया जाता है, तब उसी पानी से बनी वाष्प में भारी शक्ति आ जाती है और टनों वजनवाली ट्रेनों तक को ले भागती है। इसी प्रकार बुद्धि सूक्ष्म होती है तो उसमें अनुपम योग्यता आ जाती है। बुद्धि अगर स्थूल होगी, मोटी होगी तो परमात्मा में नहीं लग पायेगी। अतः सूक्ष्मता चाहिए, गहराई चाहिए।

चुप रहना, मौन रहना भी कोई मजाक की बात नहीं है। बहुत कठिन है। चुप वे ही रह पाते हैं जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है। मौन वे ही रह पाते हैं, गहरे भी वे ही उतर पाते हैं, जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है। अन्यथा, मनोरंजन और मनपसंद कार्यों में ही मनुष्य की समय-शक्ति खर्च हो जाती है। मौन रहकर, उसी में डूब जाना – यह भी एक बहुत बड़ी साधना है, बहुत बड़ी कमाई है।

सब काम करने से नहीं होते हैं। कुछ काम ऐसे भी हैं जो न करने से होते हैं। ध्यान ऐसा ही एक कार्य है। आप दुनिया का कोई भी काम करो लेकिन जाने अनजाने आप ध्यान के जितने करीब होगे उतने ही आप उस काम में सफल होगे। नींद में आप परमात्मा के थोड़े करीब होते हो, ध्यान के निकट होते हो, तभी शक्ति आ पाती है, विश्रान्ति मिल पाती है और उसी विश्रान्ति से, उसी नयी शक्ति से, नयी स्फूर्ति से नये दिन की नई सुबह से पुनः कार्य का आरंभ होता है।

मन में संकल्प भी आते हैं, विकल्प भी आते हैं। इच्छाओं की, वासनाओं की धारा अविरल बहती रहती है।

ध्यान का मतलब क्या ?

ध्यान है डूबना। ध्यान है आत्मनिरीक्षण करना….ʹहम कैसे हैंʹ यह देखना….ʹकहाँ तक पहुँचे हैंʹ यह देखना…. ʹकितना अपने आपको भूल पाये हैंʹ यह देखना…. ʹकितना विस्मृतियोग में डूब पाये हैंʹ, यह देखना…

सत्संग भी उसी को फलता है जो ध्यान करता है। ध्यान में विवेक जागृत रहता है। ध्यान में बड़ी सजगता, सावधानी रहती है।

करने से प्रेम करें, न करने की ओर प्रीति बढ़ायें। करने के अंत में न करना ही शेष रहता है। जितना भी आप करोगे उसके अंत में न करना ही शेष रहेगा।

ध्यान अर्थात् न करना…. कुछ भी न करना। जहाँ कोशिश होती है, जहाँ करना होता है, वहाँ थकावट भी होती है। जहाँ कोशिश होती है, थकावट होती है, वहाँ आनंद नहीं होता। जहाँ कोशिश भी नहीं होती, आलस्य-प्रमाद नहीं होता, अपितु निःसंकल्पता होती है, जो स्वयमेव होता है, वहाँ सिवाय आनंद के कुछ नहीं होता और वह आनंद निर्विषय होता है, निर्विकारी होता है। वह आनंद संयोगजन्य नहीं होता, परतंत्र और पराधीन नहीं होता वरन् स्वतंत्र और स्वाधीन होता है। मिटने वाला और अस्थायी नहीं होता, अमिट और स्थायी होता है।

सब उसमें नहीं डूब पाते। कोई-कोई बड़भागी ही डूब पाते हैं और जो डूब पाते हैं वे खोज भी लेते हैं। समुद्र के भीतर रत्न खोजे जाते हैं लेकिन जो रत्न खोजते हैं उनको कई बार असफल होना पड़ता है। रत्न ढूँढने वाले गोताखोरों को कई बार खाली हाथ ही आना पड़ता है। लेकिन वे कोशिश करना नहीं छोड़ते, हारते नहीं, थकते नहीं, टूटते नहीं, विश्वास को नहीं खोते वरन् अथक प्रयत्न, अदम्य साहस और भरपूर निष्ठा के साथ फिर-फिर से गोता लगाते हैं और वे पुरुषार्थी रत्न खोज ही लेते हैं। लाखों के रत्न उनके हाथ लग जाते हैं। अगर निराश होते तो लाखों के रत्नों से हाथ धोना पड़ता।

बाहरी नश्वर धन को प्राप्त करने के लिए भी जब उन गोताखोरों में अदम्य साहस और उत्साह होता है तो जिनको परमात्मारूपी शाश्वत हीरा प्राप्त करना है ऐसे उत्तम साधक भला अपने उत्साह को क्यों बलि पर चढ़ायेंगे ? निराश-हताश क्यों होयेंगे ? आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों… फिर-फिर से गोता, फिर-फिर से गहराई में… जो नयी शक्ति, नये उमंग के साथ, पूरे विश्वास के साथ फिर-फिर से प्रयत्न जारी रखते हैं अन्ततः वे सफल हो ही जाते हैं। गुरुकृपा प्राप्त कर लेते हैं, परमात्मानुभव प्राप्त कर लेते हैं। दिव्यातिदिव्य अनुभव उनके भीतर प्रगट होने लगते हैं।

अध्यात्म का रास्ता अटपटा जरूर है। खटपट भी थोड़ी-बहुत होती है और समझ में भी झटपट नहीं आता है लेकिन अगर थोड़ा सा भी समझ में आ जाये, धीरज न टूटे, साहस न टूटे और परमात्मा को पाने का लक्ष्य न छूटे, तो उन्हें प्राप्ति हो ही जाती है। असंभव कुछ नहीं, सब संभव है। जहाँ चाह होती है वहाँ राह भी मिल जाती है।

जितना समय संसार के पीछे लगाया बदले में उतना नहीं मिला, न मिलेगा। वरन् जितना मिला, वह भी छूट जायेगा। उससे आधा समय भी अगर भगवान के प्रति लगाते, परमात्म-ध्यान और परमात्म-शांति में उतना समय व्यतीत करते तो स्थिति कुछ और होती, स्थिति कुछ निराली होती क्योंकि सृष्टिकर्त्ता से कुछ भी छुपा नहीं है। चाहिए केवल विश्वास, दृढ़ता, साहस, लगन….

निर्मल मन जन सो मोहि पावा…..

निर्मलता, पवित्रता…. खोपड़ी में जितना बाहर का कचरा भरोगे उतना ही निकालना पड़ेगा। पढ़ा हुआ कपटी उतना जल्दी भगवान को नहीं पा सकता, जितना सरल अनपढ़ पा सकता है। पढ़े हुए को तो, जो खोपड़ी में भरा है उसे पहले निकालना पड़ता है जबकि अनपढ़ की कैसेट कोरी (Blank) होती है। उसने कचरा कम भरा होता है अतः निर्मल और निर्दोष जल्दी हो पायेगा जबकि पढ़ा-लिखा देरी से होगा। परमात्मा के पास आपकी अक्ल होशियारी नहीं चल सकती है। आपकी डिग्रियाँ और प्रमाणपत्र वहाँ नहीं चल पायेंगे। निर्मलता, पवित्रता और स्नेह ही चलेगा। उसके बनकर, उसके होकर नाचोगे तो चलेगा, वह खुश होगा। उसके होकर जो भी करोगे, वह खुश होगा। शर्त यही है कि मिटना पड़ता है, उसका बनना और रहना पड़ता है। बगैर उसके काम नहीं चल सकता।

बीज जब तक अपना अस्तित्व रखता है तब तक पौधा नहीं बन पाता। पौधा अगर अपना अस्तित्व बनाये रखे तो विशाल वृक्ष नहीं बन पाता इसलिए मिटो…. खो जाओ…. जितना खोओगे, जितना मिटोगे उतना ही पाओगे।

गुरुभक्तियोग एक समर्पण का मार्ग है, मिटने का मार्ग है, हटने का मार्ग है ,खोने का मार्ग है, नामोनिशान तक मिटा देने का मार्ग है। व्यक्ति जितना खोता है, उतना पाता है। जितना सूक्ष्म होता है, उतना ही महान होता है। फिर किसी की गाली उसे प्रभावित नहीं करती, किसी की प्रशंसा उसे प्रभावित नहीं करती क्योंकि वह मिट चुका है। जीते-जी मिट चुका है। मरकर तो सभी मिटते हैं, सभी खोते हैं लेकिन फिर क्या ? जो जीते-जी मिट चुका, जीते-जी खो चुका, जीव मिटकर शिव बन चुका वही धन्य है…. ૐ शांति… खूब शांति… गहरी शांति…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 19,20,18 अंक 55

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