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भारतीय संस्कृति की पूर्णता का प्रतीक – होली


शास्त्र कहते हैं- उत्सव (उत्+सव) अर्थात् उत्कृष्ट यज्ञ। जीवन को यज्ञमय बनाकर चैतन्यस्वरूप परमात्मा का आनंद-उल्लास प्रकटाने का सुअवसर प्रदान करते हैं सनातन संस्कृति के उत्सव। ऋतुराज वसंत की प्रारम्भिक वेला में मनाया जाने वाला ‘होलिकोत्सव’ वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस समय प्रकृति नवचैतन्य से युक्त होती है।

प्राचीनकाल से मनाया जाने वाला यह होलिकोत्सव ऐतिहासिक रूप से भी बहुत महत्त्व रखता है। भूने हुए अन्न को संस्कृत में ‘होलका’ कहा जाता है। अर्धभुने अनाज को ‘होला’ कहते हैं। होली की आँच पर अर्धभुने अनाज का प्रसाद रूप में वितरण किये जाने की प्राचीन परम्परा से भी सम्भवतः इस उत्सव के ‘होलिकोत्सव’ तथा ‘होली’ नाम पड़े हों। (अर्धभुने धान को खाना वात व कफ के दोषों का शमन करने में सहायक होता है – यह होलिकोत्सव का स्वास्थ्य-हितकारी पहलू है)। प्राचीन परम्परा के अनुसार होलिका-दहन के दूसरे दिन होली की राख (विभूति) में चंदन व पानी मिलाकर ललाट पर तिलक किया जाता है। यह तो सर्वविदित है कि माधुर्य अवतार, प्रेमावतार भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों को आनंदित-उल्लसित करने के लिए इस महोत्सव का अवलम्बन लिया था।

शाब्दिक रूप से देखें तो ‘होली’ का अर्थ है जलाना परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो यह पर्व हमें अंतर्मुख होकर आत्मस्वरूप का आवरण बनी हुई दुष्ट वासनाओं को जलाने का संदेश देता है। बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक यह पर्व हमें बताता है कि जो प्रह्लाद की तरह अच्छाई के मार्ग पर चलता है, भगवद आश्रय के मार्ग पर चलता है, उसके जीवन की बड़ी-से-बड़ी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं और वह विजयी होता है। भक्त प्रह्लाद को जलाने आयी होलिका की तरह बुराई कितनी भी सामर्थ्य-सम्पन्न दिखे परंतु अंत में उसे जलकर खाक ही हो जाना पडता है। होलिकोत्सव हमें बताता है कि प्रकृति अच्छाई के प्रति पक्षपात करती है और इसके लिए अपने नियमों को भी बदल देती है।

होली का त्यौहार एक ओर जहाँ व्यक्तिगत अहं की सीमाएँ तोड़ते हुए हमें निरहंकार बनने की प्रेरणा देता है, वहीं दूसरी ओर मत, पंथ, सम्प्रदाय, धर्म आदि की सारी दीवारों को तोड़कर आपसी सदभाव को जागृत करता है।

भारतीय संस्कृति का यह पर्व प्राकृतिक रंगों से शरीर को, भगवदभक्ति के गीतों से भावों को तथा सत्संग की वर्षा से हृदय को रँगते हुए अपने जीवन में आनंद-उल्लास भरकर मनुष्य-जीवन को सार्थक बनाने की प्रेरणा देता है, परंतु इसमें पाश्चात्य जीवनशैली के विकृत रंग ने कुछ विकृति भी ला दी है। प्राकृतिक सुवासित रंगो का स्थान बदबूदार रासायनिक रंगों ने ले लिया है। भगवदभक्ति के गीतों का स्थान अश्लील, गंदे फिल्मी गीतों ने ले लिया है और सत्संग-सत्कथा के स्थान पर भाँग व शराब की प्यालियाँ पीकर अनर्गल गाली-गलौज की कुप्रथा चल पड़ी है। अपनी पावन भारतीय संस्कृति के पुनरूज्जीवन में रत परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू ने पवित्र प्राकृतिक ढंग से होली का त्यौहार मनाने की परम्परा पिछले अनेक वर्षों से पुनः चलायी है और आज यह समाज के कोने-कोने में पहुँचकर अपनी पवित्र सुवास से जनजीवन को महका रही है।

हमारे स्वास्थ्य पर रंगों का अदभुत प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ रखने के लिए विभिन्न तत्त्वों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार रंगों की भी आवश्यकता होती है। होली के अवसर पर प्रयुक्त प्राकृतिक रंग शरीर की रंग-संबंधी न्यूनता को पूर्ण करते हैं, किंतु सावधान ! आजकल बाजार में मिलने वाले जहरीले रासायनिक रंग इस न्यूनता को बढ़ाते हैं। इतना ही नहीं, इनके प्रयोग से अनेक गम्भीर रोगों के होने का खतरा बना रहता है।

प्राकृतिक रंग कैसे बनायें ?

आयुर्वेद ने प्राकृतिक रंगों में पलाश के फूलों के रंग को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है। यह कफ, पित्त, कुष्ठ, दाह, मूत्रकृच्छ, वायु तथा रक्तदोष का नाश करता है। यह प्राकृतिक नारंगी रंग रक्तसंचार की वृद्धि करता है, मांसपेशियों को स्वस्थ रखने के साथ-साथ मानसिक शक्ति व इच्छाशक्ति को बढ़ाता है।

अन्य कुछ प्राकृतिक रंगों को बनाने की विधियाँ इस प्रकार हैं-

सूखा हरा रंगः केवल मेंहदी पाउडर या उसे आटे में मिलाकर बनाये मिश्रण का प्रयोग किया जा सकता है। सूखी मेंहदी से त्वचा लाल होने का डर नहीं रहता। त्वचा लाल तभी होगी जब उसे पानी में घोल कर लगाया जाये।

मेंहदी पाउडर के साथ यदि आँवले का पाउडर मिलाया जाय तो भूरा रंग बन जाता है, जो बालों के लिए अच्छा होता है।

गीला हरा रंगः दो चम्मच मेंहदी पाउडर को एक लीटर पानी में अच्छी तरह घोल लें।

सूखा पीला रंगः चार चम्मच बेसन में दो चम्मच हल्दी पाउडर मिलाने से अच्छा पीला रंग बनता है, जो त्वचा के लिए अच्छे उबटन का काम करता है। साधारण हल्दी के स्थान पर कस्तूरी हल्दी का भी उपयोग किया जा सकता है, जो बहुत खुशबूदार होती है और बेसन के स्थान पर आटा, मैदा, चावल का आटा, आरारोट या मुलतानी मिट्टी का भी उपयोग किया जा सकता है।

अमलतास, गेंदा आदि त्वचा के लिए सुरक्षित पीले फूलों के सूखे चूर्ण को उपरोक्त किसी भी आटे में मिलाकर प्राकृतिक पीला रंग प्राप्त किया जा सकता है।

गीला पीला रंगः दो चम्मच हल्दी पाउडर दो लीटर पानी में डालकर अच्छी तरह उबालने से गहरा पीला रंग प्राप्त होता है।

अमलतास, गेंदा जैसे पीले फूलों को रात में पानी में भिगोकर सुबह उबालने से पीला रंग प्राप्त किया जा सकता है।

सूखा लाल रंगः लाल गुलाल के स्थान पर लाल चंदन (रक्त चंदन) के पाउडर का उपयोग किया जा सकता है।

सूखे लाल गुड़हल के फूलों के चूर्ण से सूखे और गीले दोनों रंग बनाये जा सकते हैं।

गीला लाल रंगः 2 चम्मच लाल चंदन पाउडर 1 लीटर पानी में उबालने से सुंदर लाल रंग तैयार होता है।

लाल अनार के छिलकों को पानी में उबालने से भी लाल रंग मिलता है।

जामुनी रंगः चुकंदर को पानी में उबालकर पीस के बढ़िया जामुनीं रंग तैयार होता है।

काला रंगः आँवला चूर्ण लोहे के बर्तन में रात भर भिगोने से काला रंग तैयार होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 10,11. अंक 207.

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शरीर के साथ दिल को भी रंग लो


(होलीः 28 फरवरी)

पूज्य बापू जी

‘होली’ भारतीय संस्कृति की पहचान कराने वाला एक पुनीत पर्व है। यह पारस्परिक भेदभाव मिटाकर प्रेम व सदभाव प्रकट करने का एक सुंदर अवसर है, अपने दुर्गुणों तथा कुसंस्कारों की आहुति देने का एक यज्ञ है तथा अंतर में छुपे हुए प्रभुत्व को, आनंद को, निरहंकारिता, सरलता और सहजता के सुख को उभारने का उत्सव है।

होली का यह उत्सव हम प्राचीनकाल से मनाते आ रहे हैं। भगवान शिवजी ने इस दिन कामदहन किया था और होलिका, जिसको वरदान था न जलने का, प्रह्लाद को लेकर अग्नि की ज्वालाओं के बीच बैठी थी। वह होलिका जल गयी तथा भक्तिसम्पन्न प्रह्लाद अमरता के गीत गुँजाने में सफल हुए अर्थात् निर्दोष भक्ति के बल से वे धधकती अग्नि में भी सुरक्षित रहे। तो यह उत्सव खबर देता है कि तामसी व्यक्ति के पास कितना भी बल हो, कितना भी सामर्थ्य हो सज्जनों को डरना चाहिए। भले सज्जन नन्हें-मुन्ने दिखते हो, प्रह्लाद की नाईं छोटे दिखते हों फिर भी वे बड़े में बड़े ईश्वर का आश्रय लेकर कदम आगे बढ़ायें।

विघ्न-बाधा हमें दबोच सके,

यह उसमें दम नहीं।

हमें दबा सके यह जमाने में दम नहीं।

हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं।।

ये पंक्तियाँ प्रह्लाद, मीरा, शबरी, तुकारामजी आदि-आदि सत्संगनिष्ठों के जीवन में साकार पायी गयीं।

हो….ली…. जो बीत गयी उस कमजोरी को याद न कर। आने वाले भविष्य का भय मत कर। चरैवति…..चरैवति……आगे बढ़ो…..आगे बढ़ो…..

यह होली का उत्सव तुम्हारे छुपे हुए आत्मिक रस को जगाने वाला है। लोग कुत्ते और बिल्लियों से रस लेने के लिए उन्हें पालते है और न जाने टी-गौंडी आदि कितने जीवाणुओं की हानियाँ अपने जीवन में ले आते हैं। बिल्ली के पेट में पाये जाने वाले टी-गौंडी जीवाणु कमजोर मानसिकता वाले को, गर्भवती महिला को और शिशु को नुकसान पहुँचाते हैं। मानव रस खोजने के लिए बिल्ली की शरण को जाता है, कुत्ते की शरण जाता है, पान-मसाला, शराब-कबाब की शरण जाता है, क्लबों की शरण जाता है, और भी न जाने किस-किस की शरण जाता है। होलिकोत्सव बोलता हैः नहीं !

तमेश शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तुम सर्वभाव से अपने आत्मसुख की शरण आओ, आत्मप्रकाश की शरण आओ। घबराओ मत लाला-लालियाँ ! होली – हो… ली….।

मुस्कराके गम का जहर जिनको पीना आ गया।

यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया।।

हर इन्सान चाहता है जीवन रसमय हो, जीवन प्रेममय हो, जीवन निरोगता से छलके तो आपसी राग-द्वेष भूलकर-

तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से स्नेह जगत में कोई नहीं पराया है।।

भारतीय संस्कृति के ये पावन त्यौहार एवं मनाने के तरीके केवल मन की प्रसन्नता ही नहीं बढ़ाते, तन की तंदरूस्ती एवं बुद्धि में बुद्धिदाता की खबर भी देते हैं।

गर्मी के दिनों में सूर्य की किरणें हमारी त्वचा पर सीधी पड़ती हैं, जिससे शरीर में गर्मी बढ़ती है। हो सकती है कि शरीर में गर्मी बढ़ने से गुस्सा बढ़ जाय, स्वभाव में खिन्नता आ जाय। इसीलिए होली के दिन प्राकृतिक पुष्पों का रंग एकत्र करके एक दूसरे पर डाला जाता है, ताकि हमारे शरीर की गर्मी सहन करने की क्षमता बढ़ जाये और सूर्य की तीक्ष्ण किरणों का उस पर विकृत असर न पड़े।

हम पर्वों को तो मनाते हैं परंतु पर्वों के जो सिद्धान्त हैं उनसे हम मीलों दूर रह जाते हैं। हमारे ऋषियों ने जिस उद्देश्य से त्यौहारों की नीति बनायी, उसका यथार्थ लाभ न लेकर हम उन्हें अपनी वासना के अनुसार मना लेते हैं।

ऋतु-परिवर्तनकाल के इस त्यौहार पर प्रकृति की मादकता छायी रहती है। वैदिक काल में शरीर को झकझोरने वाली सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से टक्कर लेने के लिए पलाश के फूलों का रस लिया जाता था। यह रोगप्रतिकारक शक्ति, सप्तधातु और सप्तरंगों को संतुलित रखने की व्यवस्था थी। पलाश के फूल हमारे तन, मन, मति और पाचन-तंत्र को पुष्ट करते हैं। पलाश वृक्ष के पत्तों पर भोजन करने वाले को भी स्वास्थ्य लाभ के साथ पुण्य लाभ व सत्त्वगुण बढ़ाने में मदद मिलती है।

ऋतु परिवर्तन के इन 10-20 दिनों में नीम के 15-20 कोमल पत्तों के साथ 2 काली मिर्च चबाकर खाने से भी वर्ष भर आरोग्य दृढ़ होता है। बिना नमक का भोजन 15 दिन लेने वाले की आयु और प्रसन्नता में बढ़ोतरी होती है। होली के बाद खजूर खाना मना है।

होली की रात्री चार पुण्यप्रद महारात्रियों में आती है। होली की रात्रि का जागरण और जप बहुत ही फलदायी होता है। इसलिए इस रात्रि में जागरण और जप कर सभी पुण्य लाभ लें। यह उत्सव रंग के साथ अंतर चेतना, आंतर-आराम और अंतरात्मा की प्रीति देने वाला है।

हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को आग में न जलने का वरदान मिला था। चिता में बैठी हुई उस होलिका की गोद में प्रह्लाद को बिठा दिया गया और चिता को आग लगा दी गयी। परंतु यह क्या ! जिसे न जलने का वरदान प्राप्त था वह होलिका जल गयी और प्रह्लाद जीवित रह गये ! बिल्कुल उलटा हो गया क्योंकि प्रह्लाद सत्य की शरण थे, ईश्वर की शरण थे।

संत कहते हैं कि यह जीव प्रह्लाद है। हिरण्यकशिपु यानी अंधी महत्वाकांक्षा, वासना जो संसार में रत रहने के लिए उकसाती रहती है। होलिका यानी अज्ञान, अविद्या जो जीव को अपनी गोद में बिठाकर रखती है तथा उसे संसार की त्रिविध तापरूपी अग्नि में जलाना चाहती है। यदि यह जीवरूपी प्रह्लाद ईश्वर और सदगुरु की शरण में जाता है तो उनकी कृपा से प्रकृति का नियम बदल जाता है। त्रिविध तापरूपी अग्नि ज्ञानाग्नि के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उस ज्ञान की आग से अज्ञानरूपी होलिका भस्म हो जाती है तथा जीवरूपी प्रह्लाद मुक्त हो जाता है। यही होली का तत्त्व है।

होली रंग का त्यौहार है। रंग जरूर खेलो, मगर गुरूज्ञान का रंग खेलो। रासायनिक रंगों से तो हर साल होली खेलते हो, इस बार गुरूज्ञान के रंग से अपने हृदय को रँग लो तो तुम भी कह उठोगेः

भोला ! भली होली हुई,

भ्रम भेद कूड़ा बह गया।

नहिं तू रहा नहिं मैं रहा,

था आप सो ही रह गया।।

होली यानी जो हो… ली…. कल तक जो होना था, वह हो लिया। आओ, आज एक नयी जिंदगी की शुरुआत करें। जो दीन-हीन हैं, शोषित है, उपेक्षित है, पीड़ित है, अशिक्षित है, समाज के उस अंतिम व्यक्ति को भी सहारा दें। जिंदगी का क्या भरोसा ! कुछ काम ऐसे कर चलो कि हजारों दिल दुआएँ देते रहें… चल पड़ो उस पथ पर, जिस पर चलकर कुछ दीवाने प्रह्लाद बन गये। करोगे न हिम्मत ! तो उठो और चल पड़ो प्रभुप्राप्ति, प्रभुसुख, प्रभुज्ञान, प्रभुआनंद प्राप्ति के पुनीत पथ पर…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 10,11,16, अंक 206

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