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स्वतंत्र सुख, दिव्य ज्ञान व पूर्ण जीवन की दिशा देता पर्व


हमारी माँग क्या है ? विचार करने पर समझ में आता है कि युग बदले, दृष्टिकोण बदले, साधन बदले किंतु मांग नहीं बदली । मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र की अनंत युगों से एकमात्र मांग रही है – अमिट, स्वतंत्र, पूर्ण सुख ! यही माँग विभिन्न नामों से प्रकट होती रही जैसे – तृप्ति, संतुष्टि, प्रेम, रस, आनंद, शांति, विश्रांति की माँग । इसकी पूर्ति हेतु मानव के अपने अनंत-अनंत गलत प्रयासों के बाद जहाँ से सही रास्ता और सही प्रयास उसके जीवन में प्रारम्भ होता है  वह मोड़ है ब्रह्मवेत्ता गुरु की प्राप्ति । ‘सत्’ स्वरूप परमात्मा को जीवन का उद्देश्य बताने वाले, उस ‘चित्’ याने ‘ज्ञान’ के मार्ग पर चलाने वाले एवं उसी ‘आनंद’ स्वरूप को अपना ‘मैं’ अनुभव कराके शिष्य को शिष्यत्व से भी पार ले जाने वाले वे परम गुरु ही पूर्ण अर्थ में ‘गुरु’ होते हैं एवं ‘सदगुरु’ कहलाते हैं । भगवान कहते हैं- सः महात्मा सुदुर्लभः ।

उन सुदुर्लभ, ब्रह्मतत्त्व के अनुभवी महापुरुषों में वर्तमान में इस धरती पर विधमान एवं विश्व-मानव के जीवन को आत्मिक सुगंध से महकाने वाले महानतम सुरभित पुष्प, परम शीतल एवं शांत ज्ञान-प्रकाश, आनंद-उल्लास के असीम महासागर, बल, हिम्मत, उत्साह, आश्वासन, सांत्वना के अखूट भंडार हैं नित्य स्मरणीय सदगुरुदेव पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू ।

कोई प्रशंसनीय होते हैं, कोई आदरणीय होते हैं, कोई वंदनीय होते हैं, कोई श्रद्धेय होते हैं किंतु तीनों तापों से बचाने वाले एवं सत्यस्वरूप में जगाने वाले साक्षात् परब्रह्म-परमात्मस्वरूप तत्त्ववेत्ता सदगुरु तो पूजनीय अनंत-अनंत उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का पर्व है गुरु-पूर्णिमा । गुरुपूर्णिमा का पर्व हमारी सोयी हुई शक्तियाँ जगाने को आता है । हम जन्म-जन्मांतरों से भटकते-भटकते सब पाकर सब खोते-खोते कंगाल होते आये । यह पर्व हमारी कंगालियत मिटाने एवं हमारे रोग शोक, अज्ञान को हर के भगवद्ज्ञान, भगवत्प्रीति, भगवद् रस, भगवत्सामर्थ्य भरने वाला पर्व है । हमारी दीनता-हीनता को छीनकर हमें ईश्वर के वैभव, प्रीति व रस से सराबोर करने वाला पर्व है । यह हमें स्वतंत्र सुख, स्वतंत्र ज्ञान, स्वतंत्र जीवन की दिशा देता है, हमें अपनी अमिट महानता का अनुभव कराता है । ऐसे ही महान उद्देश्य से गुरुपूर्णिमा के दिन ही आश्रम के मासिक प्रकाशन ‘ऋषि प्रसाद’ का भी शुभारम्भ हुआ था अतः इस दिन ऋषि प्रसाद जयंती भी है । ये दोनों पावन पर्व सभी को सदगुरु से मिलाने वाले एवं उनसे एकाकार होकर आत्मतृप्ति, आत्मसंतुष्टि, आत्मप्रीति, आत्मरस, आत्मानंद, आत्मविश्रांति के  प्रसाद से परिपुष्ट करने वाले साबित हों ।

हे सर्वहितैषी, सर्वेश्वर, प्यारे प्रभु जी ! हमें ही स्वीकार करें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 2 अंक 330

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ऋषियों की वाणी है ‘ऋषि प्रसाद’


कर्म किये बिना कर्ता रह नहीं सकता और कर्म में पराधीनता है। बिना पराश्रय के कर्म होता ही नहीं, पर का आश्रय लेना ही पड़ता है और किये बिना रहा नहीं जाता है। ….. तो पर का आश्रय लेने वाला कर्म अगर कर्म को परोपकार में बदल दे तो कर्ता ‘स्व’ के सुख में, स्व की शांति  में, स्व के ज्ञान में स्थिर होने के काबिल हो जाता है और कर्ता का करने का राग मिट जाता है। निःस्वार्थ भाव से सदगुरु का, ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों का देवी कार्य करने का अकसर मिलता है तो धीरे-धीरे कर्ता की आसक्ति, वासना क्षीण होने लगती है। जैसे पति की इच्छा में पतिव्रता की इच्छा मिल जाती है तो उसे इच्छा रहित होन से पातिव्रत्य का सामर्थ्य मिलता है, ऐसे ही कर्म करने वाला फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करता है तो उसको नेष्कर्म्य सिद्धि का सामर्थ्य मिलता है। यह सेवा करना अपने-आप में एक कर्मयोग है।

कई प्रकार के कर्म होते हैं, सेवाएँ होती हैं लेकिन भगवान और संतों से लोगों को जोड़ना यह बहुत ऊँची सेवा है। मेरे गुरुदेव का प्रसाद, महापुरुषों का प्रसाद ही अभी ‘ऋषि प्रसाद’ के रूप में ऋषि प्रसाद के सेवकों द्वारा इस युग के साधनों के सदुपयोग से लोगों के घर-घर तक पहुँचाया जा रहा है।

गुरु का दैवी कार्य ब्रह्म बना देगा !

मैं तो यह बात भी स्वीकारने को तैयार हूँ कि अगर सेवा का मौका मिले और अपने पास कोई साधन नहीं हो तो जैसे हमारे गुरुदेव ने सिर पर गठरी उठाकर भी लोगों तक सत्साहित्य पहुँचाया, ऐसे ही आप लोग भी इस दैवी सेवा का महत्त्व समझें।

महापुरुष का संदेशा देकर कई पतित आत्माओं को पुण्यात्मा बनाते-बनाते आपकी निंदा भी हो गयी हो तो क्या है ! वैसे भी एक दिन सब कुछ चले जाना वाला है। जिसका कर्मयोग सफल हो गया, भक्ति तो उसके घर की ही चीज है ! ज्ञान तो उसका स्वाभाविक हो गया ! देह का अभिमान तो चला ही गया !

जिसका भी साधुस्वभाव होगा वह गुरुसेवा से कतरायेगा नहीं, सेवा खोज लेगा। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – इन तीनों अवस्थाओं को सपना मान के जिससे ये दिखती हैं उस चौथे पद में गुरु का सेवक टिक जाता है। तोटकाचार्य टिक गये, शबरी भीलन टिक गयी, भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज, तुकाराम जी महाराज, रैदास जी और हम भी टिक गये – ऐसे और भी कई महापुरुष टिक गये। कोई बड़ा तप नहीं होता उन महापुरुषों का, गुरुसेवा बस ! गुरुसेवा सब तपों का तप है, सब जपों का जप है, सब ज्ञानों का ज्ञान है !

एक तरफ सम्राट बनने का आमंत्रण हो और दूसरी तरफ ब्रह्मज्ञानी गुरु का सेवाकार्य हो तो सम्राट पद को ठोकर मारो क्योंकि वह भोगी बनाकर नरकों में भेजेगा और सदगुरु के द्वार का कोई भी दैवी कार्य हो, वह योगी बना के ब्रह्म-परमात्म स्वभाव में जाग देगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 2,9 अंक 294

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ऋषि प्रसाद की सेवा में भागीदार पुण्यात्मा मुक्ति की यात्रा करते हैं


(ऋषि प्रसाद जयंतीः 19 जुलाई 2016)

हम असत्य से सत्य की ओर जायें, अंधकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर जायें इसीलिए मनुष्य जन्म मिला है और ऋषियों का यही प्रसाद है।

मेरे गुरुदेव 10 महीने तो सत्संग साधन-भजन आदि द्वारा समाजरूपी देवता की सेवा करते थे, 2 महीने नैनीताल के जंगल में एकांत में रहने पधारते थे। तब भी वे महापुरुष सुबह घूमने जाते तो छोटी मोटी गठरी बना लेते कुछ पुस्तकों की। उसे अपने सिर पर रखकर पहाड़ी पर जहाँ आश्रम था वहाँ से नीचे उतरते और दूसरी पहाड़ी पर जहाँ देहातियों के 25-50 घर होते, वहाँ जाकर उन लोगों को ‘ईश्वर की ओर’, ‘पुरुषार्थ परम देव’, जैसी, विद्यार्थियों के लिए अमुक-अमुक, नारियों के लिए अमुक-अमुक पुस्तकें देते। उन महापुरुष ने सिर पर गठरी रखकर पहाड़ी के देहातियों को भी भगवद्भक्ति मिले, उनका शरीर स्वस्थ रहे और जीवन जीवनदाता के काम आने योग्य बने तथा उनके कुल-खानदान का मंगल हो ऐसे साहित्य को पहुँचाने की सेवा की।

तो इतना श्रम करके जिन महापुरुषों ने शास्त्र का प्रसाद लोगों तक पहुँचाया, उन्हीं महापुरुषों का कृपा-प्रसाद सत्संग के रूप में और ऋषि प्रसाद के रूप में ऋषि प्रसाद के सेवकों के द्वारा घर-घर अभी भी पहुँच रहा है। फर्क यह है कि वे गठरी बाँधकर सिर पर ले जाते थे और अभी उनके पोते…. मैं गुरु जी का शिष्य अर्थात् बेटा हुआ और मेरे शिष्य उनके पोते… कोई साइकिल पर तो कोई स्कूटर पर तो कोई बस में तो कोई पैदल थैले में ऋषि प्रसाद लेकर जाते हैं लेकिन काम वही कर रहे हैं। और वे पुस्तकें अनेक होती थीं जबकि ऋषि प्रसाद एक है परंतु इसमें अनेक पहलुओं का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान हर महीने मिलता है। वहाँ तो साल में दो महीने ही गुरु जी ऐसा करते थे, यहाँ तो बारहों महीना लोगों को ताजा प्रसाद मिलता रहता है। मुझे तो लगता है कि मेरे गुरु जी के श्रम से आपका श्रम कम है लेकिन सेवा आपकी दूर तक पहुँचती है। गुरु जी तो एक-दो गाँव में घूमकर साहित्य देते थे, तुम तो दसों गाँव तक पहुँच जाते हो। इसीलिए हजारों नहीं, लाखों घरों में ऋषि प्रसाद जाती है।

ऋषियों की, संतों की, वैदिक संस्कृति की प्रसादी लोगों तक पहुँचाना यह स्वार्थी आदमी के बस का नहीं है। सेवा करके जो वाहवाही चाहता है वह अपनी सेवा का धन खर्च डालता है। ‘जहाँ आदर हो वहाँ ऋषि दें और जहाँ अनादर हो वहाँ न दें, नहीं-नहीं, जहाँ अनादर होता है वहाँ खास जाओ।

आदर तथा अनादर, वचन बुरे त्यों भले।

निंदा स्तुति जगत की, धर जूते के तले।।

वह आदमी ईश्वर को पा लेगा। ‘आदर तथा अनादर शरीर का है, मेरा नहीं है। अपना तो उद्देश्य सेवा का है’ जो ऐसा मानेगा, वह मनुष्य दुनिया को बहुत कुछ दे सकता है।

‘ऋषि प्रसाद’ पत्रिका घर-घर तक पहुँचाने की दैवी सेवा करने वाले पुण्यात्माओं का हौसला बुलंद है। यह ‘ऋषि प्रसाद’ पहुँचाने की दैवी सेवा करने वालों को अपनी योग्यता के अनुसार जैसा भी कोई काम मिलता होगा, वे अगर शांत होकर अपने पिया प्रभु से पूछें कि ‘मैंने यह किया, कैसा किया ?’ तो मैं दावे से कहता हूँ कि उनका अंतरात्मा कहेगा कि ‘बहुत बढ़िया कर रहे हो !’ उन्होंने अपने कर्तृत्व का सदुपयोग सत्यस्वरूप ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किया है तो उनका अंतरात्मा संतुष्ट होता होगा। हर एक शुभ कर्म कर्ता को संतोष की झलक देता है। ऐसा करते-करते कर्ता का अंतःकरण शुद्ध होता है। कर्म करने के पहले उत्साह होता है, कर्म करते वक्त पौरूष होता है, कर्म करने के बाद कर्म का फल अपने हृदय में फलित होता है। अपने हृदय में शांति, आनंद, प्रसन्नता अथवा अंतरात्मा का धन्यवाद फलित हो तो कर्ता मान ले कि यह कर्म प्रवृत्ति, पराश्रय से तो हुआ लेकिन इसने ‘स्व’ के आश्रम में ला दिया। जब परमात्मा के निमित्त, प्रभु की प्रसन्नता के निमित्त युद्ध जैसा घोर कर्म करके भी आदमी मुक्ति पा सकता है, अर्जुन, भीष्म मुक्ति पा सकते हैं तो फिर मुक्ति का मार्ग दिखाने वाली ‘ऋषि प्रसाद के दैवी कार्य में भागीदार होने वाले मुक्ति के रास्ते की यात्रा नहीं कर पायेंगे ? जरूर करते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2016, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 283

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