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आत्मज्ञान पाने तक सदगुरु करते हैं मार्गदर्शन


भगताँ महाराज नाम के एक ब्राह्मण जोधपुर राज्य के फूलमाल गाँव में रहते थे। एक बार एक महात्मा उनके घर पधारे और उनकी गर्भवती पत्नी को देखकर बोलेः “देवी ! तुम्हारे गर्भ में संत का वास है।” समय बीतने पर सुंदर-सलोने शिशु का जन्म हुआ पर पति-पत्नी चिंतित रहने लगे कि कहीं बेटा बड़ा होने पर साधु न हो जाय ! बेटे का नाम टीकम रखा। नन्हा टीकम रात में सोते समय पिता जी से पूछताः “पिता जी ! भगवान कहाँ रहते हैं ? वे कैसे हैं ? हमें दिखते क्यों नहीं ? आदमी मरता क्यों है ? मरकर भगवान के पास जाता है या और कहीं ? भगवान के दर्शन कैसे होते हैं ? क्या मुझे भी हो सकते हैं ?”

पिता जी एक प्रश्न का उत्तर देते तो दूसरा तैयार रहता। आखिर वे उत्तर देते-देते थक जाते और कहतेः “बेटा ! अब सो जा।”

टीकमः पिता जी ! आप ही कहते हैं न, कि ‘सब काम भगवान करते हैं। उनकी मर्जी के बिना कुछ नहीं होता।’ मुझे भगवान अभी सुला नहीं रहे हैं।”

पिता जी झुँझलाकर कहतेः “अच्छा महात्मा ! भगवान जब सुलायें तो सोना, मुझे सोने दे, भगवान मुझे सुला रहे हैं।” पिता जी सो जाते पर टीकम पड़ा-पड़ा घंटों न जाने क्या सोचता रहता।

पिता जी कभी-कभी टीकम को अपने साथ खेत पर ले जाते। खेत जोतते समय बैलों को मार पड़ने से टीकम रो पड़ता।

टीकमः “पिता जी ! जैसे आपके सिर में दर्द होता है तब आपसे काम नहीं होता, ऐसे ही शायद आज बैलों के भी सिर में दर्द हो रहा होगा, तभी वे चल नहीं पा रहे हैं। उन्हें खोल के विश्राम करने दीजिये।”

बेटे की इस प्रकार की बातें सुनकर पिता के कानों में महात्मा का बात गूँजने लगती। ‘कहीं बेटा साधु न हो जाय’ – इसी चिंता-चिंता में माता-पिता संसार से चल बसे।

अब घर का सारा बोझ टीकम के बड़े भाई रेवती व उनकी धर्मपत्नी पर पड़ गया। रेवती की पत्नी बहुत महत्वाकांक्षी स्वभाव की थी, वह टीकम को हर समय काम में जोतती रहती। टीकम जो भाभी कहती सब करते पर करते अपने ढंग से थे। खेत जोतते तो थोड़ी-थोड़ी देर  में बैलों को एक ओर खड़ा कर विश्राम करने देते व स्वयं फावड़े से खेत की गुड़ाई करने लगते।

खेत में पानी देते तो पहले चींटियों और कीड़े-मकोड़ों को बीनकर किसी ऊँचे स्थान पर रख देते। एक बार खेत में पानी देते समय उन्हें एक-दो जगह कीड़ों के बिल दिखे। उन्हें पानी से बचाने के लिए वे बिल के चारों ओर मिट्टी की मेंड़ बाँधने लगे। ऐसा करने में कुछ पौधे उखड़ गये। इतने में भाभी वहाँ आ गयी, उसने दाँत पीसते हुए कहाः “महात्मा ! ये क्या कर रहे हो ? सिंचाई कर रहे हो कि कीड़े-मकोड़े पाल रहे हो ? ढोंगी कहीं के ! खाने को चाहिए मनभर, काम करने को नहीं रत्तीभर ! यही सब करना है तो ढोंगी साधुओं में जा मिलो।”

टीकम ने आदरपूर्वक भाभी को प्रणाम किया और प्रभु की खोज में निकल पड़े। घूमते-घामते वे एक संन्यासी के आश्रम में जा पहुँचे और संन्यासी के निर्देशानुसार ध्यान-धारणा में लग गये। साधना में कुछ अनुभव हुआ किंतु आत्मतृप्ति न हुए वे बेचैन रहने लगे।

एक दिन टीकम को स्वप्न में एक महात्मा के दर्शन हुए। वे बोलेः “वत्स ! मैं तुम्हें पहले से जानता हूँ। तुम गर्भ में थे, तभी मैंने तुम्हारी माँ को तुम्हारे साधु होने की सूचना दे दी थी। तुम पिछले जन्म में ज्ञानी भक्त थे लेकिन ज्ञान के अभिमान के कारण तुम्हारे कुछ भोग शेष रह गये थे इसलिए तुम्हारा यह जन्म हुआ है। तुम पुष्कर चले जाओ और मेरे शिष्य परशुराम देव से दीक्षा ले लो।”

जब तक शिष्य आत्मज्ञान न पा ले, तब तक सदगुरु पीछा नहीं छोड़ते। कैसी है महापुरुषों की करुणा-कृपा !

पुष्कर पहुँचकर उन्होंने परशुराम देवाचार्य जी से अपनी शरण में रखने की प्रार्थना की। समर्थ गुरु से दीक्षा मिलने के बाद उनका अंतरात्मा का रस उभरा और वे लक्ष्य की ओर तीर की तरह चल पड़े। वे भगवान के भजन-चिंतन के सिवा न और कुछ करते और न उनके गुणगान के सिवा कुछ कहते-सुनते। यदि कोई कुछ और कहता तो कहतेः “भाई तत्त्व की बात कहो न ! तत्त्व का भजन छोड़ कुछ भी सार नहीं है।” इसीलिए उनका नाम तत्त्ववेत्ता पड़ गया।

एक बार उनके संन्यासी गुरु की उनसे भेंट हो गयी। उन्होंने पूछाः “बेटे ! तुम मेरे पास से क्यों चले आये ? कहाँ कह रहे हो ?”

उन्होंने परशुराम देवाचार्य जी से दीक्षा समेत सारा वृत्तान्त कह सुनाया। संन्यासी नाराज हुए। जब टीकम जाने लगे, तब उन्होंने एक घड़ा जल से भरकर देते हुए कहाः “इसे अपने नये गुरु को देना।”

टीकम ने घड़ा लाकर परशुराम जी के सामने रखा और सारी बात कह सुनायी। परशुराम जी ने घड़े में बताशे डाल दिये और तत्त्ववेत्ता जी से कहाः “अब इसे संन्यासी जी को दे आओ।”

वे संन्यासी के पास पहुँचे  और कहाः “गुरु जी ने इसमें बताशे डालकर वापस भेजा है। आपका जैसा प्रश्न था, वैसा ही उत्तर है।”

संन्यासी आश्चर्य में पड़ गयेः “बताओ, तुम क्या समझे ?”

तत्त्ववेत्ताचार्यः “आपने पानी का घड़ा भेजकर गुरु जी की परीक्षा लेनी चाही थी कि वे अगर मेरे मनोभाव को समझ गये तो निश्चित ही उच्चकोटि के महात्मा होंगे। आपके कहने का आशय यह था कि ‘मैंने तो टीकम के घट’ को विशुद्ध ज्ञान से ऊपर तक भर दिया था। उसमें कसर क्या रह गयी थी जो आपने उसे शिष्य बनाया ?’ उन्होंने मीठे पानी का घड़ा भेजकर उत्तर दिया कि आपने जो  ज्ञानोपदेश किया था, वह फीका और स्वादहीन था। मैंने उसको तीनों योगों की त्रिवेणी के सर्वोत्तम मधुर रस का पुट देकर उसे मधुरतम  बना दिया।”

संन्यासी ने गद्गद होते हुए कहाः “वत्स ! मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया। धन्य हैं तुम्हारे गुरुदेव और धन्य हो तुम सामर्थ्यवान गुरु के सामर्थ्यवान शिष्य !”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 271

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Rishi Prasad 270 Jun 2015

मानव जाति के परम हितैषी सदगुरु


भारत में ब्रिटिश शासन था उस समय की एक घटना है। न्यायालय ने किसी को फाँसी की सज़ा दी। अब उसको फाँसी लगनी है शाम को 5 बजे तो ज्यूरी में जो न्यायाधीश बैठे थे, उनमें एक बंगाली न्यायाधीश ते। उन्होंने किसी गुरु के सम्पर्क में सात्विक साधना, सात्विक व्यवहार किया होगा। उस मुजरिम को देख के वे बोलेः “इसने तो सचमुच में बड़े आदमी की हत्या की नहीं है, यह अपराधी नहीं है।”
दूसरा न्यायाधीश बोलाः “सत्र न्यायालय ने, उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी रहम की अर्जी ठुकरा दी है, 5 बजे इसको फाँसी लगे तब तक अपने को खाली यहाँ बैठना है।”
“नहीं, मैं इसको फाँसी नहीं देने दूँगा।”
न्यायाधीश-न्यायाधीश का आपस में वाक् युद्ध हो गया तो पाँच के बदले पौने छः बज गये। इतने में ब्रिटिश शासन का तार आया कि ‘ऐसा ही आदमी यूरोप में पकड़ा गया है, इस आदमी को फाँसी न लगे। तार पहुँचने में देर हुई।’
उन बंगाली न्यायाधीश ने कहाः “अगर इनको फाँसी दे देते तो पूरा ब्रिटिश शासन मिलकर इसको जिंदा नहीं कर सकता था। जिस परमात्मा ने इसको जीवनदान दिलाने की मुझे प्रेरणा दी, मैं उसी को देखूँगा।” और उन्होंने त्यागपत्र लिखकर मुख्य न्यायाधीश को दिया।
मुख्य न्यायाधीश ने कहाः “नहीं, आपका अंतरात्मा इतना शुद्ध है कि आपको प्रेरणा हो गयी कि इसने हत्या नहीं की और आपने इसको बचा लिया। आपकी पदोन्नति करेंगे।”
“पदोन्नति करेंगे तब भी मैं नौकर रहूँगा न ! गुलाम… मनुष्य का गुलाम !! नहीं, मैं तो उस भगवान को जानूँगा जिसने मेरे को प्रेरणा दी कि यह निर्दोष है।”
उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। अब वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इधर-उधर घूमे लेकिन उनके मन में संतोष नहीं हुआ तो हरिद्वार गये। बुद्धिमान थे, उधर भी उनको कोई ऐसे गुरु नहीं मिले जहाँ उनका सिर झुके तो उनको अपने शरीर पर बड़ी ग्लानि हुई कि ‘हाय ! मैं निगुरा होकर जिंदगी बरबाद कर रहा हूँ। मेरे को गुरु भी नहीं मिलते। गुरु के बिना जीना तो व्यर्थ है !….’
एक रात को वे अपनी कमर में पत्थर बाँध के ऋषिकेश में, जहाँ अभी काली कमली वाले बाबा का घाट है, वहाँ आत्महत्या करने को तैयार हो गये। वे ‘गंगे हर !’ करके कूदने वाले थे, इतने में एक सिद्ध गुरु प्रकट हुए और हाथ पकड़कर बोलेः “ऐ मूर्ख ! रुक जा ! अहं नहीं छोड़ता है और शरीर छोड़ता है ! आत्महत्या करने को तैयार है ! जाओ मैं तुम्हारा गुरु हूँ। ‘नारायण, नारायण…’ मंत्र जपो !”
ऐसा बोल के वे सिद्ध गुरु अंतर्ध्यान हो गये। फिर वे न्यायाधीश बड़ौदा के पास चाणोद करनाली है, वहाँ आये। नर्मदा के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ के जो गुरुमंत्र मिला था- नारायण नारायण…. अर्थात् नर-नारी का चैतन्य अयन, उसका जप करते थे, मौन रखते थे। एक बार जप की 12 करोड़ संख्या पूरी हो गयी तो साकार चतुर्भुजी भगवान नारायण प्रकट हुए। इससे उनका प्रभाव तेज बढ़ गया।
वे ‘नारायण-नारायण…’ जपते थे तो लोग उनको नारायण स्वामी बोलने लगे। 24 घंटे में एक बार वे चाणोद गाँव में भिक्षा लेने जाते। जो कुछ मिलता वह सब कपड़े में डाल के नदी में उसका स्वाद नर्मदा जी को दे देते। खारा-खट्टा, तीखा-मीठा नहीं, बस पेट को खुराक देते और जप करते थे। जिनके यहाँ भोजन लेते थे, उनको बड़ी खुशी होती थी कि इतने बड़े तपस्वी संत हमारे यहाँ भोजन लेने आते हैं ! तो सब लोग बोलते, ‘हमारे यहाँ, हमारे यहाँ….।’
उन्होंने कहाः “जो जप-कीर्तन करेगा, नहा-धो के भोजन बनायेगा और फिर मेरे पास आयेगा, मैं उसके घर का लूँगा।” इस प्रकार सबने तारीख बाँध दी तो 2-4 महीने में एक परिवार का नम्बर लगता था। फिर लोग आग्रह करने लगे, ‘जरा नाश्ता कर लो, हमारा तो नम्बर नहीं लगा….’ इससे उनको उबान हो गयी और वे बद्रीनाथ चले गये। कुछ दिन एकाँत में शांति से रहे लेकिन वहाँ भी कोई चाणोद करनाली वाले यात्रा करने गये तो पहचान लिया। वे लोग बोलेः “हम यहाँ तीर्थयात्रा के लिए आये हैं, आपके लिए भोजन हम बनायेंगे।”
“तुम भोजन बनाओ और बद्रीनाथ मंदिर के भगवान को भोग लगाओ। भगवान उसमें से सचमुच खायेंगे तो ही मैं खाऊँगा, नहीं तो नहीं खाऊँगा।” – ऐसी शर्त डाल दी कि सब लोग परेशान न करें।
भोजन बना और बद्रीनाथ को भोग लगाया लेकिन भगवान ने नहीं खाया। फिर नहा-धो के और हक की कमाई वाले भक्तों के पैसों से दूसरे दिन भोग लगा तो दिखा कि सचमुच में भगवान ने उसमें से भोजन लिया हुआ है।
तो उन बंगाली न्यायाधीश का नाम पड़ गया नारायण स्वामी। अभी तो उनका शरीर भगवान में लीन हो गया। 1960-62 में उनके उपदेश की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 270
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संतों का समागम अज्ञान को करता कम – पूज्य बापू जी


‘श्री रामचरितमानस’ के उत्तरकाण्ड में गरूड़जी काकभुशुण्डी जी से 7 प्रश्न पूछते हैं। गरूड़ जी भगवान के वाहन हैं और काकभुशुण्डी जी के सत्शिष्य हैं। गरूड़ जी ने पूछाः

सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।

चौरासी लाख योनियों में सबसे दुर्लभ कौनसा शरीर है ?

काकभुशुण्डी जी बोलेः

नर तन सम नहिं तवनिउ देही।

जीव चराचर जाचत तेही।।

मनुष्य शरीर के समान दुर्लभ कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी उसकी याचना करते हैं।

नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी।

ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।

यह नरक और स्वर्ग में जाने का रास्ता देता है, भगवान के धाम में भी जाने का रास्ता देता है और भगवान जिससे भगवान हैं वह आत्मसाक्षात्कार कराने की भी योग्यता मनुष्य-शरीर में है। मनुष्य-शरीर ज्ञान, विज्ञान और भक्ति देने वाला है। देवता, यक्ष, गंधर्व भोग शरीर हैं और मनुष्य शरीर भगवत्प्राप्ति के काबिल है इसलिए यह सबसे उत्तम है।

दूसरा प्रश्न है, सबसे बड़ा दुःख कौन सा है ? बड़ दुःख कवन…

उत्तर है, नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।

जगत में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है। दरिद्रता तीन प्रकार की होती है – वस्तु की कमी, भाव की कमी, ज्ञान की कमी। जिनको सत्संग मिलता है उनका ज्ञान और भाव बढ़ जाते हैं तो वस्तु की दरिद्रता उनको सताती नहीं है। शबरी भीलन दरिद्र होने पर भी बड़ी सुखी थी, राम जी ने उसके जूठे बेर खाये।

तीसरा प्रश्न है, कवन सुख भारी। संसार में सबसे बड़ा सुख कौन सा है ? जिस सुख का उपभोग करते समय पाप-नाश हो, अज्ञान नाश हो, अहंकार नाश हो, चिंता का भी नाश हो, बीमारी भी मिटती जाय, भगवान के करीब होते जायें – ऐसा कौन सा सुख है ?

बोले, संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।

चौथा सवाल पूछा गरूड़ जी ने कि संत और असंत में क्या भेद है ?

संत असंत मरम तुम्ह जानहु।

तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।

हे काकभुशुण्डी जी ! संत असंत का भेद आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिये।

पर उपकार बचन मन काया।

संत सहज सुभाउ खगराया।।

जो परोपकार करते हैं, मन से, वचन से व शरीर से दूसरे का भला करते हैं, वे हैं संत। दूसरा न चाहे तो भी उसका मंगल करें वे संत हैं।

संत सहहिं दुख पर हित लागी।

पर दुख हेतु असंत अभागी।।

संत दूसरे के हित के लिए दुःख सहेंगे लेकिन असंत अपने सुख के लिए दूसरे को दुःख दे देंगे। संत खुद दुःख सह लेंगे पर दूसरे को सुखी करेंगे। जो दूसरों के दुःख का हेतु बनते हैं वे असंत हैं। जो दूसरे को तन-मन-धन से सताते हैं वे असंत हैं, भविष्य में बड़ा दुःख देखेंगे और जो दूसरे को तन-मन-वचन से उन्नत करते हैं वे भविष्य में क्या वर्तमान में भी बापू हो जाते हैं और भविष्य में बापूओं के बापू बन जाते हैं। साँईं लीलाशाहजी, संत कबीर जी बापूओं के बापू हैं।

पाँचवाँ प्रश्न है, कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। श्रुति में सबसे महान पुण्य कौनसा है ? बड़े में बड़ा पुण्य क्या है ? यज्ञ धर्म है, तीर्थ धर्म है, पुण्य धर्म है, जप धर्म है लेकिन सबसे बड़ा धर्म क्या है ? शास्त्रों में, वेदों में सबसे ज्यादा पुण्य किसका कहा गया है ?

परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा।

बोले, वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना गया है। तन-मन-वचन से किसी को दुःख न दो, दूसरे के दुःख हरो यह परम धर्म है। किसी को चुभने वाला वचन नहीं कहो।

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।।

छठा सवाल है, कहहु वचन अघ परम कराला।।

बड़े में बड़ा, महान भयंकर पाप क्या है ?

पर निंदा सम अघ न गरीसा।।

परायी निंदा के समान कोई बड़ा पाप नहीं है।

सातवाँ प्रश्न है, मानस रोग किसको कहते हैं उसे समझाकर कहिये। मानस रोग कहहु समुझाई।

बोले,

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।

तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

मोह सभी व्याधियों का बड़े में बड़ा मूल है। मोह बोलते हैं उलटे ज्ञान को। जो आप हैं उसको जानते नहीं और हाड़ मांस के शरीर को मैं मानते हैं तथा जो छूट जाने वाली चीजें है उनको मेरी मानते हैं। जो अछूट आत्मा है उसको मैं नहीं मानते और आत्मा को ‘मैं’, परमात्मा को मेरा नहीं मानते-जानते। इसी से सारी व्याधियाँ, तनाव और चिंताएँ आती हैं।

इस  प्रकार काकभुशुण्डी जी ने अनेक प्रकार के मानस रोगों का वर्णन किया है और अंत में उन सभी रोगों के निवारण का उपाय बताते हुए कहाः

सदगुरु बैद बचन बिस्वासा।

संजम यह न विषय कै आसा।।

सदगुरुरूपी वैद्य के वचनों में विश्वास हो, विषय-विकारी सुखों की आशा न करे, यही परहेज हो।……..जौं एहि भाँति बने संजोगा।। यदि ईश्वर की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाय तो ये सब रोग नष्ट हो जायें, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी ये रोग नहीं जाते। इसलिए कहा गया है कि

सत संगति दुर्लभ संसारा।

निमिष दंड भरि एकउ बारा।।

संसार में सदगुरु का, संत का पलभर का, लेकिन सत्संग मिल जाय तो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तनाव सब दूर हो जाते हैं और मोह (अज्ञान) भी दूर हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2014, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 262

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