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सदगुरु महिमा


सदगुरु अनेकानेक लोगों के लिए छाया के समान है। शिष्य वर्ग के लिए तो वे माता के समान ही हैं। उनके प्रति जो असूया प्रदर्शित करेगा, उसकी आत्मप्राप्ति नष्ट हुई समझनी चाहिए। अतः गुरु के जो अंकित या अनुग्रहप्राप्त शिष्य हैं, उन सभी को शिष्य गुरु के समान ही मानता है। असूया उसके चित्त को छूती तक नहीं है। वह सभी से बड़ा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है। इसके विपरीत, कोई गुरुबन्धु कनिष्ठ एवं गरीब हो, उसमें उत्तम गुण भी हों, तो भी उन्हें जान-बूझकर स्वीकार न करना तथा उसके प्रति खोटे आरोप लगाना ये कुशिष्य के लक्षण होते हैं।

दूसरे के उत्तम गुणों को भी मिथ्या दोष लगाकर निन्दित बताना तथा उसके ज्ञान को मिथ्या व खोटा बताना – इसे ही असूया कहते हैं। प्रत्यक्ष भेंट होने पर उसके गुणों का स्तुतिगान करना, नम्रता से चरण पकड़ना लेकिन तत्काल पीछे से उसके प्रति छल करना तथा निंदा करना, इन सबका नाम असूया है। सत्शिष्य का वर्तन इस विषय में पूर्णतया शुद्ध ही होता है। वह अपने में असूया दोष उत्पन्न ही नहीं होने देता। कोई उत्तम हो, मध्यम हो या बिल्कुल प्राकृत या साधारण हो उन सभी को वह वन्दन करता है। छल करने का उसे ज्ञान ही नहीं होता।

हे उद्धव ! इस प्रकार किसी भी प्राणी से छल न कर सकना ही सत्शिष्य का ‘अनसूया’ नामक गुण है। इस तरह 1. सम्मान की इच्छा न करना 2. निर्मत्सरता 3. दक्षता 4 निर्ममता 5. गुरु को ही पूर्णरूप से अपना आप्त मानना 6. अंतःकरण का निश्चलपना 7. परमार्थ विषय में अतिशय प्रेम (जिज्ञासता) 8. अनुसूया (झूठ, कपट रहित व्यवहार)। इन आठों सदगुणरूपी महामणियों की माला जिसके हृदय में निरन्तर निवास करती है, वह सदगुरु की सन्निधि में पहुँच जाता है। उस भेंट की अपूर्वता का वर्णन क्या किया जाये ?

इसके अतिरिक्त एक नौवाँ लक्षण और है। वह भी विलक्षण ही है। व्यर्थ की बातें छोड़कर वह शिष्य सत्य व पवि6 भाषण ही करता है। सदगुरु से वह बड़ी ही विनम्रता से और मृदु वाणी से प्रश्न करता है और वह भक्तिपूर्वक मानता है कि सदगुरु के वचन सत्यों के भी सत्य हैं। नाना प्रकार की युक्तियाँ लड़ाना, अनेक प्रकार के मत प्रतिपादित करके अकाण्डतांडव करना, पाखण्ड की सहायता से महावाद खड़े करके व्यर्थ गाल बजाते रहना, साधक-बाधक युक्तियों की सहायता से शब्दछल करना और अपनी ही युक्तियों का प्रदर्शन करते रहना… ये सब बातें शिष्य के मन में नहीं आतीं।

सदगुरु के सम्मुख वाहियात या अशिष्ट रूप से बोलना बड़ा ही पाप है, ऐसा जानकर वह व्यर्थ करता। शिष्य का बोलना कैसा होता है ? मानों परिपक्व हुई वाणी से निकलने वाला वह अमृत ही है। दूसरों की दुखती रगों को वह कभी नहीं छूता तथा जो बोलने से दूसरों का मन दुःखी हो अथवा जो बोलना अधर्मयुक्त प्रतीत होता हो, ऐसा बोल वह कभी नहीं बोलता। व्यर्थ शंका वह कभी नहीं करता। निन्दा के विषय में भी वह मूक ही रहता है। उससे कर्कश नहीं बोला जाता दूसरे का उपहास करना उसे नहीं आता। बोलते समय भी वह कुछ आशा रखकर नहीं बोलता। वह केवल निष्काम भाव से और वैराग्यपूर्वक ही बोलता है। उसे मन में गाँठ रखकर बोलना ही नहीं आता, शब्दछलपूर्वक कुत्सितपना करना भी उसे नहीं आता। अधिक बोलना भी उसे अच्छा नहीं लगता। वह मौन की महानता जानता है और बहुधा मौन रहता है। उसे वादविवाद अथवा वितण्डावाद नहीं रूचता। किसी से व्यर्थ भाषण करना भी उसे नहीं आता। उसे टेढ़ा बोलना नहीं आता। उसके भाषण में कभी कपट नहीं होता। वह तो निरन्तर सदगुरु का ही स्मरण करता है। अपने बोलने से वह किसी को उद्विग्न नहीं करता, व्यर्थ बोलने की खटपट नहीं करता। बोलने में वह कभी आवेश नहीं दिखाता। वह ऐसी वाणी ही बोलता है जिससे किसी को उद्वेग न हो। वह ऐसी मधुर हरिकथा ही कहता है जो सत्य होती है, सुनने में आह्लादक होती है तथा सबके लिए हितकारी होती है। सदगुरु की प्रार्थना करते हुए भी वह बहुत अधिक नहीं बोलता। आत्मसुख मिलने के साधन के विषय में भी वह एकाध शब्द के द्वारा ही प्रश्न करता है।

शिष्य के इस तरह ये नौ लक्षण हैं। ये नौ खण्डवाली पृथ्वी के भूषण हैं। नारायण ने कृपा करके इन्हें भक्तों को दिया है। इन नवरत्नों की सुन्दर माला जो सदगुरु के कंठ में डालेगा, वह तत्काल ही मोक्ष के माधुर्य को पायेगा। इन नौ रत्नों के तगमे जिस शिष्य के हृदय पर शोभित होंगे, वही सदगुरु का निश्चित विश्वासपात्र होगा। इन नौ रत्नों का अभिनव गुच्छ सदगुरु की भेंट के लिए जो भी लायेगा वह आत्म परमात्म राज्य के मुकुट पर महामणि बनकर चमकने लगेगा। अतः सभी कल्याण कामियों को चाहिए कि सत्य का, संयम का मौन का, सत्शास्त्र और श्रेष्ठ व्रतों का अवलंबन लेकर परममंगल कर लें। आत्म स्वराज्य के सुख को पा लें।

श्री एकनाथी भागवत से

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 101

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सदगुरु महिमा


मैं उन गुरुदेव को नमस्कार करता हूँ जो संसाररूप हाथी के लिए सिंह के समान हैं, जो संसार में तथा एकांत में समदृष्टि से सदा-सर्वदा पूर्ण बने रहने वाले हैं, जिनकी कृपा से साधकों को देह में रहते हुए भी देह दिखाई नहीं पड़ती तथा संसाररूप अन्धड़ देखते-देखते समाप्त हो जाता है, जिनके कृपाकटाक्ष से अलक्ष वस्तु बिना लक्ष्य के लक्षित हो जाती है तथा साक्षीभाव विस्मरण हो जाता है।

उन्होंने बिना प्राणों के ही जीवनदान दिया, बिना मारे ही मृत्यु को मार दिया, मेरी चर्मदृष्टि को लेकर अदृश्य दिखा दिया तथा मेरे सारे शरीर में ही दर्शन करने की क्षमता उत्पन्न कर दी। मेरे देह में रहते हुए मुझे विदेही कर दिया और अन्त में वह विदेहीपन भी समाप्त कर दिया और फिर विदेही होना ना होना दोनों ही समाप्त होकर जो था वही शेष बच गया। भाव के साथ अभाव नष्ट हो गया, निःसन्देहता के साथ सन्देह भी निकल गया, विस्मय विस्मय में ही डूब गया तथा स्वानन्द  भी पागलपन की अवस्था प्राप्त हो गयी। मैं वहाँ प्रेम के कारण ही भक्त बना था लेकिन उस भक्ति में ही मुझे देव की उपस्थिति दिखलाई पड़ी। अतः भज्य, भजक और भजन इनका अन्त मुझे दिखाई पड़ने लगा। नमन में ही नमस्कार किया तथा नमस्कार करने वाला कहाँ गया, यह भी समझ में नहीं आया। जिसे नमस्कार करना चाहिए वह वस्तु भी अदृश्य हो जाने पर मैं स्वतः तद्रूप बन गया। दृश्य और द्रष्टा इन दोनों को समाप्त करके दर्शन भी समाप्त हो गया। अब इधर-उधर केवल देव ही देव व्याप्त हो गये। अतः भक्त भाव को भूल गया और देव भी देव स्वभाव भूलकर देवत्व को छोड़ बैठे। सर्वत्र देवस्वरूप भरा होने के कारण भक्तस्वरूप देव में ही मिल गया तथा देव व भक्त दोनों के बीच में अभेदभाव स्थापित होकर एकमात्र अनन्त स्वरूप ही शेष बच गया।

त्याग के सहित अत्याग लय हो गया, भोग के साथ अभोग उड़ गया, योग के साथ अयोग डूब गया तथा योग्यता का अहंभाव भी समाप्त हो गया। ऐसा होते हुए भी एक विशेष बात यह है कि सायुज्य स्थिति में जो दासभाव बनाए रखता है उसका आनन्द-रस अतर्क्य और अविनाशी होता है। शिवो भूत्वा शिवं यजेत्…. इसी अवस्था का द्योतक है। इस अवस्था को प्राप्त हुए बिना केवल बोलना ही रहता है। ऐसे बोलने से स्वरूप का भजन प्राप्त होने वाला नहीं है। इस अभेदभाव के सुख में नारद भी आनंद से गाते व नाचते हैं। शुक-सनकादि जो सभी स्वस्वरूप के भक्त हुए हैं वे इसी सुख के कारण हुए हैं।

जिस प्रकार सागर में ज्वार आने पर सागर का जल खाड़ियों में भर जाता है, उसी प्रकारर देव ने मुझे निजभक्त बना डाला है। समुद्र व नदी इन दोनों का जल एक ही होता है लेकिन जिस स्थान पर इनका संगम होता है उस स्थान की शोभा कुछ विशेष ही होती है। इसलिए ऐक्यरूप से परमेश्वर के भजन का सुख दुगुना हो जाता है। शरीर के दायें और बायें अंग अलग-अलग कहे जाते हैं, पर इन दोनों से बोध एक ही शरीर का होता है, उसी प्रकार देव और भक्त में ऐसा भेद दिखाई पड़ने पर भी देवपन में दोनों को ऐक्य ही स्पष्ट अनुभव में आता है। मेरे गुरुदेव जनार्दन स्वामी ने मुझे अपनेपन का मान देकर अद्वैतभक्त बना डाला तथापि काया, वाचा और मन से सर्व प्रकार से प्रेरणा करके वे ही मुझसे सब व्यवहार करवाते हैं। वे ही जनार्दन मेरे मुख के मुख बन गये हैं। मेरी दृष्टि के सम्मुख मूर्तिमन्त होकर वे ही खड़े रहते हैं। उनका कौतुक बड़ा विलक्षण है।

श्री एकनाथ जी महाराज सदगुरुकृपा से कृतकृत्य हुए। अपने हृदय की कृतकृत्यता का वर्णन गुरु-स्तुति के रूप में करते हुए वे कहते हैं-

“हे चित्स्वरूप सदगुरुराज ! आपको नमस्कार है…. ‘ऐसा कहकर जैसे ही मैंने सदभाव से आपके श्रीचरणों में नमस्कार किया वैसे ही आपने ‘तू’ पन निकालकर मेरा ‘मैं’ पन नष्ट कर दिया। आपके श्रीचरणों की कठोरता कितनी अपूर्व है कि जीव का जो लिंगदेह वज्र से भी नहीं टूट सकता, उसी को आपने अपने चरणस्पर्श मात्र से विदीर्ण कर डाला। बलि ने आपके केवल श्रीचरणों का स्पर्श किया था, उसको भी आपने पाताल में पहुँचा दिया। महाबली लवणासुर को भी अपने श्रीचरणों से नष्ट कर दिया। आपके श्रीचरण वास्तव में अत्यन्त तीखे हैं। आपके श्रीचरणों का स्पर्श कालियनाग को होते ही उसके सारे विष का शोषण हो गया और वह पूर्ण रूप से निर्दोष बन गया। आपके कठिन श्रीचरणों का स्पर्श शकटासुर को मिलते ही  उसके सारे पाप-बन्ध टूट गये और उसका जन्म मरण ही छूट गया। बड़े-बड़े बलवान भी आपके श्रीचरणों की धाक मानते हैं। शिला बनकर पड़ी हुई अहिल्या का उद्धार आपने अपने श्रीचरणों से ही किया। दानशूर नृग राजा गिरगिट बनकर पड़े हुए थे। कृष्णावतार में आपके श्रीचरणों का दर्शन होते ही वे नृगराज भी मिथ्या संसार के जन्म-मरण से छूट गये। जो दास प्रेम से आपके श्रीचरणों का चिन्तन करते हैं, उनका मनुष्य धर्म ही समाप्त हो जाता है। यमलोक उजाड़ हो जाता है तथा उन्हीं श्रीचरणों से जीव का जीवपन समाप्त हो जाता है। आपके श्रीचरणों का तीर्थ शंकरजी ने अपने मस्तक पर धारण किया तो वे जगत के प्राणहरण करने वाले बन गये तथा उसकी राख को बड़े भक्तिभाव से अपने अंगों में लगाकर नग्न हो शमशान में विचरण करने लगे। आपके श्रीचरणों की करनी ही ऐसी है। वह जब शिव का शिवपना ही नहीं रहने देती तो जीव का जीवपना रह ही कैसे सकता है  ?

(श्री एकनाथी भागवत के 11वे स्कन्ध से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्चच 2001, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 99

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ʹएतत्सर्वं गुरोर्भक्त्या….ʹ


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

शास्त्रों के रचयिता वेदव्यासजी महाराज ने कहा हैः “काम को जीतना हो तो बीमार को देखो अथवा मन ही मन कल्पना करो की शरीर की चमड़ी हट जाये तो अंदर कौन सा मसाला भरा है। लोभ को जीतना हो तो दान करो। क्रोध को जीतना हो तो क्षमा का गुण ले आओ। मोह को जीतना हो तो शमशान में जाकर देखो कि आखिर कोई किसी का नहीं होता। अहंकार को जीतना हो तो जिस बात का अहंकार हो-धन का, सत्ता का, सौन्दर्य का इत्यादि… उसमें अपने से बड़ों को देखो। इस प्रकार एक-एक दोष पर विजय प्राप्त करने के अलग-अलग उपाय हैं लेकिन यदि मनुष्य इन सब दोषों को एक साथ जीतना चाहता हो तो उसका एकमात्र उत्तम उपाय है कि वह सच्चे सदगुरु में भक्तिभाव करे।”

एतत्सर्वं गुरोर्भक्त्या…..

पत्थर को भगवान मानना बड़ा आसान है क्योंकि पत्थर की मूर्ति तुम्हें टोकती नहीं है परन्तु भगवान के अवतारस्वरूप संत को, गुरु को भगवान मानना बड़ा कठिन है क्योंकि,

सदगुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

लाखों-करोड़ों व्यापारी मिल जायेंगे, लाखों-लाखों पंडित मिल जायेंगे, सैंकड़ों-हजारों गुरु मिल जायेंगे परंतु सदगुरु तो कभी-कभी, कहीं-कहीं मिलते हैं और ऐसे सदगुरु की शरण में जाकर पूर्ण श्रद्धा रखने वाले कोई-कोई विरले होते हैं।

सदगुरु के पास जाने वालों में भी शुरु-शुरु में तो इतनी श्रद्धा नहीं होती, ऊपर-ऊपर से थोड़ा फायदा उठाकर मन से ही गुरु मान लेते हैं। फिर कभी भाग्य जोर पकड़ता है तब गुरु से दीक्षा लेते हैं। बाद में भी कभी अपने मन के विरूद्ध बात दिखाई दी तो कहते हैं किः ʹगुरु जी को ऐसा नहीं करना चाहिए…. वैसा नहीं करना चाहिए….ʹ गुरु एक और शिष्य अनेक। लाखों शिष्यों के लाखों मन, उनकी लाखों कल्पनाएँ होती हैं। सब सोचते हैं- ʹगुरु को ऐसा करना चाहिए…. वैसा करना चाहिए….ʹ मानों, हम अपने-अपने ढाँचे में गुरु को ढालना चाहते हैं अथवा देखना चाहते हैं।

शिष्य नश्वर देह को ʹमैंʹ मानता है और जगत को सत्य मानता है जबकि सदगुरु न देह को अपना मानते हैं न ही जगत को सत्य। ऐसा भी नहीं है कि गुरु एक हैं तो सब शिष्य भी एक-से होते हैं। उनमें से भी कोई नर्क से आया है तो कोई स्वर्ग से आया है। सबके संस्कार अलग-अलग होते हैं, विचार अलग-अलग होते हैं।

उनमें आपसी मतभेद रहता है, मत-मतांतर रहता है। घर में छः लोग होते हैं तब भी मत-मतांतर होते हैं तो लाखों शिष्यों के बीच मत-मतांतर रहे यह स्वाभाविक ही है।

वे सब अपनी-अपनी मति से गुरु को तौलते रहते हैं, गुरु के व्यवहार को मापते रहते हैं। इन सबको सहते हुए, सँभालते हुए, समझाते हुए जो अपने पथ पर चलते हैं और लाखों लोगों को भी ले जाते हैं यह किसी साधारण व्यक्ति का काम नहीं है। हाँ-हाँ सबकी करना किन्तु अपनी गली न भूलना…. अपने-आप में डटे रहना यह कोई मजाक की बात नहीं है।

घर में दो-तीन बच्चों के होने पर ही माँ-बाप परेशान हो जाते हैं और तंग आकर उनकी पिटाई कर देते हैं तो जो लाखों-लाखों शिष्यों के हृदयों को एक ही धागे में बाँधकर यात्रा करवाते हैं वे सदगुरु कितने करूणासागर होंगे ! उनमें कितना धैर्य, आत्मबल और सामर्थ्य होगा !! स्नेह की वह रज्जू कितनी मजबूत होगी !!! परहित का हौसला उनका कितना बुलंद होगा !!!!

गुरु धोबी शिष्य कपड़ा, साबुन सर्जनहार।

सुरत शिला पर बैठकर, निकले मैल अपार।।

हम लोगों के जन्म-जन्मांतर के अपने-अपने कर्म हैं। किसी को धन का आकर्षण है तो किसी को सत्ता का, किसी को प्रसिद्धि का आकर्षण है तो किसी को सौन्दर्य का, किसी की कोई वासना है तो किसी की कोई मान्यता…  न जाने कितना-कितना कचरा भरा पड़ा है ! ऐसे लोगों की कितनी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है गुरु को ! ऐसे शिष्यों के कल्याण के लिए भी गुरु अगर तैयार रहते हैं तो उनके हृदय की कितनी विशालता होगी ! उनका हृदय कितने स्नेह से भरा होगा !!

गुरु का स्नेह और उनकी करुणा न हो तो एक भी शिष्य टिक नहीं सकता क्योंकि शिष्य नश्वर देह में जीता है। उसे जो दिखता है उससे गुरु को बिल्कुल निराला दिखता है। फिर भी गुरु-शिष्य का संबंध बना रहता है तो गुरु की करुणा और शिष्य की श्रद्धा की डोर से ही।

शिष्य जगत को सत्य मानता है, देह को ʹमैंʹ मानता है और भगवान को कहीं और मानता है जबकि सदगुरु जगत को मिथ्या जानते हैं, देह को नश्वर मानते हैं और भगवान को अपने से तनिक भी दूर नहीं मानते। दोनों की समझ बिल्कुल भिन्न है। गुरु का अनुभव और शिष्य की मान्यता दोनों में पूर्व-पश्चिम का संबंध है। फिर भी गुरु-शिष्य परंपरा चली आ रही है क्योंकि शिष्य की थोड़ी पुण्याई से और गुरुमंत्र के प्रभाव से श्रद्धा का धागा टूटते-टूटते फिर सँध जाता है और सदगुरु उसे माफ कर अपना लेते हैं जिससे शिष्य पतन की खाई में गिरने से बच जाता है।

रामकृष्ण परमहंस जैसे सदगुरु में नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) जैसे शिष्य की भी श्रद्धा एक बार, दो बार, चार बार क्या सात-सात बार अश्रद्धा में बदल गयी थी लेकिन कुछ शिष्य के पुरुषार्थ से औऱ कुछ सदगुरु की कृपा से गुरु-शिष्य का नाता बना रहा और आखिर में काम बन गया।

श्रीवशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! जो गुरु में सामर्थ्य चाहिए वह मुझमें है। मुझे अपनी आत्मा हस्तामलकवत् भासती है। जैसे हाथ में आँवला होने पर किसी से पूछना नहीं पड़ता कि हाथ में आँवला है कि नहीं, ऐसे ही मुझे परमात्म तत्त्व का अनुभव हो गया है। ऐसा मेरा कोई शिष्य नहीं है जिसको मैंने आनंदित न किया हो। मैं समर्थ गुरु हूँ और तुम भी सत्पात्र शिष्य हो। शिष्य में जो सदगुण होने चाहिए-संयम, सदाचार, तत्परता औऱ गुरुभक्ति वह तुममें है और गुरु में जो सामर्थ्य होने चाहिए-ब्रह्मानिष्ठा, करूणा और अहैतुकी कृपा बरसाने का भाव वह मुझमें है। हे राम जी ! काम बन जायेगा।”

सदगुरु का पद बहुत ही जिम्मेदारी का पद है। स्वामी विवेकानंद कहते थे किः “संसार के दलदल में पड़े रहने वालों की अपेक्षा ईमानदारी से भगवान के रास्ते पर चलने वाले की स्थिति ऊँची है। उससे भी ऊँची है भगवदस्वरूप की जिज्ञासा… तत्त्वरूप से भगवान में और हमारे में क्या भेद है इसकी जिज्ञासा। उससे भी दुर्लभ है भगवद्-तत्त्व का ज्ञान होना, भगवद्-साक्षात्कार होना। इससे भी अत्यन्त ऊँची एवं दुर्लभ स्थिति है एकान्त में जीवन्मुक्त होकर रहना। इससे भी विलक्षण व आश्चर्यकारक बात तो यह है कि ब्राह्मी स्थिति की ऊँचाइयों की तरफ अग्रसर होने के लिए प्रोत्साहित करना, ले जाना। ईश्वर-प्राप्ति, जीवन्मुक्ति प्राप्त करने से भी यह विलक्षण विशालता करुणा दुर्लभ है… अत्यन्त कठिन आश्चर्यमयी है। ऐसे पुरुष धरती पर कभी-कभार, कहीं-कहीं होते हैं।”

धन्य हैं ऐसे सदगुरुओं को, जो अपनी आत्मानंद की मस्ती छोड़कर संसार में भटकते हुए जीवों का उद्धार करने में लगे हैं !

सृष्टि बनाने का और प्रलय करने का सामर्थ्य  आ जाये फिर भी सदगुरु की कृपा के बिना देह की परिच्छिन्नता नहीं मिटती। अंतःकरण में परिच्छिन्न चैतन्य औऱ व्यापक चैतन्य की अभिन्नता का अनुभव जब तक नहीं होता तब तक हमारा काम अधूरा ही रहता है।

गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई।

जों विरंचि संकर सम होई।।

(श्रीरामचरित. उत्तर. 92.3)

ज्यों-ज्यों शिष्य भीतर से समर्पित होता जाता है, त्यों-त्यों गुरुकृपा, ईश्वरकृपा उसके हृदय में विशेष रूप के उतरती जाती है। शिष्य जितने-जितने अहोभाव से गुरु को याद करता है, उतना-उतना उसके हृदय का कब्जा गुरु लेते जाते हैं और शिष्य शहंशाह होता जाता है। बीज जितना मिटता है वृक्ष उतना ही पनपता है। ऐसे ही जीवन में जीवत्व जितना मिटता है उतना ही अंदर का शिवत्व प्रगट होने लगता है।

बारिश के दिन में कोई भीगता हुआ हमारे दरवाजे पर आकर कहे किः ʹभाई ! दरवाजा खोलिये।ʹ ….तो हम उसे अपने घर में आश्रय देते हैं। वह आदमी पहले खड़ा रहता है…. फिर धीरे से बैठ जाता है.. कुछ देर के बाद पैर पसारता है… फिर तकिया लेकर आराम करने लगता है। फिर जब उससे कहा जाये किः ʹअब जाइये।ʹ तब वह कहे किः ʹमैं क्यों जाऊँ ? यह घर तो मेरा है।ʹ ऐसे ही गुरुदीक्षा के द्वारा गुरुकृपा किसी कोने में बैठ जाती है। फिर धीरे-धीरे अपने पैर पसारती है और हमारे अहं को कान पकड़कर बाहर निकाल देती है।

घर के मालिक के लिए अपने एक किरायेदार को घर से निकालना आसान नहीं है तो जन्म-जन्मांतरों के संस्कार से बने शरीररूपी घर से अहं को निकालना यह कोई मजाक की बात है क्या ? ….किन्तु सदगुरु अपने शिष्य के अहं को निकालने के लिए बड़ा परिश्रम करते हैं क्योंकि वे उसे परम तत्त्व का दीदार कराना चाहते हैं और परम तत्त्व का साक्षात्कार अहं के मिटे बिना नहीं हो सकता।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।

प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाहीं।।

कैसी करूणा है उन सदगुरुओं की ! आज गुरूपूर्णिमा के पावन पर्व पर हम उन सभी सदगुरुओं को प्रणाम करते हैं…. नमन करते हैं !

हम व्यास भगवान को प्रणाम करते हैं ! तमाम शरीरों में साकार रूपों में जो आये हैं, आ गये हैं और आयेंगे उन सभी ब्रह्मज्ञानियों को इस व्यासपूर्णिमा के पर्व पर हम फिर-फिर से नमन करते हैं !

भगवान चाहे पत्ते के रूप में हो चाहे व्यासजी के रूप में, चाहे वल्लभाचार्य के रूप में हों या रामानुजाचार्य के रूप में, चाहे आद्य शंकराचार्य के रूप में हों या पतंजलि महाराज के रूप में, और भी अनेक महापुरुषों के रूप में हों, जिनके हृदय में भगवान प्रकट हुए हैं ऐसे सभी ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों को हमारा बार-बार प्रणाम है ! हमारे साधकों के अंतःकरण पर उन सभी की कृपा जल्दी-से-जल्दी बरसे और सारे दोष निकालकर निर्दोष नारायण की लहरें उछलने लगें, ऐसी आसाराम की भावना है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2000, पृष्ठ संख्या 3-5 अंक 91

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