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Sant Charitra

सभी शत्रुओं को परास्त करने वाला एक बाण


(श्री परशुराम जयंतीः 18 अप्रैल 2018)

महाभारत में आता है कि परशुराम जी द्वारा 21 बार क्षत्रिय-संहार होने पर उन्हें आकाशवाणी सुनाई दीः ‘वत्स ! इस हत्या के कार्य से निवृत्त हो जाओ। इसमें तुम्हें क्या लाभ दिखाई देता है ?’

उनके पितरों ने भी समझायाः

बेटा ! यह छोड़ दो। हम एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं, उसे सुनकर तुम तदनुकूल बर्ताव करो।

पूर्वकाल में अलर्क नाम से प्रसिद्ध एक राजर्षि थे। उन्होंने अपने धनुष की सहायता से समुद्रपर्यन्त पृथ्वी को जीत लिया था। इसके बाद उनका मन सूक्ष्म तत्त्व की खोज में लगा। वे एक  वृक्ष के नीचे जा बैठे और उस तत्त्व की खोज के लिए चिंतन करने लगेः ‘मैं इन्द्रियरूपी शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ अतः बाहर के शत्रुओं पर हमला न करके इन भीतरी शत्रुओं को ही अपने बाणों का निशाना बनाऊँगा। यह मन चंचलता के कारण तरह-तरह के कर्म कराता रहता है, इसको जीत लेने पर ही मुझे स्थायी विजय मिल सकती है। अब मैं मन पर ही तीखे बाणों का प्रहार करूँगा।’

मन बोलाः ‘अलर्क ! तुम्हारे ये बाण मुझे नहीं बींध सकते। यदि इन्हें चलाओगे तो ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को चीर डालेंगे अतः और किसी बाण का विचार करो जिससे तुम मुझे मार सकोगे।’

फिर अलर्क नासिका को लक्ष्य करके बोलेः ‘मेरी या नासिका अनेक प्रकार की सुगंधियों का अनुभव करके भी फिर उन्हीं की इच्छा करती है इसलिए इसी को तीखे बाणों से मार डालूँगा।’

नासिकाः ‘अलर्क ! ये बाण मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। तुम्हीं मरोगे, अतः मुझे मारने के लिए और तरह के बाणों की व्यवस्था करो।’ इसी प्रकार अलर्क ने जीभ को स्वादिष्ट रसों के उपभोग में उलझाने, त्वचा को नाना प्रकार के स्पर्शों के सुख में फँसाने, नेत्रों को सौंदर्य देखने के सुख में लगाने तथा बुद्धि को अनेकानेक प्रकार के निश्चय करने के कारण मारने का विचार किया पर इन सभी को बाह्य बाणों से मारने में उन्होंने अशक्यता का अनुभव किया। फिर उन्होंने घोर तपस्या की पर मन-बुद्धिसहित इन्द्रियों को मारने योग्य किसी उत्तम बाण का पता न लगा।

तब वे एकाग्रचित्त हो के विचार करने लगे।

बहुत दिनों तक निरंतर सोचने-विचारने के बाद उन्हें योग (आत्मा-परमात्मा का योग) से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी साधन प्रतीत नहीं हुआ। अब वे मन को एकाग्र करके स्थिर आसन से बैठ गये और ध्यानयोग द्वारा परमात्म-विश्रांति पाने लगे। इस एक ही बाण से उन्होंने समस्त इन्द्रियों को परास्त कर दिया। वे ध्यानयोग के द्वारा आत्मा में स्थिति पाकर परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हो गये। इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इस गाथा का गान कियाः “अहो ! बड़े कष्ट की बात है कि अब तक मैं बाहरी कामों में लगा रहा और भोगों की तृष्णा से बँध के राज्य की ही उपासना करता रहा। आत्मविश्रांतिदायी ध्यानयोग से बढ़कर दूसरा कोई उत्तम सुख का साधन नहीं है – यह बात तो मुझे बहुत बाद में मालूम हुई।”

पितामहों ने कहाः बेटा परशुराम ! इन बातों को अच्छी तरह समझकर तुम क्षत्रियों का नाश न करो। आत्मविश्रांति पाने में लग जाओ, उसी से तुम्हारा कल्याण होगा।

परशुराम ने उसी मार्ग को अपनाया और उन्हें परम दुर्लभ सिद्धि (परमात्म-पद) प्राप्त हुई।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 10 अंक 303

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बालक श्रीनिवास से बने संत जगन्नाथदास


1649 ईस्वी में उत्तरी कर्नाटक के एक गाँव में एक बालक का जन्म हुआ, नाम रखा गया श्रीनिवास। बड़े होकर इन्होंने संस्कृत भाषा व शास्त्रों में विद्वता प्राप्त की परंतु विद्वता की प्रसिद्धि ने इन्हें अहंकारी बना दिया था। ये उच्च कोटि के संत विजयदास जी की निंदा और उपहास करने लगे।

सुखमनि साहिब में आया है

संत का निंदकु महा अतताई।

संत का निंदकु खिनु टिकनु न पाई।

संत का निंदकु महा हतिआरा।

संत का निंदकु परमेसुरि मारा।

‘संत का निंदक बड़ा अत्याचारी होता है। संत का निंदक एक क्षण भी आत्मविश्रांति नहीं पाता। संत का निंदक महा-हत्यारा होता है। संत के निंदक को ईश्वर की मार पड़ती है।’

श्रीनिवास को तपेदिक (टी.बी.) रोग हो गया और वे अत्यंत दुर्बल व अशांत हो गये। रोग को मिटाने के सभी उपाय असफल हो गये। अंत में उन्होंने 48 दिनों तक हनुमान जी की विशेष पूजा-प्रार्थना की। हनुमान जी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहाः “संत विजयदास जी की निंदा एवं अपमान करने के कारण ही यह भयानक रोग हुआ है। उनके पास विनयपूर्वक जाओ और क्षमायाचना करके आशीर्वाद प्राप्त करो तो रोग ठीक हो जायेगा।”

जो लोग संत की निंदा करते हैं उनके जीवन में असाध्य रोग, अशांति, पीड़ा, संताप आदि स्वतः आ जाते हैं। इसका प्रायश्चित्त है जिन संत की निंदा की है उनसे क्षमा माँगना।

श्रीनिवास उठे और पश्चाताप करने लगे। वे संत विजयदास जी की शरण गये और क्षमायाचना करते हुए फूट-फूट कर रो पड़े।

श्री रामचरितमानस (उ.कां. 124.4) में आता हैः

संत हृदय नवनीत समाना।

कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।

निज परिताप द्रवइ नवनीता।

पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता।।

‘संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है परंतु उन्होंने असली बात कहना नहीं जाना क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं।’

दयालु संत ने श्रीनिवास को क्षमा करके आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए अपने शिष्य गोपालदास जी के पास भेज दिया। उन्होंने श्रीनिवास से सब बाते जानकर उन्हें मंत्रदीक्षा व प्रसाद दिया।

श्रद्धापूर्वक गुरुमंत्र का जप करने और गुरुदेव के शुभ संकल्प के प्रभाव से कुछ ही दिनों में श्रीनिवास स्वस्थ हो गये। फिर सदगुरु के मार्गदर्शन-अनुसार श्रीनिवास पंढरपुर आये और गुरु-उपदिष्ट साधन आदि करने लगे। ये ही श्रीनिवास आगे चलकर गुरुकृपा से संतत्व को उपलब्ध हो महान संत जगन्नाथदास जी के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। उनके जीवन में भगवत्प्रसाद छलका, कई अदभुत अनुभव हुए, आध्यात्मिक शक्ति का विकास हुआ। लाखों लोग उनके सम्पर्क से धन्य हो गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 12 अंक 300

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चमत्कार का विज्ञान-पूज्य बापू जी


जिसके मन-बुद्धि जितने अंश में उस परब्रह्म-परमात्मा के करीब पहुँचते हैं, उसके द्वारा उतनी ही कुछ कल्पनातीत घटनायें घट जाया करती हैं, जिन्हें लोग चमत्कार कहते हैं। चमत्कार भी इसलिए कहते हैं क्योंकि वे सामान्य मानव की समझ में नहीं आतीं, अन्यथा वह पूर्ण तत्त्व सबके पास उतने-का-उतना, पूरे-का-पूरा है।

संतों की महत्ता व उनके दर्शन और सत्संग से क्या लाभ होते हैं इसको खोजने वाले तैलंग स्वामी गंगा-किनारे घाट पर बैठे थे। अचानक बरसात होने लगी। सारे लोग तितर-बितर हो गये पर बाबा जी भीगते रहे। वे तो परमहंस अवस्था में रहते थे, लँगोटी भी धारण नहीं करते थे। ऐसे फक्कड़ थे कि ‘दिशाएँ मेरे वस्त्र हैं, सारी सृष्टि मेरा वस्त्र है’ ऐसे निर्विकार भाव से बैठे थे। गर्मी सर्दी को उन्होंने अच्छी तरह से पचा लिया था।

किसी ब्राह्मण को सद्भाव जगा कि ‘संत पानी में भीग रहे हैं !’ तो बाबा को हाथ जोड़कर बोलाः “बाबा ! बारिश में यहाँ भीगते हो, चलो मेरे घर पर।”

“मुझे इन चीजों से कोई फर्क नहीं पड़ता।” बाबा ने ऐसा कहा तो ब्राह्मण देखता रहा।

बाबा ने कहाः “यहाँ मैं विशेष कार्य के बैठा हूँ। सामने जो नाव  आ रही है वह अभी डूब जायेगी, बेचारे यात्रियों को बचाना है। तुम आग्रह नहीं करो, मैं तुम्हारे साथ नहीं चलूँगा।”

देखा तो नाव आ रही थी। बीच भँवर में नाव हिली-डुली और देखते-देखते सचमुच डूब गयी। नाव डूबी तो ब्राह्मण हक्का-बक्का रह गया। तैलंग स्वामी देखते-देखते अंतर्धान हो गये। फिर थोड़ी देर में देखा तो नाव बाहर आ रही है। बाबा उन यात्रियों के बीच बैठे दिखे। नाव किनारे लगी। ब्राह्मण ने तैलंग स्वामी को प्रणाम किया। उसने आश्चर्य व्यक्त किया तो तैलंग स्वामी ने कहाः “आश्चर्य मत करो। जीव इन्द्रियों और मन के वश होकर संसारी हो के अपनी महिमा खो देता है, फिर भी जीव ईश्वर का अविभाज्य स्वरूप है। ईश्वर का संकल्प होता है तो सृष्टि बनती है तो मेरे संकल्प से यह नाव बाहर आ जाय  और मैं नाव में बैठा दिखूँ तो क्या बड़ी बात है ! सब हो सकता है, आश्चर्य न मानो।”

लेकिन महापुरुषों की महानता चमत्कारों में निहित नहीं है, उनकी महानता तो उनकी ब्रह्मनिष्ठा में निहित है। वास्तविक ज्ञान, इन्द्रियगत ज्ञान, बुद्धिगत ज्ञान और मनोगत ज्ञान – इन सबको जो जानता है वह आत्मदेव है। वह ईश्वरीय ज्ञान है, ईश्वरीय सत्ता है जो सबके अंदर छिपी है। बस, उसको जागृत करने, समझने की देर हैः सद्भाव व आदर सहित साधना से समझने की आवश्यकता है। आप चाहें तो आप भी जागृत कर सकते हैं, समझ सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 15 अंक 300

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