Tag Archives: Shastra Prasad

Shastra Prasad

भगवद्-उपासना के आठ स्थान


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

भगवान श्रीकृष्ण ने भागवत में कहा कि मेरी उपासना के आठ स्थान हैं। उनमें से किसी में भी लग गय तो भगवद् रस, भगवत्प्रीति, भगवत् तृप्ति, भगवन्माधुर्य में प्रवेश मिल जाता है।

अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे।

द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत् स्वगुरुं माममायया।।

‘भक्तिपूर्वक निष्कपट भाव से अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्मा की पूजा की सामग्रियों के द्वारा मूर्ति में, वेदी में, अग्नि में, सूर्य में, जल में, हृदय में अथवा ब्राह्मण में – चाहे किसी में भी आराधना करे।’  (श्रीमद् भागवत्- 11.27.9)

मूर्तिः मुझ चैतन्य को पाने-जानने के लिए पूजा की सामग्रियों द्वारा देवी देवता, भगवान, ब्रह्मज्ञानी गुरु आदि की जो मूर्ति है उसमें मेरी पूजा की जा सकती है। मेरी मूर्ति की सेवा पूजा करना और उसको एकटक देखते हुए एकाग्र होना, यह मेरी उपासना है।

वेदीः वेदी में आहुति देकर (यज्ञ के द्वारा) वातावरण में शुभ संकल्प फैलाना, ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इन्द्राय इदं न मम। ‘यह इन्द्र के लिए है, मेरा नहीं।’ ॐ वरूणाय स्वाहा, इदं वरूणाय इदं न मम। ‘यह वरुण के लिए है, मेरा नहीं।’ यह कुबेर के लिए है, मेरा नहीं…’ इस प्रकार ममता हटायें। तो ममता हटाने की रीति जो यज्ञों में बतायी गयी, वह भी मेरी उपासना है।

‘मेरा नहीं है’…. एक तो ‘मैं’ और दूसरा ‘मेरा’ ये दोनों माया है। ‘वस्तु मेरी नहीं है, फिर शरीर को जो ‘मैं’ मानता हूँ वह ‘मैं’ मैं नहीं हूँ। शरीर के बाद भी जो रहता है, वह चैतन्य मेरा परमात्मा है।’ – इस ढंग की समझ से विधि के द्वारा मेरी पूजा होती है।

अग्निः भगवान बोलते हैं कि अग्नि देवता के ध्यान के द्वारा तथा घृतमिश्रित हवन सामग्रियों से आहुति देकर की हुई पूजा भी मेरी पूजा है।

सूर्यः अर्घ्यदान, उपस्थान (उपासना पूजा के निमित्त निकट जाना, सामने आना) तथा आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करना, इससे बुद्धि भी विकसित होती है और भगवत्साधना भी मानी जाती है।

जलः भगवान कहते हैं कि जलतत्त्व भी मेरा ही स्वरूप है। जल में तर्पण आदि से मेरी उपासना करनी चाहिए। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धा से जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ। वह भक्त जल में एकदृष्टि (परमात्मदृष्टि) करता है अथवा गंगे ये यमुने चैव….. कह के पुण्यनदियों का आवाहन करके उस जल से स्नान करता है, केशवाय नमः, नारायणाय नमः…. कहकर आचमन लेता है, पंचामृत आदि बनाता है तो जल में जो यह भगवद्भाव है, आदरभाव है उससे शांति, पुण्याई होती है। यह भी मेरी पूजा का एक तरीका है।

हृदयः हृदय में मेरी पूजा करें। श्वासोच्छवास के साथ मेरा नाम जप करें।

बोलेः भगवान हृदय में हैं तो हृदय बड़ा और भगवान छोटे !

अरे ! भगवान हृदय में उतने लगते हैं लेकिन भगवान की सत्ता अनंत ब्रह्माण्डों में व्याप्त है। बीज छोटा लगता है पर उसमें संस्कार कैसे हैं कि बड़ा वटवृक्ष भी छुपा है उसमें ! एक बीज में कितने वृक्ष छुपे हैं, सारे विज्ञानी मिलकर उसका गणित नहीं लगा सकते, ब्रह्माजी भी नहीं लगा सकते। ऐसे ही एक मनुष्य से कितने मनुष्यों की परम्परा चलेगी, ब्रह्माजी नहीं बता सकते। हरि अनंत हैं तो हरि की हर चीज भी तो अनंत की खबर दे रही है। एक बीज का अंत हो जायेगा क्या ? एक गुठली बोयी आम की उससे आम का वृक्ष बना और कल्पना करो कि हजार फल लगे उसमें। अब हजार फल खा लो और गुठलियाँ बो दो। फिर हजार पेड़ हुए। उन हजार पेड़ों की गुठलियाँ बो दो, अब उनकी संख्या कितने तक पहुँच सकती है ? एक आम का या एक वटवृक्ष का बीज कितने बीज दे सकता है, इसका कोई अंत है क्या ? तो जैसे यह बीज है वैसे ही अनंत की हर चीज अनंत की खबर है। तो आप अपने को जन्मने मरनेवाला मत मानिये। जन्मने मरने वाले शरीर को जो सत्ता दे रहा है, आप उस चैतन्य को ‘मैं’ रूप में जानिये। इसलिए यह उपासना बताते हैं भगवान।

तो भगवान कहते हैं कि हृदय में मेरा ध्यान करे – चतुर्भुजी रूप का, द्विभुजी रूप का अथवा श्वास अंदर जाय तो उसको देखे, बाहर आये तो गिनती करे, इस प्रकार अंतरंग ध्यान करे। सुख आया, दुःख आया, काम आया, क्रोध आया… इनको देखे, इनके साथ जुड़े नहीं तो यह भी एक प्रकार की मेरी अंतरंग उपासना है। एक-से-एक प्रभावशाली उपासनाएँ हैं भगवान कीक।

ब्राह्मणः ब्राह्मणों में मेरी भावना करे, उनमें मेरे स्वरूप को देखे। जो सदाचारी, संयमी ब्राह्मण हैं, वे भगवत्स्वरूप हैं। जो ब्रह्म को जानने का यत्न करते हैं और जिनका खानपान, व्यवहार सात्त्विक है, ऐसे ब्राह्मण देवता में भी मेरा भाव करे और उनके सदगुण ले।

सदगुरुः आठवाँ पूजा स्थान बताते हुए भगवान बोलते हैं कि इन सब पूजाओं की पराकाष्ठा यह है कि जिन्होंने मुझ सच्चिदानंद को पाया है, जिनको मेरा साक्षात्कार हुआ है, अवतार लेकर जिनको मैं पूजता हूँ, ऐसे आत्मवेत्ता सद्गुरु तो मेरा स्वरूप ही हैं। सद्गुरु मेरे भी आदरणीय-पूजनीय होते हैं। मैं अवतार लेकर उनका चेला बनता हूँ। ऐसे सद्गुरु की आज्ञा में जिसने तन को, मन को, जीवन को लगा दिया, वह तो मेरे साथ एकाकारता कर लेता है।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान…

सदगुरु के वचन में शबरी लग गयी, पूरणपोड़ा लग गया और वे भगवान के साथ एकाकार हो गये। तारक सद्गुरु मिल गये तो आप सारी उपासनाओं की ऊँचाई पर आ जाओगे। संत कबीर जी कहते हैं-

सद्गुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

‘मैं मराठा हूँ…. मैं माई हूँ…. मैं भाई हूँ… मैं दुःखी हूँ…. मैं सुखी हूँ…..’ यह भ्रम हो गया है। सुख-दुःख होते हैं मन को, मैं उनको जानने वाला हूँ। ऐसा दृश्य दिखे, ऐसा दिखे, ऐसा दिखे….’ वह तो मन को दिखेगा, तेरे को क्या मिलेगा ? तो कभी-कभी मान्यताएँ और सामाजिक वातावरण ऐसा हमको उलझा देता है कि लगता है भगवान को पाना बड़ा कठिन है।

लोग सोचते हैं कि ‘बापू जी ने बड़ी तपस्या की। महात्मा बुद्ध ने बड़ी तपस्या की।’ नहीं पता था इसलिए बड़ी गधा-मजदूरी की, इधर-उधर भटके थे, पता चला तो यूँ है। मेरे बड़े बापू (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) को जो मेहनत करनी पड़ी, उसका सौवाँ हिस्सा मुझे मेहनत करनी पड़ी। लेकिन फिर भी जो मुझे अनजाने में पापड़ बेलने पड़े, उसका हजारवाँ हिस्सा भी तुम्हें मेहनत नहीं करनी पड़ती और मौज मार रहे हो ! (सामने बैठे सत्संगियों से) तुम्हारे लिए क्या कठिन है ! अब यह सुन रहे हो इसमें क्या कठिन है ? सारी तपस्याओं से जो न मिले वह ऐसे ही मिल रहा है हँसते खेलते, सुनते।

हँसिबो खेलिबो धरिबो ध्यान, अहर्निश कथिबो ब्रह्मज्ञान।

खावे पीवे न करे मन भंगा, कहे नाथ मैं तिसके संगा।।

क्या कठिन है ? नहीं तो रावण सोने की लंका बनाने में सफल हो गया, हिरण्यकशिपु सोने का हिरण्यपुर बनाने में सफल हो गया, ऐसा उनका तप था लेकिन शरीर, मन और बुद्धि तक ही तो पहुँचे ! यह तपोमय बुद्धि, एकाग्रता तो उन्हें मिली किंतु स्वतःसिद्ध जो सुख है वह नहीं मिला। साठ हजार वर्ष तप करके जो पाया उसका आखिर नाश हो गया। अगर इन दोनों सज्जनों को साक्षात्कारी गुरु मिले होते और उनके नजरिये से चले होते तो साल-दो-साल में ऐसी चीज पाते कि जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। सद्गुरु मिले तो चालीस दिनों में मैंने जो पाया है, उसका कभी नाश नहीं हो सकता। तो भगवान सद्गुरु की महिमा बताते हुए कहते हैं कि ऐसे सद्गुरु की आराधना, पूजा मेरी एकदम सीधी और सहजता में मेरी प्राप्ति कराने वाली पूजा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 17-19 अंक 222

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भगवन्नाम-माहात्म्य


“राम-नाम के प्रताप से पत्थर तैरने लगे, राम-नाम के बल से वानर-सेना ने रावण के छक्के छुड़ा दिये, राम नाम के सहारे हनुमान ने पर्वत उठा लिया और राक्षसों के घर अनेक वर्ष रहने पर भी सीता जी अपने सतीत्व को बचा सकीं। भरत ने चौदह साल तक प्राण धारण करके रखे क्योंकि उनके कण्ठ से राम नाम के सिवा दूसरा कोई शब्द न निकलता था। इसलिए संत तुलसीदास जी ने कहा कि ‘कलिकाल का मल धो डालने के लिए राम-नाम जपो।”

इस तरह प्राकृत और संस्कृत दोनों प्रकार के मनुष्य राम-नाम लेकर पवित्र होते हैं परंतु पावन होने के लिए राम-नाम हृदय से लेना चाहिए। मैं अपना अनुभव सुनाता हूँ। मैं संसार में यदि व्यभिचारी होने से बचा हूँ तो राम-नाम की बदौलत। मैंने दावे तो बड़े-बड़े किये हैं परंतु यदि मेरे पास राम-नाम न होता तो तीन स्त्रियों को मैं बहन कहने के लायक न रहा होता। जब-जब मुझ पर विकट प्रसंग आये हैं, मैंने राम-नाम लिया है और मैं बच गया हूँ। अनेक संकटों से राम-नाम ने मेरी रक्षा की है। अपने इक्कीस दिन के उपवास में राम-नाम ने ही मुझे शांति प्रदान की है और मुझे जिलाया है।”

महात्मा गाँधी

राम नाम की अपनी महिमा है, शिवनाम की भी अपनी महिमा है। सभी वैदिक मंत्र अपने आप में पूर्ण हैं। वेदपाठ करने से पुण्यलाभ होता है लेकिन पाठ करने से पहले और अंत में भूल चूक निवारण तथा साफल्य के लिए ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है।

भयनाशन दुर्मति हरण, कलि में हरि को नाम।

निशदिन नानक जो जपे, सफल होवहिं सब काम।।

जिनको जो गुरूमंत्र मिला है वह उनके लिए सर्वश्रेष्ठ है। भीख माँगने वाले अनाथ, सूरदास बालक प्रीतम को गुरु भाईदास जदीसे दीक्षा मिली। ध्यान भजन में लग गया तो संत प्रीतमदास जी बन गये और 52 आश्रम उनकी पावन प्रेरणा से बने। कबीर जी को रामानंद स्वामी से राम नाम की दीक्षा मिली, ध्रुव को नारदजी से ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र की दीक्षा मिली। धनभागी हैं वे जिनको गुरुमंत्र की दीक्षा मिली और उसी में लगे रहे दृढ़ता से। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

भजन्ते मां दृढ़व्रताः।

जो दृढ़निश्चयी हैं वे इसी जन्म में पूर्णता तक पहुँचते हैं। नरसिंह मेहता ने कहाः

भोंय सुवाडुं भूखे मारूं, उपरथी मारूं मार।

एटलुं करतां हरि भजे तो करी नाखुं निहाल।।

अर्थात्

धऱा सुलाऊँ, भूखा मारूँ, ऊपर से मारूँ मार।

इतना करते हरि भजे, तो कर डालूँ निहाल।।

कसौटी की घड़ियाँ आने पर भी जो भगवान का रास्ता नहीं छोड़ते, वे निहाल हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 9, अंक 206

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मंत्र-विद्या के मूल तत्त्व


शास्त्रों में सर्वत्र यही निर्देश दिया गया है कि श्रद्धा, धैर्य और गुरुभक्ति ये तीन तत्त्व साधना – यात्रा के अनिवार्य सम्बल हैं और साधना प्रणाली के सहायक तत्त्व हैं – भक्ति, शुद्धि, आसन, पंचांग सेवन, आचार, धारण, दिव्य देश-सेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, योग, जप, ध्यान तथा समाधि। इन तत्त्वों की महत्ता इस प्रकार है।

श्रद्धा– साधना में सर्वप्रथम आवश्यकता श्रद्धा की है। जिस साधक के मन में आराधना की मंगलमयता अथवा कल्याणकारिता में श्रद्धा नहीं है, वह कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? श्रद्धा को विचलित करने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह है शंका। ‘गीता’ में कहा गया है कि अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति – अज्ञानी और श्रद्धारहित शंकाशील मनुष्य विनाश को प्राप्त हो जाता है।’

देव, ब्राह्मण, औषधि, मंत्र आदि भावना के अनुसार फल देते हैं, अतः यदि मंत्र को हम सामान्य मानते हैं तो उसका फल भी सामान्य ही मिलेगा और उसे महान मानेंगे तो वह महान फल देगा। कोई मंत्र छोटा है तो यह क्या फल देगा ? ऐसा कुतर्क नहीं करना चाहिए। अग्नि की छोटी सी चिंगारी क्या घास के ढेर को नहीं जला देती ? अथवा मच्छर छोटा होने पर भी यदि हाथी के कान में घुस जाय तो क्या उसे विकल नहीं बना देता ? अतः मंत्र कैसा भी हो, उसकी अपूर्व शक्ति पर श्रद्धा रखना नितांत आवश्यक है। इसलिए वेदों की आज्ञा है कि श्रद्धाया सत्यमाप्यते – श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है।

धैर्य– सभी कार्य शांति और संतोष से फलदायक होते हैं। आतुरता अथवा शीघ्रता से होने वाले कार्यों में विकार आना स्वाभाविक है। फल के पकने तक धैर्य न रखने वाला क्या कभी पके फल का स्वाद ले सकता है ? चंचल चित्त से होने वाली क्रियाओं से विधिलोप का भय बना रहता है और विधिभ्रंशे कुतः सिद्धि – विधि के भ्रष्ट हो जाने पर सिद्धि कहाँ ?’ अतः मन में पूर्ण संतोष और धैर्य रखकर ही साधना करनी चाहिए।

गुरुभक्ति- मंत्रों की कुंजी गुरु के पास निहित है। प्रायः सभी मंत्र गुरुकृपा से दीक्षित होने पर शीघ्र फल देते हैं। गुरु का पद समस्त देवों से ऊपर है। कहा जाता है कि-

गुरुः पिता गुरुर्माता, गुरुर्देवो गुरुर्गतिः।

शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता, गुरौ रुष्टे न कश्चन।।

‘गुरु पिता हैं, गुरु माता हैं, गुरु देव हैं और गुरु गति हैं। यदि शिव नाराज हो जायें तो गुरु रक्षा करने वाले हैं, किंतु गुरु के नाराज हो जाय तो रक्षा करने वाला कोई नहीं।’

गुरु द्वारा गोविंद के दर्शन सुलभ माने गये हैं। अतएव शास्त्रों में देवपूजा से पूर्व गुरुपूजा का विधान है। कहा भी हैः

गुरुभक्ति विहिनस्य तपो विद्या व्रतं कुलम्।

व्यर्थं सर्वं शवस्यैव नानालंकार-भूषणम्।।

‘जिस प्रकार किसी मुर्दे को अनेक अलंकार पहनाना व्यर्थ है, उसी प्रकार गुरुभक्ति से रहित मनुष्य के तप, विद्या, व्रत और कुल व्यर्थ हैं।’

भक्ति- ऊपर गुरुभक्ति के बारे में कहा गया है, वैसी ही दृढ़ भक्ति भगवच्चरणों में होनी चाहिए, तभी मंत्र और देवता में ऐक्य होगा और यही एकरूपता साधना को फलवती बनायेगी।

शुद्धि- शुद्धि से तात्पर्य स्थान शुद्धि, शरीर शुद्धि, मनः शुद्धि, द्रव्य शुद्धि और क्रिया शुद्धि – इन 5 प्रकार की शुद्धियों से है। आराधना के लिए जिस स्थान का उपयोग करना हो, वहाँ किसी प्रकार की अपवित्रता न रहे, इसलिए साधना से पहले ही उसे पानी से धोकर स्वच्छ कर लें। गोबर – गोमूत्र से पवित्र कर लें। गुलाब जल का छिड़काव किया जा सकता है और जपादि के समय उस स्थान को धूप-दीप से उस स्थान को पवित्र बनाये रखें। यह स्थान एकांत और शांत हो, यह भी आवश्यक है। यही ‘स्थान-शुद्धि’ है।

शरीर शुद्धि– शरीर शुद्धि के लिए पंचगव्य का प्राशन, शुद्ध जल से स्नान तथा शुद्ध वस्त्र धारण अपेक्षित है।

मनः शुद्धि– इस शुद्धि के लिए अपवित्र विचारों का परित्याग तथा पवित्र विचारों की स्थिरता का होना आवश्यक है। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग बहुत सहायक होते हैं। यथासम्भव ध्यान का सहारा लेने में भी मन स्थिर किया जाना चाहिए।

द्रव्य शुद्धि– आराधना में जिन वस्तुओं का उपयोग किया जाय, वे भी पूर्णतः शुद्ध हों। इसके लिए ताजे पुष्प, दूध, फल आदि लायें। पूजा के उपकरण शुद्ध हों और साधना के समय काम में ली जाने वाली सभी वस्तुएँ शुद्ध रखी जायें। इसी को द्रव्य शुद्धि कहते हैं।

क्रिया-शुद्धि- इस शुद्धि से तात्पर्य है – मंत्र साधना के अंगों के रूप में की जाने वाली क्रियाओं की शुद्धता। इसमें मंत्र के  पूर्वांग, जैसे – योग मुहूर्त, ऋण-धन विचार, मंत्र से संबंधित न्यास, ध्यानादि तथा जप प्रक्रिया का समावेश होता है।

आसन- जप के समय बैठने की स्थिति और जिस पर बैठकर साधना की जाय, इन दोनों का बात संबंध आसन से है। सामान्यतया कुछ विशेष साधनाओं को छोड़कर अन्य सभी के लिए स्वस्तिकासन अथवा पद्मासन उपयुक्त माने गये हैं और बैठने के लिए ऊन का आसन सर्वोपयोगी है। जिस आसन का प्रयोग और उपयोग निश्चित किया गया हो, उसे बार-बार नहीं बदलना चाहिए। स्वयं जिस आसन पर बैठकर जपादि करते हों उस पर दूसरे को न बैठने दें।

पंचांग-सेवन- उपर्युक्त पद्धति से बाह्य और अंतःशुद्धि कर लेने के बाद पंचांग-सेवन का निर्देश है। इसमें आराध्य देव की गीता, सहस्रनाम, स्तोत्र, कवच और हृदय का समावेश है।

गीता सहस्रनामानि स्तवः कवचमेव च।

हृदयं चेति पंचैतत् पंचांग प्रोच्यते बुधैः।।

कुछ अंशों के पंचांग तो मिलते हैं किंतु बहुतों के नहीं मिलते, इस संबंध में कोई शंका न रखते हुए इतना ही पर्याप्त होगा कि जो भी गुरुनिर्दिष्ट साहित्य उपलब्ध हो, उसी का पाठ करें।

आचार– आचार से तात्पर्य है – आचरण। प्रत्येक कर्म में उसके अनुकूल आचरण भी आवश्यक है। यह प्रसिद्ध है कि ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ अर्थात् देव बनकर देव की पूजा करें। इसके अनुसार जिस मंत्र का जप किया जाय, उससे संबंधित न्यास, ध्यान आदि पहले जान लें तथा संप्रदाय के अनुरूप प्रयोग करें। यदि इस विधि में मनमाना हेर-फेर किया जायेगा तो सफलता में विलंब, विघ्न अथवा विकार आयेगा। इसे हम आभ्यांतर आचार कह सकते हैं। इसी तरह बाह्य आचारों का पालन भी हर प्रकार से आवश्यक है।

धारण– मंत्र के वर्णों और पदों को शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों में धारण करना तथा विभिन्न न्यासों का विधान ‘धारण’ है।

दिव्य देश सेवन– उत्तम वातावरण का निर्माण करने के लिए उत्तम स्थान का होना अत्यावश्यक है। जिन स्थानों पर पूर्व काल में महापुरुषों ने वर्षों तक साधना करके सिद्धियाँ प्राप्त की हों, जहाँ सदा पवित्र वातावरण बना रहता हो तथा जहाँ देवताओं के प्रधान पीठ हों, ऐसे पुण्य क्षेत्रों में रहकर स्मरण करना, गंगा-स्नानादि से पवित्रता प्राप्त करना दिव्य देश सेवन में आता है

प्राण-क्रिया- शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में प्राण को ले जाकर मंत्राभ्यास करना तथा प्राणायाम द्वारा मंत्रजप को बढ़ाना ‘प्राणक्रिया’ है।

मुद्रा- देवताओं का सन्निधान प्राप्त करने के लिए हाथ की अंगुलियों के योग से विभिन्न आकृतियों के निर्माण को मुद्रा कहा जाता है। यह विषय गुरुगम्य है और प्रत्येक देव के आयुध, आवाहनादि क्रिया और अन्यान्य जप के पूर्वांग और उत्तरांग के रूप में प्रयुक्त होती है। देवताओं को प्रसन्न तथा असुरों का विनाश करने से इसका नाम मुद्रा पड़ा है।

तर्पण– जलांजलिपूर्वक मंत्रोच्चारण से तर्पण संपन्न होता है। संध्या के पश्चात देव, ऋषि और मनुष्य तर्पण किया जाता है तथा जब प्रत्येक मंत्र का पुरश्चरण किया जाता है तो उसमें जप का दशांश हवन और हवन का दशांश तर्पण शास्त्र विहित है। यह मंत्रदेव के प्रति श्रद्धा निवेदन की प्रक्रिया है।

हवन- जौ, तिल, चावल, घृत और शर्करा के मिश्रण से शाकल बनाकर उसके साथ घृत की अग्नि में आहुति देने की क्रिया को हवन अथवा होम कहते हैं। किसी विशिष्ट मंत्र अथवा देव विशेष की जप साधना में कुछ विशिष्ट हवनीय द्रव्य द्वारा भी यह कर्म किया जाता है।

बलि–  इसमें देवताओं के लिए नेवैद्य अर्पण किया जाता है। मंत्र विशेष अथवा देवता विशेष के अनुरोध से कुछ विशिष्ट वस्तुओं का समर्पण भी इसमें होता है, किंतु किसी प्रकार की हिंसा का इसमें कोई स्थान नहीं है।

याग– इससे अंतर्याग तथा बहिर्याग की प्रक्रिया का संकेत किया है। अंतर्याग में शरीर के विभिन्न अंगों में स्थित देवताओं को नमन करते हुए भावना की जाती है तथा बहिर्याग में न्यास और पूजादि का समावेश होता है।

जप– मंत्र का जप माला आदि के माध्यम से प्रसिद्ध है।

ध्यान- सामान्यतया इष्टदेव के स्वरूप का चिंतन ध्यान कहलाता है। मन की एकाग्रता के लिए यह आवश्यक है।

समाधि– यह ध्यान की सर्वोच्च कोटि है, जिसमें ध्याता के बेसुध होकर बाह्य ज्ञान से शून्य बन जाता है।

उपर्युक्त प्रक्रियाएँ विस्तृत तथा कुछ कठिन हैं। अतः आचार्यों ने इनमें से केवल 5 अंगों पर विशेष ध्यान देने का संकेत किया है. जिनमें आसन, मंत्र-पदों की धारणा, मंत्र पदों के अर्थ की भावना, सालम्ब ध्यान तथा निरालम्ब ध्यान आते हैं।

इस प्रकार मंत्र योग का आश्रय लेने से मुख्य ध्येय की सिद्धि और परमार्थ की प्राप्ति सुगम बन जाती है। साधक को चाहिए कि इनमें से जो क्रियाएँ सुलभ हैं, उनका यथाशक्ति प्रयोग करे तथा अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो।

(संकलित- ‘मंत्र-शक्ति’, लेखक- डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 119

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ