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Shri-Yogavashishtha

संत सान्निध्य की महिमा


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ में आता हैः

हे राम जी ! संत और भक्त में दोष देखना अपना विनाश करना है। साधु में एक भी गुण है तो उसको अंगीकार कीजिये। उनके अवगुण न सोचिये, न खोजिये।

अगर अवगुण देखना चाहोगे तो श्रीराम में भी दिख जायेंगे, श्री कृष्ण में भी दिख जायेंगे, बुद्ध, नानक और कबीर आदि में भी दिख जायेंगे। जैसे, बुद्ध एक नर्तकी के हाथ का बनाया हुआ भोजन करते थे… श्री कृष्ण गोपियों के साथ नाचते थे…. श्री रामजी ने सीता माता का त्याग कर दिया था…. लेकिन यह सब उनका बाह्य आचरण है। अगर इसे बाह्य दृष्टि से देखकर चलोगे तो आप गड्ढे में गिर जाओगे किन्तु यदि अन्तर्दृष्टि से उनके इन कार्यों को देखोगे तो आप तर जाओगे। बाह्य दृष्टि से ज्ञानी प्रारब्धवश व्यवहार में कुछ लेन-देन करते भले ही दिखें, परन्तु अन्तःकरण से वे कुछ नहीं करते वरन् सदा अपने-आप में तृप्त रहते हैं।

अगर ऐसे महापुरुषों को भी अवगुणी की नजर से देखोगे तो अवगुण खूब दिख जायेंगे और तुम्हारा चित्त भी अवगुणों का भण्डार हो जायेगा।

एक बार दुर्योधन के गुरुदेव द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहाः “जाओ, देखकर आओ कि नगर में कितने सज्जन लोग हैं ?”

दुर्योधन गया, दिन भर घूमा और शाम को लौटकर अपने गुरुदेव से उसने कहाः

“नगर में सारे लोग दुर्जन ही हैं।”

फिर गुरुदेव ने युधिष्ठिर को उसी नगर में भेजते हुए कहाः “जाओ, तुम देखकर आओ कि नगर में कितने दुर्जन लोग हैं ?”

युधिष्ठिर गये, दिन भर घूमकर शाम को आये एवं बोलेः

“नगर में कोई दुर्जन नहीं है। सब सज्जन ही सज्जन हैं।”

युधिष्ठिर तो दुर्योधन को भी दुर्योधन नहीं सुयोधन बोलते थे एवं दुःशासन को भी सुशासन कहकर बुलाते थे। उनके चित्त में शांति रहती थी, आनंद रहता था।

आप भी यदि एक दूसरे को दोषमय देखोगे तो आपकी शक्तियों का ह्रास होगा। उनके वे दोष आपमें भी उत्पन्न होने लगेंगे। इसके विपरीत यदि अपने बेटे-बेटी, पुत्र-परिवार, मित्र आदि में भी दोष देखने के बजाये गुण देखोगे तो उनके भी गुण बढ़ेंगे और आप में भी उन गुणों का विकास होने लगेगा।

अतः दुर्योधन की नाँईं किसी व्यक्ति में दुर्गुण मत देखो अपितु युधिष्ठिर की नाँईं सदगुण देखो। हम तो कहते हैं कि युधिष्ठिर से भी आगे श्रीकृष्ण की नाँईं सब में अपने को देखो और अपने में सबको देखो। भोले बाबा कहते हैं-

सब प्राणियों में आपको, सब प्राणियों को आप में।

जो प्राज्ञ मुनि हैं जानता, कैसे फँसे फिर पाप में ?

अक्षय सुधा के पान में, जिस संत का मन लीन हो।

क्यों कामवश सो हो विकल, कैसे भला फिर दीन हो ?

ऐसे महापुरुषों को ही ʹसाधुʹ कहा गया है। मनुष्य को चाहिए कि वह यत्नपूर्वक साधु की संगत करे। साधु की संगत में अगर असाधु रहे तो वह भी साधु बन जाये लेकिन साधु अगर असाधु के प्रभाव में रहे तो वह भी असाधु हो जाये। ऐसे ही शिष्य अगर गुरु के कहने में चलता है तो एक दिन गुरु के अनुभव को वह अपना बना लेता है किन्तु गुरु यदि शिष्य के कहने में चलने लग जायें तो वे गुरु गुरु ही न रह जायें। इसीलिए असाधुओं को छोड़कर साधु का संग करना चाहिए। उनके साथ मिलकर सत्संग करना चाहिए। जो नित्य अपने-आप में तृप्त रहते हैं, मस्त रहते हैं तथा वही मस्ती सबको लुटाते रहते हैं ऐसे साधुपुरुषों का संग तो स्वयं संत भी चाहते हैं।

जो परम संत हों, साधु हों अगर उनमें एक भी गुण देखने को मिल जाये तो उसे स्वीकार कर लेना तथा अज्ञानी के, असाधु के हजार गुण भी दिखें, फिर भी उसकी धन-दौलत, मिथ्या पद-प्रतिष्ठा की वासना में नहीं पड़ना। साधु की सहजता एवं सरलता दिख जाये तो उसे यत्नपूर्वक अंगीकार करना चाहिए।

यदि आपने किसी को अमुक समय, अमुक स्थान पर मिलने का विचन दिया हो और पास में किसी ज्ञानी, संतपुरुष का सत्संग चल रहा हो तो आप उस व्यक्ति से मिलने मत जाना क्योंकि उस व्यक्ति से तो फिर कभी भी मिल सकते हो किन्तु संत पुरुष के दर्शन तथा सत्संग-सान्निध्य का लाभ बार-बार नहीं मिलता। ऐसे संत पुरुष कभी-कभी ही कहीं पर मिलते हैं अतः सब काम छोड़कर भी उनके श्रीचरणों में पहुँच जाना।

संसारी व्यक्ति दे-देकर भी क्या देगा ? संसारी तो आपको वासना पोसने की चीजें तथा वासना जगाने की बातें ही देगा, जिससे अभिमान, अहंकार पनपेगा जबकि ज्ञानवानों के संग से एवं उनके सत्संग में जाने से विवेक जगता है, वैराग्य उत्पन्न होता है, हृदय पवित्र एवं अहंकार गलित हो जाता है। उनके दर्शन मात्र से अमिट पुण्य की प्राप्ति होती है तथा मन को शांति मिलती है।

ऐसे ज्ञानवानों के लिए विरोधी, निंदक तथा कुप्रचारक कुछ का कुछ बोलते-लिखते रहते हैं किन्तु समझदार श्रद्धालु भक्त उनके इस जाल में नहीं फँसते, वरन् वे और भी अधिक दृढ़ता से अध्यात्म के मार्ग पर डट जाते हैं क्योंकि वे जानते हैं-

संत न होते संसार में, तो जल मरता संसार….

….किन्तु अभागे कुप्रचारक संतों की निन्दा करके अपने कीमती मानव जीवन को नरकगामी तो बना ही लेते हैं, साथ ही साथ अपने 21 कुलों को भी ले डूबते हैं जबकि भक्त तो भक्ति के मार्ग पर दिनोंदिन उन्नति करते हुए अपना जीवन सफल कर लेते हैं।

एक तो आज कल की पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के युग में संत-भगवंत में श्रद्धा होना कठिन है और अगर थोड़ी बहुत श्रद्धा होती भी है तो कुप्रचारकों की बातें पढ़ सुनकर वह टूट जाती है। कुंठित मन-बुद्धिवाले लोग अनर्गल बातों के चलते ईश्वरतुल्य संत के दर्शन व सत्संग लाभ के लिए एक कदम भी नहीं चल पाते वरन् दूर ही भागते रहते हैं।

अगर भागना ही है तो जीवन को तबाह करने वाले जहरीले तथा जानलेवा व्यसनों से दूर भागो। विषय-विकारों में उलझाकर जीवन के ओज-तेज को नष्ट करने तथा शक्तिहीन-बुद्धिहीन बनाने वाली बुराइयों एवं चलचित्रों से दूर भागो। उन विषय विकारों का त्याग करो जो हमें अंधकार की खाई में ले जाते हैं। उस मोह माया को त्यागो जो हमें संत के द्वार तक पहुँचने से रोकती हैं। लेकिन आज के अच्छे-भले भारतवासी पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर अपनी सभ्यता व संस्कृति के आदर्शों एवं व्यवहारों को भूल गये हैं, संत-शरण थता उनके दर्शन व सत्संग के लाभ को भूल गये हैं और दुनिया के मिथ्या व्यवहार की ओर भागे जा रहे हैं।

श्रीकृष्ण जैसे श्रीकृष्ण और श्रीराम जैसे श्रीराम भी जब अवतार लेकर आये तो उन्होंने भी श्रद्धा व नम्रतापूर्वक सदगुरु एवं संत-महापुरुषों के श्रीचरणों में अपने मस्तक झुकाये, उनके आश्रम में रहकर सेवा-साधना की। परन्तु आज के मानव इन सब चीजों से दूर ही भागते फिर रहे हैं।

जो अति कामी हैं, विषयी-विलासी हैं, तुच्छ भोगों में आसक्त हैं वे दूसरे जन्म में को ई कीट-पतंग आदि नीची योनियों में, तो कोई शूकर – कूकर की योनि में पुण्य-पाप की तारतम्यता से कोई घोड़े-गधे आदि पशुओं की योनि में तो कोई वृक्ष आदि योनियों में जन्म लेकर बड़े कष्ट पाते हैं लेकिन जो संतों के श्रीचरणों में श्रद्धापूर्वक शीश झुकाते हैं, उनके बताये हुए मार्ग का अनुसरण कर सेवा-साधना करने लग जाते हैं, उनके वचनों को पचा लेते हैं वे देर-सबेर महान परमेश्वरीय भक्ति, महान् परमात्मज्ञान पाकर मुक्त हो जाते हैं एवं भक्त परमात्मधाम को पा लेते हैं।

कबीर जी ने कहा हैः

संत मिले यह सब मिटे, काल जाल जम चोट।

शीश नमावत ढही पड़े, सब पापन की पोट।।

अतः प्रयत्नपूर्वक संत महापुरुषों में एक भी दोष न देखते हुए, उनके गुणों को अंगीकार करते हुए मानव को अपने जीवन को सार्थक करने का यत्न अभी से शुरु कर देना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 9-11, अंक 98

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निर्वासनिक बनें….


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ में आता हैः

ʹहे राम जी ! बहुत शास्त्र और वेद मैं तुम्हें किसलिये सुनाऊँ और कहूँ ? वेदान्तशास्त्र का सिद्धान्त यही है कि किसी भी प्रकार से वासना से रहित हो, इसी का नाम मोक्ष है। वासनासहित का नाम बंधन है।

हे राम जी जो निर्वासनिक हुआ है, उसका दर्शन पाने की सभी इच्छा करते हैं और दर्शन करके प्रसन्न होते हैं। जैसे सूर्य के उदय होने से सूर्यमुखी खिल जाते हैं और उल्लास को प्राप्त होते हैं, वैसे ही उनका दर्शन करके सब आह्लादित होते हैं।ʹ

जो निर्वासनिक हो गये हैं एवं जिन्होंने अपना-आपा, अपना वास्तविक स्वरूप जान लिया है उनको देखकर सब आनंदित होते हैं, उल्लसित होते हैं।

जो समदर्शी पुरुष हैं, जिन्होंने भगवान के साथ अपनी एकता का अनुभव कर लिया है, जो ब्रह्मज्ञानी हो गये हैं, ऐसे महापुरुषों को देखकर संसार के लोग भी आध्यात्मिक होने लगते हैं।

नानक जी ने कहा हैः

ब्रहम गिआनी को खोजे महेशवरु। ब्रहम गिआनी आप परमेश्वरू।।

ब्रहम गिआनी का कथिया न जाइ आधा अख्खर। ब्रहम गिआनी सरब का ठाकरू।।

जो ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करता है उसको ईश्वर की प्रीति प्राप्त होती है और धीरे-धीरे ईश्वरत्व का ज्ञान हो जाता है। फिर उसको पता चलता है कि कई जन्मों तक संसार के लिए कर्म करता रहा – पति के लिए, पत्नी के लिए, पुत्र के लिए, अपने शरीरादि के लिए… किन्तु किया कराया सब मृत्यु की झपेट में चौपट होता रहा। ʹलखपति करोड़पति….ʹ होकर आनंद ले लिया, आखिर क्या ? जब तक अपने असली आनंद को नहीं जाना तब तक कितनी भी गाड़ियों में घूमे, कितना ही धन इकट्ठा कर लिया, आखिर क्या ?

जिसका कर्म शुभ होता है, दान-पुण्य, जप-ध्यान, सेवा-साधना में जिसकी रूचि होती है उसकी बुद्धि शुद्ध होने लगती है एवं बुद्धि शुद्ध होते-होते वह आत्मा-परमात्मा को जानने में सफल हो जाता है, जीवन्मुक्त हो जाता है। ऐसे पुरुष को देखकर संसारी लोग आह्लादित होते हैं, आनंदित होते हैं, उनसे सत्प्रेरणा पाते हैं एवं अपना जीवन धन्य बना लेते हैं।

यदि अपने आत्मतत्त्व को नहीं जाना तो बाकी का सब तो यहीं छोड़कर जाना है। कोई ज्यादा कमायेगा तो ज्यादा छोड़कर मरेगा, कोई कम कमायेगा तो कम छोड़कर मरेगा, लेकर तो कोई भी नहीं जायेगा। अतः मिले तो आत्म तत्त्व का ज्ञान मिले जो कभी बिछुड़ता नहीं है।

जेकर मिले त राम मिले, ब्यो सब मिल्यो त छा थ्यो ?

दुनिया में दिल जो मतलब, पूरो थियो त छा थ्यो ?

संसार की आसक्ति जितनी-जितनी मिटेगी और भगवान की प्रीति जितनी-जितनी बढ़ेगी, उतना-उतना मानव भीतर से महान होगा। जितनी-जितनी आसक्ति बढ़ेगी, उतना-उतना वह भीतर से साधारण होता जायेगा। फिर उसकी आवश्यकताएँ बढ़ जायेंगी और उसे डर भी ज्यादा लगेगा। जितनी संसार की वासना ज्यादा, उतना भीतर से डरपोक रहेगा और जितने ईश्वर की प्रीति ज्यादा, उतना भीतर से निर्भय़ रहेगा। जितना संसार से प्रेम करेगा, उतना भीतर से कमजोर होता जायेगा और जितना ईश्वर से प्रेम करेगा उतना भीतर से मजबूत होता जायेगा। अतः ऐसा प्रयत्न करें कि संसार की वासना कम हो जाये और भगवान की प्रीति बढ़ जाये।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! निर्वासनिक पुरुष उस सुख को प्राप्त होता है। जिस सुख में त्रिलोकी के सारे सुख तृणवत भासते हैं। हे राम जी ! जो पुरुष निर्वासनिक हुआ है, उसको सारी पृथ्वी गोपद के समान तुच्छ भासती है, मेरू पर्वत एक टूटे हुए वृक्ष के समान भासती है क्योंकि वह उत्तम पद को प्राप्त हुआ है। उसने जगत को तृणवत जानकर त्याग दिया है और वह सदा आत्मतत्त्व में स्थित है, उसको फिर किस की उपमा दीजिये ?”

जो आत्मतत्त्व में स्थित हैं उनको किसकी उपमा दें ? तस्य तुलना केन जायते…. अपने आत्मा-परमात्मा का चिंतन एवं ध्यान करके, गुरुकृपा से जो जाग गये हैं उनके सुख और उनकी अनुभूति की तुलना किससे करोगे ?

“हे राम जी ! व्यवहार तो उसका भी अज्ञानी की नाईं ही दिखता है परन्तु हृदय से वह अदभुत पद में स्थित रहता है और कभी-भी उससे नहीं गिरता है।”

ऐसे निर्वासनिक महापुरुषों की महिमा तो श्रीकृष्ण भी गाते हैं, श्रीरामजी भी गाते हैं, वशिष्ठजी भी गाते हैं। शास्त्र एवं उपनिषद भी ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की महिमा से भरे हुए हैं।

वह शास्त्र, शास्त्र ही नहीं है जिसमें ब्रह्मज्ञान की महिमा नहीं है। वह तो केवल संसारी किताब है। कोई भी शास्त्र हो, उसमें ब्रह्मज्ञान की एवं ब्रह्मज्ञान को पाये हुए महापुरुष की महिमा अवश्य होगी – चाहे रामायण हो चाहे गीता हो, चाहे पुराण हों चाहे वेद हों। सब ब्रह्मज्ञान की महिमा से युक्त हैं और ब्रह्मज्ञान का विलक्षण आनंद प्रगट होता है, वासनाक्षय, मनोनाश और परमात्मा को अपने आत्मरूप में जानने से।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2000, पृष्ठ संख्या 10, 11 अंक 95

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संतों से कुछ न माँगिये


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ʹश्रीयोगवाशिष्ठ महारामायणʹ में आता हैः

ʹयदि संतों से कुछ भी न माँगिये तो भी वे अमृतरूपी वचनों की वर्षा कर देते हैं। जैसे पुष्पों से बिना माँगे सुगंध प्राप्त होती है ऐसे ही संतजनों से बिना माँगे ही ज्ञान का अमृत प्राप्त हो जाता है।ʹ

यह जरूरी नहीं कि भगवान एवं संतों से माँगते ही रहें। न माँगें तब भी देना उनका स्वभाव है। फूलों से कुछ नहीं माँगते, फिर भी सुगंध देना उनका स्वभाव है। चाँद से कुछ नहीं माँगते, फिर भी चाँदनी बरसाना उसका स्वभाव है। गंगाजी से कुछ नहीं माँगते फिर भी शीतलता देना उनका स्वभाव है।

जरूरी नहीं कि माँगे तभी मिले। कुछ लोग कहते हैं- ʹमुझे आशीर्वाद दीजिये… मुझे तो थोड़ा-सा आशीर्वाद दीजिये, महाराज !… मुझे तो स्पेशियलʹ आशीर्वाद दीजिए।ʹ आशीर्वाद भी कभी ʹस्पेशियलʹ और ʹआर्डिनरीʹ होता है ? खाने-पीने आदि की चीजें ʹस्पेशियलʹ और आर्डिनरी होती हैं, आशीर्वाद थोड़े ही स्पेशियल होता है।

संतों के पास जाकर लोग कहते हैं- ʹमुझे यह दीजिए…. मुझे वह दीजिये….ʹ ये सब बहुत छोटी बातें हैं, तुच्छ चीजों की माँगें हैं। जैसे राजा से कोई माँगे किः ʹमुझे बिस्किट दे दीजिये… डबलरोटी दे दीजिये… मुझे एक कप दूध दे दीजिये….ʹ तो राजा को होगा किः ʹकैसा आदमी है ?ʹ वह अपने सेवकों से कहेगाः ʹअरे भाई ! इसे दे दो, जो माँग रहा है।ʹ

ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषों से भी जगत की नश्वर चीजों की याचना करते हैं। अरे ! आप स्वयं ध्यान-भजन में लग जाओ तो जगत की चीजें दासी की नाईं आपकी सेवा में लग जायेंगी। ध्यान-भजन तो करते नहीं, फिर टोने-टोटके करवाकर, दवाइयाँ खाकर मर रहे हैं। ध्यान का, शक्तिपात शिविर का लाभ तो उठाते नहीं और पड़ जाते हैं टोने-टोटके के चक्कर में।

टूना-फूना टोटका, सभी दीजै धोये।

गुरु कहे सो कीजिये, आपे ही फल होय।।

यहाँ जो मंत्र बताते हैं उसे भी काटकर अपना अगर-मगर चलाने लग जाते हैं। गुरु के वचन को भी काट देते हैं फिर भटकते रहते हैं। संतों के वचनों की कीमत नहीं समझते। मूर्खों को संतों का सान्निध्य मुफ्त में मिलता है तो उससे प्राप्त पुण्यों को वे दुनिया के भोग-पदार्थ में ऐसे ही खर्च कर देते हैं फिर दुबारा भिखमंगों की नाईं संसार की वस्तुएँ माँगते रहते हैं। संत हीरे-मोती लेकर बैठे हैं उनका तो कोई ग्राहक नहीं मिलता और लोग सब्जी-भाजी माँगने लगते हैं। जौहरी से, आत्म-खजाने के मालिक से हीरे-मोती लो, सब्जी-भाजी क्यों लेते हो ?

मुख्य कारण है विचार एवं तड़प की कमी…. तभी ऐसा होता है। गुरु की, भगवान की कृपा तो ठीक है लेकिन साथ ही अपना विचार एवं तड़प भी चाहिए। अगर स्वयं विचार किये बिना और तड़प के बिना आत्म-साक्षात्कार हो जाये तो अर्जुन के सिर पर अपना हाथ रख देते श्रीकृष्ण। संत-महापुरुष अपने को इतना क्यों खपाते ? गुरु शिष्य के सिर पर हाथ रख देते और कह देतेः ʹजा बेटा ! आत्म-साक्षात्कारी भव।ʹ ऐसा करके निपटारा कर लेते। नहीं… सिर पर हाथ रखने से आत्म-साक्षात्कार नहीं होता।

आशीर्वाद से संसार की चीजें और छोटी-मोटी परिस्थितियाँ तो मिल सकती हैं, पर ब्रह्मज्ञान तो अपने विचार से ही होगा। माँ कृपा करके भोजन के कौर मुँह में भी रख सकती है लेकिन चबाने के लिए तो अपने को ही मेहनत करनी पड़ेगी। बालक स्वयं नहीं चबायेगा तो पुष्ट कैसे होगा ? ऐसे ही साधक विचार नहीं करेगा तो ज्ञान कैसे होगा ?

यदि विचार के बिना ही आदिनारायण मुक्ति दे दें तो फिर वृक्षों एवं पशु-पक्षियों को मुक्त क्यों नहीं कर देते ? हम तो चाहते हैं कि सब मुक्त हो जायें। जैसे शराबी चाहता है कि दूसरा शराबी हो, जुआरी चाहता है कि दूसरा जुआरी हो ऐसे ही भगवान और संत चाहते हैं कि दूसरे भी मुक्त हों। लेकिन भगवान और संत भी क्या करें ? दूसरा जब विचार करेगा तभी तो मुक्त होगा। मुक्ति की जिसको प्यास होगी, तड़प होगी, वही मुक्त होगा।

संसार का पूरा राजपाट एक व्यक्ति को मिल जाये लेकिन मुक्ति की प्यास नहीं है तो वह बड़ा अभागा है। जिसको मुक्ति की प्यास है और संसार की वस्तुओं में अरुचि है वह भाग्यशाली है क्योंकि मुक्ति की प्यास ही उसको संतों के निकट ले जायेगी।

मुक्ति की प्यास जगती है संतों के दैवी कार्य में सहभागी होने पर। निष्काम कर्म एवं भगवद भक्ति से मुक्ति की प्यास जगती है। सत्संग के द्वारा धीरे-धीरे मुक्ति की प्यास जगती है तो काम बन जाता है, नहीं तो करोड़ों जन्म ऐसे ही व्यर्थ चले जाते हैं।

जगत के सुख आदमी को इतना बेवकूफ बना देते हैं कि व्यावहारिक तौर पर तो वह भोग भोगता ही है, चित्र देखकर भी भोग-भोगने की कल्पना में मारा जाता है। आदमी कितना पराधीन हो जाता है ! वह जिन्दा मनुष्य से तो भीख माँगता ही है, मुर्दे से भी, मजारों से भी माँगता रहता है किः “हे फलाने पीर ! मुझे यह दे दे, वह दे दे….”

अखा भगत ने कहा हैः

सजीवाए निर्जीवाने घड़यो, पछी कहे के मने कंईक दे।

अखो तमने ई पूछे के, तमारी एक फूटी के बे ?

ʹसजीव व्यक्ति ने निर्जीव मूर्ति को बनाया और फिर उसी के आगे गिड़गिड़ाता है कि मुझे कुछ दे। अखा भगत पूछता है कि तुम्हारी एक (आँख) फूट गयी है कि दो ?ʹ

भगवान से भी दिन-रात माँगते रहते हैं। जो बिना माँगे दिन-रात आपकी खबर ले रहा है उसको भी माँग-माँगकर परेशान करते रहते हैं। भगवान झूलेलाल, अम्बे माता, भगवान नारायण आदि की मूर्तियों के आगे गिड़गिड़ाते रहते हैं किन्तु वे अपने अंतर्यामी परमात्मा को क्यों नहीं रिझाते ? मंदिर के देवता की मूर्ति के तो तब दर्शन होंगे जब पुजारी दरवाजा खोलेगा। अज्ञान से इधर-उधर भगवान को खोजते हैं और जो हाजरा-हजूर है, दिल में बैठा है उसका विचार तक नहीं करते। दिल में बैठे हुए देवता को नहीं रिझाया तो मंदिर में बैठे हुए देवता को कब तक रिझाते रहोगे ? मंदिर के देवता को रिझाने का फल यही है कि दिल के देवता को रिझाने की युक्ति बताने वाले किन्हीं संत-महापुरुष का सत्संग मिल जाये।

विचार करने की कला आ जाये किः ʹमैं कौन हूँ ? सुख-दुःख का अनुभव किसे होता है ? कान ठीक से सुनते हैं कि नहीं, उसको देखने वाला मैं कौन हूँ ? जिह्वा को खट्टा-मीठा, खारा-खट्टा आदि स्वाद का ज्ञान किसकी सत्ता से मिलता है ? नाक को सूँघने की सत्ता कहाँ से मिलती है ?ʹ ऐसा विचार करते-करते अपने को खोजें।

जिन खोजा तिन पाइयाँ….

जो साधारण जीव हैं उनके लिए सामान्य पूजा कही गयी है – मंदिर की, वृक्ष की, गंगा-यमुना-सरस्वती आदि पवित्र नदियों की पूजा लेकिन जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो विचारवान् है उसके लिए अपनी आत्मा ही देव है। वह रोम-रोम में रम रहा है इसलिए उसको ʹरामʹ कहते हैं। वह सबको कर्षित-आकर्षित करता है इसीलिए उसको ʹकृष्णʹ बोलेत हैं। वह शक्ति का उदगम स्थान है इसीलिए उसे आद्यशक्ति जगदंबा बोलते हैं। वह इन्द्रियगणों का स्वामी है
इसीलिए उसको ʹगणपतिʹ बोलते हैं, उसके सिवा और कुछ नहीं है। ʹला इल्लाह इल इल्लाह इसीलिए उसको ʹअल्लाहʹ बोलते हैं… है वही आत्मदेव, जो अपना-आपा होकर बैठा है।

उस अंतर्यामी आत्मदेव को छोड़कर जो उसे बाहर ढूँढता फिरता है,  वह ʹकर्मलेढ़ीʹ है। हाथ में आये हुए मक्खन के पिण्ड को छोड़कर छाछ चाटता है। ʹकर्मलेढ़ीʹ न बनें। अपने आत्मदेव का ध्यान करें, चिंतन करें, स्मरण करें तो संसार की असारता का अनुभव हो जायेगा और आत्ममस्ती बढ़ जायेगी। ऐसी आत्ममस्ती में मस्त फकीर स्वामी रामतीर्थ ने ही गाया हैः

मस्त पड़ा है अपनी महिमा में, गैर राम अब और नहीं।

क्या हमसे भेद छुपाते हैं ? हर हर ૐૐ…. हर हर ૐૐ

ऋषियों के आइने में, मेरा ही नूर दर्शाया था।

मुझ से ही शायर लाते हैं, हर हर ૐૐ…. हर हर ૐૐ

ज्ञानवानों का अनुभव होता है किः “वैद्यों का वैद्यकीय ज्ञान भी मुझ आत्मा से आता है, विज्ञानियों का विज्ञान भी मुझ आत्मा से निकलता है, बुद्धिमानों की बुद्धि भी मुझ आत्मा से फुरती है, जिह्वा से मैं ही चखता हूँ, कानों से मैं ही सुनता हूँ, नाक से मैं ही सूँघता हूँ और मन से संकल्प-विकल्प भी मैं ही करता हूँ। ये सब करते हुए भी मैं इन सबसे असंग अमर आत्मा हूँ। ऐसा जो मुझको जानता है वह स्वयं को भी अमर आत्मा जानकर मुक्त हो जाता है। अगर मुझे कोई देहधारी मानता है तो वह भी देहधारी के भाव में फँस मरता है। मैं देह में होते हुए भी देहातीत हूँ। दिखता हूँ फिर भी अदृश्य हूँ और अदृश्य हूँ फिर भी सदृश्य हूँ। यह सच्चिदानंदस्वरूप लाबयान है। इस लाबयान का बयान मैं क्या करूँ ?”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2000, पृष्ठ संख्या 6-8, अंक 94

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