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Vijayadashami

विजयादशमी पर्व


(संत श्री आशारामजी बापूजी के सत्संग-प्रवचन से)

जो अपने आत्मा को ‘मैं’ और व्यापक ब्रह्म को ‘मेरा’ मानकर स्वयं को प्राणिमात्र के हित में लगाके अपने अंतरात्मा में विश्रांति पाता है वह राम के रास्ते है | जो शरीर को ‘मै’ व संसार को ‘मेरा’ मानकर दसों इन्द्रियों द्वारा बाहर की वस्तुओं  से सुख लेने के लिए सारी शक्तियाँ खर्च करता है वह रावण के रास्ते है |

हमारा चित्त प्रेम और शांति का प्यासा है | जब विषय-विकारों में प्रेम हो जाता है और उन्हें भोगकर सुखी होने की रूचि होती है तो हमारा नजरिया रावण जैसा हो जाता है | सदा कोई वस्तु नहीं, व्यक्ति नहीं, परिस्थिति नहीं, सदा तो अपना आपा है और सर्वव्यापक रूप में परमात्मा है | आपा और परमात्मा ये सदा सत्य है, सुखस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, नित्य नविन रूस से पूर्ण है | अगर सुविधाओं का सदुपयोग सत और शांति में प्रवेश पाने के निमित्त करते है तो यह राम का नजरिया है |

तो दशहरा (विजयादशमी) यह संदेश देता है कि जो दसों इन्द्रियों से सांसारिक विषयों में रमण करते हुए उनसे मजा लेने के पीछे पड़ता है वह रावण की नाई जीवन-संग्राम में हार जाता है और जो इन्हें सुनियंत्रित करके अपने अंतरात्मा में आराम पा लेता है तथा दूसरों को भी आत्मा के सुख की तरफ ले जाता है वह राम की नाई जीवन-संग्राम में विजय पाता है और अमर पद को भी पा लेता है |

श्रीराम और रावण दोनों शिवभक्त थे, दोनों बुद्धिमान व सूझबूझ के धनी थे | कुल-परंपरा की दृष्टी से देखा जाए तो रावण पुलस्त्य ऋषिकुल का  ब्राह्मण और रामजी रघुकुल के क्षत्रिय है | कुल भी दोनों के ऊँचे और अच्छे है पर रावण भोग भोगके, शरीर को सुविधा देकर बाहर के बड़े पद पाके बड़ा बनाना चाहता था, संसारी रस पाकर सुखी होना चाहता था अपने अंदर के रस का उसको पता नहीं था | रामजी अपने अंतरात्मा के रस में तृप्त थे, उनके नेत्र भगवदरस बरसाते थे | जो लोग उन्हें देखते वे भी आनंदित हो जाते थे | श्रीरामजी जब रास्ते से गुजरते तब लोग घरों से, गलियों से रास्ते पर आ जाते और ‘रामजी आये, रामजी आये !’ कहके दर्शन कर आनंदित, उल्लासित होते | जब रावण रास्ते से गुजरता तब लोग भय से ‘रावण आया, रावण आया !’ कहके गलियों और घरों में घुस जाते |

भोगी और अहंपोषक रुलानेवाले रावण जैसे होते है तथा योगी व आत्मारामी महापुरुष लोगों को तृप्त करनेवाले रामजी जैसे होते है | रामजी का चिंतन-सुमिरन आज भी रस-माधुर्य देता है, आनंदित करता है |

कहाँ रामजी अंतरात्मा के रस में, निजस्वरूप के ज्ञान में सराबोर और कहाँ रावण क्षणिक सांसारिक सुखों में रस खोज रहा था ! रामजी को बचपन में ही वसिष्ठजी का सत्संग मिला था । “श्री योगवासिष्ठ महारामायण” में वसिष्ठजी कहते हैं : “हे जो मन को सत्ता देता है, बुद्धि को बल देता है, जिससे सारी सृष्टि उत्पन्न होती है, शरीर कई बार पैदा होकर मर जाता है फिर भी जो नहीं मरता वह अमर आत्मदेव तुम्हारा अंतरात्मा होकर बैठा है, तुम उसीको जानो |”

रामजी को वशिष्ठजी से इतना ऊँचा ज्ञान मिला तो वे अंतरात्मा के रस से तृप्त हो गए | रावण ने ‘यह पा लूँ, यह इकठ्ठा कर लूँ’ ऐसा करके अपना सारा जीवन यश, वस्तुओं एवं भोग-पदार्थों को सँजोने में लगा दिया, पर अंत में उसे खाली हाथ ही जाना पड़ा |

राम और रावण का युद्ध तो पूरा हो गया पर आपके-हमारे जीवन में तो युद्ध चालू ही है | शुभ विचार धर्म-अनुशासित कर्म करने के लिए प्रेरित करवाते है; पत्नी कुछ चाहती है, पति कुछ चाहता है, बेटी कुछ कहती है, बेटा कुछ चाहता है, नीति कुछ कहती है, व्यवस्था कुछ कहती है …. तो इस प्रकार के युद्ध में जीव बेचारा हार न जाय इसलिए उसका मार्गदर्शन करते हुए तुलसीदासजी ने कहा

है :

तुलसी हरि गुरु करुणा बिना
बिमल बिबेक न होइ |

भगवान और सदगुरु की कृपा के बिना, सत्संग के बिना विवेक नहीं जगता कि वास्तविक सुख कहाँ है, मनुष्य-जीवन क्यों मिला है ? सदगुरु की कृपा-प्रसादी के बिना जीव बेचारा एक-दो दिन नहीं, एक-दो साल नहीं, एक-दो जन्म नहीं, युगों से रस खोज रहा है, शांति खोज रहा है पर उसको पता नहीं है कि वास्तविक रस व शांति कहाँ है ? इसलिए उसे सदगुरु के सान्निध्य और सत्संग की आवश्यकता है |

संतो के सान्निध्य से ‘जीवन में वास्तव में क्या करणीय है, क्या अकरणीय है? जीवन की उत्कृष्टता किसमे है ? मृत्यु आ जाये उससे पहले जानने योग्य क्या है ?’ यह जान लिया तो आपने संत-सान्निध्य का लाभ उठाया, मनुष्य -जीवन के ध्येय को पा लिया |

इन्द्रिय-सुख की लोलुपता रावण के रास्ते ले जाती है तथा संत-महात्माओं द्वारा बताई गयी कुंजियाँ जीवन में राम का रस जगाती है और जीव देर-सवेर अपने वास्तविक स्वरुप को पा लेता है, जिसके लिए उसे मनुष्य-जीवन मिला है |

बिना मुहूर्त के मुहूर्त


(पूज्य बापू जी के सत्संग से)

विजयादशमी का दिन बहुत महत्त्व का है और इस दिन सूर्यास्त के पूर्व से लेकर तारे निकलने तक का समय अर्थात् संध्या का समय बहुत उपयोगी है। रघु राजा ने इसी समय कुबेर पर चढ़ाई करने का संकेत कर दिया था कि ‘सोने की मुहरों की वृष्टि करो या तो फिर युद्ध करो।’ रामचन्द्रजी रावण के साथ युद्ध में इसी दिन विजयी हुए। ऐसे ही इस विजयादशमी के दिन अपने मन में जो रावण  के विचार हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, चिंता – इन अंदर के शत्रुओं को जीतना है और रोग, अशांति जैसे बाहर के शत्रुओं पर भी विजय पानी है। दशहरा यह खबर देता है।

अपनी सीमा के पार जाकर औरंगजेब के दाँत खट्टे करने के लिए शिवाजी ने दशहरे का दिन चुना था – बिना मुहूर्त के मुहूर्त ! (विजयादशमी का पूरा दिन स्वयंसिद्ध मुहूर्त है अर्थात इस दिन कोई भी शुभ कर्म करने के लिए पंचांग-शुद्धि या शुभ मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं रहती।) इसलिए दशहरे के दिन कोई भी वीरतापूर्ण काम करने वाला सफल होता है।

वरतंतु ऋषि का शिष्य कौत्स विद्याध्ययन समाप्त करके जब घर जाने लगा तो उसने अपने गुरुदेव से गुरूदक्षिणा के लिए निवेदन किया। तब गुरुदेव ने कहाः वत्स ! तुम्हारी सेवा ही मेरी गुरुदक्षिणा है। तुम्हारा कल्याण हो।’

परंतु कौत्स के बार-बार गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह करते रहने पर ऋषि ने क्रुद्ध होकर कहाः ‘तुम गुरूदक्षिणा देना ही चाहते हो तो चौदह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ लाकर दो।”

अब गुरुजी ने आज्ञा की है। इतनी स्वर्णमुद्राएँ और तो कोई देगा नहीं, रघु राजा के पास गये। रघु राजा ने इसी दिन को चुना और कुबेर को कहाः “या तो स्वर्णमुद्राओं की बरसात करो या तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।” कुबेर ने शमी वृक्ष पर स्वर्णमुद्राओं की वृष्टि की। रघु राजा ने वह धन ऋषिकुमार को दिया लेकिन ऋषिकुमार ने अपने पास नहीं रखा, ऋषि को दिया।

विजयादशमी के दिन शमी वृक्ष का पूजन किया जाता है और उसके पत्ते देकर एक-दूसरे को यह याद दिलाना होता है कि सुख बाँटने की चीज है और दुःख पैरों तले कुचलने की चीज है। धन-सम्पदा अकेले भोगने के लिए नहीं है। तेन त्यक्तेन भुंजीथा….। जो अकेले भोग करता है, धन-सम्पदा उसको ले डूबती है।

भोगवादी, दुनिया में विदेशी ‘अपने लिए – अपने लिए….’ करते हैं तो ‘व्हील चेयर’ पर और ‘हार्ट अटैक’ आदि कई बीमारियों से मरते हैं। अमेरिका में 58 प्रतिशत को सप्ताह में कभी-कभी अनिद्रा सताती है और 35 प्रतिशत को हर रोज अनिद्रा सताती है। भारत में अनिद्रा का प्रमाण 10 प्रतिशत भी नहीं है क्योंकि यहाँ सत्संग है और त्याग, परोपकार से जीने की कला है। यह भारत की महान संस्कृति का फल हमें मिल रहा है।

तो दशहरे की संध्या को भगवान को प्रीतिपूर्वक भजे और प्रार्थना करे कि ‘हे भगवान ! जो चीज सबसे श्रेष्ठ है उसी में हमारी रूचि करना।’ संकल्प करना कि’आज प्रतिज्ञा करते हैं कि हम ॐकार का जप करेंगे।’

‘ॐ’ का जप करने से देवदर्शन, लौकिक कामनाओं की पूर्ति, आध्यात्मिक चेतना में वृद्धि, साधक की ऊर्जा एवं क्षमता में वृद्धि और जीवन में दिव्यता तथा परमात्मा की प्राप्ति होती है।

दशहरा : सर्वांगीण विकास का एक श्रीगणेश


दशहरा एक दिव्य पर्व है | सभी पर्वों की अपनी-अपनी महिमा है किंतु दशहरा पर्व की महिमा जीवन के सभी पहलुओं के विकास, सर्वांगीण विकास की तरफ इशारा करती है | दशहरे के बाद पर्वो का झुंड आयेगा लेकिन सर्वांगीण विकास का श्रीगणेश करता है दशहरा |

दशहरा दश पापों को हरनेवाला, दश शक्तियों को विकसित करनेवाला, दशों दिशाओं में मंगल करनेवाला और दश प्रकार की विजय देनेवाला पर्व है, इसलिए इसे ‘विजयादशमी’ भी कहते है | यह अधर्म पर धर्म की विजय, असत्य पर सत्य की विजय, दुराचार पर सदाचार की विजय, बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय, अन्याय पर न्याय की विजय, तमोगुण पर सत्वगुण की विजय, दुष्कर्म पर सत्कर्म की विजय, भोग-वासना पर योग और संयम की विजय, आसुरी तत्वों पर दैवी तत्वों की विजय, जीवत्व पर शिवत्व की और पशुत्व पर मानवता की विजय का पर्व है | आज के दिन दशानन का वध करके भगवान राम की विजय हुई थी | महिषासुर का अंत करनेवाली दुर्गा माँ का विजय-दिवस है – दशहरा | शिवाजी महाराज ने युद्ध का आरंभ किया तो दशहरे के दिन | रघु राजा ने कुबेर भंडारी को कहा कि ‘इतना स्वर्ण मुहरें तू गिरा दे, ये मुझे विद्यार्थी (कौत्स ब्राम्हण) को देनी है, नही तो युद्ध करने आ जा |’ कुबेर भंडारी ने, स्वर्ण भंडारी ने स्वर्णमुहरों की वर्षा की दशहरे के दिन |

दशहरा माने पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और अंत:करण – को शक्ति देनेवाला, अर्थात देखने की शक्ति, सूँघने की शक्ति, चखने की शक्ति, स्पर्श करने की शक्ति, सुनने की शक्ति – पाँच प्रकार की ज्ञानेंद्रियों को जो शक्ति है तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार – चार अंत:करण चतुष्टय की शक्ति इन नौ को सत्ता देनेवाली जो परमात्म-चेतना है वह है आपका आत्मा-परमात्मा | इसकी शक्ति जो विद्या में प्रयुक्त हो तो विद्या में आगे बढते है, जो बल में आगे बढते है, योग में हो तो योग में आगे बढते है और सबमें थोड़ी-थोड़ी लगे तो सब दिशाओं में विकास होता है |
एक होता है नित्य और दूसरा होता है अनित्य, जो अनित्य वस्तुओं का नित्य वस्तु के लिए उपयोग करता है वह होता है आध्यात्मिक किंतु जो नित्य वस्तु चैतन्य का अनित्य वस्तु के लिए उपयोग करता है वह होता है आधिभौतिक | दशहरा इस बात का साक्षी है कि बाह्य धन, सत्ता, ऐश्वर्य, कला-कौशल्य होने पर भी जो भी नित्य सुख की तरफ लापरवाह हो जाता है उसकी क्या गति होती है | अपने राज्य की सुंदरियाँ, अपनी पत्नी होने पर भी श्रीरामजी की सीतादेवी के प्रति आकर्षणवाले का क्या हाल होता है ? हर बारह महीने बाद दे दियासलाई….अनित्य की तरफ आकर्षण का यह मजाक है | एक सिर नही दस-दस सिर हो, दो हाथ नहीं बीस-बीस हाथ हों तथा आत्मा को छोड़कर अनित्य सोने की लंका भी बना ली, अनित्य सत्ता भी मिल गयी, अनित्य भोग-सामग्री भी मिल गयी उससे भी जीव को तृप्ति नही होती… और.. और.. और …..की भूख लगी रहती है |

जो नित्य की तरफ चलता है उसको श्रीराम की नाई अंतर आराम, अंतर्ज्योति, अंततृप्ति का अनुभव होता है और जो नित्य को छोड़कर अनित्य से सुख चाहता है उसकी दशा रावण जैसी हो जाती है | इसकी स्मृति में ही शायद हर दशहरे को रावण को जलाया जाता होगा कि अनित्य का आकर्षण हमारे चित्त में न रहे | शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है और रोज हम मौत की तरफ आगे बढे जा रहे है | कर्तव्य है धर्म का संग्रह और धर्म के संग्रह के लिए मनुष्य-जीवन ही उपयुक्त है |

जीवन जीना एक कला है | जो जीवन जीने की कला नहीं जानता वह मरने की कला भी नहीं जानता और बार-बार मरता रहता है, बार-बार जन्मता है | जो जीवन जीने की कला जान लेता है उसके लिए जीवन जीवनदाता से मिलानेवाला होता है और मौत, मौत के पार प्रभु से मुलाकात करानेवाली हो जाती है | जीवन एक उत्सव है, जीवन एक गीत है, जीवन एक संगीत है | जीवन ऐसे जीयो की जीवन चमक उठे और मरो तो ऐसे मरो की मौत महक उठे ….आप इसीलिए धरती पर आये हो |

आप संसार में पच मरने के लिए नहीं आये है | आप संसार में दो-चार बेटे-बेटियों को जन्म देकर सासू, नानी या दादा-दादी होकर मिटने के लिए नहीं आये है | आप तो मौत आये उसके पहले मौत जिसको छू नहीं सकती, उस अमर आत्मा का अनुभव करने के लिए आये है और दशहरा आपको इसके लिए उत्साहित करता है |

मरो–मरो सब कोई कहे मरना न जाने कोई |
एक बार ऐसा मरो कि फिर मरना न होई ||

‘दशहरा’ माने दश पापों को हरनेवाला | अपने अहंकार को, अपने जो दस पाप रहते है उन भूतों को इस ढंग से मारो कि आपका दशहरा ही हो जाय | दशहरे के दिन आप दश दु:खों को, दश दोषों को, दश आकर्षणों को जितने की संकल्प करो |

दशहरे का पर्व आश्विन शुक्लपक्ष की दसमी को तारकोदय के समय ‘विजय’ नाम के मुहूर्त में होता है, जो की संपूर्ण कार्यों में सिद्धिप्रद है, ऐसा ‘ज्योतिनिर्बन्ध’ ग्रंथ में लिखा है |

अश्विनस्य सिद्धे पक्षे दशम्यां तारकोदये |
स कालो विजयगेहा सर्वकार्यार्थसिद्धये ||

एक होती है आधिभौतिक सिद्धिप्रदता, दूसरी आधिदैविक और तीसरी होती है आध्यात्मिक | मैं तो चाहता हूँ, आपकी आध्यात्मिक सिद्धि भी हो, आधिदैविक सिद्धि भी हो और संसार में भी आप दीन-हीन होकर, लाचार-मोहताज होकर न जीये उसमे भी आप सफल हो | ऐसे आपके तीनों बल – भाव बल, प्राणबल और क्रिया बल विकसित हो |

आप सामाजिक उन्नति में विजयी बने, आप स्वास्थ्य में विजयी बने, आप आध्यात्मिक उन्नति में विजयी बने, आप राजनैतिक उन्नति में विजयी बने | मैं भगवान श्रीकृष्ण को ज्यादा स्नेह करता हूँ | श्रीकृष्ण कमाल में भी आगे है और धमाल में भी आगे हैं | वे कमाल भी गजब का करते है और धमाल भी गजब का करते है | घर में थे तो क्या धमाल मचा दी और युद्ध के मैदान में अर्जुन को क्या कमाल का उपदेश दिया ! आचार्य द्रोण के लिए ‘नरो वा कुंजरो वा’ कहलवाने के लिए युधिष्ठिर को कैसी कमाल के युक्तियाँ देते है ! श्रीकृष्ण का जीवन विरुद्ध जीवन से इतना संपन्न है कि वे कमाल और धमाल करते है तो पुरे-का-पूरा करते है | विजयादशमी ऐसा पर्व है कि आप कमाल में भी सफल हो जाओ और धमाल में भी सफल जो जाओ |

राजा को अपनी सीमाओं के पार कदम रखने की सम्मति देता है आज का उत्सव | जहाँ भी आतंक है या कोई खटपट है वहाँ आज के दिन सीमा लाँघने का पर्व माना जाता है |