साधिका बहन का प्रश्नः पूज्य बापू जी ! आपकी कृपा से मुझे इसी
जन्म में आत्मसाक्षात्कार करना है । मैंने आपके सत्संग में सुना है कि
सारी इच्छाएँ छोड़ के ईश्वरप्राप्ति की इच्छा रखो और धीरे-धीरे
ईश्वरप्राप्ति की इच्छा भी छोड़ दो । तो ईश्वरप्राप्ति की जो इच्छा है वह
भी छूट जायेगी या छोड़नी पड़ती है, जिससे ईश्वर अपने-आप हृदय में
प्रकट हो जाय ? वह स्थिति स्वतः आ जाती है या बनानी पड़ती है ?
पूज्य बापू जीः शाबाश है, बहादुर हो ! अब सुनो ! खाया नहीं है
तो खाने की इच्छा करोगे और खाते-खाते पेट भर जायेगा तो इच्छा
रहेगी क्या ? नहीं । पानी पीना है, पी लिया तो फिर पीने की इच्छा
रहेगी क्या ? वहीं छूट जायेगी । ईश्वरप्राप्ति की इच्छा को ऐसी पक्की
बनाओ कि और सारी इच्छाएँ तुच्छ हो जायें । और ईश्वरप्राप्त की
इच्छा से, ईश्वर की कृपा से, अपने पुरुषार्थ से ईश्वरप्राप्ति के नजदीक
आते ही ईश्वरप्राप्ति की इच्छा भी छू हो जायेगी । गंगाजी में गोता
मारने की इच्छा हुई तो गोता मारा । फिर इच्छा रहेगी क्या गोता मारने
की ? नहीं । इस विषय में अभी चिंता मत करो । अभी तो तुम
ईश्वरप्राप्ति के लिए ध्यान, जप, शास्त्र-श्रवण आदि करो । ये करते-करते
वहाँ पहुँचोगे तो फिर ईश्वरप्राप्ति की इच्छा भी नहीं रहेगी न ! पहुँचने
के बाद इच्छा रहती है क्या बेटे ? नहीं होती है । अपने आप छूट जाती
है । तो इच्छा छोड़नी नहीं पड़ेगी, छूट जाती हैह ।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।
मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश ।।
साधकः मैंने लगभग 22 वर्ष पहले आपसे सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा
ली है, अभी मेरी लौकिक शिक्षा पूर्ण हो चुकी है । तो क्या मैं सारस्वत्य
मंत्र को ही गुरुमंत्र समझकर मंत्रजप जारी रख सकता हूँ या फिर…?
पूज्य श्रीः हाँ-हाँ, क्यों नहीं, बिल्कुल ! सारस्वत्य मंत्र में 2 बीज
मंत्र हैं । सरस्वती प्रकट देवी हैं, ॐकार का प्रभाव भी प्रकट है । बहुत
बढ़िया है ।
साधकः जब सत्संग सुनकर किसी बात को पकड़ लेते हैं, जैसे कि
आपके सत्संग में सुना हैः
गुजर जायेगा ये दौर भी, जरा सा इतमीनान तो रख ।
जब खुशी ही न ठहरी, तो गम की क्या औकात है ।।
तो सामान्य तौर पर तो सत्संग की यह बात याद रहती है लेकिन
जब विकट परिस्थति आती है तो इसकी स्मृति नहीं रहती है । स्मृति
रहे इसके लिए क्या करें ?
पूज्य बापू जीः स्मृति नहीं रहती… नहीं कैसे रहेगी ? स्मृति अपने
आप हो जायेगी, झख मार के हो जाती है । फिर भी लगे क नहीं रहती
है तो भगवान को पुकारोः “ऐसा हो गया, ऐसा हो गया ।
दीन दयाल बिरिदु संभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ।।
(श्रीरामचरित. सुं.कां. 26.2)
हे प्रभु ! मैं तुम्हारा हूँ, मुझे अपनी और खींचो । हे हरि ! हे
नारायण !…’ यह तो याद रहेगा ? छूमंतर थोडे ही होता है, बापू से
पूछोगे और छूंमंतर हो जायेगा, ऐसा थोड़े ही है ! चलते-चलते, गिरते-
गिरते चलना सीख जाते हैं, दौड़ना सीख जाते हैं ऐसे ही आध्यात्मिकता
में भी है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2023, पृष्ठ संख्या 34 अंक 363
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