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हस्तामलक स्तोत्र


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दक्षिण भारत के श्रीबली नामक गाँव में प्रभाकर नाम के एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। उनका एक पागल सा लड़का था। वह लड़का बचपन से ही सांसारिक कार्यों के प्रति उदासीन वृत्ति रखता था। उसका व्यवहार एक गूंगे और बहले बालक के समान था। एक बार जब शंकराचार्य अपने शिष्योंसहित इस गाँव में पधारे तब प्रभाकर अपने पागल जैसे दिखने वाले पुत्र को लेकर आचार्य भगवान शंकर के समीप गये। उन्होंने आचार्य को साष्टांग दंडवत प्रणाम किये। श्री शंकराचार्य ने उन दोनों को उठाया और प्रभाकर से प्रश्न किया। उसके जवाब में प्रभाकर ने कहाः “हे स्वामिन् ! मेरा यह पुत्र बचपन से ही गूंगा और तमाम प्रकार के व्यवहार से उदासीन है। अभी इसकी आयु तेरह साल हुई है फिर भी यह हमारी बातचीत नहीं समझता है। इसको इसमें रस नहीं है। जो शास्त्र ब्राह्मणों को पढ़ने चाहिए ऐसे किसी भी शास्त्र का अभ्यास इसने नहीं किया है और न ही इसने वेद पढ़ा है। इसको अक्षरज्ञान ही नहीं है। बड़ी मुश्किल से मैंने इसके उपनयन संस्कार किये हैं। यह अपने किसी मित्र के साथ खेलने नहीं जाता है। इसका ऐसा स्वभाव देखकर कोई शरारती लड़का इसे मारता है तो उसकी मार यह सहन कर लेता है। फिर भी इसे क्रोध नहीं आता है। कभी तो यह भोजन करता है और कभी नहीं करता है। उसके बावजूद भी यह सदैव आनंदी और सुखी रहता है। इसकी यह मूढ़ दशा किस कारण से हुई है ? कृपा करके आप मेरे इस पुत्र का उद्धार कीजिये।”

शंकराचार्य ने उस बालक को प्रश्न पूछे। वह बालक बहरा या गूंगा न था। वह तो पूर्ण प्रकाशित ज्ञानी था, जीवन्मुक्त था। उस बालक ने शंकराचार्य द्वारा पूछे गये प्रश्नों के जो उत्तर दिये वे एक स्तोत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए।

ये प्रश्नोत्तर इस प्रकार हैं-

कस्त्वं शिशो कस्य कुतोसि गन्ता किं नाम ते त्वं कुत आगतोसि।

एतन्मयोक्तं वद चार्भक त्वं मत्प्रीत्ये प्रीतिविवर्धनोसि।।1।।

ʹहे शिशो ! तू कौन है ? किसका पुत्र है ? तू कहाँ जा रहा है ? तेरा नाम क्या है ? तू कहाँ से आया है ? मेरी प्रीति के लिए हे बालक ! तू मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे। तू हमें बहुत प्रिय लगता है।ʹ

तब उस बालक ने जवाब दियाः

नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः।

न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूपः।।2।।

ʹमैं मनुष्य नहीं हूँ, देव या यक्ष नहीं हूँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी नहीं हूँ। मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थी या वानप्रस्थी भी नहीं हूँ और संन्यासी भी नहीं हूँ। मैं तो ज्ञानस्वरूप परम पवित्र परमानंदरूप ब्रह्म हूँ।ʹ

निमित्तं मनश्चक्षुरादिप्रवृत्तौ निरस्ताखिलोपाधिराकाशकल्पः।

रविर्लोकचेष्टानिमित्तं यथा यः स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।3।।

ʹजिस प्रकार सूर्य लोगों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करता है, उसी प्रकार मन और इन्द्रियों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करने वाला एवं आकाशादि उपाधियों से रहित ऐसा शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यमग्न्युष्णवन्नित्यबोधस्वरूपं मनश्चक्षुरादीन्यबोधात्मकानि।

प्रवर्तन्त आश्रित्य निष्कंपमेकं स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।4।।

ʹजैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है, ऐसे ही अविकारी और शुद्ध चित्स्वरूपवान मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जिसका आश्रय लेकर स्थूल मन तथा इन्द्रियाँ अपने-अपने व्यवहार में प्रवृत्त रहते हैं।ʹ

मुखाभासको दर्पणो दृश्यमानो मुखत्वात्पृथक्त्वेन नैवास्तु वस्तु।

चिदाभासको धीषु जीवोपि तद्वत् स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।5।।

ʹजैसे दर्पण में दिखता हुआ मुख का प्रतिबिम्ब वस्तुतः बिम्बरूप मुख से पृथक नहीं है, किन्तु बिम्बरूप ही है वैसे ही बुद्धिरूपी दर्पण में जीवरूप से प्रतीयमान चैतन्य का प्रतिबिम्ब बिम्बरूप चैतन्य से पृथक नहीं है किन्तु चैतन्य रूप ही है। वही नित्य, शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथा दर्पणाभाव आभासहानौ मुखं विद्यते कल्पनाहीनमेकम्।

तथा धीवियोग निराभसको यः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।6।।

ʹजिस प्रकार दर्पण के या दर्पण में दिखने वाले चेहरे के प्रतिबिम्ब के अभाव में भी चेहरे का अस्तित्व तो होता ही है, उसी प्रकार बुद्धि के अभाव में भी अस्तित्व रखने वाला मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

मनश्चुरादेर्वियुक्तः स्वयं यो मनश्चक्षुरादेर्मनश्चक्षुरादिः।

मनश्चक्षुरादेरगम्यस्वरूपः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।7।।

ʹमैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जो मन और चक्षु आदि से परे है, जो मन का भी मन और चक्षु आदि का भी चक्षु आदि है एवं जो मन, चक्षु आदि से प्राप्त नहीं है।ʹ

य एको विभाति स्वतःशुद्धचेताः प्रकाशस्वरूपोपि नानेव धीषु।

शरावोदकस्थो यथा भानुरेकः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।8।।

ʹजो स्वयं अकेला ही अपने विशुद्ध स्वप्रकाश अखंड चैतन्यरूप से प्रकाशता है… जैसे जल से भरे हुए अनेक मटकों में एक ही सूर्य अनेक रूप से भासता है उसी प्रकार एक ही स्वयं ज्योति आत्मा अनेक बुद्धियों में अनेक रूप से भासता है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथानेकचक्षुः प्रकाशो रविर्न क्रमेण प्रकाशीकरोति प्रकाश्यम्।

अनेका धियो यस्तथैकः प्रबोधः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।9।।

ʹजैसे सूर्यदेवता अनेक नेत्रों को क्रम से प्रकाश न करता हुआ एक साथ ही प्रकाश करता है वैसे ही अनेक बुद्धियों को एक ही साथ सत्ता-स्फूर्ति देने वाला नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

विवस्वत्प्रभातं यथारूपमक्षं प्रगृह्णाति नाभातमेवं विवस्वान्।

यदाभात आभासयत्यक्षमेकः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।10।।

ʹजैसे सूर्य से प्रकाशित रूप को ही नेत्र ग्रहण कर सकता है यानी देख सकता है, सूर्य से अप्रकाशित रूप को नेत्रेन्द्रिय ग्रहण नहीं कर सकती वैसे ही सूर्य भी जिस चैतन्य आत्मा से प्रकाशित हुआ ही रूप, नेत्र आदि प्रकाश देता है। आत्मा से अप्रकाशित सूर्य किसी को कभी भी प्रकाश नहीं दे सकता यानी सर्व-लोक प्रकाशक सूर्यादि ज्योति आत्मप्रकाश से प्रकाशित होती है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथा सूर्य एकोप्स्वनेकश्चलासु स्थिरास्वप्यनन्यद्विभाव्स्वरूपः।

चलासु प्रभिन्नः सुधीष्वेक एव स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।11।।

ʹजिस प्रकार एक ही सूर्य स्थिर और अस्थिर जल के विषय में अलग-अलग प्रतिबिम्बित होता हुआ दृश्यमान होता है, उसी प्रकार चर और अचर – इन दोनों प्रकार की बुद्धियों को प्रकाशित करने वाला मैं अद्वितीय शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

धनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नमर्क यथा निष्प्रभं मन्यते चातिमूढ़ः।

तथा बद्धवद् भाति यो मूढ़दृष्टेः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।12।।

ʹजिस प्रकार बादलों से ढके हुए सूर्य को मंद बुद्धिवाला पुरुष तेज और प्रकाशरहित समझता है, उसी प्रकार मूढ़ बुद्धिवाले पुरुष को जो बद्ध-स्वरूप दिखता है वह शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप मैं हूँ।ʹ

समस्तेषु वस्तुष्वनुस्यूतमेकं समस्तानि वस्तूनि यं न स्पृशन्ति।

वियद्वत्सदा शुद्धमच्छस्वरूपः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।13।।

ʹजो सदा शुद्ध और निर्मल है तथा जो समस्त पदार्थों के अंतर्गत स्थित होते हुए भी वे पदार्थ उसे स्पर्श नहीं कर सकते या उसे दूषित नहीं कर सकते वह मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

उपाधी यथा भेदता सन्मणीनां तथा भेदता बुद्धिभेदेषु तेपि।

यथा चन्द्रिकाणां जले चंचलत्वं तथा चंचलत्वं तवापीह विष्णो।।14।।

ʹजिस प्रकार रंग और आकार में भेद होने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के मणियों में भेद की कल्पना होती है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न बुद्धियों के भेद की उपाधि के कारण एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न स्वरूप से दृश्यमान होता है। जैसे जल में चंद्र अनेक एवं चंचल दिखता है ऐसे ही हे विष्णु ! तुम भिन्न-भिन्न दिखते हो। (वस्तुतः तो तुम एक, नित्य, शुद्ध और अविकारी हो।ʹ)

ब्राह्मण पुत्र के ये उत्तर सुनकर श्रीमद् आद्य शंकराचार्य समझ गये कि यह बालक तो ब्रह्म को हस्तामकलकवत् यानी हाथ में रखे हुए आँवले की तरह स्पष्टतः जानने वाला ब्रह्मवेत्ता है। अतः उन्होंने उसका नाम भी हस्तामलक रख दिया और वह प्रश्नोत्तररूप स्तोत्र ʹहस्तामलक स्तोत्रʹ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हस्तामलक आगे चलकर शंकराचार्य के चार पट्टशिष्यों में से एक हुए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 16 से 18 अंक 55

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ध्यान का अर्थ – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


कम से कम सुनें, कम से कम मन में संकल्प-विकल्प उत्पन्न हों, कम-से-कम इन्द्रियों को भोजन दें। जैसे, केवल पानी में इतनी शक्ति नहीं होती लेकिन पानी को जब गर्म किया जाता है, तब उसी पानी से बनी वाष्प में भारी शक्ति आ जाती है और टनों वजनवाली ट्रेनों तक को ले भागती है। इसी प्रकार बुद्धि सूक्ष्म होती है तो उसमें अनुपम योग्यता आ जाती है। बुद्धि अगर स्थूल होगी, मोटी होगी तो परमात्मा में नहीं लग पायेगी। अतः सूक्ष्मता चाहिए, गहराई चाहिए।

चुप रहना, मौन रहना भी कोई मजाक की बात नहीं है। बहुत कठिन है। चुप वे ही रह पाते हैं जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है। मौन वे ही रह पाते हैं, गहरे भी वे ही उतर पाते हैं, जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है। अन्यथा, मनोरंजन और मनपसंद कार्यों में ही मनुष्य की समय-शक्ति खर्च हो जाती है। मौन रहकर, उसी में डूब जाना – यह भी एक बहुत बड़ी साधना है, बहुत बड़ी कमाई है।

सब काम करने से नहीं होते हैं। कुछ काम ऐसे भी हैं जो न करने से होते हैं। ध्यान ऐसा ही एक कार्य है। आप दुनिया का कोई भी काम करो लेकिन जाने अनजाने आप ध्यान के जितने करीब होगे उतने ही आप उस काम में सफल होगे। नींद में आप परमात्मा के थोड़े करीब होते हो, ध्यान के निकट होते हो, तभी शक्ति आ पाती है, विश्रान्ति मिल पाती है और उसी विश्रान्ति से, उसी नयी शक्ति से, नयी स्फूर्ति से नये दिन की नई सुबह से पुनः कार्य का आरंभ होता है।

मन में संकल्प भी आते हैं, विकल्प भी आते हैं। इच्छाओं की, वासनाओं की धारा अविरल बहती रहती है।

ध्यान का मतलब क्या ?

ध्यान है डूबना। ध्यान है आत्मनिरीक्षण करना….ʹहम कैसे हैंʹ यह देखना….ʹकहाँ तक पहुँचे हैंʹ यह देखना…. ʹकितना अपने आपको भूल पाये हैंʹ यह देखना…. ʹकितना विस्मृतियोग में डूब पाये हैंʹ, यह देखना…

सत्संग भी उसी को फलता है जो ध्यान करता है। ध्यान में विवेक जागृत रहता है। ध्यान में बड़ी सजगता, सावधानी रहती है।

करने से प्रेम करें, न करने की ओर प्रीति बढ़ायें। करने के अंत में न करना ही शेष रहता है। जितना भी आप करोगे उसके अंत में न करना ही शेष रहेगा।

ध्यान अर्थात् न करना…. कुछ भी न करना। जहाँ कोशिश होती है, जहाँ करना होता है, वहाँ थकावट भी होती है। जहाँ कोशिश होती है, थकावट होती है, वहाँ आनंद नहीं होता। जहाँ कोशिश भी नहीं होती, आलस्य-प्रमाद नहीं होता, अपितु निःसंकल्पता होती है, जो स्वयमेव होता है, वहाँ सिवाय आनंद के कुछ नहीं होता और वह आनंद निर्विषय होता है, निर्विकारी होता है। वह आनंद संयोगजन्य नहीं होता, परतंत्र और पराधीन नहीं होता वरन् स्वतंत्र और स्वाधीन होता है। मिटने वाला और अस्थायी नहीं होता, अमिट और स्थायी होता है।

सब उसमें नहीं डूब पाते। कोई-कोई बड़भागी ही डूब पाते हैं और जो डूब पाते हैं वे खोज भी लेते हैं। समुद्र के भीतर रत्न खोजे जाते हैं लेकिन जो रत्न खोजते हैं उनको कई बार असफल होना पड़ता है। रत्न ढूँढने वाले गोताखोरों को कई बार खाली हाथ ही आना पड़ता है। लेकिन वे कोशिश करना नहीं छोड़ते, हारते नहीं, थकते नहीं, टूटते नहीं, विश्वास को नहीं खोते वरन् अथक प्रयत्न, अदम्य साहस और भरपूर निष्ठा के साथ फिर-फिर से गोता लगाते हैं और वे पुरुषार्थी रत्न खोज ही लेते हैं। लाखों के रत्न उनके हाथ लग जाते हैं। अगर निराश होते तो लाखों के रत्नों से हाथ धोना पड़ता।

बाहरी नश्वर धन को प्राप्त करने के लिए भी जब उन गोताखोरों में अदम्य साहस और उत्साह होता है तो जिनको परमात्मारूपी शाश्वत हीरा प्राप्त करना है ऐसे उत्तम साधक भला अपने उत्साह को क्यों बलि पर चढ़ायेंगे ? निराश-हताश क्यों होयेंगे ? आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों… फिर-फिर से गोता, फिर-फिर से गहराई में… जो नयी शक्ति, नये उमंग के साथ, पूरे विश्वास के साथ फिर-फिर से प्रयत्न जारी रखते हैं अन्ततः वे सफल हो ही जाते हैं। गुरुकृपा प्राप्त कर लेते हैं, परमात्मानुभव प्राप्त कर लेते हैं। दिव्यातिदिव्य अनुभव उनके भीतर प्रगट होने लगते हैं।

अध्यात्म का रास्ता अटपटा जरूर है। खटपट भी थोड़ी-बहुत होती है और समझ में भी झटपट नहीं आता है लेकिन अगर थोड़ा सा भी समझ में आ जाये, धीरज न टूटे, साहस न टूटे और परमात्मा को पाने का लक्ष्य न छूटे, तो उन्हें प्राप्ति हो ही जाती है। असंभव कुछ नहीं, सब संभव है। जहाँ चाह होती है वहाँ राह भी मिल जाती है।

जितना समय संसार के पीछे लगाया बदले में उतना नहीं मिला, न मिलेगा। वरन् जितना मिला, वह भी छूट जायेगा। उससे आधा समय भी अगर भगवान के प्रति लगाते, परमात्म-ध्यान और परमात्म-शांति में उतना समय व्यतीत करते तो स्थिति कुछ और होती, स्थिति कुछ निराली होती क्योंकि सृष्टिकर्त्ता से कुछ भी छुपा नहीं है। चाहिए केवल विश्वास, दृढ़ता, साहस, लगन….

निर्मल मन जन सो मोहि पावा…..

निर्मलता, पवित्रता…. खोपड़ी में जितना बाहर का कचरा भरोगे उतना ही निकालना पड़ेगा। पढ़ा हुआ कपटी उतना जल्दी भगवान को नहीं पा सकता, जितना सरल अनपढ़ पा सकता है। पढ़े हुए को तो, जो खोपड़ी में भरा है उसे पहले निकालना पड़ता है जबकि अनपढ़ की कैसेट कोरी (Blank) होती है। उसने कचरा कम भरा होता है अतः निर्मल और निर्दोष जल्दी हो पायेगा जबकि पढ़ा-लिखा देरी से होगा। परमात्मा के पास आपकी अक्ल होशियारी नहीं चल सकती है। आपकी डिग्रियाँ और प्रमाणपत्र वहाँ नहीं चल पायेंगे। निर्मलता, पवित्रता और स्नेह ही चलेगा। उसके बनकर, उसके होकर नाचोगे तो चलेगा, वह खुश होगा। उसके होकर जो भी करोगे, वह खुश होगा। शर्त यही है कि मिटना पड़ता है, उसका बनना और रहना पड़ता है। बगैर उसके काम नहीं चल सकता।

बीज जब तक अपना अस्तित्व रखता है तब तक पौधा नहीं बन पाता। पौधा अगर अपना अस्तित्व बनाये रखे तो विशाल वृक्ष नहीं बन पाता इसलिए मिटो…. खो जाओ…. जितना खोओगे, जितना मिटोगे उतना ही पाओगे।

गुरुभक्तियोग एक समर्पण का मार्ग है, मिटने का मार्ग है, हटने का मार्ग है ,खोने का मार्ग है, नामोनिशान तक मिटा देने का मार्ग है। व्यक्ति जितना खोता है, उतना पाता है। जितना सूक्ष्म होता है, उतना ही महान होता है। फिर किसी की गाली उसे प्रभावित नहीं करती, किसी की प्रशंसा उसे प्रभावित नहीं करती क्योंकि वह मिट चुका है। जीते-जी मिट चुका है। मरकर तो सभी मिटते हैं, सभी खोते हैं लेकिन फिर क्या ? जो जीते-जी मिट चुका, जीते-जी खो चुका, जीव मिटकर शिव बन चुका वही धन्य है…. ૐ शांति… खूब शांति… गहरी शांति…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 19,20,18 अंक 55

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चित्त की विश्रान्तिः प्रसाद की जननी


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

हर एक मनुष्य आनंद चाहता है, हर एक मनुष्य सुख चाहता है, हर एक मनुष्य मुक्ति चाहता है। कोई भी बंधन नहीं चाहता है।

मानवजात का एक समूह है। उसमें चार प्रकार के मनुष्य हैं। सब मनुष्य आनंद चाहते हैं, हृदय की शांति और शीतलता चाहते हैं। कोई ऐसा नहीं चाहता कि मेरा हृदय अशांत हो… मैं पापी होऊँ… मैं सुख से दूर चला जाऊँ। सब सुख की तरफ ही भाग रहे हैं। कई लोग सुख की तरफ इस तरह भागते हैं कि वहाँ सुख मिलता नहीं, दुःख ही दुःख मिलता है, मुसीबत ही मुसीबत मिलती है।

जैसे ऊँची गरदन होने से ऊँट अच्छा घास छोड़कर कँटीले वृक्षों के पत्तों को खाता है। काँटे मुँह में लगने से खून निकलता। ऊँट समझता है कि कितना मजेदार है ! उसे यह पता ही नहीं यह मजा अपने लिए सजा है।

ऐसे ही हम सुख चाहते हैं, हृदय की तृप्ति चाहते हैं लेकिन विषय-विकारों का कँटीला सुख चाहते हैं। शुरूआत में तो अच्छा लगता है किन्तु बाद में ऊँट जैसा हाल होता है। विषयों का सुख दाद की खुजली जैसा सुख है। उसे खुजलाते हैं तो मजा आता है लेकिन बाद में सत्यानाश कर देता है।

कुछ लोग जल्दी सुख लेने जाते हैं। जहाँ सुख है उस अंतरात्मा की तरफ नहीं जाते बल्कि सुख के बहाने सुख से दूर चले जाते हैं। परिणाम का विचार नहीं करते। ऐसा बोलने से, ऐसा करने से, ऐसा भोगने से क्या परिणाम आयेगा यह नहीं सोचते। उनको पामर कहते हैं।

दूसरे प्रकार के लोग होते हैं विषयी। कथा में जायेंगे, सत्संग सुनेंगे तो कहेंगे कि ʹमहाराजजी की बात तो ठीक है, ज्ञान तो अच्छा है लेकिन क्या करें यार ! संसार में रहते हैं…. जरा इतना कर लें फिर देखा जायेगा।ʹ इनको विषयी कहते हैं।

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो ज्ञान की बात सुनते हैं तो थोड़ा उधर चलते भी हैं। जो उत्तम जिज्ञासु हैं, बुद्धिमान हैं, वे तो बस, गलती को समझकर विषय-विकारों से अपने को बचाकर सच्चे सुख की तरफ चल पड़ते हैं। थोड़े ही दिनों में उनको भगवदसुख की प्राप्ति हो जाती है। वे अपने घर में आ जाते हैं। अपना घर क्या है ? चित्त की विश्रान्ति प्रसाद की जननी है। चित्त की विश्रान्ति प्रभुरस को प्रकट करने वाली कुँजी है। चित्त की विश्रान्ति से सामर्थ्य प्रकट होता है और सामर्थ्य का सदुपयोग करने से निर्भयता आती है।

जो कपट करके यश चाहते हैं या सामर्थ्य का दुरुपयोग करके सुखी होना चाहते हैं, उनका सामर्थ्य नष्ट होते ही हाल-बेहाल हो जाता है।

सामर्थ्य का सदुपयोग करो। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ कम करो। अपने व्यक्तिगत व्यापार का ज्यादा विस्तार मत करो।

जो सामर्थ्य मिला है उससे औरों की सेवा करके अपना कर्जा उतारो। संसार के सुख-भोग की इच्छा छोड़कर अपने लिए अंदर का सुख खोजो और बाहर से सुख की साधन-सामग्री का उपयोग औरों के लिये करो। यह सामर्थ्य का सदुपयोग हुआ। ऐसे ही बुद्धि का भी सदुपयोग करो, वस्तु का भी सदुपयोग करो और विचारों का भी सदुपयोग करो।

ध्यान-भजन करने बैठते हैं तो फालतू विचार बार-बार आयेंगे। उन फालतू विचारों के पीछे भगवान की भावना करो। भगवान अपना शुद्ध ज्ञान मनुष्यों को देते हैं। उसे लेकर उस भगवद्ज्ञान से अपने विचारों को भर दो।

मान लो, विचार पानी के आयें तो पानी की गहराई में प्रभु की चेतना है। जल के, थल के, तेज के, वायु के, आकाश के विचार आये तो उन जल, थल, तेज, वायु और आकाश-इन सबकी गहराई में प्रभु ! तू है…. ऐसे विचारों को भर दो। इस भावना से विचारों का सदुपयोग हो जायेगा। मनोराज्य की खटपट से बचकर मन विश्रान्ति की तरफ आयेगा।

भगवान की भाषा में कहें तो….

मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।

ʹहे धनंजय ! मेरे सिवाय किंचिन्मात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है, यह संपूर्ण जगत सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गूँथा हुआ है।ʹ भगवदगीताः 7-7

जैसे सूत की मणियों में सूत का धागा, सोने की मणियों में सोने का तार पिरोया जाता है, ऐसे ही सारा जगत भगवद चेतना में और भगवद चेतना सारे जगत में पिरोयी हुई है।

एक बार अखंडानंद सरस्वती साबरमती में गांधी जी का चित्र देखने गये थे। चित्र क्या था ? सूत का बना हुआ था। सब सूत ही सूत था, लेकिन ऐसी कला थी कि उसमें गाँधी जी दिख रहे थे। जब चश्मा भी सूत और गांधी जी की आँखें भी सूत। उनके हाथ में डंडा है वह भी सूत और उनकी चप्पल भी सूत। सूत में डिजाईन थी। सब सूत ही सूत था। ऐसे ही ब्रह्म में जो जगत की डिजाईन है वह सब ब्रह्म ही ब्रह्म है….ʹ ऐसा जो चिंतन करता है वह संयमी और पवित्र रहता है। उसका अंतःकरण जल्दी शुद्ध हो जाता है।

आप सृष्टि में मंगलमय देखने लग जाओ, चित्त जल्दी पवित्र होगा, शांत होगा। इस पर दोष, उस पर दोष…. इसके-उसके अवगुणों का चिंतन करोगे तो आपका मन दूषित होगा।

जो मंजिल चलते हैं वे शिकवा नहीं किया करते।

और जो शिकवा करते हैं वे मंजिल नहीं पहुँचा करते।।

फरियाद हटाकर तुम धन्यवाद दो। हर हाल में तुम उसकी करूणाकृपा को देखो। इससे तुम जल्दी कल्याण को प्राप्त होगे।

दंडकारण्य में भगवान श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी रहे थे। तब वहाँ के सिख्खड़ साधुओं ने सोचा कि अपन नाहक अनासक्त होकर, विरक्त होकर जंगलों में अकेले पड़े हैं। अपन भी शादी विवाह कर लेते और अपनी-अपनी सीता लाते तो अपन भी मजे से भजन करते। लखन कंदमूल ले आता और सीता जी सेवा कर देतीं, पैरचंपी करती और अपन आराम से भजन करते।

उनके मन में ये विचार कुछ दिनों तक तो रहे, लेकिन फिर जब रावण सीता जी को ले गया तो रामजी ʹहाय सीते ! हाय सीते ! सीते…. सीते…!ʹ करने लगे तब साधु बाबाओं ने कहाः “राम जैसे राम को भी रोना पड़ता है तो अपना क्या हाल होता भैया ? अपन तो ऐसे ही भले, ऐसे ही चंगे।”

भगवान का रामावतार मनुष्य को सीख देता है कि भगवान भी अगर आसक्ति करेंगे तो भगवान भी दुःखी होंगे फिर औरों की तो बात ही क्या ?

जब-जब भय, शोक, दुःख होता है तो आसक्ति से ही होता है, पक्कड़-अक्कड़ से ही होता है। मनुष्य अगर पक्कड़-अक्कड़ छोड़ दे तो दुःख और भय को जगह ही नहीं मिलेगी।

चित्त की विश्रान्ति से पक्कड़-अक्कड़ छूटती है। जो करना चाहिए और जो कर सकते हो उसे कर डालो और जो नहीं करना चाहिए और नहीं कर सकते। उसकी इच्छा छोड़ दो। उसे हृदय से निकाल दो। उससे चित्त की विश्रान्ति मिलती है।

तुमको जो करना चाहिए वह तुम कर डालोगे तो पिया को तुम्हारे लिए जो करना होगा, वह भी कर देगा, उसमें देर नहीं लगेगी।

तू मुझे उर आंगन दे दे। मैं अमृत की वर्षा कर दूँ।

तू तेरा अहं दे दे। मैं परमात्मा का रस भर दूँ।।

अगर  ऐसा कहें कि अहं तो नहीं देंगे, अहं तो हम अपने पास रखेंगे, लेकिन आप रस भर दो… तो भैया !

इश्क करना और जाँ बचाना, यह भी कभी हो सकता है क्या ?

जैसे सूत की मणि, सूत के धागे से पिरोयी हुई है, जैसे तरंग भिन्न-भिन्न दिखते हुए भी सब जल ही जल है, मिट्टी के बर्तन भिन्न-भिन्न दिखने पर भी सब मिट्टी ही मिट्टी है, शक्कर के खिलौने सब भिन्न-भिन्न होते हुए भी सब शक्कर ही शक्कर है, ऐसे ही व्यक्तियों के आकार (Model) भिन्न-भिन्न, उनके विचार भिन्न-भिन्न, उनके कर्म भिन्न-भिन्न, उनके स्वभाव भिन्न-भिन्न, लेकिन उन सबमें अभिन्न एक आत्मा ज्यों का त्यों है… ऐसा जो सुमिरन करता है उसको विश्रान्ति मिलती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 21,22,23 अंक 55

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