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काकभुशुंडिजी चिरंजीवी कैसे हुए ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ के निर्वाण प्रकरण में एक प्रसंग आता है-

देवताओं की सभा में देवर्षि नारद जी चिरंजीवियों की कथा सुना रहे थे। किसी कथा के प्रसंग में मुनिवर शातातप ने चिरंजीवी काकभुशुंडिजी की कथा सुनायी। तब वशिष्ठ जी को काकभुशुंडिजी से मिलने का कुतूहल हुआ और कथा समाप्ति के बाद वे मेरुगिरी के उत्तम शिखर पर जा पहुँचे।

काकभुशुंडिजी ने वशिष्ठ जी का अर्घ्य पाद्य से पूजन किया, तदनन्तर उनके आगमन का कारण पूछा। वशिष्ठ जी ने कहा- “वायसराज ! तुम किस कुल में उत्पन्न हुए हो ? तुम इतने महान कैसे बने ?”

काकभुशुंडिजीः “मेरी माता ब्रह्माणी की हंसिनी थी। जन्म के पश्चात जब हम उड़ने योग्य हो गये तो हमारी माता हमें ब्रह्माणी देवी के पास आशीर्वाद दिलाने के भर के लिए ले गयी। उन्होंने हम पर ऐसा अनुग्रह किया, जिसके फलस्वरूप हम जीवन्मुक्त होकर स्थित हुए।”

वशिष्ठ जीः “तुम चिरंजीवी हो। तुमने असंख्य प्रकार की सृष्टियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय देखे हैं। अतः यह बताओ कि इस सृष्टि-क्रम में तुम्हें किस-किस आश्चर्यजनक सृष्टि का स्मरण है ?”

काकभुशुंडिजीः “मुनिश्रेष्ठ ! किसी समय यह पृथ्वी शिला और वृक्षों से रहित थी। तब यह 11 हजार वर्षों तक भस्म से परिपूर्ण थी। एक चतुर्युगी तक इस पृथ्वी पर केवल दैत्य ही दैत्य थे। अन्य चतुर्युगी के दो युगों तक इस पर केवल जंगली वृक्ष थे। एक समय चार युगों से भी अधिक काल तक यह केवल पर्वतों से आच्छादित थी। एक बार संपूर्ण पृथ्वी पर अंधकार-ही-अंधकार व्याप्त था।

ब्रह्मण ! मुझे तो यहाँ तक स्मरण है कि मेरे सामने सैंकड़ों चतुर्युगियाँ बीत गयीं। मुझे एक ऐसी सृष्टि का भी स्मरण है, जिसमें पर्वत और भूमि का नामोनिशान भी नहीं था। चंद्रमा और सूर्य के बिना ही पूर्ण प्रकाश छाया रहता था और देवता तथा सिद्ध मानव आकाश में ही रहते थे।

मुनिवर ! आप तो ब्रह्मा जी के पुत्र हैं और आपके भी 8 जन्म हो चुके हैं। इस आठवें जन्म में मेरा आपके साथ समागम होगा – यह मुझे पहले से ही ज्ञात था।

यह वर्तमान सृष्टि जैसी है, ठीक इसी तरह की तीन सृष्टियाँ पहले भी हो चुकी हैं, जिनका मुझे भली भाँति स्मरण है। हे मुनीश्वर ! मंदराचल पर्वत को क्षीरसमुद्र में डालकर जब देवता और दैत्य मथने लगे, तब मंदराचल समुद्र में डूबने लगा, जिससे उनके मुँह पर उदासी छा गयी। उस समय भगवान विष्णु ने कच्छप का रूप धारण कर पर्वत को अपनी पीठ पर उठाये रखा और मंथन के बाद सागर से अमृत निकला था – ऐसा बारहवाँ समुद्र मंथन है, यह भी मुझे स्मरण है।

प्रत्येक युग में वेद आदि शास्त्रों के ज्ञाता व्यास व अन्य महर्षियों द्वारा विरचित महाभारत आदि इतिहास भी मुझे याद हैं। 11 बार श्री राम और 16 बार श्री कृष्ण अवतार ले चुके हैं।

हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मुझे अनेक सृष्टियाँ स्मरण आती हैं, किंतु सभी भ्रममात्र हैं, कोई उपजी नहीं है। ये जगतस्वरूप भ्राँति-जल में बुलबुले के समान कभी स्थित दिख पड़ती है, किंतु वास्तव में इनका किसी काल में अस्तित्व नहीं है।”

वशिष्ठ जी ने पुनः पूछाः “आपके चिरंजीवी होने का कारण क्या है ?”

काकभुशुंडिजीः “आप सब कुछ जानते हैं, फिर भी मुझसे पूछ रहे हैं। आपके प्रश्न का उत्तर मैं देता हूँ, क्योंकि आज्ञा का पालन ही सज्जनों की सबसे बड़ी सेवा है – ऐसा मुनिलोग कहते हैं।

भगवन् ! समस्त संकल्पों से रहित परमात्म-विषयक भावना से अज्ञानरूपी अंधकार का, उसके कार्यों के साथ, भली प्रकार विनाश हो जाता है। इस परमात्म-विषयक भावना के अनेक भेद हैं। उनमें से संपूर्ण दुःखों का विनाश करने वाली प्राणभावना का मैंने आश्रय लिया है। वही मेरे चिरंजीवी होने का आधार है।

श्वास भीतर जाता है और बाहर आता है, उसके बीच की अवस्था को मैं देखता हूँ। इसी प्रकार श्वास बाहर आता है और दुबारा भीतर जाता है, उसके बीच की अवस्था को भी मैं देखता हूँ। उस अवस्था में जो चैतन्य है, शुद्ध-बुद्ध परमात्मा है उसका मैं सुमिरन करता हूँ। वही सबका अपना आपा है।

महात्मन् ! प्राण और अपान की गति के तत्त्व को जानकर उसका अनुसरण करने वाला पुरुष जन्म-मरणरूपी फाँसी से छूट जाता है, सदा के लिए मुक्त हो जाता ह। फिर वह इस संसार में लौटकर नहीं आता।”

श्वास अंदर जाते हैं तो उसे प्राण कहते हैं और बाहर आते हैं तो उसे अपान कहते हैं। श्वास के अंदर जाने और बाहर आने के बीच की जो शांत क्षण है, वह परमेश्वरीय क्षण है। इसी प्रकार श्वास के बाहर आने और अंदर जाने के बीच की जो क्षण है, जो सेकेंड-आधे सेकेंड का समय है, वह परमात्म क्षण है। उस परमात्म क्षण में जो स्थित होने का अभ्यास करता है, उसे बहुत लाभ होता है।

सुबह उठें तब भी ऐसा करें और ध्यान करें तब भी ऐसा अभ्यास करें। प्राणायाम करने से पहले और बाद में भी इस प्राणकला का अनुसंधान करे तो जीव मुक्त हो  जाता है।

भीष्म पितामह इसी प्राणकला के बल  से शरशय्या पर लेटे रहे। अंत समय में भगवान श्री कृष्ण के दर्शन करते-करते ज्यों ही उन्होंने प्राणकला को समेटा, त्यों ही उनके शरीर से बाण निकलते गये और घाव भरते गये।

इंद्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है। इस प्राणकला पर जितना-जितना नियंत्रण होगा, उतना ही व्यक्ति समर्थ, सुखी और स्वस्थ रहेगा। बीमारी तब होती है जब प्राणापान की गति बिगड़ती है। खूब सर्दी लग गयी हो तब बायाँ नथुना बंद करके थोड़ी देर के लिए दायाँ नथुना चालू कर दें तो सर्दी गायब हो जाती है। गर्मी लगती हो तो दायाँ नथुना बंद करके बायाँ चालू कर दें तो गर्मी गायब हो जाती है। इस प्रकार प्राणकला को जानकर व्यक्ति स्वस्थ तो रह ही सकता है, साथ ही साधना में भी बड़ा लाभ उठा सकता है।

काकभुशुंडिजी ने कहा- “ब्रह्मण ! महाप्रलय से लेकर प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश को देखता हुआ मैं ज्ञानवान हुआ आज भी जी रहा हूँ। जो बात बीत चुकी है और जो होने वाली है, उसका मैं कभी चिंतन नहीं करता।

उपर्युक्त प्राणायाम विषयक दृष्टि का अवलंबन लेकर मैं इस कल्पवृक्ष पर स्थित हूँ। न्याययुक्त जो भी कर्त्तव्य प्राप्त हो जाते हैं, उनका फलाभिलाषाओं से रहित होकर केवल सुषुप्ति के समान उपरत बुद्धि से अनुष्ठान करता रहता हूँ।

प्राण और अपान के संयोगरूप कुंभककाल में प्रकाशित होने वाले परमात्म-तत्त्व का निरंतर स्मरण करता हुआ मैं अपने आप में स्वयं ही नित्य संतुष्ट हूँ, इसलिए दोषरहित होकर चिरकाल से जी रहा हूँ।

मैंने आज यह प्राप्त किया और भविष्य में दूसरा और सुंदर पदार्थ प्राप्त करूँगा – इस प्रकार की चिंता मुझे कभी नहीं होती। मैं अपने या दूसरे किसी के कार्यों की किसी समय, कहीं पर, कभी स्तुति और निंदा नहीं करता। शुभ की प्राप्ति होने पर मेरा मन हर्षित नहीं होता और अशुभ की प्राप्ति होने पर कभी खिन्न नहीं होता, क्योंकि मेरा मन नित्य सम ही रहता है।

मुने ! मेरे मन की चंचलता शांत हो गयी है। मेरा मन शोकरहित, स्वस्थ, समाहित और शांत हो चुका है, इसलिए मैं विकाररहित हुआ चिरकाल से जी रहा हूँ। लकड़ी, रमणी, पर्वत, तृण, अग्नि, हिम, आकाश – इन सबको मैं समभाव से देखता हूँ। जरा और मरण आदि से मैं भयभीत नहीं होता और राज्य-प्राप्ति आदि से भी हर्षित नहीं होता। इसलिए मैं अनामय होकर जीवित हूँ।

ब्रह्मन् ! यह मेरा बंधु है, यह मेरा शत्रु है, यह मेरा है और यह दूसरे का है – इस प्रकार की भेदबुद्धि से मैं रहित हूँ। लेन-देन और विहार करने वाला, बैठने और खड़ा रहने वाला, श्वास तथा निद्रा लेने वाला यह शरीर ही है, आत्मा नहीं है – यह मैं अनुभव करता हूँ।

मैं जो कुछ क्रिया करता हूँ, जो कुछ खाता-पीता हूँ, वह सब अहंता-ममता से रहित हुआ ही करता हूँ। मैं दूसरों पर आक्रमण करने में समर्थ होते हुए भी आक्रमण नहीं करता, दूसरों द्वारा खेद पहुँचाये जाने पर भी दुःखी नहीं होता और दरिद्र होने पर भी कुछ नहीं चाहता, इसलिए मैं विकाररहित हुआ बहुत काल से जी रहा हूँ।

मैं आपत्तिकाल में भी चलायमान नहीं होता, वरन् पर्वत की तरह अचल रहता हूँ। जगत, आकाश, देश, काल, परंपरा, क्रिया – इन सबमें चिन्मयरूप से मैं ही हूँ, इस प्रकार की मेरी बुद्धि है। इसलिए मैं विकाररहित  हुआ बहुत काल से स्थित हूँ।

स्वर्ग में मेरे दीर्घ आयुष्य की कथा सुनकर आप यहाँ पधारे। मेरे चिरंजीवी होने का रहस्य प्राणकला योगसाधना है। अधिक जीने या जल्दी शरीर छोड़ने से परमात्मानुभव में कोई फर्क नहीं पड़ता। चित्त को सम रखकर अल्प आयुष्यवाले भी उस परमात्मा का ऐसा अनुभव कर सकते हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 8-10, अंक 119

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जालन्दरनाथ


कुरुवंश में एक अत्यंत प्रसिद्ध राजा जन्मेजय थे। उनकी सातवीं पीढ़ी के राजा का नाम बृहद्रवा था। बृहद्रवा की रानी का सुलोचना था। वे हस्तिनापुर पर राज्य करते थे। राजा बृहद्रवा ने सोमयाग करने का विचार किया। तदनुसार राजा बृहद्रवा ने एक शुभ मुहूर्त निश्चित किया। उस शुभ मुहूर्त में यज्ञ आरम्भ किया गया। चारों ओर वेदमंत्रों की ध्वनियाँ गूँजने लगीं, सभी नगरवासियों के हृदय में प्रसन्नता छा गयी। सोमयाग की पूर्णाहूति के बाद जब ब्राह्मण यज्ञकुंड में से भस्म निकालने लगे, तब उनके हाथ का स्पर्श होते ही भस्म के भीतर से बालक के रोने की आवाज आयी। ब्राह्मणों ने बालक को बाहर निकाला। बालक का स्वरूप अत्यंत दिव्य और परम तेजस्वी था उस बालक को देखकर सभी लोग आश्चर्य करने लगे कि अग्निकुंड की प्रज्वलित अग्नि में यह बालक कैसे जीवित रहा होगा ? एक ब्राह्मण ने राजा से कहाः “महाराज ! यज्ञकुंड से यह तेजःपुंज बालक प्रसादरूप में मिला है।” यज्ञकुंड के भीतर से निकले हुए अयोनिज जीवित बालक को ब्राह्मणों ने राजा बृहद्रवा को सौंप दिया। रानी सुलोचना ने राजा से पूछाः “यह बालक किसका है ?” राजा ने बालक को रानी की गोद में देते हुए कहाः “भगवान अग्निदेव ने हमें सोमयाग की प्रसादी के रूप में यह बालक दिया है। मीनकेत की तरह यह भी अपना पुत्र है।”

रानी सुलोचना बालक को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और उसने बालक को अपने हृदय से लगा लिया। पुत्रस्नेह के कारण उसी समय रानी के स्तनों से दूध की धार बहने लगी। रानी ने बालक को स्तनपान कराया।

12 दिन बाद उत्सव मनाकर बालक का नामकरण किया गया। यज्ञकुंड में अग्नि की ज्वालाओं में बालक जीवित रहा, अग्निदेव की प्रसादी के रूप में उसका जन्म हुआ, इसलिए उसका नाम जालन्दर रखा गया। उस समय राजा ने प्रसन्नचित्त से ब्राह्मणों और याचकों को खूब दान दिया।

बालक जालन्दर चंद्रमा की कलाओं की भाँति बढ़ने लगा। राजा-रानी दोनों ही उस परम तेजस्वी बालक को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते थे और अपने भाग्य को सराहा करते थे। मीनकेत भी अपने छोटे भाई जालन्दर से बहुत प्रेम करता था। दोनों भाई प्रेमपूर्वक साथ-साथ विद्याभ्यास करते थे।

जालन्दर की वैराग्य वृत्ति दिन-प्रतिदिन अधिक बढ़ने लगी। राजसी सुख-वैभव उसे पसंद नहीं था।

राजा के मन में युवक जालन्दर का विवाह करने का विचार आया। राजा ने योग्य कन्या की तलाश करने के लिए अपने प्रधानमंत्री और राजगुरु को आज्ञा दी। आज्ञानुसार वे दोनों राजधानी हस्तिनापुर से बाहर गये।

जालन्दर धर्म-चर्चा करने के लिए प्रतिदिन राजगुरु के घर जाया करते थे, परंतु जब राजगुरु कन्या की तालाश में प्रधानमंत्री के साथ हस्तिनापुर से बाहर गये और कई दिनों तक नहीं लौटे, तब एक दिन जालन्दर ने अपनी माता रानी सुलोचना से पूछाः “मातुश्री ! राजगुरु और प्रधानमंत्री कहाँ गये हैं, आजकल वे दिखाई नहीं देते? ”

तब रानी सुलोचना ने कहाः “हे पुत्र ! तुम्हारे लिए राजा की आज्ञा से कन्या ढूँढने गये हैं ताकि तुम्हारा विवाह कराया जा सके।

जालन्दर ने पूछाः “माता ! कन्या किसे कहते हैं ?”

रानी ने कहाः “जिस लड़की का विवाह न हुआ हो, उसे कन्या कहा जाता है।”

जालन्दर ने फिर पूछाः “और विवाह किसे कहते हैं ?”

रानी ने कहाः “वर-वधू के धर्मानुसार एक सूत्र में बँधने की क्रिया को विवाह कहते हैं।”

जालन्दर ने पूछाः “वधू कैसी होती है ?”

रानी ने कहाः “वधू मेरे जैसी होती है। जैसी मैं हूँ, वैसी तेरे लिए भी दुल्हन आयेगी।” जालन्दर इन बातों से अनजान हैं रानी को यह जानकर आश्चर्य हुआ। माँ की बातें सोचते हुए जालन्दर वहाँ से उठकर तुरन्त ‘गुरु उद्यान’ में पहुँचे, वहाँ अपने मित्रों के साथ खेलते-खेलते जालन्दर ने उन्हें बताया कि मेरे माता-पिता मेरे लिए दुलहन ला रहे हैं। दुलहन किस लिए लाते हैं, मुझे पता नहीं है। अगर आप लोगों को पता हो तो मुझे बताइये।

साथियों को जालन्दर की बात सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हें यह अनुमान भी नहीं था कि इतना बड़ा हो जाने पर भी जालन्दर को इन बातों का जरा भी ज्ञान नहीं है।

साथियों ने जालन्दर से कहाः “दुलहन आयेगी, विवाह होगा, शहनाइयाँ बजेंगी और उत्सव मनाया जायेगा।”

जालन्दर ने पूछाः “परंतु उससे मुझे क्या लाभ होगा ?”

साथियों ने कहाः “एक सुन्दर दुलहन मिल जायेगी।”

जालन्दर ने कहाः “दुलहन का मैं क्या करूँगा ?”

साथी बोलेः “उससे संतानें होंगी। आप उनके पिता बनेंगे। इस प्रकार वंश की वृद्धि होगी।”

उसी समय जालन्दर का विवेक जागृत हुआ और सोचने लगे कि ‘यह जगत कितना अधम है ? जिस विवाह के कारण इतने झंझटों में फँसना पड़ेगा, वह कार्य मैं कभी नहीं करूँगा।’

जालन्दर इस प्रकार विचार करते हुए अपने साथियों में से उठे और दूर बैठकर सोचने लगे। माता सुलोचना के शब्दों का स्मरण होने लगा। सोचते-सोचते जालन्दर की वैराग्य-वृत्ति और भी जोर पकड़ने लगी। उन्होंने गृहत्याग का निश्चय किया और वहाँ से उठकर सीधे वन की ओर चल पड़े।

कुछ नगरवासियों ने उन्हें नगर के बाहर जाते हुए देखा, परंतु राजकुमार है इस भय से वे कुछ बोल नहीं पाये। लेकिन जिसने भी राजकुमार को जाते हुए देखा वे सभी दौड़कर राजा के पास गये और बताया कि हमने राजकुमार जालन्दर को नगर के बाहर जाते हुए देखा है। यह सुनकर राजा चौंक गये। उन्होंने जालन्दर को ढूँढने के लिए अपने कई सेवक भेजे। राजा-रानी को बहुत चिन्ता होने लगी। दूर-दूर तक गये हुए सेवकों ने लौटकर राजा को यही बताया कि “राजकुमार नहीं मिले।”

जैसे, अमावस्या के दिन चंद्रदर्शन न होने से सब जगह अँधेरा छा जाता है, वैसे ही जालन्दर के न मिलने से राजा, रानी और प्रजाजनों के हृदय में निराशारूपी अँधेरा छा गया। राजा-रानी सोचे लगे कि अग्निदेव का प्रसादरूपी चैतन्य-रत्न हमारे हाथ से चला गया। दोनों विलाप करने लगे, राजा का एक सरदार बुद्धिशाली था। उसने राजा को एक समझाने का प्रयास करते हुए कहाः “राजन् ! जालन्दर तो अयोनिज अवतार हैं, वे ईश्वर के अंशावतार हैं। इसलिए काल का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। आप चिंता न करें। जब तक वे नहीं मिलते, तब तक हम उन्हें ढूँढने का प्रयास जारी रखेंगे, कभी-न-कभी तो मिल ही जायेंगे। आप धीरज रखिये….।’

आखिर दोनों को धैर्य धारण करना पड़ा। उधर जालन्दर उत्तर दिशा की ओर चलते-चलते गहन वन में जा पहुँचे। उस समय रात हो जाने के कारण वे जंगल में ही एक वृक्ष के नीचे सो गये। उसी रात को जंगल में दावानल फैल गया। वह अग्नि वन के वृक्षों को जलाती हुई उसी जगह पर आ पहुँची, जहाँ जालन्दर सो रहे थे।

जालन्दर को वहाँ सोते देखकर अग्निदेव को राजा बृहद्रवा के सोमयाग का स्मरण हुआ कि ‘यह जालन्दर तो मेरा ही पुत्र है। मैंने ही सोमयाग के समय यज्ञकुंड में गर्भ डाला था। उसी में से जालन्दर का जन्म हुआ था। यह वही मेरा पुत्र है, परंतु जालन्दर का इस अरण्य में आने का क्या कारण होगा ?’

इस प्रकार सोचते हुए अग्निदेव शांत हुए और अपने अग्निरूप को समेटकर देवरूप धारण करके जालन्दर के पास आकर उन्हें जगाया। जालन्दर ने उठते ही आश्चर्य चकित होकर पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’

अग्निदेव ने कहाः “मैं अग्निदेवता हूँ। मैं ही तुम्हारा माता-पिता हूँ।”

जालन्दर ने कहाः “मैं तो राजा बृहद्रवा का पुत्र हूँ। मेरी माता तो रानी सुलोचना है। आप मेरे माता-पिता किस प्रकार हुए ?

तब अग्निदेव ने जालन्दर क उनकी जन्म कथा का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया।

अग्निदेव ने पूछाः “जालन्दर इस घोर अरण्य में तुम्हारा अकेले आने का क्या कारण है ? तुम क्या चाहते हो ?”

जालन्दर ने कहाः “मैं सांसारिक बंधनों में बंधना नहीं चाहता। मैं अपने जीवन को सार्थक करना चाहता हूँ, मैं चिरंजीवी होना चाहता हूँ। आप मेरे माता-पिता हैं, अतः आप ही मेरी सहायता करें। अगर यह मानव-देह प्राप्त होने पर भी जीवन सार्थक न हुआ तो मेरा जन्म लेना भी व्यर्थ हो जायेगा। कृप्या मेरे इस जीवन को सार्थक कर दीजिये।”

अपने पुत्र जालन्दर की बातें सुनकर पिता अग्निदेव प्रसन्न हुए। वे जालन्दर को गिरनार पर्वत पर भगवान दत्तात्रेय जी के पास ले गये। पिता-पुत्र दोनों ने साष्टाँग दण्डवत प्रणाम किया। अग्निदेव को देखकर दत्तात्रेय जी हर्षित हुए और उन्हें आलिंगन किया।

दत्तात्रेय जी ने दोनों को आशीर्वाद देकर आसन पर बिठाया और अग्निदेव से पूछाः “यह बालक कौन है ?”

अग्निदेव ने जालन्दर के जन्म का सम्पूर्ण वृत्तांत सुनाया और नम्रतापूर्वक प्रार्थना की ‘भगवन् ! आप मेरे इस पुत्र को नाथ पंथ की दीक्षा देकर इसका जीवन सार्थक कीजिये।’

दत्तात्रेय जी ने अग्निदेवता की प्रार्थना स्वीकार की। अग्निदेव दत्तात्रेय जी के पास जालन्दर को छोड़कर वहाँ से चले गये। दत्तात्रेय जी ने जालन्दर को नाथ पंथ की दीक्षा देकर उसका नाम जालन्दरनाथ रखा। शास्त्राध्ययन के साथ-साथ अन्य सभी विद्याओं में भी जालन्दर को पारंगत किया। उसके बाद गुरु-शिष्य दोनों ने साथ रहकर 12 वर्ष तक तीर्थाटन किया। तीर्थयात्रा करते-करते दत्तात्रेय जी जालन्दरनाथ को बदरिकाश्रम ले गये। वहाँ उन्हें 12 वर्ष तक तपस्या करने की आज्ञा दी। तपस्या पूरी होने के बाद वे जालन्दरनाथ को शिवजी के पास ले गये। शिवजी सहित अन्य देवताओं ने श्री जालन्दरनाथ को आशीर्वाद दिये।

शिवजी ने अग्निदेवता को बुलाकर तीन दिन तक पिता-पुत्र को अपने पास रखा और जालन्दरनाथ द्वारा कनिकानाथ का प्रागट्य करवाया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 19-21, अंक 198

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जगत क्या है ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में पाँच प्रकार से जगत की व्याख्या करते हुए भगवान श्रीराम कहते हैं- 1. जगत मिथ्या है। 2. जगत आत्मा में आभासरूप है। 3. जगत कल्पनामात्र है। 4. जगत अनादि अविद्या से भासता है। 5. जगत का स्वभाव परिणामी है।

जगत पहले नहीं था –  यह पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा, अब भी बदल रहा है। पहले जहाँ बीहड़ जंगल था या खाइयाँ थीं, वहाँ अब मकान बन गये हैं और जहाँ पहले मकान थे, वहाँ अब खाइयाँ हो गयी हैं। जहाँ कभी समुद्र था, वहाँ अभी इमारतें खड़ी हैं और जहाँ इमारतें थीं, वहाँ अभी समुद्र लहरा रहा है। सब सपना हो जाता है।

जगत आत्मा में आभासरूप है – अपनी आत्मा में भासता है। जैसा विचार करो वैसा ही जगत भासता है। कुत्ते को जगत अपने ढंग का दिखता है, हाथी को अपने ढंग का। बाजार में कोई भेड़ दिखे तो कसाई सोचेगा कि ’15 किलो माल (मांस) है’, चमार सोचेगा कि ‘3 या 4 फीट माल (चमड़ा) है’, और ग्वाला सोचेगा कि ‘1 किलो दूध देगी’। यदि कोई भक्त देखेगा तो सोचेगा कि ‘भगवान की सृष्टि का मूक प्राणी है’ और ज्ञानी देखेगा तो सोचेगा कि ‘इसका शरीर प्रकृति का है, परंतु इसके अंदर जो परमात्म-चेतना कार्य कर रही है, सबके अंदर भी वही चेतना है’। इस प्रकार जिसकी जैसी दृष्टि, वैसा ही उसे जगत भासता है।

तुम तो वही के वही हो, परंतु तुम्हारे प्रति जो शुभ भाव रखते हैं उन्हें तुम सज्जन लगोगे और निंदक को बेकार लगोगे। अतः जो जैसी सोच रखता है, उसे जगत वैसा ही होकर भासता है।

जगत कल्पनामात्र है – यदि कोई स्वर्ग में बैठा है और नरक की कल्पना करता है तो उसके लिए स्वर्ग भी नरकरूप हो जाता है, क्योंकि उसने नरक की कल्पना की है। अतः जिसकी जैसी मान्यता होती है, जगत वैसा ही भासता है।

जगत अनादि अविद्या से भासता है – जैसे, खरगोश के सींग और आकाश के फूल असत् होते हैं, वैसे ही जगत असत् है, परंतु असत् रूप अविद्या से सत्य होकर भासता है।

जगत का स्वभाव परिणामी है – जैसे दूध को बिना गरम किये रख दो फट जाता है अथवा जमने पर दही हो जाता है, वैसे ही पूरा जगत परिणामी है। जो बच्चा कुछ वर्ष पहले किलकारी कर रहा था, वही अब वृद्ध होकर, लकड़ी टेककर चल रहा है। वही सिपाही था जो चलते – चलते कई कीड़े मकोड़ों को पैरों तले रौंदता था, उसे पता भी नहीं चलता था। युद्धभूमि में घायल होने पर या मरने पर उसी के शरीर को गीध, कुत्ते, सियार नोचते हैं। ऐसा है जगत का परिणामी जीवन ! यही है संसार !

इस संसार को मिथ्या जानो, आभासमात्र जानो, अविद्यामय जानो, कल्पनामात्र जानो, परिणामी जानो। जो मूढ़ हैं, अल्पमति हैं, वे ही संसार को सत्य मानकर आसक्त होते हैं और फँस मरते हैं। वे संसारी होकर जन्मते-मरते रहते हैं। परंतु जो समझदार हैं, बुद्धिमान हैं, वे जगत के इन 5 लक्षणों को जानकर जगत से उपराम हो जाते हैं और अपने नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव में जग जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 9, अंक 118

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