सत्संग पराग – कबिरा कुत्ता राम का……

सत्संग पराग – कबिरा कुत्ता राम का……


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

आज का युग इतना गिरा हुआ युग है कि माता-पिता और गुरुजनों का कहा मानने से उन्नति होती है यह बात समझ में नहीं आती, इतनी मति मारी गयी। जो लफंगे कहते हैं उसी को सहयोग देकर बेचारे युवक-युवतियाँ पथभ्रष्ट हो रहे हैं। जवानी तो खिलता हुआ फूल है, महकता हुआ गुलशन है लेकिन देखो तो बेचारे तनावों से भरे हैं, पीड़ाओं से भरे हैं क्योंकि लफंगों की दोस्ती ने नोचकर कहीं का न रखा।

लफंगे कौन हैं ? वही लफंगे हैं जो हमको भगवान से, भगवद् रस से, भगवद्-शान्ति से, भगवद्-ज्ञान से, भगवद्-जनों से दूर करते हैं। काम है, क्रोध है, लोभ है, मद है, मात्सर्य है, चाहे मनचले यार हैं, दोस्त हैं जो भी हमको भगवान से दूर करते हैं, श्रद्धा से दूर करते हैं, वे सभी लफंगे हैं। तो हम भगवान को पुकार लगायें, गुहार लगायें कि ‘प्रभु ! हमारी रक्षा करो।’ ज्ञानेश्वर महाराज जैसे भी गुहार लगाते थे। कबीर जी भी गुहार लगाते थेः

कबिरा कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाम।

गले राम की जेवरी1, जित खैंचे तित जाऊँ।

तो तो करे तो बाहुड़ो, दुर दुर करे तो जाऊँ।

  1. रस्सी।

‘तो तो’ करे तो नजदीक हो जाऊँ और ‘दूर दूर’ करे तो दूर हो जाऊँ।

ज्यों हरि राखे त्यों रहूँ, जो देवे सो खाऊँ।

हमारी अपनी ही इच्छा हमारे लिये मुसीबत हो जाती है। मनचाहा हुआ तो 10000 जन्मों से भी मुक्ति नहीं होगी। अपने मन की करी तो भटकाने वाला मन जीवित रहेगा। लोफरों की चाही करोगे, लफंगों की चाही करोगे तो माता-पिता से दूर हो जाओगे। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मात्सर्य – ये सारे लफंगे हैं। इनको सहयोग देने की करेंगे तो आत्मा-परमात्मारूपी माता-पिता से दूर चले जाएँगे।

कबीर जी कहते हैं- कबिरा कुत्ता राम का…… क्या निरहंकारिता है ! क्या देहाध्यास से उपरामता है !! कोई कुत्ता कह देता है तो लोग भड़कते हैं और ये महापुरुष अपने को कह रहे हैं-

कबिरा कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाम।

नाम भी खोज लिया। अहाहा…..!

कलजुग केवल नाम आधारा।

रट लगा दो, पुकारो – ॐ….ॐ….. हमारे मन को तू जेवड़ी (रस्सी) बाँध ले मेरे नारायण, मेरे राम ! कुत्ता ऐसा थोड़े ही बोलता है कि मेरे लिए ये पकवान बना दो। जो मालिक ने दिया वाह-वाह ! ऐसे ही तू जो दे, वाह-वाह ! तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे काँटों से भी प्यार। चाहे सुख दे, चाहे दुःख दे, मान दे, अपमान दे…..तेरा दिया हुआ दिखे, ऐसा नजरिया दे दे न ! हे माधव ! सदबुद्धि दे। हम अपने मन के चंगुल से बाहर आयें, ऐसी कृपा कर प्रभु ! इस मन ने तो हमें कई युगों तक भटकाया, अभी भी यह अपनी मनमानी कराने को घसीटकर ले जा रहा है। महाराज ! दया करो ! हे अच्युता ! हे हरि ! हे माधव ! तू रक्षा कर देव….सदबुद्धिदाता !

केवल 40 दिन सच्चे हृदय से, कातर भाव से कहो कि ‘मैं तेरे द्वार का कुत्ता हूँ। तेरे द्वार का बालक हूँ। भटका हुआ अनजान बच्चा हूँ। तू मुझे सदबुद्धि दे।’ इतना आप कह सकते हो और वह दाता सदबुद्धि देगा तो इन लफंगों की दाल नहीं गलेगी। जब असत् संग होता है, असत् साधन होता है तो सत्संगी होते हुए भी हमारा पतन हो जाता है और जब सत् साधन होता है तो फिर पतन से हम बाहर आ जाते हैं। आप ऐसा मत समझना कि वह दूर है। सत्य पर, परमात्मा पर कोई आवरण आ गये हैं और हम मिटायेंगे, हटायेंगे तब वह मिलेगा। अरे, उस सत्यस्वरूप की सत्ता से ही आप देख रहे हो, सुन रहे हो, मन संकल्प-विकल्प कर रहा है, बुद्धि निर्णय कर रही है। वह इतना नजदीक है, सर्वसमर्थ है, हितैषी है। उसकी कृपा में कहीं कमी नहीं लेकिन हम देखने, सूँघने, सुनने, चखने और स्पर्श करने के इन लफंगे विकारों में सत्बुद्धि कर बैठे हैं और उस सत् से विमुख जैसे दिख रहे हैं फिर भी विमुख नहीं हो सकते। विकारों के सम्मुख होते हुए हम दिख रहे हैं, फिर भी विकारों के सम्मुख हम टिक नहीं सकते। कितना भी कामी व्यक्ति हो काम में टिक नहीं सकता, व्यक्ति क्रोध में टिक नहीं सकता, चिंता में टिक नहीं सकता, अहंकार में टिक नहीं सकता और चैतन्यस्वरूप के साथ का उसका संबंध मिट नहीं सकता। ओ हो ! क्या स्पष्ट सत्य है !! नारायण… नारायण….. नारायण….. नारायण….

कबिरा कुत्ता राम का…. जो देवे सो खाऊँ।

आप ऐसे बन जाओ न ! तेरी मर्जी पूरण हो ! दुःख दिया है, तुमने भेजा है, वाह महाराज ! आप ही का प्रसाद है। विघ्न बाधा आये तो विचार आये कि ‘आपने मजबूत होने के लिए भेजी है वाह-वाह !’ सफलता और यश आये तो सोचें कि ‘हमें उत्साहित करने के लिए भेजे हैं, वाह-वाह महाराज ! दाता क्या-क्या प्रक्रियाएँ हैं विकसित करने की !’

कबिरा कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाम।

गले राम की जेवरी, जित खैंचे तित जाऊँ।

जो तेरी आज्ञा। हमने गुरुजी के चरणों में अपने मन को कुत्ता बना दिया थाः ‘जो गुरु की आज्ञा।’ ऐसी साखी तो हम बना नहीं पाये थे लेकिन अपने को ऐसा ढालने में गुरु की कृपा का साथ रहा। मैंने अपनी मनचाही कभी नहीं करी। मनचाही करते रहेंगे तो हमारी मनचाही समझो हो भी गयी तो बंधन बढ़ंगे, घटेंगे नहीं, वासना बढ़ेगी, अहंता बढ़ेगी, ममता बढ़ेगी। नानकजी ने भी कहाः

तेरा भाणा मीठा लागे।

जो तुधु भावै साई भली कार।

जो तुझे भाता है वह अच्छा है। हम दुःखी कब होते हैं ? जब अपनी मनचाही करने में लगते हैं। मनचाही होती है तो अहंकारी और भोगी बनते हैं और मनचाही नहीं होती तो फरियादी और दुःखी बनते हैं। दोनों तरफ दुःख ही दुःख है, घाटा ही घाटा है ! भगवान में प्रीति हुए बिना…..

बिन रघुवीर पद जिय की जरनी न जाई।

भगवान में प्रीति किये बिना ये विकार, वासनाएँ, अहंकार – ये चित्त की लफंगी वृत्तियाँ शांत नहीं बैठती। भगवान में प्रीति करो तो इनकी दाल नहीं गलती।

कबीर जी बोलते हैं- कबिरा कुत्ता राम का….. जहाँ भगवान ले जाय, जिस समय जो दे दे, ‘वाह-वाह !’ करके उसमें प्रीति और विश्रांति का सुख बनायें।

हम अहं के कुत्ते हो जाते हैं। जहाँ अहं ले जाये वहाँ भागते हैं और कबीर  अंतर्यामी परमात्मा के हो जाते हैं और वे अपने लिए बोलते हैं ‘कुत्ता’!…. आप ईश्वर को अपना मानकर ईश्वर के भरोसे अपनी डोर लगा दो, फिर देख लो मजा ! ‘महाराज ! हमको तो आपको पाना  है, हम नहीं जानते कैसे पायें। अब हम आपके हैं। ॐ…. ॐ….ॐ….. ॐकार का उच्चारण करते हुए ‘ॐकृष्ण’, ॐ अच्युत’, ‘ॐगुरु’, ‘गोविन्द’,… रात को सोते समय ऐसा करते-करते ॐ स्वरूप भगवान का थोड़ा चिंतन करके सो जाओ। आज से पक्का कर लो –रोज रात को भगवान से बात करके फिर सोयेंगे। पक्का, वचन पक्का…. कसम खा लो, सिर पर हाथ रखो। फिर सुबह थोड़ी देर – मेरी हो सो जल जाय, तेरी हो सो रह जाय। मेरी हैं इच्छाएँ, वासनाएँ, कामनाएँ, बेवकूफी और तेरी है मिलने की मधुरता, तेरी कृपा रह जाय मेरी इच्छा जल जाय। इतना कहने मे की जोर पड़ेगा क्या ? डर लगेगा क्या ? आपकी हैं तो क्या है और आज तक पूरी हुई तो उन निगुरियों ने क्या दे डाला ? इतनी सारी इच्छाएँ, वासनाएँ आयीं और उनके अनुसार आप नाचे, उन्होंने क्या दे दिया आपको ? समय, शक्ति, सूझबूझ, बल-बुद्धि, तेज, तंदरुस्ती, आयुष्य नष्ट किया और क्या दिया ? तो बोल दो कि मेरी हो सो जल जाय….मेरी इच्छाएँ हों, वासनाएँ हों वे जल जायें और तेरी जो इच्छा हो वह रह जाय’ और दूसरी बात, ऐसा करने के बाद समझो मुसीबत आ गयी तो सोचो, ‘वाह-वाह ! तूने मुसीबत भेजी है, वाह रे वाह !! आ सहेली हो जायेगी। मान आया वाह वाह…. अपमान आया वाह-वाह….. निंदा आयी वाह-वाह…. स्तुति आयी वाह-वाह….ये सारे दिखेंगे तो विष के गोले लेकिन अंदर अमृत के तोहफे बन जायेंगे।

अपनी मनचाही में जो लगता है, एक जन्म नहीं एक करोड़ जन्म ले ले और बड़े गुरु भी मिल जायें तो भी मुक्ति नहीं मिलेगी।

मेरी हो सो जल जाय, तेरी हो सो रह जाय।

इससे हमको बड़ा फायदा हुआ। बाल बढ़ जाते तो हम गुरुजी को चिट्ठी लिखते कि ‘दाढ़ी-बाल बढ़ गये हैं, मुँडन करूँ या छँटाई करूँ, जो आज्ञा….।’ गुरु जी कभी कहीं, कभी कहीं… खत घूमता-फिरता जाता और फिर गुरुजी के इर्द-गिर्द कृपानाथ लोग रहते थे कि ‘आशारामजी का खत काहे को देना जल्दी से !’ तो कभी खत पहुँचे, कभी न पहुँचे, फिर भी कभी-कभी पहुँचके, घूम फिर कर उतर आता कि छँटाई करा दो तो हम छँटाई कराते, मुंडन कराते। हमने मान रखा था कि हम समर्पित हैं तो ये दाढ़ी-बाल हमारे बाप की चीज नहीं हैं, गुरुजी की चीज हैं। गुरुजी की आज्ञा जब तक नहीं आती थी तब तक हम छँटाई नहीं कराते थे। बस, गुरुजी को कहेंगे वही….तो मन के चंगुल से बचने में मुझे तो बहुत फायदा हुआ, फटाक से फायदा हुआ।

आप लोग अपने मन की करवाने के लिए बापू के पास आते हैं – यह कर दो, ऐसा कर दो, ऐसा ध्यान लग जाय….।’ ईमानदारी से बोलो। मन की होती रही तो 10000 जन्म बीत जायें पिया नहीं मिलेगा, और सब मिल-मिल के मिट जायेंगे अपन कंगले रह जायेंगे ! अपने मन की हो तब भी वाह-वाह और नहीं हुई तो दुगनी वाह-वाह कि तेरे मन की हुई वाह…. ! और यह भी बिल्कुल वैज्ञानिक बात है कि सब अपने मन की होती नही, जितनी होती है वह सब भाती नहीं और जो भाती हैं वह टिकती नहीं, इसमें संशय है क्या ? तो फिर काहे को कंगले बनो, चलो कर दो आहुति… जाने दो, जब टिकने वाली नहीं है तो अभी से भगवान के गले पड़ोः ‘महाराज ! तेरी हो।’ यह बहुत सुन्दर तरीका है बहुत ऊँची चीज पाने का !

सत्संग से जो भला होता है उसका वर्णन नहीं हो सकता। सत्संग कर्ता का जितना उपकार मानो, उतना कम है। जो सत्संग देने वाले संत का उपकार नहीं मानते या उनमें दोषदर्शन करते हैं, उनको बड़ा भारी पाप लगता है। उनकी बुद्धि मारी जाती है, कुंठित हो जाती है विकृत हो जाती है। रब रूसे तो मत खसे। परमात्मा रूठता है तो मति मारी जाती है। फिर कल्याणकर्ता में भी दोषदर्शन हो जायेगा। माँ हितैषी है उससे भी बच्चों को नफरत हो जाती है, बाप से नफरत हो जाती है। लोफरों से प्रीति होने लगती है तो समझो, छोरों का सत्यानाश है ! ऐसे ही परमात्मा से तो प्रेम नहीं है और मनचले विकारों के साथ हम हो गये। गुरु और ईश्वर या शास्त्र की बात में तो विश्वास नहीं, उस पर चलते नहीं और काम, क्रोध, लोभ, मोह – ये वृत्तियाँ जैसा बोलती हैं ऐसा ही हम करने लगे, इसीलिए दुःख मिटता नहीं सुख टिकता नहीं। नहीं तो सुखस्वरूप आत्मा है, फिर भी मनुष्य दुःखी ! और वह दाता….. दया करने में उसके पास कमी नहीं, दूरी नहीं, देर नहीं, परे नहीं, पराया नहीं। माँ परायी है क्या ? फिर भी जब लोफरों की दोस्ती में  आ गये तो माँ ही परायी लग रही है, पिता ही पराये लग रहे हैं। लफंगों के मेले में आ गये तो माँ बाप अपने नहीं लगते, वे लफंगे ही अपने लगते हैं। ऐसे ही अपन लोग भी लफंगों की दोस्ती में आ गये कि ‘जरा इतना कर लूँ, जरा ऐसा कर लूँ….’ मनचाही…

अब लफंगों के कहने से बचने के लिए क्या करें ? कोई-न-कोई कसम खा लो कि भई ! इतनी लफंगों की बात नहीं मानूँगा और इतनी माँ-बाप और सदगुरु की मानूँगा। हितैषियों के पक्ष में थोड़ा निर्णय करो और लफंगों के पक्ष के निर्णय तुरंत न करो, जल्दी अमल में न लाओ, उनमें कटौती करते जाओ – यही उपाय है।

तो खा लोगे कसम ? कि हम आवाराओं की सब बातें नहीं मानेंगे। माँ-बाप और संत हमारे हितैषी हैं, उनकी बात मानेंगे। संत भी माई-बाप होते हैं। तो रात को सोते समय भगवान का सुमिरन करके फिर सोना और सुबह उठो तो चिंतन करो कि ‘हम आवाराओं के प्रभाव में नहीं रहेंगे, अब प्रभु तेरे प्रभाव में रहेंगे। तू सम है, तू शांत है, तू नित्य है, सुख-दुःख अनित्य हैं। हम अनित्य से प्रभावित नहीं होंगे, नित्य की स्मृति नहीं छोड़ेंगे। वाह-वाह !’ तो दुःख के कितने भी पहाड़ आ जायें, आप उनके सिर पर पैर रखकर ऊपर होते जाओगे। जो जितना विघ्न बाधा और मुसीबतों से जूझते हुए ऊपर जाता है वह उतना महान हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 12-15, अंक 204

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