(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
आप भगवान का स्मरण करोगे तो भगवान आपका स्मरण करेंगे क्योंकि वे चैतन्यस्वरूप हैं। आप पैसों का, बँगले का स्मरण करोगे तो जड़ पैसों का, बँगले का स्मरण करोगे तो जड़ पैसों को, जड़ बँगले को पता नहीं है कि आप उनका स्मरण कर रहे हो। आप गाड़ी का स्मरण करोगे तो वह अपने-आप नहीं मिलेगी लेकिन भगवान का स्मरण करोगे तो वे स्वयं आकर मिलेंगे। शबरी ने भगवान का स्मरण किया तो वे पूछते-पूछते शबरी के द्वार पर आ गये। भावग्रही जनार्दनः….. मीरा ने स्मरण किया तो जहर अमृत हो गया। वह हृदयेश्वर आपके भाव के अनुसार किसी भी रूप में कहीं भी मिलने में सक्षम है, अगर सोऽहंस्वरूप में मिलना चाहो तो सोऽहंस्वरूप में भी अपना अनुभव कराने में समर्थ है। केवल अपनी बुद्धि में उसके प्रति भाव होना चाहिए। देवी देवता का, मूर्ति का आदर-पूजन, माता-पिता अथवा गुरु का आदर-पूजन यह हमारी बुद्धि में भगवदभाव को, भगवदज्ञान को, भगवदरस को प्रकट करने का मार्ग है।
भाव की बड़ी महिमा है। मान लो, एक सुपारी है। एक को उसे खाने का भाव है, दूसरे को उससे कमाने का भाव है, तीसरे को उसे पूजने का भाव है। तो फायदा किसने लिया ? खाने वाले ने, कमाने वाले ने कि पूजने वाले ने ? सुपारी तो जड़ है, प्रकृति की चीज है, उसमें भगवदबुद्धि करने से भगवदभाव पैदा होता है और खाने की भावना करते हैं तो तुच्छ लाभ होता है। बेचकर कमाने की भावना करते हैं तो ज्यादा लाभ होता है लेकिन उसमें गणेश जी का भाव करके पूजा करते हैं तो और ज्यादा लाभ होता है। सुपारी तो वही-की-वही है परंतु खाना है तो भोग, कमाना है तो लोभ और पूज्यभाव, भगवदभाव है तो भगवदरस देके भगवान के समीप कर देगी। अब सुपारी को खाके मजा लो, बेचके मजा लो या उसका पूजन करके मजा लो तुम्हारी मर्जी। खाके मजा लिया तो भोगी, बेचके मजा लिया तो लोभी और सुपारी में गणपति-बुद्धि की तो आप उपासक हो गये, भक्त हो गये और सुपारी का तत्त्व जान के अपना तत्त्व और सुपारी का तत्त्व ‘एकमेव अद्वितीयं‘ कर दिया तो हो गये ब्रह्म !
ऐसे ही अगर आप गुरु से संसारी फायदा लेते हैं तो यह भोगबुद्धि हुई लेकिन गुरु चिन्मय हैं, दिव्य हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, तारणहार हैं, व्यापक हैं, सबके अंतरात्मा, भूतात्मस्वरूप हैं, प्राणिमात्र के हितैषी हैं, सुहृद हैं – ऐसा अहोभाव करते हैं और उनके वचनों में विश्वास करते हैं, उनके अनुसार चलते हैं तो कितना फायदा होता है !
आप सुपारी में गणपति का भाव करो तो सुपारी उसी समय आपके लिए ऐसा भाव नहीं कर सकती कि ‘यह मुक्तात्मा हो जाय, चिंतारहित हो जाये…।’ ऐसा सोचकर सुपारी उपदेश नहीं देगी। आपके अपने भाव के अनुसार अंतःकरण की वृत्ति बनेगी लेकिन गुरू के प्रति भगवदभाव, ब्रह्मभाव, अहोभाव करोगे तो गुरूदेव के अंतःकरण से भी आपके उद्धार के लिए शुभ संकल्प की, विशेष कृपा की वर्षा होने लगेगी, उनके द्वारा ऊँचा सत्संग मिलेगा, आनंद-आनंद हो जायेगा। सुपारी वही की वही लेकिन नजरिया बदलने से लाभ बदल जाता है। गुरु वही के वही लेकिन नजरिया बदलने से लाभ बदल जाता है।
कर्मों में भी अलग-अलग भाव अलग-अलग फल देते हैं। जहाँ राग से, द्वेष से सोचा जाता है, वहाँ कर्म बंधनकारक हो जाता है। जहाँ करने का राग मिटाने के लिए सबकी भलाई के, हित के भाव से सोचा और किया जाता है, वहाँ कर्म बंधन से छुड़ाने वाला हो जाता है। जैसे कोई दुष्ट है, धर्म का, संस्कृति का, मानवता का हनन कर-करके अपना कर्मबन्धन बढ़ाने वाले दुष्कर्म में लिप्त है और न्यायाधीश उसकी भलाई के भाव से उसे फाँसी देता है तो न्यायाधीश को पुण्य होता है। ‘हे प्रभु जी ! अब इस शरीर में यह सुधरेगा नहीं, इसलिए मैं इसे फाँसी दे दूँ यह आपकी सेवा है’ – इस भाव से अगर न्यायाधीश फाँसी देता है तो उसका अंतःकरण ऊँचा हो जाता हो जायेगा लेकिन ‘यह फलाने पक्ष का है, अपने पक्ष का नहीं है…. इसलिए फाँसी दे दो’ – ऐसा भाव है तो फिर न्यायाधीश का फाँसी देना अथवा सजा देना बंधन हो जायेगा।
आपके कर्मों में हित की भावना है, समता है तो आपके कर्म आपको बंधनों से मुक्त करते जायेंगे। अगर स्वार्थ, अधिकार और सत्ता पाने की या द्वेष की भावना है तो आपके कर्म से किसी को लाभ मिलता है तो अपनी संसार का आसक्ति मिटती है, दूसरे की भलाई का, हृदय की उदारता का आनंद आता है लेकिन दूसरे का हक छीना तो संसार की आसक्ति और कर्मबन्धन बढ़ता है।
आप जैसा देते हैं वैसा ही आपको वापस मिल जाता है। आप जो भी दो, जिसे भी दो भगवदभाव से, प्रेम से और श्रद्धा से दो। हर कार्य को ईश्वर का कार्य समझकर प्रेम से करो, सबमें परमेश्वर के दर्शन करो तो आपका हर कार्य भगवान का भजन हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 17,18 अंक 206
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