पूज्य बापू जी
इंदिरा गाँधी जिनके चरणों में मत्था टेकती थी वे आनंदमयी माँ अपने आश्रम में भी आयी थीं। मैं भी उनके आश्रम में आता-जाता रहता। इंदिरा गाँधी की गुरु आनंदमयी माँ जहाँ मत्था टेकती थीं वे थे हरि बाबा।
एक बार हरि बाबा यात्रा करते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक किसान पर उनकी नजर पड़ी। वह हल चला रहा था। बाबा तो बाबा होते हैं भाई ! आ गयी रहमत उस पर। किसान के पास गये और बोलेः “भाई ! दोपहर हो गयी है, आओ अब थोड़ी देर हरि नाम कीर्तन करते हैं।”
किसान बोलाः “बाबा ! आपका रास्ता अलग है, मेरा अलग है। आप तो रोटी माँगकर खा लोगे। मैं तो बाल बच्चे वाला हूँ। यह हल छोड़कर तुम्हारे साथ कीर्तन करूँगा तो मेरा क्या होगा ?”
“देख भैया ! तेरा हल मैं चलाता हूँ, तू थोड़ी देर हरिनाम ले ले। हरि ॐ…. हरि ॐ….. प्यारे ॐ…. हरि ॐ… ऐसा कर ले।”
“बाबा ! आप अपने रास्ते जाओ, काहे को मुझे परेशान कर रहे हो ?”
“अरे बेटा ! परेशानी तो तब है जब हरि से विमुख होते हैं।”
ऐसा कह के बाबा ने बैल की रस्सी एक हाथ में ले ली और दूसरे हाथ से हल का डंडा पकड़ा और उसको बोलेः “तू यहाँ हरि ॐ….. हरे राम….. हरे राम…. नाम ले। मैं तेरा हल चलाता हूँ।”
बाबा का ऐसा जादू छा गया कि वह बोलाः “अच्छा बाबा ! तो क्या बोलना है ?”
बोलेः “हरि ॐ…. हरि ॐ… हे हरि… हरि… जैसा भी आये कहो। हरि… हरि…. यह दो अक्षर का नाम लेगा तो अभी-अभी तेरा मंगल हो जायेगा। क्योंकि जो पाप हर ले वह है हरि, हर समय जो साथ-सहकार दे वह है हरि, हर दिल में जो बसा है वह है हरि।
हरति पातकानि दुःखानि शोकानि इति श्रीहरि।
बेटे ! हरि की महिमा अपरम्पार है ! तू महिमा सुन – न सुन केवल हरि…. हरि…. बोल।”
बाबा ने उनके सामने थोड़ी देर तो हरि का नाम लिया। फिर तो वह निर्दोष था, ज्यादा बेईमान, कपटी, छली नहीं था। उसके पाप तो हरि ने हर लिये और वह जोर-जोर से ‘हरि ॐ… हरि ॐ…’ कहकर झूमने लगा। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। नृत्य के साथ वह ऐसा पावन हुआ कि उसकी बुद्धि में बुद्धिदाता का अनोखा दिव्य प्रभाव आया। उस किसान ने बाबा के हाथ से बैलों की रस्सी ले ली और उनके चरण पकड़कर फूट-फूट के रोने लगाः “बाबा ! बाबा !….”
बोलेः “क्या है बेटा ?”
“बाबा ! बाबा !…”
ऐसा तो वह प्यार-प्यार में बावरा हो गया कि आसपास के लोग दौड़-दौड़कर आये और बोलेः “क्या बात है ? पागल हो गया है ?”
बोलाः “हाँ, मैं पागल हो गया हूँ। गल को मैंने पा लिया है कि कैसे हरि को बुलाकर अपने हृदय में प्रकट किया जाय। मैंने तो बाबा का पहले अपमान कर दिया था लेकिन बाबा ने अपमान करने वाले को भी सम्मानित बना दिया। बाबा ! बाबा !….”
उसका चेहरा देखकर दूसरे किसानों के चेहरे भी खिल उठे।
“अरे, मेरी तरफ देखते क्या हो प्यारे ! बोलो हरि ॐ… हरि ॐ….”
वे किसान भी बोलने लगेः ! “हरि ॐ… हरि ॐ…” सारा टोला “हरि ॐ….. हरि ॐ…” ऐसा करते-करते सबको ऐसा रंग लगा कि हरि के नाम से आसपास के सारे किसान तो इकट्ठे हुए ही, साथ ही गाँव में जो आज तक अतिवृष्टि, अनावृष्टि, झगड़े, मार-काट, शराब, यह-वह होता था, वे सारे ऐब चले गये, सारी समस्यायें चली गयीं। हरिपुर ग्राम बन गया।
संत कबीर जी बोलते हैं- साहेब है मेरो रंगरेज। वह साहेब मेरा हरि है जो हर दिल में रहता है। उस परमात्मा के हजार नामों में से एक नाम है ‘हरि’। जो पाप, दुःख हर लेता है, अपनी कृपा भर देता है, हरदम रहता है, मरने के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता उस भगवान का नाम हरि है। तो भगवान के नाम में अदभुत शक्ति है।
सतयुग में बारह साल सत्यव्रत की तपस्या करते तब जाकर कुछ मिले, त्रेता में तप करे, द्वापर में यज्ञ व ईश्वर की उपासना करे लेकिन कलियुग में तो सिर्फ ‘हरि ॐ…. हरि ॐ…’ करे तो ऐसा काम बने-
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा।।
(श्री रामचरित. उ.कां. 102.2)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2014, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 253
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