प्राचीनकाल में उज्जैन से थोड़ा दूर, धारा नगरी (वर्तमान धार, म.प्र.) राजा भोज की राजधानी थी। राजा का संस्कृत भाषा के प्रति प्रेम इतिहास-प्रसिद्ध है। वे चाहते थे कि उनके राज्य में रहने वाले साधारण जन भी संस्कृत पढ़ें और दैनिक जीवन में उसका प्रयोग करें। एक समय भोज ने यह घोषणा करा दी कि यदि कोई संस्कृत नहीं जानता हो, मूर्ख हो तो वह उनके राज्य में नहीं रह सकता फिर चाहे वह ब्राह्मण ही क्यों हो और यदि कोई संस्कृत जानता है, विद्वान है तो वह उनके राज्य में सम्मानपूर्वक रहने का अधिकारी है फिर चाहे वह कुम्हार ही क्यों न होः
विप्रोऽपि यो भवेत् मूर्खः स पुराद बहिरस्तु में।
कुम्भकारोऽपि यो विद्वान स तिष्ठतु पुरे मम।।
अब राजकर्मचारी घर घर जाकर छानबीन करने लगे कि कौन संस्कृत जानता है और कौन नहीं। उन्होंने एक जुलाहे को यह मानकर पकड़ लिया कि यह तो ससंकृत नहीं जानता होगा और उसे राजा के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया।
राजा भोज ने उससे पूछाः “क्या तुम संस्कृत जानते हो ?”
जुलाहे ने संस्कृत में उत्तर दिया और कहाः “कवयामि वयामि यामि राजन् !” अर्थात् मैं कविता रचता हूँ, कपड़े बुनने का काम भी करता हूँ और आपकी अनुमति से घर जाना चाहता हूँ।
जुलाहे के संस्कृत वचन और काव्य कौशल से राजा भोज बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे पुरस्कार देकर सम्मानित किया। इससे राजकर्मचारी अपने किये पर लज्जित हो राजा से क्षमा माँगने लगे।
राजा भोज संस्कृत और संस्कृति के कितने हिमायती और प्रजावत्सल रहे होंगे कि मेरे राज्य में कोई अविद्वान न रहे, असंस्कृत न रहे ! और यही कारण था कि उनकी प्रजा स्वाभिमानी, आत्मविश्वासी और साक्षर होने के साथ-साथ ऊँची समझ से सम्पन्न थी।
एक बार राजा भोज सर्दी के दिनों में सायंकाल नदी के किनारे टहल रहे थे। सामने से नदी को पार करता हुआ एक व्यक्ति सिर पर लकड़ियों का गट्ठर रखकर आ रहा था। उसे देख राजा के मन में यह जानने की उत्कंठा हुई कि ‘क्या इस युवक को भी संस्कृत आती है ?’
उन्होंने पूछाः “शीतं किं बाधति विप्र ?”
युवक ने गम्भीरतापूर्ण उत्तर दियाः “शीतं न तथा बाधते राजन् ! यथा ‘बाधति’ बाधते।”
अर्थात् हे राजन् ! मुझे ठंड तो उतना नहीं सता रही है जितना आप द्वारा ‘बाधते’ की अपेक्षा प्रयुक्त किया गया गलत शब्द ‘बाधति’ सता रहा है।
दरअसल संस्कृत में ‘बाध्’ धातु आत्मनेपद की है। उसका शुद्ध रूप ‘बाधते’ है, ‘बाधति’ प्रयोग अशुद्ध है।
राजा ने अपनी गलती स्वीकार की। लकड़हारे की स्पष्टवादिता और संस्कृत-ज्ञान से प्रसन्न होकर राजदरबार में बुला के सम्मानित किया और यथेष्ट धनराशि देकर विदा किया अपनी गलती बताने वाले उस लकड़हारे को !
संस्कृत भाषा भारतवर्ष के वैदिक ज्ञान, अध्यात्म ज्ञान का मेरूदण्ड है। हमारी भारतीय संस्कृति की आधारशिला है। आज विदेश के विदयालयों-विश्वविद्यालयों में भी संस्कृत पढ़ाई जा रही है। अपने ही देश में लम्बे समय से तिरस्कृत रही संस्कृत के लिए अब पुनः सम्मानित होने का समय आ गया है। अब देशवासियों को, समझदार सज्जनों को इसे विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में अऩिवार्य करने की माँग करनी चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 11, अंक 266
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Yearly Archives: 2015
मनुष्य जीवन किसलिए ? – पूज्य बापू जी
ईश्वरप्राप्ति में बहुत मजा है, यह बहुत सुगम है। संसार-सागर तरना गाय के खुर को लाँघने के समान सुगम है – यह बाद में पता चला, पहले मैंने भी बहुत पापड़ बेले थे। लेकिन मेरे गुरुदेव को जो मेहनत करनी पड़ी थी, उसका सौवाँ हिस्सा भी मुझे नहीं करनी पड़ी। अनजाने में मुझे जितनी मेहनत करनी पड़ी, उसका हजारवाँ हिस्सा भी तुमको नहीं करनी है।
माँ को कितनी मेहनत करनी पड़ती है – गेहूँ लाओ, सब्जी लाओ, रोटी बनाओ पर बेटे को तो बस चबाना है। गाय को मेहनत करनी होती है – चारा खाना, चबाना लेकिन बछड़े को तो बस ‘सकुर-सकुर’ दूध पीना है। उसको तो मुँह हिलाना पड़ता है, तुमको तो मुँह भी नहीं हिलाना केवल कानों के द्वारा सुनना है, तैयार माल पड़ा है।
दुनियादारी की सारी विद्याएँ सीख लो, सबकी बातें मान लो पर दुःखों का अंत नहीं होगा और परमानंद नहीं मिलेगा।
जीवन केवल दुःख मिटाने और बाहरी सुख पाने के लिए नहीं है। नौकरी करते हैं तो सुखी होने के लिए, फर्नीचर खरीदते हैं तो सुखी होने के लिए, शादी करते हैं तो सुखी होने के लिए, तलाक देते हैं तो सुखी होने के लिए, झुकते हैं तो सुखी होने के लिए, रोब मारते हैं तो सुखी होने के लिए, रोते हो तो सुख के लिए। दुःख मिटाना और सुख को थामना यही तो दो काम करते हो जीवनभर ! तीसरा क्या करते हो ?
सुबह से शाम तक और जन्म से मौत तक सभी लोग यही कर रहे हैं। आश्चर्य तो यही है कि दुःख को भगाते-भगाते और सुख को थामते-थामते जिंदगी पूरी हो जाती लेकिन अंत में दुःख ही रह जाता है। लोग मरते समय दुःखी हो के, चिंता ले के मरते हैं क्योंकि मूल में ही गलती आ गयी। मुझमें भी थी, मैं भी तुम्हारी पंक्ति में ही था। हम भी दुःख भगाने और सुख को पाने में लगे थे। जब गुरु के द्वार गये तो उन परम दयालु सदगुरु दाता ने घर में घर दिखा दिया…. दिल में ही दिलबर का दीदार कर दिया।
तो जीवन दुःख मिटाने और परम सुख पाने के लिए है, ज्ञानदाता सदगुरु का आश्रय लेकर जीवनदाता का साक्षात्कार करने के लिए है।
दुःखों-परेशानियों से डरने का कारणः अज्ञान
एक विद्यालय के बंद होने से उस विद्यालय का मास्टर सर्कस में नौकरी करने चला गया। सर्कसवालों ने कहाः “ठीक है, हम तुमको शेर की खाल पहना देंगे और तार पर चलना सिखा देंगे।” सारी व्यवस्था हो गयी, करतब सिखा दिया गया।
पहले दिन मास्टर साहब को को शेर का जामा पहनाकर तार पर चलने के लिए सर्कस में लाया गया। मास्टर साहब ने नीचे देखा तो शेर गुर्रा रहे हैं। अब इनका गुर्राना और चलना तो सही था लेकिन नीचे गुर्राते हुए शेरों को देखकर मास्टर डर गये कि ‘कहीं मैं नीचे गिर गया तो ये मुझे फाड़कर खा लेंगे !’ डर के मारे बेचारा घबराकर नीचे गिर गया, बोलाः “हे भगवान ! बचाओ।”
गुर्राने वाले शेरों ने धीरे से कहाः “पागल ! हम भी उसी विद्यालय के हैं। हमने भी तुम्हारे जैसी खाल पहनी है। डर मत, नहीं तो हृदयाघात हो जायेगा। हम भी दिखावटी शेर हैं।”
हम सभी ऐसे ही दिखावटी शेर हैं। ‘यह कर लूँगा, यह कर लूँगा…’ लेकिन अंदर से धक-धक चलती है। जरा सी प्रतिकूलता आती है तो डर जाते हैं। सुखद स्थिति आ जाये चाहे दुःखद स्थिति आ जाय, दोनों में विचलित न हों। दुःख पैरों तले कुचलने की चीज है और सुख बाँटने की चीज है। आप तो अपने परम ज्ञान में रहिये, परम पुरुष गुरु के तत्त्व में रहिये।
समझदार लोग परिस्थितियों से घबराते नहीं अपितु संतों से, सत्संग से सीख लेते हैं और सुख-दुःख का सदुपयोग करके बहुतों के लिए सुख, ज्ञान-प्रसाद व प्रकाश फैलाने में लगकर धनभागी होते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 21, अंक 266
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नियमनिष्ठा महकाये जीवन की बगिया
व्रत से जीवन में दृढ़ता आती है।
व्रतेन दीक्षामाप्नोति…..
अव्रती व्यक्ति काम करते हुए ऊब जायेगा, पलायन कर जायेगा, दूसरे को दोष देगा परंतु व्रती आदमी दूसरे को दोष नहीं देगा। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों व्रत-कार्य साफल्य ले आयेगा।
गांधी जी के आश्रम का नियम था कि भोजन की हर पंगत के लिए दो घंटियाँ बजने के बाद रसोई घर का दरवाजा बन्द कर दिया जाता था। दूसरी घंटी बजने के बाद आने वाले व्यक्तियों को अगली पंगत के लिए इंतजार करना पड़ता था।
गांधी जी हमेशा तो सही समय पर रसोई घर पहुँच जाते थे किंतु एक दिन उन्हें पहुँचने में थोड़ी देर हो गयी, दरवाजा बन्द हो चुका था। गांधी जी मानते थे कि ‘आश्रम का बनाया नियम सबके लिए समान है।’ अतः वे बाहर ही अगली पंगत का इंतजार करते रहे। यदि वे जाना चाहते तो उन्हें कौन रोक सकता था परंतु गांधी जी में छोटे से नियम के प्रति भी दृढ़ता थी। इस प्रकार नियम पालन से ही उनमें आत्मबल, सहनशीलता आदि गुणों का विकास हुआ, जिनके प्रभाव से वे स्वतंत्रता-संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा पाये।
नियम भले ही छोटा सा ही क्यों न हो, अगर उसका दृढ़ता पूर्वक पालन किया जाय तो, संकल्पशक्ति बढ़ती है, आत्मविश्वास जागता है, मन वश होता है तथा दोषों व कुसंस्कारों से छुटकारा पाने का बल मिलता है। ‘ऋग्वेद’ (9.61.24) में आता हैः व्रतेषु जागृहि। ‘आप अपने व्रत नियमों के प्रति सदा जागृत रहें।’
पूज्य बापू जी के आश्रमों में भी पूज्य श्री के निर्देशानुसार बनाये गये शास्त्रोचित खान-पान, रहन सहन, साधना-सेवा आदि के नियमों व व्रतों का पालन होता है, जिससे यहाँ आने वाले साधक सहज में शीघ्र उन्नति कर अलौकिक अऩुभवों के धनी बन जाते हैं।
पूज्य बापू जी कहते हैं- “अपने चित्त में परमात्मा को पाने के लिए दिव्य, पवित्र, आत्मसाक्षात्कार में सीधे साथ दें ऐसे व्रत-नियम डाल दें। जरा-जरा बात में सुख के लालच में, दुःख के भय में फिसल पड़ते हैं। नहीं….. जैसे गांधी जी ने अपने जीवन में व्रत रख दिये थे-सप्ताह में एक दिन न बोलने का व्रत, ब्रह्मचर्य का, सत्य का, प्रार्थना का व्रत…. ऐसा ही कोई व्रत अपने जीवन में, अपने चित्त में रख दें जिससे अपने लक्ष्य की तरफ दृढ़ता से चल सकें और अपना ईश्वरीय अंश विकसित कर सकें।”
महापुरुषों के जीवन को निहारा जाय तो उसमें किसी न किसी व्रत नियम का प्रकाश अवश्य मिलेगा। श्री रमण महर्षि का मौन-व्रत, पितामह भीष्म, आद्य शंकराचार्य जी आदि का ब्रह्मचर्य-व्रत तथा कणाद, पिप्पलाद आदि ऋषियों के आहारसंबंधी व्रत इतिहास प्रसिद्ध हैं। ब्रह्मनिष्ठ पूज्य बापू जी की भी नियमनिष्ठा सभी के लिए प्रकाशस्तम्भ है। पूज्य श्री आत्मसाक्षात्कार जैसी पराकाष्ठा पर पहुँचने के बाद भी आज भी अपना नियम किये बिना कुछ नहीं सेवन करते। प्रतिदिन सत्संग करना भी पूज्यश्री के जीवन का एक अभिन्न अंग है। वर्ष में एक दिन भी पूज्य श्री बिना सत्संग के नहीं रहते। आज कारागृह में भी अपनी सत्संग की कुंजियों द्वारा कैदियों तथा कर्मचारियों का जीवन उन्नत कर रहे हैं। कैसी है महाराजश्री के जीवन में नियमनिष्ठा की सुवास, जो सर्व-मांगल्य के भाव से ओतप्रोत है ! वास्तव में नियम पालन ब्रह्मज्ञानप्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन है। जीवन्मुक्त महापुरुषों के लिए नियमों का बंधन नहीं है परंतु समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से वे आत्मारामी महापुरुष भी नियमों को स्वीकार कर लेते हैं, यह उनकी कितनी करूणा-कृपा है !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 18, अंक 266
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