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उत्तरायण हमें प्रेरित करता है जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर


पूज्य बापू जी

उत्तरायण कहता है कि सूर्य जब इतना महान है, पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है, ऐसा  सूर्य भी दक्षिण से उत्तर की ओर आ जाता है तो तुम भी भैया ! नारायण जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर आ जाओ तो तुम्हारे बाप का क्या बिगड़ेगा ? तुम्हारे तो 21 कुल तर जायेंगे।

उत्तरायण पर्व की महत्ता

उत्तरायण माने सूर्य का रथ उत्तर की ओर चले। उत्तरायण के दिन किया हुआ सत्कर्म अनंत गुना हो जाता है। इस दिन भगवान शिवजी ने भी दान किया था। जिनके पास जो हो उसका इस दिन अगर सदुपयोग करें तो वे बहुत-बहुत अधिक लाभ पाते हैं। शिवजी के पास क्या है ? शिवजी के पास है धारणा, ध्यान, समाधि, आत्मज्ञान, आत्मध्यान। तो शिवजी ने इसी दिन प्रकट होकर दक्षिण भारत के ऋषियों पर आत्मोपदेश का अनुग्रह किया था।

गंगासागर में इस दिन मेला लगता है। प्रयागराज में गंगा यमुना का जहाँ संगम है वहाँ भी इस दिन लगभग छोटा कुम्भ हो जाता है। लोग स्नान, दान, जप, सुमिरन करते हैं। तो हम लोग भी इस दिन एकत्र होकर ध्यान भजन, सत्संग आदि करते हैं, प्रसाद लेते देते हैं। इस दिन चित्त में कुछ विशेष ताजगी, कोई नवीनता हम सबको महसूस होती है।

सामाजिक महत्त्व

इस पर्व को सामाजिक ढंग से देखें तो बड़े काम का पर्व है। किसान के घर नया गुड़, नये तिल आते हैं। उत्तरायण सर्दियों के दिनों में आता है तो शरीर को पौष्टिकता चाहिए। तिल के लड्डू खाने से मधुरता और स्निग्धता प्राप्त होती है तथा शरीर पुष्ट होता है। इसलिए इस दिन तिल-गुड़ के लड्डू (चीनी के बदले गुड़ गुणकारी है) खाये खिलाये बाँटे जाते हैं। जिसके पास क्षमता नहीं है वह भी खा सके पर्व के निमित्त इसलिए बाँटने का रिवाज है। और बाँटने से परस्पर सामाजिक सौहार्द बढ़ता है।

तिळ गुड़ घ्या गोड गोड बोला।

अर्थात् तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो। सिंधी जगत में इस दिन मूली और गेहूँ की रोटी का चूरमा व तिल खाया खिलाया जाता है अर्थात् जीवन में कहीं शुष्कता आयी हो तो स्निग्धता आये, जीवन में कहीं कटुता आ गयी हो तो उसको दूर करने के लिए मिठास आये इसलिए उत्तरायण को स्नेह सौहार्द वर्धक पर्व के रूप में भी देखा जाये तो उचित है।

आरोग्यता की दृष्टि से भी देखा जाये तो जिस-जिस ऋतु में जो-जो रोग आने की सम्भावना होती है, प्रकृति ने उस-उस ऋतु में उन रोगों के प्रतिकारक फल, अन्न, तिलहन आदि पैदा किये हैं। सर्दियाँ आती हैं तो शरीर में जो शुष्कता अथवा थोड़ा ठिठुरापन है या कमजोरी है तो उसे दूर करने हेतु तिल का पाक, मूँगफली, तिल आदि स्निग्ध पदार्थ इसी ऋतु में खाने का विधान है।

तिल के लड्डू देने-लेने, खाने से अपने को तो ठीक रहता है लेकिन एक देह के प्रति वृत्ति न जम जाय इसलिए कहीं दया करके अपना चित्त द्रवित करो तो कहीं से दया, आध्यात्मिक दया और आध्यात्मिक ओज पाने के लिए भी इन नश्वर वस्तुओं का आदान-प्रदान करके शाश्वत के द्वार तक पहुँचो ऐसी महापुरुषों की सुंदर व्यवस्था हो। सर्दी में सूर्य का ताप मधुर लगता है। शरीर को विटामिन डी की भी जरूरत होती है, रोगप्रतिकारक शक्ति भी बढ़नी चाहिए। इन सबकी पूर्ति सूर्य से हो जाती है। अतः सूर्यनारायण की कोमल किरणों का फायदा उठायें।

सूत्रधार की याद करना न भूलें

पतंग उड़ाने का भी पर्व उत्तरायण के साथ जोड़ दिया गया है। कोई लाल पतंग है तो कोई हरी है तो कोई काली है….। कोई एक आँख वाली है तो कोई दो आँखों वाली है, कोई पूँछ वाली है तो कोई बिना पूँछ की है। ये पतंगे तब तक आकाश में सुहावनी लगती हैं, जब तक सूत्रधार के हाथ में, उड़ानेवाले के हाथ में धागा है। अगर उसके हाथ से धागा कट गया, टूट गया तो वे ही आकाश से बातें करने वाली, उड़ाने भरने  वाली, अपना रंग और रौनक दिखाने वाली, होड़ पर उतरने वाली पतंगे बुरी तरह गिरी हुई दिखती हैं। कोई पेड़ पर फटी सी लटकती है तो कोई शौचालय पर तो कोई बेचारी बिजली के खम्भों पर बुरी तरह फड़कती रहती है। यह उत्सव बताता है कि जैसे पतंगे उड़ रही हैं, ऐसे ही कोई धन की, कोई सत्ता की, कोई रूप की तो कोई सौंदर्य की उड़ानें ले रहा है। ये उड़ानें तब तक सुन्दर-सुहावनी दिखती हैं, ये सब सेठ-साहूकार, पदाधीश तब तक सुहावने लगते हैं, जब तक तुम्हारे शरीररूपी पतंग का संबंध उस चैतन्य परमात्मा के साथ है। अगर परमात्मारूपी सूत्रधार से संबंध कट जाये तो कब्रिस्तान या श्मशान में ये पतंगे बुरी हालत में पड़ी रह जाती हैं इसलिए सूत्रधार को याद करना न भूलो, सूत्रधार से अपना शाश्वत संबंध समझने में लापरवाही न करो।

उत्तरायण ज्ञान का पूजन व आदर करने का दिन है और ज्ञान बढ़ाने का संकल्प करने का दिन है।

उत्तरायण का मधुर संदेश

उत्तरायण मधुर संदेश देता है कि ‘तुम्हारे जीवन में स्निग्धता और मधुरता खुले। आकाश में पतंग चढ़ाना माने जीवन में कुछ खुले आकाश में आओ। रूँधा-रूँधा (उलझा-उलझा) के अपने को सताओ मत। इन्द्रियों के उन गोलकों में अपने को सताओ नहीं, चिदाकाशस्वरूप में आ जाओ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 288

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भक्तों की लाज रखते भगवान


भक्त लाला जी का जन्म सौराष्ट्र प्रांत के सिंधावदर ग्राम में संवत् 1856 चैत्र शुक्ल नवमी को एक समृद्ध वैश्य कुल में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि वे संत नरसिंह मेहता के अवतार थे। बचपन से ही उनमें भगवद्भक्ति और साधुसेवा के प्रति बहुत लगाव था। उनके पिता का नाम बलवंतशाह और माता का वीरूबाई था। बड़े होने पर पिता ने उनको कपड़े के व्यापार में लगा दिया। एक दिन लालाजी जाड़े के प्रभात को दुकान में बैठे थे, तभी भयानक शीत से आक्रांत साधुओं की एक मंडली ने कुछ कम्बल माँगे। लालाजी ने दया से भरकर प्रत्येक साधु को एक-एक कम्बल दे दिया। एक पड़ोसी दुकानदार ने लाला जी के पिता को सारी घटना बतायी। जब उनके पिता ने कम्बलों को गिना तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि दुकान में जितने कम्बल थे उनमें से एक अधिक है ! पड़ोसी के साथ उनके पिता ने साधु-मंडली के पास जाकर विनम्रता के साथ कम्बलों के संबंध में जानकारी ली। साधुओं ने प्रसन्नतापूर्वक लालाजी के दान और उदारता की बड़ी सराहना की। उनके पिता ने ऐसे भक्त पुत्र को पाकर अपने-आपको धन्य समझा।

धीरे-धीरे लाला जी की ख्याति बढ़ने से उनके पीछे-पीछे भक्तों की एक अच्छी खासी मंडली चलने लगी। एक बार वे भक्त-मंडली के साथ सायला ग्राम के ठाकुर मदारसिंह के घर पर आमंत्रित हुए। ठाकुर को एक बड़ा कष्ट था। वे जब भोजन करने बैठते तब उन्हें भोजन सामग्री के स्थान पर रक्त-मांस दिखाई देता जबकि उनका अन्न पवित्र कमाई का था। ठाकुर को यह आशंका हो गयी थी कि कोई मलिन शक्ति आकर खाद्य सामग्री छू देती है या अपना कुछ प्रभाव दिखा रही है। भक्त लाला जी उनको समझाया कि ‘भोजन भगवान को अर्पित करने के बाद ही करना चाहिए।” भक्त मंडली ने भगवान को अर्पण करके भोजन किया तथा ठाकुर ने भी प्रसन्नतापूर्वक प्रसाद पाया। संतकृपा से उस दिन से ठाकुर को भी पवित्र प्रसाद ही दिखने लगा और वे भी लाला जी के भक्त हो गये। संत-आज्ञा का पालन करने से जीवन के कष्टों से मुक्ति तो सहज में मिलती है, साथ ही साथ जीवन सुखमय, रसमय, प्रभुपरायण बन जाता है।

एक बार लाला जी भक्त मंडली के साथ बड़े प्रेम से भगवान का भजन कीर्तन कर रहे थे। भावावेश में वे कभी रोते, कभी हँसते और भजन समाप्त होने पर स्वयं प्रसाद-वितरण करते थे। एक बार एक शिकारी ने, जिसकी झोली में दो मरे हुए पंछी थे, उन्हें कहाः “मैं तब तक प्रसादी नहीं लूँगा, जब तक आप यह न बता देंगे कि मेरी झोली में क्या है।” भक्तराज ने बड़ी विनम्रता और सादगी से उत्तर दियाः “दो जीवित पक्षी हैं।” शिकारी बोलाः “आप भगवान के भक्त होकर असत्य भाषण कर रहे हैं, दोनों ही पक्षी सवेरे ही मेरी बंदूक से मर चुके हैं।” शिकारी ने झोली खोली तो दोनों पक्षी जीवित निकले और आकाश में उड़ गये। उसने भक्त लाला जी की चरणधूलि मस्तक पर लगा ली और वहाँ का वायुमण्डल उनके जयनाद से गूँज उठा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 24 अंक 288

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प्रारब्ध बड़ा कि पुरुषार्थ ?


जो लोग आलसी होकर भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं और अकर्मण्यता के कारण भाग्य को ही सब कुछ मानते हैं, उन्हें प्रेरणा देने हेतु महाभारत में ज्ञानवर्धक वार्ता आती हैः

एक बार युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछाः “पितामह ! दैव (प्रारब्ध) और पुरुषार्थ में कौन श्रेष्ठ है ?”

भीष्म जी ने कहाः “युधिष्ठिर ! यही प्रश्न भगवान वसिष्ठ जी ने लोकपितामह ब्रह्मा जी से पूछा था तो ब्रह्मा जी ने कहा थाः मुने ! किसान खेत में जाकर जैसा बीज बोता है उसी के अनुसार उसको फल मिलता है। इसी प्रकार पुण्य या पाप – जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल मिलता है। जैसे खेत में बीज बोये बिना वह फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार दैव भी पुरुषार्थ के बिना सिद्ध नहीं होता। पुरुषार्थी मनुष्य सर्वत्र प्रतिष्ठा पाता है परंतु जो अर्कमण्य है वह सम्मान से भ्रष्ट होकर घाव पर नमक छिड़कने के समान असह्य दुःख भोगता है। नक्षत्र, देवता, नाग, यक्ष, चन्द्रमा, सूर्य और वायु आदि सभी पुरुषार्थ करके ही मनुष्यलोक से देवलोक को गये हैं। जो पुरुषार्थ नहीं करते वे धन, मित्रवर्ग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल तथा दुर्लभ लक्ष्मी का भई उपभोग नहीं कर सकते। देवताओं में जो भी इन्द्रादि के स्थान पर हैं वे अनित्य देखे जाते हैं। पुण्यकर्म के बिना दैव कैसे स्थिर रहेगा और कैसे वह दूसरों को स्थिर रख सकेगा ? प्रबल पुरुषार्थ करने से पहले का किया हुआ भी कोई (अनिष्टकारक) कर्म बिना किया हुआ सा हो जाता है और वह प्रबल पुरुषार्थ ही सिद्ध होकर फल प्रदान करता है।

न च फलति विकर्मा जीवलोके न दैव

व्यपनयति विमार्गे नास्ति दैवे प्रभुत्वम्।

गुरुमिव कृतमग्रयं कर्म संयाति दैवं

नयति पुरुषकारः संचितस्तत्र तत्र।।

‘इस जीव जगत में उद्योगहीन मनुष्य कभी फूलता-फलता नहीं दिखाई देता। दैव में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसे कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगा दे। जैसे शिष्य गुरु को आगे करके स्वयं उनके पीछे चलता है उसी तरह दैव (भाग्य) पुरुषार्थ को ही आगे करके स्वयं उसके पीछे चलता है।’ संचित किया हुआ पुरुषार्थ ही दैव को जहाँ चाहता है, वहाँ-वहाँ ले जाता है। मैंने सदा पुरुषार्थ के ही फल को प्रत्यक्ष देखकर यथार्थरूप से ये सारी बातें तुम्हें बतायी हैं।”

धृतराष्ट्र पुत्रों ने पांडवों का राज्य हड़प लिया था। उसे पांडवों ने पुनः बाहुबल से ही वापस लिया, दैव के भरोसे नहीं। तप और नियम में संयुक्त रहकर कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि क्या दैवबल से ही किसी को श्राप देते हैं, पुरुषार्थ के बल से नहीं ? जैसे थोड़ी सी आग वायु का सहारा लेकर बड़ी हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ का सहारा पाकर दैव का बल विशेष बढ़ जाता है। जैसे तेल समाप्त हो जाने से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर दैव भी नष्ट हो जाता है। यह दैव तो कायर के मन को तसल्ली देने का उपाय है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं।

जो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से दैव को बाधित करने में समर्थ है, उसके कार्य में दैव विघ्न नहीं डाल सकता और ऐसा मनुष्य कभी दुःखी नहीं होता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 25 अंक 288

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