जिंदगी का लेखा जोखा

जिंदगी का लेखा जोखा


आयुर्वर्शतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्धं गतं

तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः।

शेषं व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिनींयते

जीवे वारितरङ्चञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम्।।

‘वेदों द्वारा मनुष्यों की आयु 100 वर्ष बतायी गयी है। उसका आधा भाग अर्थात् 50 वर्ष तो रातों में चला जाता है। आधे का आधा भाग अर्थात् 25 वर्ष बालपन और बुढ़ापे में बीत जाता है। बाकी शेष अर्थात् 25 वर्ष का समय व्याधि (शारीरिक कष्ट) व (आत्मीयजन एवं धन के) वियोग से होने वाले दुःख के साथ अपनी जीविका के लिए श्रीमानों की सेवा में बीतता है। अतः जल की तरंगों के समान अत्यंत चंचल अर्थात् क्षणिक इस जीवन में प्राणियों को सुख कहाँ से प्राप्त हो सकता है ? (सुख असम्भव है क्योंकि सभी दुःखमय ही दिखाई पड़ता है।)’ वैराग्य शतकः 41)

बचपन में व्यक्ति पराधीन होता है। उठ, बैठ, चल-फिर नहीं सकता। मल-मूत्र में ही पड़ा रहता है। कोई खिला-पिला देता है तो खा-पी लेता है, नहीं तो पड़ा-पड़ा रोया करता है। कैसी बुरी अवस्था होती है ! इसके बाद जवानी आती है। वह पढ़ाई-लिखाई, शादी, नौकरी-धंधे व धन कमाने में ही खर्च हो जाती है। इस तरह इस अवस्था में भी चैन नहीं मिलता। अब रहा बुढ़ापा। वह तो दुःखों का भण्डार ही है। इसमें अनेक रोग शत्रुओं की तरह चढ़ाई करते हैं, शरीर काम नहीं देता और घर के लोग अनादर करते हैं। इस अवस्था में स्थिति और दयनीय हो जाती है। इस तरह स्पष्ट है कि जीवन की सभी अवस्थाएँ दुःखों-कष्टो से भरी हुई हैं और जीवन क्षणभंगुर है। संसार में सुख की आशा में दिन-दिन आयु नष्ट करना मूढ़ता है।

‘नारद-पुराण’ में नारद जी के गुरु सनक जी उनको उपदेश देते हुए कहते हैं-

किं न पश्यसि देवर्षे ह्यायुषार्द्ध तु निद्रया।…..

…. वयस्येव ततो धर्मान्कुरु त्वमनहंकृतः।।

‘देवर्षे ! क्या तुम नहीं देखते कि आधी आयु तो नींद से ही नष्ट हो जाती है और कुछ आयु भोजन आदि में समाप्त हो जाती है। आयु का कुछ भाग बचपन में, कुछ विषय-भोगों में और कुछ बुढ़ापे में व्यर्थ बीत जाता है। फिर तुम धर्म का आचरण कब करोगे ? बचपन और बुढ़ापे में भगवान की आराधना (सहजता से) नहीं हो सकती, अतः अहंकार को छोड़कर युवावस्था में ही धर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए।’

मनुष्य जन्म की क्षणभंगुरता के बारे में पूज्य बापू जी की अमृतवाणी में आता हैः “बचपन आया और बचपन के खेल पूरे हुए-न-हुए कि जवानी आ जाती है। जवानी का जोश दिखा-न-दिखा कि बुढ़ापा आकर जीवन पर हस्ताक्षर कर देता है। और बुढ़ापा कब मृत्यु में बदल जाय कोई पता नहीं। जीवन बहुत अल्प है, वासनाएँ प्रबल हैं। संसार के लिए, शरीर के लिए पूरा समय बिताया, अब थोड़ा समय अपने लिए भी तो बिताओ ! ईश्वर के लिए, गुरु के अमृत के लिए भी कुछ घड़ियाँ निकालो। वे बहुत कम माँगते हैं, इतना ही कि स्वयं को, अपने-आपको (आत्मस्वरूप) को जान लो।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 20 अंक 296

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