भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं- “उद्धव! जो लोग बारह यमों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असंगता, असंचय (आवश्यकता से अधिक धन आदि का संग्रह न करना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय) और बारह नियमों (बाह्य पवित्रता (शुद्धि), आंतरिक पवित्रता (विवेक द्वारा), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथि-सेवा, भगवत्पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकार की चेष्टा, संतोष और आचार्य-सेवा। विशेष पातंजल योग दर्शन में यम नियम 5-5 बताये गये हैं किंतु श्रीमद्भागवत में 12-12 बताये गये हैं।) को पालते हैं अथवा और बहुत से साधनों को करते हैं, उनको भी मेरे नगर अर्थात् परम धाम तक आने का मार्ग ही नहीं मिल पाता। लेकिन यदि वे सज्जनों का आश्रय लेकर संतों के द्वार जायें तो समझ लो कि वे सब मेरे ही धाम में आ गये। ऐसी परम्परा से मेरी प्राप्ति होती है।
सत्संगति अन्य साधनों जैसी नहीं है। वह अपने संग से अन्य संगों का विनाश करती है और मेरी प्राप्ति अवश्य ही कराती है। सत्संग करने वाले भक्त मेरी प्राप्ति के लिए अन्य किसी पर निर्भर नहीं रहते। जैसे भँवरी के सम्पर्क में आने से कीड़े की देह की स्थिति बदल जाती है, उसी प्रकार संतों की संगति करने से भक्त भी बदलकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाते है।
जैसे चंदन के पेड़ के इर्द-गिर्द जो निर्गंध और अनुपयोगी वृक्ष होते हैं वे भी चंदन की संगति से सुगंधित होकर मूल्यवान हो जाते हैं। वे अचेतन काष्ठ (लकड़ियाँ) भी देवताओं और ब्राह्मणों के मस्तक पर चंदन के रूप में विराजमान रहते हैं। उनकी आवश्यकता धनवानों को भी होती है। राजा भी उन्हें वंदनीय समझते हैं। उसी प्रकार सत्संगति करने से भक्त मेरे पद को प्राप्त करते हैं और अंत में मेरे लिए भी वे पूज्य (आदरणीय) बन जाते हैं। उनकी महिमा का क्या वर्णन किया जाय ? उद्धव ! मेरा स्थान तत्काल प्राप्त करने के लिए सचमुच, संतों की संगति के सिवा अन्य कोई उत्तम साधन नहीं है, यह सत्य समझना।
बिना किसी साधन का आश्रय लिए केवल सत्संग से मुझे प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या अगणित है। उसके संबंध में तुम्हें बताऊँगा। वैसे देखा जाय तो केवल जड़, मूढ़ और राजसी-तामसी योनियों में जन्म लेने पर भी वे दृढ़ सत्संगति के कारण मुझे प्राप्त कर सके। दैत्य, दानव, निशाचर, पशु, पक्षी, गंधर्व, अप्सरा, सिद्ध, चारण, विद्याधर, नाग, विषैले सर्प, गुह्यक (गंधर्व का एक प्रकार) – ये सभी मेरे पद तक पहुँच गये। इस प्रकार जब पशु, पक्षी, सर्प – इन सबने मुझे प्राप्त कर लिया तो मनुष्य तो सहज ही उन सबमें श्रेष्ठ है। समाज में हेय (त्याज्य) समझे जाने वाले लोगों ने भी सत्संग कर मुझे प्राप्त कर लिया है। इतना ही नहीं, देवता एवं ब्राह्मण भी उनका वंदन करते हैं। ऐसे संतों की कीर्ति अतुलनीय है।
सत्संगति करने से निंदनीय भी वंदनीय हो जाते हैं। उद्धव ! तुम सचमुच निष्पाप हो इसलिए तुम सत्संगति करो। पहले से ही उत्कृष्ट दर्जे का, अति शुद्ध सुवर्ण हो। सुवर्ण को रत्नों का संग मिल जाय तो उसका मूल्य और भी बढ़ जाता है और वह राजमुकुट की शोभा बढ़ाता है। उसी प्रकार पुण्यवान पुरुष को सत्संगति प्राप्त होने पर उसे अनंत सुख प्राप्त होते हैं, देवाधिदेव उसका वंदन करते हैं और भगवान शंकर आदि भी उसे मिलने आते हैं। यम-धर्म (यम-नियम) उसके चरणों में आ जाते हैं और तीर्थ भी उसके चरणोदक की इच्छा करते हैं। भक्तिभाव से सत्संगति करने पर मनुष्य को इतना लाभ मिलता है।” (श्रीमद् एकनाथी भागवत, अध्याय 12 से)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ 27, 28 अंक 296
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