अनर्थ क्या है ? जो असत् है, जड़ है और दुःखरूप है वही अनर्थ है। अर्थ तो केवल एक आत्मवस्तु (आत्मा) है। इसलिए जब तक आत्मवस्तु की परिपूर्ण ब्रह्म के रूप में बोधरूप उपलब्धि नहीं होगी, तब तक अनर्थ का बीज नष्ट नहीं हो सकता। आत्मा को ब्रह्मरूप में न जानना ही सब अनर्थों का बीज है। वह केवल वेदांत-विद्या से ही निवृत्त हो सकता है। कर्म, उपासना और योग से तो दुःखों की तात्कालिक निवृत्ति हो सकती है क्योंकि अनुभव बताता है कि कर्मजन्य कोई अवस्था चिरकालीन नहीं हो सकती या फिर वृत्ति में उपासना के काल्पनिक सुख द्वारा दुःख को ग्रहण करने वाली वृत्तिमात्र का ही निरोध कर दिया जाता है। परंतु ये सब काल में टूटने वाली अवस्थाएँ हैं अतः इनसे दुःख निर्मूल नहीं हो सकता। फिर न तो दुःख और उसके हेतुओं की सत्ता या महत्व का निषेध ही होता है और न सुख के निवास स्थान (आत्मा) का ही विवेक होता है। यदि सांख्य-विवेक से यह (सुख की आत्मनिष्ठता) सिद्ध बी हो जाय तो भी जब तक आत्मा की अपरिच्छिन्नता का बोध नहीं होता और प्रकृति के मिथ्यात्व का निश्चय नहीं होता तब तक उक्त आत्मसुख भी कालबाधित ही रहेगा और यही तो वेदांत है।
विषय में यदि सुख होता तब तो पृथक्-भोक्ता की आवश्यकता होती। विषयों में जो सुख का भान होता है वह अज्ञानजन्य भ्रम से है। आत्मा का सुख ही कामनावासित हृदय में कामना के विषय के साथ सम्पर्क होने पर वृत्तिरथ विषय में भासने लगता है और अज्ञान से सम्मुखस्थ विषय में आरोपित कर दिया जाता है। (उदाहरणार्थ- जैसे कुत्ता शुष्क हड्डी चबाता है तब उसके मसूड़ों में से खून निकलता है और वह उसका आस्वादन करता है। परंतु खून तो उसका अपना होता है और वह मूढ़तावश अपनी ही वस्तु का आरोप सूखी हड्डी में कर लेता है कि ‘हड्डी में से खून का मजा आ रहा है !’
असल में तो विषयी अपना सुख ही भोगता है। आत्मसुख का वृत्ति में प्रतिबिम्बन तथा उसका ज्ञान – यही वृत्तिजन्य सुख है। वह जाग्रत-स्वप्न की अवस्थाओं में विषय के माध्यम से भी हो सकता है, समाधि अवस्था में शांत वृत्ति के माध्यम से भी हो सकता है और सुषुप्ति अवस्था में विषयाभाव से भी हो सकता। आत्मा सुखस्वरूप है – इस ज्ञान का नाम ही परमानंद है क्योंकि इस ज्ञान के उदय से सब कुछ आत्मानंद हो जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2018, पृष्ठ संख्या 25 अंक 310
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