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परमात्मा को ढूँढना चाहते हो तो आओ….


ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्यादा कर्म शक्ति की जरूरत नहीं है और ज्यादा जोरदार आँख, कान होने की भी जरूरत नहीं है और ज्यादा जोरदार बुद्धि होने की भी जरूरत नहीं है। कोई बड़ा बुद्धिमान होगा तब उसको ब्रह्मज्ञान होगा – यह शर्त नहीं लगाना भला ! अमुक जाति में जन्म होगा तब ब्रह्मज्ञान होगा, मन एकाग्र होग तब ब्रह्मज्ञान होगा, बुद्धि बड़ी तेज हो जायेगी तब ब्रह्मज्ञान होगा – ऐसा नहीं है। यदि ब्रह्म बुद्धि का विषय होता, बुद्धि के सामने रख के उसके बारे में विचार करना हो तो तेज बुद्धि की जरूरत थी। कहते हैं- ‘अचिन्त्यम्’। बुद्धि से तो उसका चिंतन करना नहीं है। तब ब्रह्मज्ञान कैसे होता है ? यह जो बुद्धि के द्वारा चिंतन किया जाता है, उस चिंतन करने वाली बुद्धि को जो देख रहा है, उसकी ओर चलना है ! उसकी ओर चलना है माने वही होना है। वही होना नहीं है, हम वही है।

परमात्मा की पहचान

परमात्मा की पहचान कैसे होती है ? इसको पहचानने का एक तरीका बताते हैं। इसको पहचानने के लिए यह ढंग अपनाओः ‘एकात्मप्रत्ययसारम्।’ श्रुति में यह बात कही गयी।

यदि तुम उस परमात्मा को ढूँढना चाहते हो तो आओ, आओ, इसका तरीका देखो !

एक पहली समझो ! यह पहेली क्या है ? जागना होता है और चला जाता है, स्वप्न आता है और चला जाता है, सुषुप्ति आती है और चली जाती है। ये सब तो आने-जाने वाली चीजे। इनमें कोई एक चीज़ है क्या ? वह तो बताओ ! जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति –तीनों में है, ऐसी कोई चीज़ है क्या ? भाई, ऐसा कोई दूसरा हो तो हमको क्या पता ! नहीं, जिसका पता नहीं है उसकी बात नहीं पूछते हैं ! ‘एकात्मप्रत्यय’ है न ! जिसका पता है, वह बताओ ! वह कौन सी चीज़ है जो तीनों में एक रहती है और कहती है कि ‘यह हमारा जागना हुआ और बीत गया, हमारा सपना हुआ और बीत गया, सुषुप्ति हुई और बीत गई, जाग्रत और स्वप्न से एक विलक्षण अवस्था हुई और बीत गयी।’ यह कहने वाला कौन है ? यह तो एक आत्मा ही है। और यह कभी व्यभिचरित (विचलित) नहीं होता, हमेशा बना रहता है। मेरे बिना न जाग्रत, न स्वप्न, न सुषुप्ति और मैं तीनों में और तीनों के बिना भी ! बस-बस, यही जो एक चीज़ मालूम पड़ती है, इसको पकड़ो !

अंधकार की दुनिया ले के सुषुप्ति आती है, प्रकाश की दुनिया ले के स्वप्न आता है और सच्चाई की भ्रांति लेकर यह जाग्रत आता है, कोई बाहर-कोई भीतर परंतु मैं तो बिल्कुल एक हूँ !

परमात्मा कहाँ है ?

श्रुति कहती है कि वह परब्रह्म-परमात्मा कोई दूसरा नहीं, अपना आत्मा ही है। परमात्मा की उपलब्धि में जो कोई परमात्मा को पाना चाहता है, उसको वह ‘मैं’ ढूँढना पड़ेगा जिसके बिना दुनिया में कोई व्यवहार नहीं होता है, वह जो एक आत्म-विषयक प्रत्यय (भान, अनुभव) है, परोक्षरूप से नहीं, अपरोक्षरूप से। यह नहीं समझना कि परमात्मा कोई सातवें आसमान में बैठा है। यदि परमात्मा यहाँ नहीं है तो सातवें आसमान में भी नहीं है। यदि ईश्वर तुम्हारे दिल में नहीं है तो समझ लो कि तुम्हारे सातवें आसमान में भी नहीं है। परमात्मा तो तुम्हारे दिल में है। दिल परमात्मा है। परमात्मा की रोशनी में यह दिल दिखता है। परमात्मारूप अधिष्ठान में यह दिल की तस्वीर खिंची हुई है। यह तुम्हारे दिल की रेखा जिस मसाले में खिंची हुई है, वह अखंड चैतन्य, ज्ञानघन जो सत्ता है, उसी का नाम परमात्मा है। उस परमात्मा को पाने का उपाय क्या है ? अपने-आपको ही पाना। यह अपना-आपा, जो कभी छोड़ा नहीं जा सकता, वही तो इस समय बिछुड़ गया है ! कैसे बिछुड़ गया है ? जब दूसरी-दूसरी चीज़ों को हमने पकड़ लिया है। छोड़ तो सकते नहीं परंतु मान बैठे हैं कि छोड़ दिया है।

यह जो अपने आपको न जानने के कारण हम मान बैठते हैं कि ‘हमने छोड़ दिया है’, सोच-विचार करने से यह मान्यता झूठी निकलती है। अपना जो आपा है, सो तो प्राप्त ही है और असल में वही परमात्मा है। इसलिए परमात्मा को ढूँढने का रास्ता यह नहीं है कि हम आँख के रास्ते बाहर जायें या मन के रास्ते बाहर जायें या बुद्धि के रास्ते कहीं बाहर जायें या सिमटकर कहीं बैठ जायें। परमात्मा की प्राप्ति का उपाय है कि हम अपने-आपको जानें ! एकमात्र अपने-आपको जानने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 308

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नित्य सुख की प्राप्ति हेतु श्रेयस्कर उपाय


वैराग्य शतक के 71वें श्लोक का अर्थ हैः ‘ऋग्वेदादि चारों वेद, मनु आदि स्मृतियों, भागवतादि अठारह पुराणों के अध्ययन और बहुत बड़े-बड़े तर्क, व्याकरण आदि शास्त्रों के  पढ़ने, आडम्बरपूर्ण भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड में प्रवृत्त होने से स्वर्ग समान स्थल में कुटिया का स्थान प्राप्त करने के अतिरिक्त और क्या लाभ है ? अपने आत्मसुख के पद को प्राप्त करने के लिए संसार के दुःखों के असह्य भार से भरे निर्माण को विनष्ट करने में प्रलयाग्नि के समान एकमात्र, अद्वितीय परब्रह्म की प्राप्ति के सिवा बाकी सारे कार्य बनियों का व्यापार हैं अर्थात् एक के बदले दूसरा कुछ ले के अपना छुटकारा कर लेना है।’

मनुष्य को अपने अनमोल जीवन को जिसमे लगाना चाहिए, इस बारे में समझाते हुए योगी भर्तृहरि जी कहते हैं कि मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है और यह केवल परमात्मप्राप्ति के लिए ही मिला है। इसमें कितना कुछ भी जान लो, सकाम भाव से कितने भी पुण्यों का संचय कर लो, वे अधिक-से-अधिक स्वर्ग आदि के भोग देंगे परंतु आखिर में वहाँ से भी गिरना ही पड़ता है। सारे दुःखों का सदा के लिए अंत करना हो तो परमात्मप्राप्ति का लक्ष्य बनाकर मन को चारों ओर से खींच के सत्संग के श्रवण-मनन व आत्मचिंतन में लगाओ। परमात्मा को पा लेना ही दुर्लभ मनुष्य-जीवन का फल है और यही शाश्वत सुख की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है।

श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी ने भी कहा हैः ‘अज्ञानरूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रह्मज्ञानरूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से और औषध से क्या लाभ ?’ (विवेक चूड़ामणिः 63)

पूज्य बापू जी के सत्संगामृत में आता हैः “बाहर तुम कितना भी जाओ, कितनी भी तीर्थयात्राएँ करो, कितने भी व्रत उपवास करो लेकिन जब तक तुम भीतर नहीं गये, अंतरात्मा की गहराई में नहीं गये तब तक यात्र अधूरी ही रहेगी। स्वामी रामतीर्थ ने सुंदर कहा हैः

जिन प्रेमरस चाखा नहीं,

अमृत पिया तो क्या हुआ ?

स्वर्ग तक पहुँच गये, अमृत पा लिया लेकिन अंत में फिर गिरना पड़ा। यदि जीवात्मा ने उस परमात्मा का प्रेमरस नहीं चखा तो फिर स्वर्ग का अमृत पी लिया तो भी क्या हुआ ? सभी विद्याएँ ब्रह्मविद्या में समायी हैं। श्रुति कहती हैः यस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति। ‘जिसको जान लेने से सबका ज्ञान हो जाता है (वह  परमात्मा है)।’ ब्रह्मविद्या के लिए शास्त्रों में वर्णन आता हैः

स्नातं तेन सर्वं तीर्थं दातं तेन सर्वं दानम्।

कृतं तेन सर्वं यज्ञं, येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।

जिसने मन को ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मविचार में लगाया, उसने सारे तीर्थों में स्नान कर लिया, सारे दान कर दिये तथा नौचंडी, सहस्रचंडी, वाजपेय, अश्वमेध आदि सारे यज्ञ कर डाले। जैसे कुल्हाड़ी लकड़ी को काट के टुकड़े-टुकड़े कर देती है, ऐसे ही सर्व दुःखों, चिंताओं और शोकों को काट के छिन्न-भिन्न कर दे ऐसी है यह ब्रह्मविद्या।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018 पृष्ठ संख्या 24 अंक 308

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रामायण तात्विक अर्थ


Audio : https://hariomaudio.standard.us-east-1.oortstorage.com/hariomaudio_satsang/Ramayan-Tatvik-Arth.mp3

 

 

पाप का फल ही दुख नहीं है । पुण्यमिश्रित फल भी विघ्न है । ऐसा कौन सा इंसान है जिसको  संसार में विघ्न नहीं है।  तो भगवान महा पापी होंगे इसलिए उनको दुख आया होगा,  14 साल वन में गए।  यदि पाप का फल ही दुख होता तो राज्यगद्दी की तैयारिया हो रही है और तुरिया बज रही है नगाड़े गुनगुना रहे है और राज्याभिषेक की जगह पर अब कैकेयी का मंथरा  की चाबी  चली और रामजी को बोलते है वनवास । एक तरफ तो राज्याभिषेक की तैयारी और दूसरी तरफ वनवास का सुनकर जिनके चेहरे पर जरा करचली नहीं पड़ती,  जिनके चित्त में जरा क्षोभ नहीं होता, राज्याभिषेक को सुनकर जिनके चित्त में हर्ष नहीं होता और वनवास सुनकर जिनके चित्त में शोक नहीं होता,  ऐसे जो अपने आप मे  ठहरे है वे ही तो रामस्वरूप है ।  ऐसे राम को हजार हजार प्रणाम । ॐ…  ॐ….  ॐ…  ॐ…  ॐ…  ।

दस इन्द्रियों के बीच रमण  करने वाला दशरथ (जीव) कहता है कि अब इस हृदय गादी पर जीव का राज्य नहीं, राम का राज्य होना चाहिए और गुरु बोलते है कि हाँ ! करो । गुरु जब राम राज्य का हुंकारा भरता है तो दशरथ को खुशी होती है लेकिन राम राज्य होने के पहले दशरथ, कैकेयी की मुलाक़ात मे आ जाता है । दशरथ की तीन  रानिया बताई, कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी । सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण । जब  सत्वगुण में से,  रजो गुण मे से हटकर दशरथ (जीव),  तमोगुण में, जाता है, रजोगुण में, तमोगुण में, फँसता है, तमस मिश्रित रजस में फँसता है, कैकेयी अर्थात कीर्ति में, वासना में फँसता है तो रामराज्य होने के बदले में  राम वनवास हो जाता है।  राम का राज्य नहीं,  राम वनवास ! ओर सब है राम ही जा रहे है । फिर रामायण के आध्यात्मिक कथा का अर्थ लगाने वाले महापुरुष लोग, आध्यात्मिक रामायण का अर्थ बताने वाले संत लोग कहते है, दशरथ छटपटाता है । राम वनवास होता है तो दशरथ भी चैन से नहीं जी सकता है और समाज में देखो !  कोई दशरथ चैन से नहीं है, सब बेचैन है । ज्यादा धन वाला-कम धन वाला, ज्यादा पढ़ा- कम पढ़ा,  अधिक मित्रों वाला- कम मित्रोंवाला, मोटा अथवा पतला, नेता अथवा जनता,  देखो !  सब बेचैन है ।  क्यों ? कि  राम वनवास है । कथा का दूसरा पॉइंट यह बता रहा है कि रामजी के साथ सीताजी थी । लक्ष्मण जी थे । राम माने ब्रह्म, सीता माने वृत्ति । राधा माने धारा, श्याम माने ब्रह्म । राधेश्याम….  सीताराम….. ।  

सीता माने वृत्ति, राम के करीब है लेकिन सीता की नजर स्वर्ण के मृग पर जाती है और राम को बोलती है ला दो । जब सोने के मृग पर तुम्हारी सीता जाती है तो उसे राम का वियोग हो जाता है । सोने के मृग पर, धन दौलत पर जब हमारा चित्त जाता है तो अंदर आत्माराम से हम विमुख हो जाते है, फिर लंका मिलती है, स्वर्ण मिलता है, लेकिन शांति नहीं मिलती । उसी वृत्ति को यदि राम की मुलाक़ात करानी हो तो बीच मे हनुमानजी चाहिए । सौ  वर्ष आयुष वाला जीवन, उस जीवन को परमात्मा के लिए छलांग मार दे,  उस जीवन के भोग विलास से छ्लांग मार दे ।  जामवंत को बुलाया, उसको बुलाया, उसको बुलाया । कोई बोलता है एक  योजन कूदूंगा, कोई बोलता है दो योजन । हनुमानजी सौ योजन समुद्र कूद गए । माप करेंगे तो भारत के किनारे से लंका सौ योजन नहीं है लेकिन शास्त्र की कुछ गूढ़ बाते है । जीवन जो सौ वर्ष वाला है उस जीवन के रहस्य को पाने के लिए, छलांग मारने का अभ्यास और वैराग्य हो । हनुमानजी को अभ्यास और वैराग्य का प्रतीक कहा , जो  सीताजी को रामजी से मिला देगा । रामजी उत्तर भारत मे हुए और रावण दक्षिण  की तरफ । उत्तर ऊँचाई है और दक्षिण नीचाई है । ऐसे ही हमारी वृत्तियाँ शरीर के नीचे हिस्से मे रहती है । और जब हम काम से घिर  जाते  है तो हमारी आँख की पुतली नीचे आ जाती है । जब हम क्रोध से भर जाते है तो हमारी सीता नीचे आ जाती है और सीता जब रावण के करीब  होती है तो बेचैन होती है, ज्यादा समय  रावण के वहाँ ठहर नहीं सकती । काम के करीब हमारी सीता ज्यादा समय ठहर नहीं सकती । चित्त मे काम आ जाता है, बेचैनी आ जाती है और लेकिन  चित्त में राम आ जाता है तो आनंद आनंद आ जाता है । रावण की अशोक वाटिका मे सीताजी नजर कैद है लेकिन सीता में यदि निष्ठा है तो रावण अपना मनमाना कुछ कर नहीं सकता है। ऐसे ही हमारी वृत्ति मे यदि दृढ़ता है राम के प्रति पूर्ण आदर है तो काम हमे नचा नहीं सकता । उस दृढ़ता के लिए साधन और भजन है।  चित्तवृति को दृढ़ बनाने के लिए, सीता के संकल्प को मजबूत बनाने के लिए तप चाहिए ,जप चाहिए, स्वाध्याय चाहिए, सुमिरन चाहिए ।  

जब कामनाएँ सताने लगे, नरसिंह भगवान ने जैसे कामना के पुतले को फाड़ दिया ऐसे ही काम को चीर दे, नरसिंह अवतार का चिंतन करने से फायदा होता है । इस कथा की आध्यात्मिक शैली को जानने वाले संतों का ये भी मानना है कि रावण मर नहीं रहा था और विभीषण से पूछा कि कैसे मरेगा ? बोले डुंटी  (नाभि ) में आपका बाण जब तक नहीं लगेगा तब तक वो रावण नहीं मरेगा अर्थात कामनाए नाभि केंद्र मे रहती है । योगी जब कुण्डलिनि योग करते है तो मूलाधार चक्र मे जंपिंग होता है और फिर स्वाधीस्थान चक्र मे खिंचाव होता है, पेट अंदर आता है बाहर जाता है, साधक लोग, तुम लोगो को भी अनुभव है । वो जन्म जन्मांतरों को कामनाए है, वासनाए है, उनको धकेलने के लिए हमारी चित्तवृत्ति हमारी जो सीता माता है, उस काम को धकेलने के लिए डांटती फटकरती है और जब डांट फटकार चालू होती है तो साधक के  शरीर मे क्रियाए होने लगती है। देखो समन्वय हो रहा है कथा का और कुण्डलिनि योग का । कभी कभी तो रावण का प्रभाव दिखता है और कभी कभी सीताजी का प्रभाव दिखता है । दोनों की लड़ाई चल रही है है । कभी कभी तो साधक के जीवन मे कामनाओं का प्रभाव दिखता है और कभी कभी तो सद्विचारों का प्रभाव दिखता है। अयोध्या को कहा कि नौ द्वार थे  । ऐसे ही तुम्हारा शरीर रूपी अयोध्या है, इसमे भी नौ द्वार है और नौ द्वार में जीने वाला ये जीव जो दशरथ है, राम को वनवास कर दिया कैकेयी के कारण, छटपटा के प्राण त्याग कर देता है । राम राम कही राम  हाय राम …. तव विरह में तन तजी राज=हू गयो सुरधाम । जब सीताजी को राम के करीब लाना है तो बंदर भी साथ देते है । रीछ भी साथ देते है । और तो क्या भी खिचकुलिया भी साथ देने लगी कण कण उठा कर रेती का और समुद्र मे डालने लगी तुम यदि रामजी और सीता की मुलाक़ात के रास्ते चलते हो, तुम्हारी वृत्ति को परमात्मा की ओर लगाते हो तो पृकृति और वातावरण तुम्हें अनुकूलता भी देता है, सहयोग भी देता है और तुम  यदि भोग कि तरफ होते हो तो वातावरण तुम्हें नोच भी लेता है ।

अयोध्या सुनी सुनी थी तब तक, जब तक राम नहीं आए जब राम आ रहे है, ऐसे खबर सुनी अयोध्या वासियो ने तो नगर को सजाया और नगरवासियों ने साफ सफाई की । राम आने को है, राम आने को होते है तो साफ सफाई पहले हो जाती है ऐसे ही तुम्हारा चित्त रूपी नगर अथवा देह रूपी नगर, जब परमात्म साक्षात्कार होता हो तो कल्मष तुम्हारे पहले कट जाते है। तुम्हारे पाप तुम्हारा मल, विक्षेप हट जाता है। तुम स्वच्छ पवित्र हो जाते हो  और राम जब नगर मे प्रवेश करते है वो दिन दीवाली का दिन माना जाता है। लौकिक दीवाली व्यापारी पूजते है लेकिन साधक की दिवाली तब है जब हृदया मे छुपे हुए राम जो है न,  काम के करीब गए है सीता को छुड़ाने के लिए,  वो राम जब अपने सिंहासन पर आ जाए और अपने स्वरूप मे जाग्रत हो जाए उस दिन साधक की दिवाली। बड़ा दिन तो वह है कि बड़े मे बड़ा जब परमात्वतत्व का ज्ञान हो  उससे बड़ा दिन कोई नहीं । लब पर किसी का नाम लूँ तो तेरा नाम आए । ॐ …. ॐ