पिछली बार हमने सुना कि किस प्रकार बुल्लेशाह के वालिद इनायत शाह से रजामंदी लेकर बुल्लेशाह को निकाह में शरीफ होने की इजाजत लेकर उसे हवेली के जाते हैं इधर इनायत शाह के प्रतिनिधि के रूप में आश्रम से एक साधक आता है जिसे बुल्लेशाह नज़र अंदाज़ कर देते है वह साधक पेड़ की ओट में बुल्लेशाह का देर तक इंतजार करता रहा परन्तु शाम होने पर भूखे पेट ही आश्रम की ओर लौट पड़ा सुबह इनायत शाह के पूछने पर उसने सारी बातें बताई तब इनायत शाह ने ऐलान कर दिया कि चलो आज से हम अपनी फ़ुहारों का रूप उसकी क्यारियों से हटाकर तुम्हारी तरफ कर देते है।बुल्लेशाह से संबंधित ऐतिहासिक साहित्य बताता है कि उधर जैसे ही इनायत शाह नाराज़ हुए वैसे ही इधर बुल्लेशाह की अंदरूनी दुनिया पर काला पर्दा पड़ा चला गया इनायत शाह का बस इतना ही कहना था कि चलो उसकी क्यारी से हम फुहारा हटा देते है कि उसकी भीतरी मालिकियत ही ढह गई मानो उसका खजाना कंगाल हो गया आज निकाह पूरा हुआ बुल्लेशाह ने वालिद से आज्ञा ओर आश्रम की तरफ चल पड़ा लेकिन दिल मन में कुछ कमी सी महसूस हो रही थी यह सब महसूस कर बुल्लेशाह किसी लूटे पीटे खजांची की तरह छाती पीटकर कराह उठा।एक ही धुन एक ही तर्रानूम सानू आ मिली यार प्यार आ, कितनी अजीब बात है देखा जाय तो बुल्लेशाह इनायत शाह से मिलने आश्रम की ओर जा रहा था लेकिन वैसे इनायत शाह को खुद से मिलने के लिए पुकार रहा था इससे साफ जाहिर होता है कि बुल्लेशाह को अपनी भीतरी बस्ती में गुरु की गैर हाजिरी का एहसास पहले से ही हो गया था, सदगुरु की नाराज़गी का इशारा मिल चुका था तभी तो इस काफ़ी के जरिए उसने यह भी कहा है कि मेरे प्यारे शाह आप अचानक मेरे घर को वीरान कर दूर कहा चले गए? किस कसूर किस जुर्म की वजह से आपने मुझे बिसार दिया समझ लो मेरे बड़े परिवार वाले। बड़े परिवार वाले इसलिए कहा क्यों कि इनायत शाह के आश्रम में कई सारे शागिर्द रहा करते थे समझ लो ए मेरे बड़े परिवार वाले सदगुरु आप ही मेरा करार है मेरा इकलौता प्यार मेरे यार है इसलिए फौरन अपने घर वापस लौट आओ और मेरे जिगर में लगी भभक को बुझाओ इधर बग्गी के पहिये और बुल्लेशाह की निहोरे मंजिल छूने ही वाले थे उधर उसके गुरू भाईयो को दूर से ही घोड़े की टापे और उनके गले में बंधे घुंघरुओं की खनक सुनाई दी आश्रम में जश्न की सी लहर दौड़ गई तीन चार दिनों से वे रात के मुशायरे में बुल्लेशाह की लज़ीज़ काफियो की कमी महसूस कर रहे थे।आज उनकी रूह का रसोइया उनका अलबेला गुरु भाई लौट आया था इसलिए सभी अपनी अपनी कुटिया से बाहर निकल आए सुलेमान और अब्दुल तो बाजी मारने के इरादे से दौड़कर गुरु की कुटीर तक पहुंच गया खुशी से खबर दी शाहजी शाहजी आपका बुल्ला लौट आया मगर शाहजी का रवैया और जवाब दोनों उम्मीद से उल्टे मिले इनायत शाह रोबीली आवाज़ में लगभग चीखते हुए बोले जाओ आश्रम के फाटक बंद कर दो बुल्लेशाह अंदर दाखिल ना होने पाए। गुरु का यह हुक्म आश्रम पर कहर की तरह बरसा माना बिजली कड़क कर दिलों के अंदर तक जा गिरी और उन्हें अंदर तक छेद गई।सभी साधक सुन्न से खड़े रह गए सभी की तरफ देखते हुए इनायत शाह फिर गुर्राए सुना नहीं फाटक पर ताला जड़ दो उस मग्रुर सैय्यद के लिए अब हमारे आश्रम का कोई चप्पा खोलो नहीं हमारी देहलीज तक उस नामाकुल की आहट से मैली नहीं होनी चाहिए, पांच छह साधक फाटक की तरफ दौड़े थरथराते हाथो से उन्होंने लौहे कुंडी को पकड़ा। एक पल सहमी नज़रों से शाही बग्गी पर सवार बुल्लेशाह को निहारा फिर धड़ाक से फाटक के दोनों पल्ले जोड़ दिए हुकमानुसर जंजीरे खींचकर ताला भी जड़ दिया उधर बुल्लेशाह की तबियत पहले से ही नाशाग थी, फाटक बंद होते देखकर तो घबराहट का बुखार ज्यादा सुर्ख हो गया वह झट बग्गी से उतरा बग्गी को विदा किया फिर फाटक खटखटाया, ऊंची आवाज़ से पुकारा सुलेमान, अब्दुल, रहीम, अफ्जु कहां हो सब भाई? यह आज सुबह सुबह ही फाटक क्यों बंद कर दिया खोलो में तुम्हारा बुल्ला।बुल्लेशाह की इस पुकार में अपनेपन का वास्ता या साथ ही खौफ की लड़खडा़हट थी मगर यह लड़खडा़हट इनायत के सख़्त रुख़ को न पिघला पाई, अपनेपन का वास्ता गुरु भाईयो के पैरो पर बंधी गुरु के हुक्म की बेड़ियों को न काट पाया आश्रम के अंदर पत्ते तक ने हरकत नहीं की बुल्लेशाह का दिल बैठ गया क्यों कि अंदरूनी और बाहरी दुनिया में उसके लिए किवाड़ गुरु ने बंद कर दिए थे एक शायर ने खूब फरमाया है कि मेरी दिवानगी पर होश वाले बेशक बहस फरमाए, मेरी ही दिवानगी पर होश वाले बेशक बहस फरमाए मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है यकीनन दिवानगी एक दर्द है पागलपन की हद तक का जुनून है एक मदहोशी है, बेहोशी है इसलिए होश हवास के साथ इसे न तो महसूस किया जा सकता है और नहीं समझा या परखा जा सकता है तभी तो दुनिया की होशमंद मंडी से गुजरते वक्त एक बार खुद बुल्लेशाह ने गाया था कि दिल की वेदना न जाने अंदर दे सब वेगाने, ये लोग तो अंदरूनी दुनिया से बेखबर दीवाने हैं ये क्या मेरे दिल की पीर को समझेंगे फिर कौन जान सकता है इस पीर की तासीर को जिस नू चाट अमर दी होवे सोई, अमर पछाड़े।इस इश्क़ दी औखी घाटी जो चढ़ैया सो जाने वहीं जिसने खून पसीना एक करके इश्क़ के पहाड़ की खड़ी चढ़ाई की है वहीं जिसने तबीयत से सदगुरु के जामे इश्क़ पिये है जिसे उनकी रूहानी लज्जत का चस्का लग गया है वही समझ सकता है कि इस जाम मे बूंद भर भी कटौती होती है तो साधक के दिल पर क्या गुजरती हैं आज बुल्लेशाह से तो दो बूंदे नहीं पूरा का पूरा जाम छीना जा चुका था, मछली को आबे जम जम के तालाब से दूर फेकने की तैयारी हो रही थी ऐसे मे छटपटाहट तो होती तो लाजमी ही है परन्तु किस दर्जे की छटपटाहट यह भी जुबान लिखाई था फिर जज़्बाती जुबान तक से पूरी तक बयान करना नामुमकिन है इसे मात्र पढ़कर श्रोताओं को सुनाया या समझाया नहीं जा सकता मगर इन शब्दों के साथ इंसाफ तक होगा जब श्रोता इन्हें सुनेंगे नहीं महसूस भी करेंगे कि गर गुरु से जुदाई की तड़प क्या होती हैं साधक जब संसार को लात मार सदगुरु के चरणों में आसरा लेता है और सदगुरु उसे ठुकरा देते है तो शिष्य का तीनों जहां में कुछ भी शेष नहीं रहता गुरु का ठुकराना शिष्य का और मजबूती प्रदान करने के लिए लीला होती हैं क्यों कि समस्त जहां मे एक सतगुरु ही है जो कभी हाथ नहीं छोड़ते परन्तु उनका अभिनय भी तो सम्पूर्ण होता है शिष्य को झकझोर देता है खैर जब कसौटी के निमित गुरु कह दे कि निकल जा आश्रम से तो उस समय शिष्य से क्या गुजरता है वह शब्दों में बया नहीं हो सकता या पढ़कर सुनाया नहीं जा सकता वह तो एक समर्पित साधक ही महसूस कर सकता है बुल्लेशाह कभी कुंडी खड़खड़ाता तो कभी जंजीरे खनखनाता कभी हथेली से ही फाटक को पीटता, रह रहकर अपने एक एक गुरु भाई का नाम पुकारता शक और डर के मारे उसके दिल से तेज़ धुक धुकी उठ रही थी मगर उधर इनायत का मिज़ाज इतना ही सख़्त और कड़क रुख इख्तियार कर रहा था।वे अंदर फाटक के ठीक सामने बरगद के चबूतरे पर आ बैठे थे आश्रम का एक एक साधक आंगन में इसी बरगद के इर्द गिर्द खड़ा था सहमा हुआ सभी फाटक की छाती पर बुल्लेशाह की बेकरार दस्तक सुन रहे थे तभी इनायत शाह का तेज़ तर्रार स्वर उभरा कहा दो उसे की यहा से दफा हो जाएं अपने लिए कोई दूसरा ठिकाना ढूंढे लेकिन इस हुक्म की तामील कौन करे, कौन इस हुक्म नामे का बेदर्दी खंजर बुल्लेशाह के सीने में घोपे सारे गुरु भाई एक एक कदम पीछे सरक गए और एक दूसरे को देखने लगे कि कौन कहने जाए इनायत की सुर्ख आंखे सीधे अफजल वहीं को सैय्यदो के निकाह मे गया था सीधे अफ़ज़ल पर जा टिकी वे निगाहें भृकुटी टिकाकर गुरु ने उन्हें इशारा किया अफ़ज़ल बेचारा खुद को इस कांड का मंथरा मान रहा था।परन्तु इनायत ने इस बार उसे ही मोहरा बनाकर अपनी रूहानी बाजी चलना चाहते थे अफजल भी क्या करता? अपने मनो भारी क़दमों को घसीटता हुआ फाटक तक पहुंचा खटखटाहट से फाटक अब भी कांप रहा था इस कंपन मे अफ़ज़ल को बुल्लेशाह के जिगर को कहा अफ़ज़ल पलटा होंठ लटका कर गुज़ारिश भरी नज़रों से गुरु की तरफ निहारा लेकिन गुरु ने फिर कड़क आवाज़ में कहा सुनता नहीं है आवाज़ सुनते ही अफ़ज़ल धीरे से भिन भिनाया बुल्लेशाह अफ़ज़ल की आवाज़ सुनते ही बुल्लेशाह की जान मे जान अाई मानो खौफनाक समुद्री तूफान मे बेशक तिनके का ही सही मगर उसे सहारा मिल गया फौरन उसकी आवाज़ पर लपका इसे पहले की अफ़ज़ल कुछ कहता उसने उसे इस दोस्ताना डांट लगा डाली, अफजु कहां था भाई फाटक बजा बजाकर यहां बेहाल हो गया चल अब जल्दी से खोल तब अफ़ज़ल ने अपनी सारी ताकत बटोरकर बोला बुल्ले वो शाह जी कह रहे है कि। क्या कह रहे है? किन्तु कहीं ओर चला जा और यहां आश्रम में नहीं रहता तुझे अफ़ज़ल ने बस कह डाला जितनी नर्मी से कह सकता था कह डाला मगर हुक्म भी खुद में ही खुद किसी अंधड़ आंधी से कहा कम था, बुल्लेशाह यकीन नहीं कर पाया मानो इस आंधी ने उसके सोचने समझने की बत्तियां ही गुल कर दी हो इस बंद दिमागी के चलते वह गिड़गिड़ा गिड़गिड़ा कर वहीं अलाप अलापने लगा एक दफा खोल तो सही अफ्जु मुझे शाहजी के पाक क़दमों का बोसा करना है तूने उन्हें खबर नहीं दी कि उनका बुल्ला फाटक पर खड़ा है अब चुप परन्तु बुल्लेशाह को गिड़गिड़ाकर अपनी आंखो में भरकर उसने गुरुजी तक पहुंचने की कोशिश की मगर उधर शाह जी ने तो जैसे बेरुखी की मिसाल कायम करने की ठान ली थी इनायत शाह ने अपने गमछे की धूल झाड़ी उसे कंधे पर डाला और कट्टर चल से अपनी कुटिया की तरफ बढ़ गए यहां अफ़ज़ल नाखून से नाखून छीलता रह गया उसके हाथ पांव जुबां ये सब बेबसी की जंजीरों में जकड़े हुए थे उसने एक दो लंबी सांसे ली और दरवाज़े के पास जाकर कहा बुल्लेशाह गुरुजी ने तुझे कहीं ओर चले जाने को कहा है इसलिए मेरे भाई तू चला जा यहां से चला जाऊ पर कहा? बुल्लेशाह का गला भर आया यह सुनते ही अफ़ज़ल वहां से मायूस होकर दौड़ गया दूसरे गुरु भाई भी मायूसी से गर्दन झुकाए लंगड़ाते हुए वहां से चले गए मगर उधर बुल्लेशाह की जड़े थर्राने लगी, चोटी से तलवो तक का एक एक पुर झन्ना उठा सीना खून नहीं दर्दनाक दर्द बहाने लगा जज्बातों की नदी उछल कूद कर बाड़ बन गई बुल्लेशाह उनके तेज बाहर में बहता हुआ मानो पूछ रहा था कहा जाऊ? यह तो बता दो अच्छा में तो उठा लेता हूं अपना सिर पर इतना बता दुनिया में इसके सिवा कोई और भी दर नहीं है परवाना शमा को छोड़कर कहा परवाना होए साईं किस ठिकाने को तलाशे वह बताओ तो सही।उसके लिए तो आग के अलावा सब राख ही है साईं ईमान की कसम चाहे मेरे रूह की गवाही ले लो लेकिन यकीन मानो जेब से मेरे जिस्म को आपकी पाक देहलीज की खाक मिली है बुल्ला बेखबर बेहोश होकर जिया मुझे कुछ होश खबर नहीं क्या सच मे इस भरे जमाने मे कोई दूसरा भी है जहां जिंदगी जी जा सकती है मुझे नहीं मालूम मेरे वजूद का जर्रा जर्रा तो आपके आश्रम मे दफन है सांसो की एक एक लड़ी इन्हीं है हवाओं मे जसब है फिर कौन से वजूद को ठोकर कहा चला जाऊ? सांसों को इस अंजुमन से कैसे जुदा करू? इतना तो बता दो निकलकर कहा जाऊ?तेरी अंजुमन के सिवा चमन की बुहो बसू फिर कहां चमन के सिवा बुल्लेशाह वहीं खड़ा खड़ा सुबक रहा था जज्बातों के फंदे उसके हलक को घोट रहे थे इसके लिए सांसे सिसकियों मे बदल रही थी वह सिसकता हुआ बहुत से अफसाने कह रहा था, दलीलें, अपीले लगा रहा था उसका सीना इतना बोझिल था मानो किसी ने बड़ा भारी पत्थर लाद दिया हो जिस्म थकान से नहीं हादसे से चूर चूर और घायल था बुल्लेशाह बस फाटक की लौह जंजीरों के सहारे लटका हुआ झुल रहा था कभी कभी बदहवास होकर उन्हें ज़ोर ज़ोर से खनका डालता इसी आलम मे सारा दिन गुजर गया शाम भी ढलकर काली रात बं गई मगर बुल्लेशाह की उम्मीद की शाम अभी भी नहीं ढली, दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है लंबी है मगर शाम मगर शाम ही तो हैं बुल्लेशाह के जहन में अब भी इस उम्मीद की रोशनियों की कल यह खौफ़नाक ख्वाब खत्म हो जायेगा गुरु के पीड़े समंदर इनायतो के मीठे समंदर उसके गुरुजी इतने खारे नहीं हो सकते आज भी बेशक प्यासा रखें परन्तु कल मीठी बारिश बरसाएंगे तभी उसके मन मे एक ख्याल आया कि हो ना हो कल चारगाह तो जरूर जाएंगे क्यों कि सुबह गुरुजी आज भी नहीं गए इस तरह आश्रम के जानवरो को भूखा थोड़े ही मारेंगे तब वह दौड़कर कदमों से लिपट जायेगा हरगिज नहीं छोड़ेगा उन क़दमों को उनसे अपनी खता सुनेगा सजा सुनेगा हा हा बिल्कुल ऐसा ही करेगा और साथ मे यह भी कहेगा कि रहमत का तेरी मेरे गुनाहों को नाज है बंदा हूं जानता हूं कि तू बंदा नवाज़ है इसी ख्याल के तारे आंखो मे संजोए वह आकाश के तारे गिनने लगा वही आश्रम के बाहर घास के कुदरती बिछोने पर बैठा वह बुल्लेशाह गुरु को याद करने लगा।