महान संकट की ओर बढ़ रहे थे बुल्लेशाह के कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग- 7)

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे बुल्लेशाह के कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग- 7)


बुल्लेशाह अपने गमो मे डूबा रहता बुल्लेशाह ने विरह मे अलग अलग मौसमों का जायका भी चखा। चखकर जो भी हाल हुआ उसमें अपने बारह माह नामक लोक काव्य मे दर्ज किया बारह महीनों की अलग अलग विरह गाथा के तौर पर बड़ी ही सुन्दर काफिया है।सतशिष्यों को तो हमने रोते बिलखते बहुत देख लिया आइए इस बार सतगुरु के दिल की थाह लेते है हालांकि यह बहुत मुश्किल है बल्कि नामुमकिन सा ही है कारण कि गुरु का हृदय एक बंद कक्ष है जिसमें किसी की भी दखलंदाजी नहीं होती।वह ऐसा रहस्यमई सागर है जिसकी तह तक गोता लगाना मानो बुद्धि के बस की नहीं यह बंद कक्ष तो कभी कुछ विशेष कृपा पात्र के लिए ही खुलता है यह सागर अपनी बंद सिपियो के मुंह मर मिट चुके प्रेमियों के लिए खोलता है इन्हीं कृपा पात्रों और प्रेमियों के अनुभव की बिसात पर खास कर बुल्लेशाह की काफियो के आधार पर।आइए जाने हाले अस्ताना और हाले इनायत। आज ही महफूज़ सोने दरो दीवार मे वो तराने कल जो उभरते थे उन होठो पर ज़र्रे ज़र्रे मे खटक महसूस होती है यहां ताजी ताजी सुबह खिली थी मगर आश्रम मे वहीं बासी सा गमगीन एहसास पसर रहा था सूरज की चमकती किरणे भी बुल्लेशाह की गैर मौजूदगी के सायो को धो नहीं पाई थी दरो दीवारें सूनी सूनी सी मुंह लटकाए खड़ी थी मगर आज भी उनके सीने मे वो तराने तर्रनम आबाद थे जगह जगह पर उसकी आशिकाना शरारतों के दस्तक आज भी दिखाई दे रहे थे लगता था मानो बुल्लेशाह कहीं से अभी कूदता फांदता आएगा और अपने जिंदादिल इश्क़ से माहौल को नाचने पर मजबुर कर देगा।इन्हीं परछाइयों के बीच इनायत शाह अपनी कुटीर से बाहर निकले चरगाह जाने की तैयारी थी रोजाना की तरह वे एक एक मुरीद की कुटीर के आगे से निकले और आवाज़ लगाई अफजल, सलीम, अब्दुल, बुल्ला। बुल्ला! यह सुन आश्रम चौक सा गया अब्दुल धीरे से फुसफुसाया शाह जी बुल्ला बुल्ला तो। शाह जी ने तीखी नज़र से साधकों की शक्लो को देखा फिर मुंह फेरकर फाटक की ओर बढ़ गए जो दिल मे बसा हो उसका नाम हलक से उछलकर जुबां तक आने मे देर ही कितनी लगती हैं? इनायत शाह ने बुल्लेशाह को जिस्मानी तौर पर आश्रम से बाहर बेशक निकाल दिया था मगर जिगर का टुकड़ा और उसे काटकर जिस्म से जुदा कैसे किया जा सकता है?बुल्लेशाह इनायत के वजूद का हिस्सा बन चुका था बुल्लेशाह को सुनना उसे पुकारना उसे महसूस करना उसकी खुराफाती मुरिदी पर चुपके चुपके गुदगुदाना यह सब इनायत की आदत हो गई थी अब आदत तो आसानी से जाती नहीं न। जैसा कि आश्रम का दस्तूर था शाम के वक़्त चबूतरों पर महफ़िल सजी सारे मुरीद अपनी अपनी कुटियो से निकलकर यहां जुटने लगे बाहर के गृहस्थी मुरीद भी आ पहुंचे सारंगी, ढोलकी, हारमोनियम, छैने, मंजीरे भी सिर से सिर जोड़कर इक्कठे हो गए मगर क्या सामान से समा बनता है ये सारा साजो सामान और मुरीद तो आज तक महफ़िल के बस शरीद जैसे ही थे इनायत शाह इस जिस्म की रूह थे तो बुल्लेशाह सांसे था इन सांसों के बिना शरीर मे कोई धड़कन ही नहीं थी सब जमे से बेजान से बैठे थे इतने मे इनायत शाह भी महफ़िल मे शरीक हुए मानो अब पोर पोर मे हरकत हुई सिर सिजदे मे झुक गए।इसी के साथ महफ़िल भरी पूरी हुई पर क्या सच मे फिर यह दिल मे अधूरा पन का एहसास कैसा? इनायत की इलाही नज़रे अंदर तक के हाल को जांच रही थी वे दिलो की हर लहर को पढ रहे थे साफ देख रहे थे कि हर जहन मे बुल्लेशाह की कमी खल रही है मुरीदों के खिले हुए होंठ भी इनायत से बुल्लेशाह के बारे मे गुफ्तगू कर रहे थे गुलशन मे सबको जुस्तजू तेरी है हर बंद जुबां पर गुफ्तगू तेरी है हर याद मे जलवा है तेरी मुरीदी का। जिस फूल को सूंघता हूं जिसमें खुशबू तेरी है इनायत बेहद अनखुली मुस्कान मुस्काए फिर चेहरे पर वहीं फाका मस्ती का रंग लाए जो वे अक्सर महफ़िल मे रवानगी की लहर उठाने के लिए किया करते थे मगर यह क्या? लहर तो उठी नहीं वजह की उस लहर का अगवा बुल्लेशाह ही हुआ करता था अब अगवाई के बिना उस लहर को कौन उठाएगा?यह देख इनायत ने खुद ही कमान संभाली पूरी जिंदा दिली के साथ उठाया अपना हाथ और मंडली के बीच बैठे साधक हीरा को पुकारा हीरे सुनो। हा में तुझे ही कह रहा हूं तू अपनी कोहिनुरी चमक दिखा गुरु के दरबार की रोशनी बुझनी नहीं चाहिए हीरे ने हुक्म पाते ही सिजदा किया गला खंखार आलाप उठाया उसी काफी का जो इनायत की पसंदीदा थी और हमेशा महफ़िल में ल अलमस्ती का ईंधन फूंक देती थी तजुर्बे दार साधक भी गुरु का इशारा समझ चुके थे गुरु के हुक्म की नफ़र्मानी न हो जाएं और उनकी ख्वाहिश पूरी हो इसलिए उन्होंने अपनी अपनी कोशिशें भी हीरे के साथ मिला दी गाजे बाजो ने भी सतगुरु के हुक्म की तामील मे खुद झोंक दिया तराने गूंज उठे धुंकारे थिरकने लगी बस किसी तरह से बुल्लेशाह की कमी पूरी हो जाय।इसी वजह से दोनों तरफ से कोशिशें जवा थी इधर सतगुरु अपना आला से आला अपना सुल्तानी जलवा लूटा रहे थे और उधर साधकों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। गूंगे गले भी आज गा दिए वादकों ने दुगना जोर लगाया कई मुरीद मदमस्त हुए नाचने और फिरकने लगे। हर ओर सरगर्मी पुरजोर थी मगर फिर भी जितना कोशिशों की सुइयों से फटे दामनो को सिला जा रहा था उतनी ही फटे हाल कर सामने आ रही थी संगीत मे खूब धूम धड़ाका था मगर वो खनक नहीं थी जैसी तरानो मे सुर और बुलंदी तो थी मगर कहीं न कहीं वह सरसराती खींच नहीं थी जैसी। नाच तो बहुत रहे थे मगर किसी के लहू मे वैसी झूम नहीं थी जैसी हा वे जज़्बात और आंच नहीं थी बिल्कुल नहीं थी जैसी बुल्लेशाह की परवान चढ़ी रूह से उठा करती थी वहीं बात रूह की मौजूदगी से जिस्म जिंदा तो हो गया था मगर उसमें सांसों की जिंदा दिल थिरकन की कमी थी इनायत शाह आज थोड़ा पहले ही महफ़िल से उठकर कुटिया में चले गए।रात पूरी खिल चुकी थी पूनम का चांद भी आसमान मे पूरा था इनायत उसकी तरफ खिंचे से चले आए खिड़की की तरफ आ खड़े हुए और उसे निहारने लगे परन्तु यह खीचाव कैसा? ये डोरे कौन सी थी जिन्होंने इस जीते जागते खुदा को चांद से बांधकर खड़ा कर दिया था दरअसल आज यह चांद बुल्लेशाह के हाले दिल का डाकिया बना हुआ था आज तक तो वह चांद सूरज के घर से रोशनी लेकर दुनिया तक पहुंचाता रहा था मगर आज यह सतशिष्य की आहे सतगुरु तक पहुंचा रहा था इस दौरे जुदाई मे बुल्लेशाह रोजाना रात को कोठे की खिड़की पर बैठकर घंटो चांद से ही बाते किया करता था अपने जज्बातों के खत चांद को थमाया करता था।इस बात का जिक्र बुल्लेशाह की काफियों में जगह जगह मिलता है इधर इनायत चुपके चुपके इन खतो का एक एक लब्ज पढ़ते थे चांद को निहार निहारकर बुल्लेशाह के एक एक आंसू एक एक आह को अपने सागर से सीने मे जज्बा करते थे कुछ अनसुना नहीं रहता था तड़प की एक मचल तक उनसे छीपी नहीं थी यहां अफ़ज़ल हैरान था दूर अंधेरे मे खड़े रहकर इनायत को देखा करता था सोचता था आज कल गुरुदेव रोज रात को आसमान की तरफ आंखे उठाकर क्यों देखते है? इतना देखते है कि उनकी आंखे नम तक हो जाया करती है वे अचानक बेचैन से हुए कुटीर के चक्कर लगाने लगते है कभी आसन पर बैठते है फिर खिड़की से बाहर आसमान को निहारने लगते है यह क्या हो गया है गुरुदेव को? कहीं इबादत का कोई नया सलीका तो नहीं हा सच मे यह इबादत ही तो थी सतगुरु के द्वारा अपने सतशिष्य के मोहब्बत की इबादत। कोई कहा समझ सकता था कि रोता बुल्लेशाह उधर है लेकिन आंखे इधर नम होती हैं जैसे ही हुंक उधर उठती हैं कलेजा इधर फटता है अगर वो तवायफ खाने के जश्नो के बीच भी मातम मनाता है तो इनायत के जश्नो मे भी उनका असर होता है रोता तो तू है मगर आंखे मेरी नम है तपता तू है मगर सीने मे मेरे जलन है यू तो जश्न का आलम है हर रोज मगर तेरे बिन सूनी हरबार मेरी अंजुमन है।वैसे तो इनायत भी अपनी एकाध चिट्ठी चांद के जरिए बुल्लेशाह तक पहुंचाया करते थे कभी कभी तो इतने दीवाने हो जाते कि इस जरिए खुद ही बुल्लेशाह तक पहुंच जाते। बुल्लेशाह ने इस दौरे जुदाई मे कई बार चांद में अपने सतगुरु का दीदार किया इस बात का भी जिक्र उसकी काफ़ियो में मिलता है । कहते है कि ना घोर काली रात में एक दिए का सहारा भी बहुत होता है बुल्लेशाह के लिए यह चांद ही यह सहारा था उधर इनायत भी इस चांद के जरिए अपने दिल को सहलाते रहते उनका हाल भी नासाज था हरपल तेरे खातिर जलते रहा हूं मैं भी हर रोज तेरी चर्चा करता रहा हूं मैं न पूछो मेरी मजबूरी मेरी बेबसी का हाल हर आह तेरे साथ भरता रहा हूं मैं भी। कच्चे मुखौटे जैसी थी इनायत की सख्त बेरुखी देखने वाली आंखे देख सकती थी कि इस ठंडे बेजजज़्बाती मिजाज़ के नीचे इनायत कैसे हर लम्हा पिघलते रहते है अफ़ज़ल की आंखे भी कुछ ऐसी आंखे थी वे रोज़ रात काले पर्दे के पीछे अपने सतगुरु के बेनकाब चेहरे का दीद करती उनके ललाट पर परेशानी की लकीरें देखते उनकी आंखो में किसी की जुदाई के निशान देखती उनके उठने बैठने चलने फिरने हर हलचल में एक कसक का खींचाव एक अजीब सी बेचैनी पसरी देखा करते अफ़ज़ल के पास एक सतशिष्य का दिल भी तो था यह दिल उनकी खुदाई जज्बातों को भी महसूस करता जो सतगुरु की शक्सियत से किसी अपने खास के लिए ही उठा करते है यह खास कौन था अफ़ज़ल जानता था मगर एक राज था जिसे नहीं जान पा रहा था।इनायत से पूछने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता था इसी कश्मकश ने काफी लंबा अरसा गुजर चुका था बुल्लेशाह को आश्रम से रुक्सत हुए करीबन एक साल होने वाला था मगर अफजल की आंखे और दिल अब भी इनायत के गमगीन आलम के चश्मदीद गवाह थे बल्कि यह गम के रोज बरोज हरा भरा और ताज़ा दिखने लगा था बस बहुत हो गया आज अफ़ज़ल खुद को रोक नहीं पाया हौसला बटोरकर इनायत की कुटीर मे पहुंच गया वहां उसने इनायत को खुशमिजाज पाया अफ़ज़ल ने सोचा कि हे मेरे औलिया कितनी जल्दी किस खूबसूरती से मुखौटा पहन लेते हो अभी बाहर से झांका था तब तो। कैसे आया अफ़ज़ल मिया? इनायत अलमस्त आवाज़ में बोले मगर इनायत की यह मलंग खंखनाहट भी आज अफ़ज़ल में जरा भी गुदगुदी न पैदा कर पाई अफ़ज़ल खरे तेवर में बोला कब तक मखोल करते रहोगे सांई कब तक पर्दा नशी रहोगे?इनायत आम इंसानों जैसी हैरानी ओढ़कर बोले कैसा मखोल कौन सा पर्दा अफज़ल? हम तो खुली किताब है जो आपकी मर्जी पढ ले। बेशक आप खुली किताब है साईं मगर इसके पन्नों पर आपने ऐसी रूहानी स्याही ऐसी रूहानी अल्फाजों में राज लिखे है कि उनके अर्थ अब हमें समझ में ही नहीं आते हैं साल भर से में इस खुली किताब के पन्ने पलट रहा हूं मगर वो रूहानी राज नहीं समझ पाता।इनायत खिलखिलाकर हंसने लगे मगर कुछ बोले नहीं परन्तु आज अफ़ज़ल भी अड़ा हुआ था लंबी इंतजार की साधना जो करके आया था बोला शाह जी पहले मैं सोचता था कि जरूर बुल्लेशाह ने कोई खौफ़नाक खुरफ किया है तभी आपने उसे आश्रम से बेदखल कर दिया उसे सजा दी मगर मैं गलत था आपने सजा उसकी नहीं खुद को दी है मैंने आपकी आहिस्ता आहिस्ता उसकी जुदाई में घुलते हुए देखा है आपकी इलाही हस्ती पर गमगीनी के साए देखे है इनायत ने यकायक रंग बदला ऐसे घबराए जैसे कि चोरी पकड़ी गई लड़खड़ाती आवाज़ में मानो अपना जुर्म नकारने लगे जब नहीं नहीं हम तो कबका अपने ख्यालातों से उसे भूल चुके है अफ़ज़ल के हाथ इबादत में उठ गए आंखे अपने मौला इनायत के अफताब चेहरे पर निसार हो गई उसने कहा खुदा के वास्ते करम करो मेरे नबी इस बंदे को अपनी बेनकाब हकीकत दिखाओ मैं पूछता हूं ऐसा कौन सा लम्हा है जब अपने बुल्लेशाह के ख्याल पर खाक डाली हो सुबह चारगाह जाते वक़्त न जाने कितनी बार आप सबसे पहले उसके नाम का कलाम पड़ते हो शाम को महफिलों में मैंने आपको हर हम सभी मुरीदों के चेहरे में बुल्लेशाह को ही ढूंढ़ते हुए पाया है और फिर रोज़ाना रात को कौन चांद की पालकी पर बैठकर बुल्लेशाह कभी हज करके आता है क्या यही भूलना है? बस अब सारे नकाब चटक गए सतगुरु अपनी खाली साकिकी में पेश हुए संजीदा आलम गम जदा चेहरा मगर इलाही सुरूर से नम आंखे धीरे से बोले मैं उसे अपने ख्यालों से गुम कैसे करें? अफ़ज़ल जो अपने हर ख्यालात मे मुझे ही आबाद किए बैठा है कैसे उसके शिष्यतवा पर खाक डाल दूं?जो अपनी हर सांस के साथ मुझे हजारों सिज़दे भेज रहा है अपनी निगाह से उसके हालात को कैसे न निहारू? यह फर्ज थोड़ी देर के लिए भी कैसे मैं विसारू? मेरी जुस्तजू मे वो तपकर कुश्ता हो रहा है फिर अपने मुकामे दिल से मैं वो आग कैसे न गुजारूं? वो हर लम्हा बढ़ रहा है मेरी हद की तरफ में अपनी हद को तोड़कर उसे कैसे न पुकारू? अफ़ज़ल ने कहा शाहजी।यही तो रहस्य है जिसमें में आज तक उलझा हूं उधर बुल्लेशाह गम के सफिने में तौर रहा है इधर आप भी गमजदा है उधर वो जुदाई का जहर पी पी कर बेजान हो रहा है इधर यह जुदाई आप पर भी फंदे कसती जा रही है फिर यह जुदाई खत्म क्यों नहीं होती? मिलन क्यों नहीं होता यह कैसी बेबसी है आपकी एक ना ने इस गम की दासता की शुरुआत कर दी आपकी सिर्फ एक हां इस गम की दास्तान को तमाम कर सकती है फिर इस हां में हर्ज क्यो? कुल कायनात के मालिक होते है सतगुरु ऐसा सुल्तानी सूरमा जो कायनात के कानूनों मे भी हेर फेर करने का दम रखता है अगर खुदा कायदों मे कैसा प्रधानमंत्री है तो सतगुरु राष्ट्रपति होते हैं जिसकी एक दस्तखत किस्मत के मारे की फांसी तक टाल सकता है ऐसी समर्थ शहंशाही होती हैं सतगुरु की।ऐसे बादशाह होते है सतगुरु मगर फिर भी आज बुल्लेशाह के किस्से में सतगुरु ने मजबूरी का पोश क्यों ओढ़ा हुआ है? ऐसी कौन सी बेबसी है कौन सी लाचारगी! अफ़ज़ल यही जानना चाहता था उसकी भौंहे सिकुड़ चुकी थी वह उम्मीद भरी नजरों से इनायत को ताक रहा था इनायत ने अपना चेहरा फेर लिया खामोश निगाहें कुटीर के बांसो पर टिका दी उनके ख्याल गहरा गए में इसे क्या बताऊं कि मैं क्यों सजा देने वाला और सजा पाने वाला दोनों बना बैठा हुआ बेबसी की वजह क्या है? मै इधर मौसमे खिजा में तप रहा हूं तभी तो उधर खिलेगी ऋतु बाहर की। खुलेगी उस रोज फिर सारी हकीक़ते जब सामने होगी पत्थर से मूर्ति तैयार की इनायत वक़्त के हाथो से ही इस हकीकत पर पर्दा उठना चाहते थे। मगर अफ़ज़ल के सब्र की चादर झीनी हो चुकी थी उसने फिर से गुजारिश की इनायत प्यारा सा मुस्करा दिए हाथ उठाकर बस इतना ही बोले तू नहीं समझेगा।एक रूहानी दस्तूर को एक नायाब बूत तराशा जा रहा है गम मेरे दिल का आराम ए जा हो रहा है मेरा गम ही आज किसी की दवा हो रहा है तराशकर मुझे उसे बनाना है खुदा। बस इसलिए उसके सब्र का इंतहा हो रहा है मेरे हाल का यह उदास धुंधला चेहरा किसी बन रही मूरत का निशान हो रहा है अफ़ज़ल ने आखरी सवाल किया कि यह खुदाई पूरा होने में और कितना वक़्त लगेगा इनायत शाह एक अजब खुशी के साथ चुटकी बजा उठे फिर नटखट अंदाज़ में पूछ उठे कि यह उर्स कबका है? उर्स एक त्योहार का नाम है उर्स कबका है आज से ठीक चालीस दिन बाद।इनायत की हस्ती में बेसब्र हलचल हुई वे उठकर रफ्तार भरे कदमों से बाहर चले गये अफजल को लगा कि इनायत उसका सवाल एक दफा फिर टाल गये मगर नहीं चुटकी बजाकर और उर्स का जिक्र कर वे जवाब ही दे गये थे।

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