Monthly Archives: October 2020

क्या महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए ?


परमहंस योगानंद जी से उनके किसी शिष्य ने पूछाः “अपने लिए कार्य न करके सब कुछ ईश्वर के लिए करने का अर्थ क्या यह है कि महत्त्वाकांक्षी होना अनुचित है ?”

योगानंद जीः “नहीं ! तुम्हें ईश्वर का कार्य करने के लिए महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए । यदि तुम्हारा संकल्प निर्बल और तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा मृत है तो तुम जीवन को पहले ही खो चुके हो । किंतु महत्त्वाकांक्षाओं को सांसारिक आसक्ति न उत्पन्न करने दो ।

केवल अपने लिए वस्तुओं को चाहना विनाशकारी है, दूसरों के लिए वस्तुओं को चाहना विस्तार करने वाला होता है किंतु ईश्वर को प्रसन्न रखने की चेष्टा ही सबसे उत्तम भाव है । यह तुम्हें ईश्वरप्रीति में सराबोर कर ईश्वरत्व के साथ एक कर देगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2020, पृष्ठ संख्या 16 अंक 334

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चित्त में आत्मप्रसाद स्थिर करने में सहायक रात्रि


शरद पूर्णिमाः 30 व 31 अक्तूबर 2020

शरद पूनम को चन्द्रमा पृथ्वी के विशेष निकट होता है और बारिश के महीनों के बाद खुले आकाश में चन्द्रमा दिखे तो चित्त विशेष आह्लादित होता है । यह धवल (श्वेत) उत्सव है । ‘अपना अंतःकरण प्राकृतिक पदार्थों को सत्य मानकर मलिन न हो बल्कि जो सत्यस्वरूप सबमें चमक रहा है उसकी स्मृति करके श्वेत हो, शुद्ध हो ।’ – ऐसा संकल्प करना चाहिए । जैसे श्वेत वस्त्र पर ठीक से रंग लग जाता है ऐसे ही श्वेत अंतःकरण, शुद्ध अंतःकरण प परमात्मबोध का रंग लग जाता है और व्यक्ति निर्लेप तत्त्व में ठहर जाता है । अपना चित्त इतना श्वेत करो कि आईने जैसा हो, कैमरे जैसा नहीं । कैमरा जो देखेगा वह अंदर भर लेगा लेकिन आईना जो देखेगा अंदर कुछ नहीं रखेगा, वापस कर देगा, वैसा ही दिखा देगा । ब्रह्मज्ञानी के चित्त और साधारण व्यक्ति के चित्त में इतना फर्क है कि साधारण व्यक्ति का चित्त कैमरे जैसा और ब्रह्मज्ञानी का चित्त आईने जैसा होता है । इसलिए ब्रह्मज्ञानी महापुरुष आनंदित व निर्भीक रहते हैं क्योंकि उनके चित्त पर कोई लेप नहीं लगता ।

शरद पूनम को चन्द्रमा से मानो अमृत टपकता है, जीवनीशक्ति के पोषक अंश टपकते हैं । रात्रि 12 बजे तक चन्द्रमा की पुष्टिदायक किरणें अधिक पड़ती हैं । अतः इस दिन चावल की खीर अथवा दूध में पोहे, मिश्री, थोड़ी इलायची व काली मिर्च आदि मिलाकर चन्द्रमा की चाँदनी में रख के 12 बजे के बाद खाना चाहिए ।

शरद पूनम को ‘पंचश्वेती उत्सव’ भी कहते हैं । दूध श्वेत, चावल श्वेत, मिश्री श्वेत, चौथा श्वेत चन्द्रमा की किरणें पड़ें और पाँचवाँ श्वेत सूती वस्त्र से ढक दें । हो सके तो सफेद चाँदी के गहने या बर्तन डाल सकते हैं । इससे आपकी सप्तधातुओं पर विशेष सात्त्विक प्रभाव पड़ता है । ‘भगवान का आध्यात्मिक तेज चन्द्रमा के द्वारा आज के दिन अधिक बरसा है और वे ही भगवान हमारे तन-मन-मति को पुष्ट रखें ताकि हम गलत जगहों से बचने में सफल हों, रोग बीमारियों से बच जायें और हमारी रोगप्रतिकारक शक्ति के साथ विकार-प्रतिकारक शक्ति का भी विकास हो ।’ – ऐसा चिंतन करके जो खीर या दूध-पोहा खाता है, वर्षभर उसका तन-मन तंदुरुस्त रहता है । मैं तो हर साल खाता हूँ ।

दशहरे से शरद पूनम तक चन्द्रमा की चाँदनी में विशेष हितकारी किरणें होती हैं । इन दिनों चन्द्रमा की तरफ देखते हुए एकाध मिनट आँखें मिचकाना, बाद में जितना एकटक देख सकें देखना । फिर श्वासोच्छवास को गिनना अथवा ऐसी भावना करना कि ‘चन्द्रमा की शीतल अमृतमयी शांतिदायी, आरोग्यदायी, पुण्यदायी किरणें हम पर बरस रही हैं । जैसे गुरुदेव हमारे आत्मदेव हैं वैसे ही चन्द्रमा भी हमारे आत्मस्वरूप हैं, सुख व आनंद देने वाले, औषधि पुष्ट करने वाले हैं, वे हमारा मन भी पुष्ट करें । शरद पूर्णिमा हमारे जीवन को पूर्ण परमेश्वर की तरफ ले जाय, हमारे चित्त में शीतलता लाये, सुख-दुःख में सम रहने की क्षमता लाये । लाभ-हानि, जय-पराजय, जीवन-मृत्यु – ये सब माया में हो रहे हैं लेकिन मुझ चैतन्य का कुछ नहीं बिगड़ता, इस प्रकार की आत्मनिष्ठावाली हमारी स्थिति लाये । जैसे ज्ञानवानों के चित्त में आत्मप्रसाद स्थिर रहता है, ऐसे ही हम भी अपने चित्त में आत्मप्रसाद स्थिर करें ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2020, पृष्ठ संख्या 13 अंक 334

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2 प्रकार के भक्त – पूज्य बापू जी


2 प्रकार के भक्त होते हैं । एक होते हैं अहंनिष्ठ भक्त । वे सोचते हैं, ‘मैं पापी हूँ, क्या करूँ ? क्या मुँह दिखाऊँ ? कैसे प्रार्थना करूँ ? मैं ठीक हो जाऊँगा फिर भक्ति करूँगा, मेरी आदत ठीक हो जायेगी फिर मंत्रदीक्षा लूँगा….’ ऐसे अहंनिष्ठ व्यक्ति उलझ जाते हैं ।

दूसरे होते हैं भगवद्-परायण भक्त । वे भगवान को प्रार्थना करते हैं, ‘मैं पापी हूँ तो भी तुम्हारा हूँ, व्यसनी हूँ तो भी तुम्हारा हूँ, जैसा-तैसा हूँ तुम्हारा हूँ, तुम्हारी शरण आया हूँ । अब आप ही मेरे तारणहार हैं ।’ ऐसे भक्त जल्दी पार हो जाते हैं । अहंनिष्ठ को परिश्रम पड़ता है, भगवद्-परायण को ज्यादा परिश्रम नहीं पड़ता है । बंदरी के बच्चे को परिश्रम करना पड़ता है माँ को पकड़ने में लेकिन बिल्ली के बच्चे को तो माँ स्वयं उठा लेती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 334

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