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बाबा बुल्लेशाह कथा प्रसंग भाग 10


बुल्ले शाह का ऐसा बेढंगा रूप देखकर इनायत शाह भी मंद मंद मुस्कुरा उठे, बुल्लेशाह दौड़कर महफिल के चबूतरे पर खड़ा होकर गाने लगा कि,चाहे यह दुनिया सौ बाते बनाएं, मखौलो के कितने ही तूफां उठाए।*मुझपर श्रद्धा की बीजली गिरी है, मुझे अब किसी की भी परवाह नहीं है।* बुल्लेशाह ने इनायत की तरफ इशारा करते हुए आगे गाया.. कि*रूहानी शाम का तोहफा ये लाया हूं तुम्हारे ही लिए,**मै सराफा सजके आया हूँ प्रभु तुम्हारे ही लिए।**यह खनकने वाले हर घुघंरू की छन-छन, हाथों की कत्थई मेहंदी, बाजूए में सजे कंगन,बालों का गजरा, पेशानी पर सजी बिंदिया की झिलमिल तेरी एक मुस्कान है मेरे सभी गहनों की मंजिल।**तुम कहो तो नीली नीली रात का सुरमा लगा लू,**दो इजाजत तो फूलों को अपने गालों पर सजा लू।* *तुम कहो तो मैं आसमा को खींचकर के ओढ लूंगा,**इन सितारों को उठाकर बालियों में जोड़ लूंगा।**तुम मेरे साजन.. गुरु… तुम मेरे रांझण… मेरे आका हो मेरे ओलिया हो…. चांद पर चढ़कर जमाने से कहूं तुम मेरे क्या हो,**दुल्हनों का पैरहन पहना है बस खातिर तुम्हारे ,ओ इनायत तुम मुझे इस जिंदगी से भी हो प्यारे।*बुल्ले शाह जज्बातों के तूफान से जूझ रहा था। इतना गाकर वह इनायत के चरणों में गिर पड़ा.. और सहसा फिर खड़ा होकर गाने लगा कि, *”बुल्ला में जोगी नाल ब्याही लोका कमलया खबर ना काई मैं जोगीदा माल पाजें पीर मनाके।* ए मेरे ओलीया इनायत! मेरी रूह का तेरे साथ निकाह हो चुका है जमाने को इसकी खबर नहीं शायद इसलिए हंसते हैं। *मैं वसा जोगीदा नाल ने मत्थे तिलक लगाके, मैं वससा न रहसा होड़े कौण कोई न जांदी न मोड़े।* मेरे जोगिया मैं तेरे निगाहों में रहकर आखरी मुकाम तक तेरे साथ जाऊंगी देखती हूं किस दुनिया में तुफा में ताकत है कि मेरा रुख मोड़ दे। *माही नहीं कोई नूर इलाही, अनहद दी जिस मुरली बाही। लक्खा गए हजारा आए उस देह किसे न पाए, जोगी नहीं कोई जादू साया। भर भर प्याला शौक पलाया, मैं पीती हुई निहाल अंग विभू रमाके। रांझा जोगीड़ा बन आया, वह सांगी सांग रचाया। कुन फैकुन आवाजा आया, तखत हजारों रांझा धाया* सुनो साक्षात खुदा ही अपना ला मुकाम छोड़कर मेरा माही जोगी बनकर उतर आया है। इसलिए मेरी रूहे हीर उसकी दीवानगी में गुम है । उसकी इश्क की मोहताज है । बुल्लेशाह अपनी अदंरूनी भावनाओं को काफियों के धागे में पिरोकर रख रहा था । शिष्य और आशिक मजाक भूलकर बुल्लेशाह की रवानगी में बहने लगे । गुरु भाई और संगत उसकी इस अलबेली अदाओं पर फिदा हो उठे । किसी ने कहा, वाह! तो किसी ने कहा, सुभान अल्लाह! मगर उधर इनायत बुल्ले को यूं अजनबी सी हालत में देखकर पहले तो मंद मंद मुस्कुराते रहे परंतु फिर अचानक गंभीर होकर तख्त छोड़कर अपनी कुटिया में चले गए । परंतु ऐसा क्यों ? इनायत तो महफिल की आखरी कव्वाली तक को इज्जत बक्श के जाते थे। यहां जुटे अपने हर एक शिष्य हर आशिक की हर कही अनकही भावना को सुनकर जाते थे। साथ ही अपनी रहमतों के नजराने नवाज कर जाते थे। मगर, आज क्या हो गया ? अभी तो बहुत कुछ बाकी था। अभी तो गुरु के दीद से दिल भरा ही ना था । गुरु के रवाना होते ही महफिल में सन्नाटा छा गया.. जैसे झन्ना के चटक जाए किसी साज का तार …जैसे रेशम की किसी डोर से कट जाती है उंगली ….ऐसे एक दर्द सा होता है …कहीं सीने में खींचकर तोड़नी पड़ जाती है जब तुझसे नजर। तेरे जाने की घड़ी सख्त घड़ी होती है। बुल्ले शाह इसी सोच के दायरे में था कि तभी एक गुरु भाई ने उसे आकर कहा कि, बुल्ले! शाहजी तुम्हें याद फरमाए है। बुल्ले शाह तुरंत इनायत शाह की तरफ दौड़ पड़ा । परंतु यह क्या इनायत बाहर शामियाने में कुछ और थे कुटिया में कुछ और उनके होठों पर खिलती मुस्कान गायब थी। चेहरे पर नितांत गंभीरता थी।बुल्ले शाह डर सा गया। दोनों हाथ एकाएक कानो तक उठ गए। इनायत ने निगाहें उठाकर उसे सिर से पैर तक निहारा… बड़ी पैनी नजर थी.. गुरू की । जिन अंगो को भी ये निगाहें छुती वही वही से बुल्ला सिमटता सिकुड़ता चला जाता। कुछ देर बाद तो वह एक सिमटी हुई पुड़िया बन गया। गर्दन झुक गई । ठुड्डी छाती से जुड़ी । तभी इनायत शाह बोले बुल्ले हमें पता है तेरी मनसा का.. हम वाकिफ है तेरी जज्बातों से… अच्छी तरह जानते हैं कि तू ऐसे क्यों सजा धजा है… हम तेरे इन भावों की कद्र के साथ-साथ इज्जत भी करते हैं । मगर बुल्ले! हमें तेरा यह अंदाज पसंद नहीं आया। दुनिया का इश्क जिस्मानी है इसलिए वो जिस्म को ही सजाते सवारते है। लेकिन तेरा और मेरा रिश्ता तो रूहानियत का है। इस रूहानी इश्क के रस्मो रिवाज अलग है । इसमें जिस्म को नहीं आत्मा को सजाना होता है। इनायत की निगाहें बुल्ले शाह के एक एक श्रृंगार को निहारने लगी फिर बोले, बुल्ले! मुझे तेरी आत्मा का श्रृंगार चाहिए। उसके लिए इन सोने-चांदी के गहनों की जरूरत नहीं। श्रद्धा ही आत्मा की बिंदिया है.. विश्वास ही आत्मा का सिंदूर है… और धैर्य ही आत्मा की लाली है । प्रेम और शांति ही आत्मा के जेवर है.. तुझे सजना है तो ऐसा आत्मिक श्रृंगार कर। यही शिष्य का सच्चा श्रृंगार होता है। जिस्म फ़ानी को सजाने से क्या हासिल होगा मौत के घर में उसे एक दिन तो जाना है तू अपनी रूह को सवार.. उसे झाड़ और पोछ कि जिसकी मंजिल उस खुदा का आशियाना है। बुल्ला अपने गुरु को एक टक देखता और सुनता रहा । और पछतावे की खाई में मानो अपने आपको गिरता हुआ पाया। परंतु गुरु उसे ऐसा ना देख सके गुरु होते ही ऐसे हैं आकाश की बुलंदियों से शिक्षाओं के इशारे करते हैं । मगर शिष्य गर्दन उठाने के सिलसिले में अगर हीनता का झटका खाकर फर्श पर आ गिरे तो वे बेचैन हो उठते हैं। झठ ऊपर से उतरकर अपने शिष्य को बांहों में थाम लेते हैं । क्योंकि गुरु का एक मकान ऊंचा आसमान है.. तो दूसरा शिष्य का हदय है। वे अपने इस प्यारे आशियाने को तिनका तिनका बिखरते कैसे देख सकते हैं? दिल में बस कर जिसके वो हर वक्त रहते हैं, उसे फिर दर्द के घेरों में कैसे देख सकते हैं ?इनायत भी ना देख सके इसलिए अपनी गुरुता को एक ओर छोड़कर जोर से ताली बजा उठे। निगाहों में मस्ती से लिए बोले…”अच्छा छोड़… जो हो गया सो हो गया… वैसे माशाल्लाह.. तु बेहद हसीन लग रहा है । अच्छा तूने यह चुटीया गुथनी कहां से सीखी ? बुल्ले शाह पल्लू उंगली पर लपेटता हुआ बोला, “शाह जी मैं तो सब उल्टा पुल्टा कर बैठा। गुस्ताखी माफ हो।”इनायत उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, “ओ ना न यह गुस्ताखी नहीं है , हमें तो इससे तेरी शिष्शत्व की खुशबू आ रही है। तेरे सीने में धधकती मशाले इश्क की सीख मिल रही है.. तेरी मोहब्बत का सबूत है।” “मगर उसे पेश करने का तरीका तो गलत ही था ना शाह जी।” बुल्ले शाह बीच में ही बोल गया ।इनायत शाह मुस्कुरा उठे, परंतु न हाँ कहा न ना । बुल्ला समझता था कि गुरु की मुक मुस्कान गलती का इजहार होती है । वह झठ खड़ा हुआ सीने पर हाथ रखकर बोला”इजाजत दो गलती सुधारने का मौका चाहता हूं।” अब बुल्ला फूर्ती से कुटिया से निकला और अपनी कुटिया में जा पहुंचा। कुछ ही देर में वह फिर बाहर आया मगर अब अपने लिबास में आया। श्रृंगार जल्दबाजी में उतरा हुआ था। पोछने के चक्कर में लाली कानों तक जा पहुंची । पानी के छक्के मारकर काजल उतारने की पूरी पूरी कोशिश की हुई थी ..मगर इससे बुल्ला और भी भयानक लगने लगा । सिर के सिंदूर का भी यही हाल था। वह भी मांग की तंग सड़क छोडकर बाहर आ गई। खैर बुल्ले को इस सबकी खबर कहाँ, उस पर तो कोई और ही धून सवार थी । पूरी रफ्तार से वह फिर महफिल मे जा पहुंचा। गुरू भाई उसे फिर से देखकर दंग रह गए। परंतु बुल्ला सीधा मंच पर जा खड़ा हुआ इस दफा कोई लटका ..झटका नहीं, पूरे होशो हवास में था। अब कि वह दीवानगी में झुमने नहीं आया था.. गुरु का संदेश देने आया था। *कर कतण वन ध्यान कुड़े तु आपड़ा दाज रंगा लैनी, तु तद होवे परधान कुड़े। इक औखा वेला आवेगा, सब साके सैठा भज जावेगा। कर मदद पार लम्हावेगा ओ बुल्ले दा सुल्तान कूड़े* अर्थात… हे मेरी आत्मा रूपी लड़की… शरीर को सजाना छोड़ उस सिमरन के दहेज को इकट्ठा कर जो तेरे साथ जाएगा। इसी से तेरे गुरु रीझेंगे। आखिरी वक्त में मुश्किल की घड़ियों में तेरा सच्चा सुल्तान तेरे गुरु ही तुझे पार लगाएंगे। इसलिए सतगुरु के शिष्यों हे मेरे भाइयों ! एक लम्हा भी बर्बाद ना करो ।

बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग -9


बुल्लेशाह के पिताजी ने बुल्लेशाह को हँसी-खुशी उस के गुरु के पास रहने की अनुमति दे दी। इनायत की रंगी दुनिया में बुल्लेशाह का खूब-खासा बसर होने लगा।जाहिर है जब शिष्य समस्त क़ायनात के सुख-वैभव, नजारों को लतिया डाले तो गुरु के शाही खजाने उसके लिए लूटने को बेकरार कैसे न हो?इनायत शाह ने बुल्लेशाह को अपने इश्क़ का अनमोल नजराना दे डाला। उसके तन-मन और कतरे-2 को अपना आशियाना बना लिया। उसे खुद को दे दिया।अब तो बुल्लेशाह की आँखों का जलवा सिर्फ इनायत हो गये, उसके सद्गुरु हो गये। कानों की खुराक सिर्फ गुरु के ही बोल, साँसों का चलना-रुकना सिर्फ गुरु की एक मुस्कान का मोहताज़ !दिल का हँसना-रोना उनके ही इशारों का गुलाम! बुल्लेशाह की हर सोच के ताने-बाने में उसके गुरु गूथ गये।*ख्वाइशों-तम्मनाओं का फूल-2 भी न हो उठा इनायत,**दिल की फ़िजा में इश्क़-बहार छा गये!* *खोशा नसिब की इश्क़ पर छाई फ़सले बहार,* *घटाएँ झूम उठी, फजाएँ हो गई शरसार!*ऐसी रंगत ,ऐसी शरसारी चढ़ी कि बुल्लेशाह प्रेम की रंगशाला बनता गया।*प्राण पत्थर थे,अब फूलमाला हुए,**हम अँधेरों में हँसता उजाला हुए!**गुरु की प्रीति के रंग ने जब हमें रँग दिया,**हम स्वयं प्यार की रंगशाला हुए!*इन नवाजिशों को दामन में बटोरकर बुल्लेशाह प्रेमडगर पर डग भर रहा था कि एक दिन आश्रम के लिए कुछ खरीददारी करनी थी। बुल्लेशाह बाजार की तरफ चल पड़े। एकाएक उसकी नजर एक मकान के ऊँचे छज्जे पर गई। वहाँ एक युवती बैठी थी।युवती आईने के सामने साजो-श्रृंगार कर रही थी – “माँग में कुमकुम, माथे पर बिंदिया,नैनों में सुरमयी सुरमा, होठों पर लाली, कलाइयों में खनखन करती सतरंगी चूड़ियाँ!”बुल्लेशाह अचकचा गया। वह टकटकी लगाये उसे देखता रहा।ऐसा नहीं कि आज से पहले उसने किसी सजी-सँवरी युवती को नहीं देखा था या फिर इस सुंदर लड़की पर उसका मन तरंगित और ईमान डोल उठा था। नहीं,ऐसा भी नहीं कि वह श्रृंगाररस का बिल्कुल ही गैर जानकर था। वह अपनी चटकीली-तड़किली बहनों-भाभीयों की सोहबत में रह चुका था, लेकिन बस आजतक इस ओर उसने कभी ग़ौर ही नहीं फ़रमाया था। सिर्फ अपनी दुनिया में मशगूल रहता था, लेकिन आज इस नजारे ने उसकी सुरूर भरी आँखों पर दस्तक दे डाली। “यह कैसा अजीबो-गरीब शौक़!आखिर ये लीपा पोती क्यों, किसलिए ?” बुल्लेशाह सोचने लगा।वह सहसा बोल पड़ा- “आपा, सुनो बहन! तुम ऐसे सज-सँवर क्यों रही हो?”युवती ने कनखियों से निचे झाँका। लिबास और हुलिए से पहचान गई कि,शाह इनायत का कोई शागिर्द है। उनके आश्रम का अनब्याहा शिष्य है। दिखने में जरूर छड़ा नौजवान है मगर चेहरे पर किसी बच्चे का भोला परछावा है,आँखों मे मासूमियत का भाव है,फिर पुकार भी तो आपा रहा है अर्थात बहन कहकर बुला रहा है। इसलिए वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। चुटकी कसते हुए बोली, “क्या बताऊँ,तुम जैसे बरवे कलंदर को? जाओ शेख जी,जाओ! शागिर्दी करो! बा-ईमान इबादत करो, वरना नाहक़ तुम्हें अपने गुरु की नाराजगी झेलनी पड़ेगी।”बुल्लेशाह ने उसी सादे मिजाज से फिर पूछा,”बताओ न आपा! यह ज़ेबों-ज़ीनत, बनाव-सजाव क्यों?आखिर किस वजह से, सबब क्या है इनका?”युवती झेंपते हुए बोली,”उफ़! एक तो गुस्ताख़ और अड़ियल हो, उपर से नादान डप्पू भी। अरे मियाँ! तुम क्या जानो इश्क़ के राज! मोहब्बतों-उलफ़्तों के किस्से तुम्हारे अल्हड़ वैरागी खोपड़ी में कहाँ घुसने वाले है?”अच्छा, जरा बताओ – “परवाना शम्मा पर क्यूँ फ़िदा होता है?इसलिए ना क्योंकि, शम्मा नारंगी अंगारों का श्रृंगार करती है!चटकीली चिंगारियो और शरारों से सजी-धजी रहती है! है ना?”बुल्लेशाह ने बाँवरे की तरह हाँ में सिर हिला दिया।”समझो मियाँ! सजीले-सँवरे रूप पर ही आशिक़ सैदा होते है। मैं भी अपने शौहर के लिए सँवर रही हूँ।” युवती खनकती हँसी के साथ छमछम करती हुई अंदर चली गई।बुल्लेशाह ने सोचा कि,”बुल्ले मोहब्बत तो तूने भी की है। मुकामे इश्क़ को फ़तह करने के ख्वाब तो तूने भी देखे हैं। अरे पगले! इनायत तेरे हबीब-महबूब है, दिलबर-दिलनशीं है, तेरे खसम, खाविंद, शौहर, सिरताज सबकुछ वही तो है! जहानवालों की इश्कबाजी तो रँगमिजाजी है, ऐशपरस्ती है,अय्याशी का जरिया है,जिस्मानी है। बुढ़ापे या फिर कब्र के अजाब में दफन हो जाती है, मगर तेरा तो इश्क और माशूक़ दोनों ही रूहानी है, ईलाही है। तेरी तो रूह ने अपने गुरु से पाक आशिक़ी की है और यह ईलाही इश्क़ ऐसा कि कयामत तक बरकरार रहेगी। कयामत के दिन भी तेरी धड़कनों को गुलजार करेंगी गुरु की याद से। फिर तू अपने माशूक़ के वास्ते क्यूँ नहीं सजता-सँवरता? हो सकता है इनायत रीझकर मुस्कुरा दे! गुरु की मुस्कान कितनी प्यारी होती है कि समस्त संसार उस एक मुस्कान पर न्योछावर! हाँ-2 चल, बन-ठन श्रृंगार कर!”*दिल ये कहता है तुझे सजना-सँवरना होगा,**अपनी साँसों से बँधी शांतिपूर्ण आयत के लिए,**अपने नस-2 में बसे रिश्ते की सतित्व के लिए।**ये रस्म अच्छी है इस इश्क़ की निस्बत के लिए,**की तू प्रेयसी सा सजे अपने इनायत के लिए!* *सुर्ख सिंदूर अब इस माँग में भरना होगा,* *दिल ये कहता है बुल्ले,**तुझे सजना-सँवरना होगा!*बुल्लेशाह पोशाक सज्जावाले दर्जी समशेरखाँ की दुकान पर चला गया। दर्जी बुल्लेशाह का पुराना मित्र था। “भाई हमें एक बढ़िया सा लिबास उधार दे दो। हो सके तो भाभीजाँ का कुछ साजो-श्रृंगार भी देना।”समशेरखाँ आँखे मटकाते हुए दोस्ताना अंदाज में पूछ ही बैठा कि,”जनाब! तबियत तो ठीक है!” बुल्लेशाह ने कहा कि ,”तबियत को ही तो हरा करने की कोशिश कर रहा हूँ मियाँ!”बुल्लेशाह सारा साजो-सामान जुटाकर अस्ताने अर्थात आश्रम लौट आया। सीधा अपनी कुटिया की राह ली। किवाड़ बन्द कर साकल लगा दी। संध्या हो चली। रोजाना की तरह आश्रम के बीच के खुले आँगन में कव्वाली और मुशायरे के लिए खुदा के आशिक जुट रहे थे। मुहूर्त हो चुका था।महफ़िल शबाब में थी।गुरुभाइयों ने बुल्लेशाह का किवाड़ खटखटाया। “बुल्ले!शाहजी तख्त पर तशरीफ़ रख चुके हैं, इसलिए फौरन बाहर आओ।”आवाज को कोई जबाब नहीं मिला, मानो बन्द किवाड़ से निगल गया। दोबारा, तिबारा उन्हें खटखटाया मगर हरबार उन्हें चीरकर सिर्फ़ सन्नाटा ही बाहर आया। गुरुभाई भी कुछ समय बाद वापस महफ़िल में आकर बैठ गए।यहाँ इनायत अपने नूरानी जलाल से शिष्यों को नूर नवाज रहे थे।काफियों के तरन्नुम पर फ़िज़ा झूमने लगी। हारमोनियम, नफिरियाँ, ढोलकियाँ साथ बज रही थी, परन्तु तभी इन धुनों से जुदा एक निराली छमछम ने दखल दिया। यह घुंघरुओं की रुनझुन रुनक-झुनक थी, कंगनों की खनक थी। सभी की नजरे झंकार की ओर मुड़ गई। यह क्या? सामने जो नजारा था, वह आश्रम के इतिहास में पहली बार दिखा था।एक छरहरे शरीर और लम्बे डील की युवती तड़किले-भड़कीले शरारे में चमकीलीे ज़री और गोटों से मढ़ा सिर पर लम्बा घुँघट!सबकी भौहें कमान सी तन गई।आँखों मे हैरानी तैर गई। मन की जमीन पर क्यों और कैसे के सवाल आकार ले उठे। इससे पहले कि यह सवाल कोई अंजाम लेते कि झन्नाटे से घुँघट उठ गया।सामने सजीला बाका बुल्लेशाह खड़ा था। मोटी-2 भौवों के बीच टिकी-बिंदिया, घनी-बिखरी दाढ़ी-मूँछो के बीच से चमकते लाली पुते होंठ, दाढ़ी के बीच गालो पर चढ़ी गाढ़ी लाली, अपलम-चपलम उसने अपने उलझे बालों को ही गूथ लिया था, टेढ़ी-मेढ़ी माँग में सिंदूर भरा था।भरा नहीं था, उड़ेल डाला था।जितना सजना मुमकिन था, उतना सजा हुआ था।यह देख गुरुभाइयों की आँखों की पुतलियाँ बाहर सी आ गई। कुछ पल तो सबको समझने में लगा कि,”आखिर यह अजीबो-गरीब जन्तु कौन है? जब दिमाग ने जरा कसरत की तब पता चला कि बुल्लेशाह है।”बुल्लेशाह शरमाऊँ ढंग से मुस्कुरा उठा। बस अब क्या था, इस मुस्कान ने मौजूदा रसिकों में एक लहर दौड़ा दी। एक नर्म गुलगुली सब दाँत निरोपते हुए पूरी की पूरी बत्तीसी दिखा उठे। ढोलकी, नफिरियाँ एक तरफ चुप, बस हर तरफ किलकारियाँ थी। कोई चुटकियाँ तो कोई तालियाँ बजाकर खिलखिलाने लगा था।कोई ठहाका लगाकर दोहरा हुआ। कोई पेट पकड़कर लोटमपोट हँसने लगा। परन्तु क्या बुल्लेशाह की इस हरकत पर उसके गुरु प्रसन्न होंगे या नाराज़….?—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …

बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग -8


मेरी दिवानगी पर होशवाले बेशक़ बहस फ़रमाये मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है। यह हक़ीकत है बुल्लेशाह तो अपने गुरु इनायत शाह के प्रेम में दीवाना हो चुका था। इस कदर कि उसमें दुनिया के चलन-चलावों का रत्तीभर होश बाकी न रहा था।इस बेहोशी के आलम में उसके मुरीद मन से जो काफ़िया फूटी, उससे जो अदाबाजी या कारनामे हुए, वे सब अलबेले थे।होशो-हवास वाले उनके मर्म और मायने कहाँ समझ सकते थे ? वे इनकी बारीकी और गहराइयाँ कहा भाँप पाते?नगर में बुल्लेशाह हिजड़ो के साथ नाच रहा है, यह खबर जब मौलवी साहेब को मिली तब मौलवी साहब मुठ्ठियाँ भिंचे बेक़ाबू हुए, कोठार में रखे लठ की ओर लपके। लगता है इस बदलगाम पर नकेल डालनी ही पड़ेगी। इसकी हेकड़ीबाजी को ठोक बजाकर ही नरम करना पड़ेगा।मौलवी साहेब के एक हाथ में लठ और दूसरे हाथ में माला है। वह चल पड़े बुल्लेशाह की ओर। वाह! क्या मेल है? एक हाथ में डंडा और दूसरे हाथ में माला! क्या साज-बाज है? एक हाथ में वो माला है जिससे खुदा की बन्दगी हो रही है और दूसरे हाथ में वो डंडा है जो बन्दगी या इश्क़-ए-खुदा में गुम उसके बंदे पर बरसने को उतावला है। एक ओर इबादत है और दूसरी ओर इबादतगार की तरफ ख़िलाफ़त का भाव है। एक शिष्य के खिलाफ बगावत है।यह विरोधाभास सिर्फ मौलवी साहब की हस्ती में ही नहीं समाज की तस्वीर में भी झलकता दिखाई देता है। कहने को तो सारा समाज आस्तिक है, ईश्वर का पुजारी है, व्रत-नेमधारी है। रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परंपराओं, कर्मकांडों को निभाने में जी-तोड़ श्रद्धा-सबुरी से जुटा है।भक्ति-सिंधु की ऊपरी लहरों पर खूब जोरो-शोरो से तैराकी कर रहा है। लेकिन अगर कोई गुट से अलग इस सतही जल-तल को छोड़कर गहराई में डुबकी लगा दे, तो समाज के तेवर ही बदल जाते है उसके प्रति। अगर कोई सद्गुरु की शरणागत होकर भक्ति के शाश्वत रूप को अपना ले तो संसार को यह जरा भी नहीं रुचता, जरा भी नहीं सुहाता।कमाल है! समाज को भक्ति सिर्फ ऊपरी तह तक ही गँवारा है। अगर शरीरिक क्रियाओं तक सीमित रहे तो ही मंजूर है। यदि यह भक्ति की खुशबू किसी के तन को भेदकर मन और आत्मा में बसने लगे, तो संसार को यह नहीं रुचता और उसे खतरनाक मान लिया जाता है। भक्ति का रस जिसकी जुबाँ से लुड़ककर अंदर दिल को भिगोने लगे तो संसार उसे नालायक समझता है। ऐसे प्रेमी के खिलाफ यह समाज हाथ में डंडा उठा लेता है।मीरा जैसी भक्तिमयी पर बावरी, कुलनाशिनी जैसे विषबुझे शब्दबाण छोड़ता है, किसी के लिए क्रूस का सामा जोड़ता है और किसी के लिए हलाहल जहर तो किसी के लिए कैद! यह कैसी रिवायत है? कैसा अजब दस्तूर?कैसी भयंकर विडम्बना है यह समाज की?मौलवी साहब वहीं पहुंच गए जहाँ पर नाच-गान हो रहा था। हिजड़ों के बीच बेफिक्र होकर बुल्लेशाह को नाचता देख वे आगबबूला हो गए। परन्तु बुल्लेशाह तो अपनी मस्ती में मस्त रहे।*ख़याले गैर नहीं ख़ौफ़े खान का नहीं,* *ये जानता हूँ इबादत कोई गुनाह नहीं।*इबादत की है, रूहानी मुहब्बत की है! अपने मौला,अपने सद्गुरु से! यह कोई गुनाह या बदकारी नहीं, क़सूर नहीं।उबलती,उफनती मौलवी साहब पर जिस-2 की निगाह पड़ी वहीं दुबक गया। सिटपिटाते हुए कोई आदाब करने लगा, कोई दाँतो तले उँगलियाँ चबाने। हिजड़े भी पेशेवर नचय्या थे मौज में नहीं फितरतन नाच रहे थे, इसलिए उनकी आँखें जैसे ही मौलवी साहब से चार हुई वे भी ख़ौफ़जद हो गये। साँस रोककर ऐसे खड़े हुए मानो जहरीला साँप सूँघ गया हो। अचानक बुल्लेशाह ने भी देखा कि मौलवी साहब 15-20 फलाँग की दूरी पर खड़े तमतमा रहे है। उनकी आँखे सुर्ख लाल थी। यह दृश्य साधारण इन्सान के लिए तो ख़ौफ़नाक था, परन्तु एक शिष्य के लिए नहीं। बुल्लेशाह मौलवी साहब को नजरअंदाज करते हुए घूम गए और फिर से थिरकने और गाने लगे- *लोका देहत मालिया ते बाबे देहत माल**सारी उमर पिट-2 मर गया घुस न सकया वार**चीना अइयो छड़िन्दा यार चीना अइयो छड़िन्दा।*चीना एक तरह का अनाज होता हैं। बुल्लेशाह ने कहा कि,”चीने की यूँ छजाई करो कि सारे कंकड़-पत्थर अलग हो जाये।लोगो! खास कर मेरे वालिद के हाथों में माला है। उनकी सारी उम्र उसे फेरते-2 बीत गई, पैर क़ब्र में लटक गए मगर नमक भर भी उनके कुछ पल्ले नहीं पड़ा। एक बाल भर भी फायदा नहीं हुआ।इसके उलट मुझे अपने गुरु से रूहानी दात मिल गई है। इबादत की ऐसी ईलाही राह मिली है कि मैं मालामाल हो गया हूँ और मेरे वालिद अभी कंगाल ही है। “यह सुनते ही मौलवी साहेब का अंगारों-लपटों से भरा लावा फूट पड़ा। मौलवी साहब लठ लिए बुल्लेशाह की ओर दौड़े। सच ही एक शायर ने खूब कहा है कि-*कदम मैखाने में रखना भी कारे पुख्तारी है,**जो पैमाना उठाते हैं वो थर्राया नहीं करते।*बुल्लेशाह ईलाही मैखाने की इस रीत से अच्छी तरह वाकिब था, वहाँ पीने का फ़न रखता था।इसलिए जब मौलवी साहब का मोटा लठ तेजी से करीब आता दिखा तब बुल्लेशाह थरथराया नहीं, न ही उसके हाथ से खुदा-एँ-इश्क़ का प्याला छूटा, न ही चढ़ा नशा काफ़ूर हुआ। वह तो बस थिरकता रहा-2 और थिरकता ही रहा। कुछ इस बेपरवाही से कि-*तेरे हाथों से जो तराशे गए है,**तेरे नूर से जो नूरानी हुए हैं,**क्या चोट देगा संसार उन्हें?**तेरे इश्क़ केे जो दीवाने हुए हैं!*जैसे ही मौलवी साहब बुल्लेशाह को मारने के लिए लठ घुमाये कि एक हैरतअंगेज घटना घटी, “अचानक रूहानियत की ऐसी ख़ुशगवार हवा बही कि बुल्लेशाह में रुनन-झुनन करती फ़ुहारों का रुख़ मौलवी साहब की ओर आ गया। उसकी ठंडी बूँदे उन्हें भी भिगोने लगी। अचानक मौलवी साहब अपनी सय्यदी ऐंठ में तने न रह सके,अदब से खड़े न रह पाए। लहरा उठे, ठुमक उठे, थै-2 करके लचकने और थिरकने लगे।” यह एक काल्पनिक किस्सा नहीं है। बुल्लेशाह की कहानी में रोचकता का पुट जोड़ने के लिए इसे गढ़ा नहीं गया है। परन्तु यह बुल्लेशाह के जीवन की सरासर सत्य घटना है।धीरे-2 नाचते-2 मौलवी साहब इतने गदगद हुए कि काफिया बाजी पर भी उतर आए।बुल्लेशाह के सदके लेकर वे गाने लगे कि-*पुत्तर जिन्हा दे रंगरंगीले मापे वे लैंदे तार,**चीना अइयो छड़िन्दा यार! – 2*माने अगर औलाद पर इबादत की ऐसी रंगीनी छा जाए तो वह अपने माँ-बाप को भी तार देती है। ऐसी औलाद के सदके बुल्ल्या! तेरे सदके!बुल्लेशाह ने देखा कि अब्बू इस करिश्मे का सेहरा उसके सिर बाँध रहे हैं। उसके मुर्शिद अर्थात सद्गुरु इनायत शाह के रहमो-करम को समझ नहीं पा रहे हैं। एक शिष्य के लिए इससे बढ़कर अफ़सोस का मुद्दा और क्या होगा? बुल्लेशाह भी कातुर हो उठे।”सुनो अब्बू! सुनो कस्बेवालो! यह मेरा नहीं मेरे सद्गुरु का फ़झल है, मेरे मुर्शिद का फ़झल है। मेरे इनायत का कर्म है, इसलिए सदके जाना है तो उनकी जाओ! सलाम करना है तो उस पीर को करो। उसकी रूहानी मैखाने को करो! *सलामे पीरे मैखाना – 2!”* थाप दर्ज के साथ बदलती गई, साथ ही थिरकन भी। *उनकी रहमत का दामन छूके सुबहें कामयाब आयी,**अतः हो गया तुझको भी तेरे हिस्से का पैमाना!**सलामे पीरे मैखाना! – 2**उनकी ख़ाके कदम से है रौशन हस्ती की पेशानी,**तब्बसुम से उसकी शादाब है,बस्ती हो के वीराना!* *सलामे पीरे मैखाना – 2!*ये दोनों शाही दीवाने गुरु के मैखाने के भर-2 कर जाम अन्दर उड़ेलते रहे। मस्ती में चूर हुए देर शाम तक झकोले खाते रहे, झूमते रहे।मौलवी साहेब को आज वो मिला जो उन्होंने कई वर्षों की इबादत से नहीं पाया था। बुल्लेशाह ने बताया कि यह मस्ती उनकी गुरु की कृपा है। बुल्लेशाह ने मौलवी साहेब को इनायत शाह की शहनशाही से अवगत कराया और उन्हें भी उनकी शरण स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा। मौलवी साहब राजी-खुशी बुल्ले को इनायत शाह के अस्ताने में रहने को रजामंदी प्रदान कर दी।—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …