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गुरु से अपनी गलतियों की माफी माँगते बुल्लेशाहजी के जज्बात-ए-दिल (भाग- 1)


गुरु और शिष्य के बीच जो शक्ति जोड़ने का काम करती है वह शुद्ध प्रेम होना चाहिए । नम्रता, स्वेच्छा-पूर्वक, संशय-रहित होकर बाह्य आडंबर के बिना द्वेष रहित बनकर असीम प्रेम से अपने गुरु की सेवा करो । बुल्लेशाह एक ऐसा अफसाना है, एक ऐसा तराना है जिसे आज भी प्रेम की महफिलों में गाया जाता है । हमने पिछली बार सुना कि इनायत शाह बुल्लेशाह को हिदायत देते हैं कि उसे आत्मा का श्रृंगार करना है । शरीर का श्रृंगार इस रूहानी जगत में कोई महत्व नहीं रखता । बुल्लेशाह इनायत शाह के आश्रम में बड़े ही नूरानी मस्ती में मस्त होकर रहने लगे । एक दिन इनायत शाह ने बुल्लेशाह की योग्यता देखकर उसे पुराने गुरु भाइयों के साथ कस्बों में जाकर प्रचार करने की आज्ञा दी । इस आज्ञा को पाकर बुल्लेशाह बड़े खुश हो गए और इस सेवा को बड़े ही चाव से करने लगे । कस्बों में जाकर लोगों के बीच बुल्लेशाह काफियां गा-2 कर लोगों को रूहानियत के मार्ग की तरफ जोड़ने का जी-जान से प्रयास करने लगे और उन्हें सफलता भी हाथ लगी, परन्तु इसी दौरान बुल्लेशाह की जिंदगी की सड़क पर अचानक एक टेढ़ा मोड़ आया । साधक जब अपनी प्रसिद्धि को अपनी योग्यता का फल मान बैठता है तो वह घड़ी बड़े ही खतरे की हो जाती है क्यूंकि साधक शायद यह भूल जाता है कि यह योग्यता भी उसे गुरु की रहमत से ही प्राप्त हुई है । प्रचार के इस दौर में एक बार हमारा बुल्ला भी यही भूल कर बैठा । हुआ यूं कि इनायत शाह हर रोज सुबह आश्रम की गायें और भैंसें चराने जाया करते थे, साथ में कुछ चुनिंदा शिष्यों को भी के जाया करते थे । बुल्लेशाह हमेशा इन चुनिंदों में से एक होते थे, इनायत अपनी कुटीर से निकलते तो आवाज़ लगाते चलते अहमद, रज़ाक, सुलेमान, बुल्ला । आवाज़ सुनकर शिष्य अपनी-2 गुदड़ी कंधे पर टांग कर एकदम तन जाते । भैंसें खूंटों से खोलकर शाह इनायत के पीछे हो लेते फिर गुरु और शिष्य की यह टोली कस्बे के सार्वजनिक चरगाहों में जा पहुंचते । यहां इनायत के हुक्म से भैसों को चरने के लिए खुला छोड़ दिया जाता । उधर अस्ताने का पशु धन अपनी खुराक लेता और इधर इनायत एक छांवदार बरगद के तले बैठकर साधकों को अपने इश्क के निवाले परोसते । नौबत यह होती कि इससे सभी शिष्य पूर्णतः तृप्त होकर वापिस आते, यही रोजाना का क्रम था । सुबह के यह दो घंटे मानों बुल्लेशाह को रूहानी नाश्ता जीमाते थे इसलिए बुल्लेशाह रोज सवेरे बड़ी दीनता और मोहताजगी से दामन फैलाए अपने गुरुदेव से इन पलों की मिन्नतें किया करते थे कि यह पल मुझे रोजाना प्राप्त हों, ऐसी प्रार्थना किया करते थे । उसकी यह मासूम प्रार्थना ही शायद इनायत के जहन में उसके नाम की अर्जी लगाती थी । वे रोजाना उसे अपने साथ ले जाने को मजबूर हो जाते थे परन्तु अब कुछ रोज से आलम बदला हुआ था । प्रचार की भागम-भाग में बुल्लेशाह की निर्दोषता, दीनता कहीं गुम हो गई थी । धीरे-2 गुरूर उसके दिलो-दिमाग में अपने बेसुरे रंग भरने लगा था । वाह बुल्ले, सदके ! तू तो काफी बुलंद पैग़ाम देने लगा है वो क्या तो काफिया छेड़ा था तूने, आहा ! कस्बे वाले सन रह गए थे, बड़े गुरु भाई भी तक तेरी तारीफ कर रहे थे,क्या अंदाज था, क्या लय थी । शायद तेरे इन्हीं तौर तरीकों की वदौलत हुजूम के हुजूम आश्रम की चौखट चूम रहे हैं आज, और शायद इसीलिए गुरुदेव का खास रुझान तेरी ओर है । तेरी योग्यता देखकर ही शायद गुरुदेव तुझे हमेशा साथ ले जाकर इज्जत बख्शते हैं । गुरु भाइयों के बीच बदकिस्मती से बुल्लेशाह को अपनी इज्जत और हैसियत का अहसास होने लगा था । अहंकार के इस कर्कश शोरगुल ने बुल्ले की उस मीठी, प्यारी कसक को कसक धर दबोचा था । अब रोज सुबह बुल्लेशाह प्रार्थना नहीं करता बल्कि अपनी यश, कीर्ति पर विश्वास करता और इनायत शाह का इंतजार करता था । गुरु तो सब कुछ से वाकिफ थे, बुल्लेशाह के इन बचकाने ख्यालों और हरकतों को अपनी रूहानी नज़रों से बखूबी निहार रहे थे । मगर नजर रखते हुए भी नज़रंदाज़ कर रहे थे, सब जानते हुए भी अपनी रहमत का पर्दा डाल रहे थे । वे अब भी रोज सुबह उसे अपने साथ ले जाते और सत्संग के बीच बीच में छुपे ढके लफ़्ज़ों में चेताते रहते । यही सोचकर कि शायद बुल्लेशाह की तबीयत में कुछ फर्क आ जाए परन्तु बुल्लेशाह के विवेक के आइने पर तो गुरूर की गाढ़ी परत जम चुकी थी । अब जब इनायत ने मर्ज बढ़ता देखा तो हल्की सी शल्य-चिकित्सा, ऑपरेशन करने की ठानी । आज भी वे रोजाना की तरह अपनी कुटीर से निकले, चुनिंदा शिष्यों को आवाज़ लगाई अहमद, रज़ाक, सुलेमान, अफजल ! इन नामों में बुल्लेशाह का नाम कहीं नहीं था । बुल्लेशाह ने इनायत के गुजरते क़दमों की आहट तो सुनी मगर अपने लिए ममता भरी पुकार तो नहीं सुनी, सुनता भी कैसे । “झुकने पर साखी मिलता है, मिन्नत से जामे नयन यह महकदा मुकाम नहीं है गुरूर का ।”बुल्लेशाह सकपका कर रह गया, उसका चेहरा किसी निचुडे हुए नींबू जैसा नीरस और सिकुड़ा हुआ दिखने लगा । यह क्या ! गुरुदेव ने तो आज मेरी खबर ही नहीं ली ! मुझे फरामोश कर दिया । क्या उन्हें ख्याल ही नहीं आया मेरा ? “अरे यह कैसी बेख्याली है ? दुनिया तो मेरी निगाह में तारीख हो गई तुमने तो बस एक चिराग जला कर बुझा दिया ।” शाहजी आपकी बेख्याली आपके लिए बेशक मामूली होगी, लेकिन मेरे लिए तो कातिलाना है । “जुदा हुआ है तो होशो हवास भी ले जा, यह धूप छांव की धुंधली आस भी ले जा । मैं तिष्नगी का समन्दर हूं रेगिस्तान में जगी हुई मेरे होंठों की प्यास भी ले जा । सांस सांस में खटक रहा है जा फिजा का अहसास फिजा में बिखरी हुई अपनी वास भी ले जा ।”आज पहली बार बुल्लेशाह ने जुदाई का कड़वा घूंट भरा था ऐसी फिजा में सांस लिया था जहां गुरु की खुशबू तो थी परन्तु गुरु नहीं थे आज पहली बार उसके होंठो पर आई प्यास बुझी नहीं जम चुकी थी । गुरुदेव चले गए थे बस आस रह गई थी या यूं कहो कि रूह गुम हो गई थी । बस भीतर कुछ खोखली सीपियां खनक रही थी । बुल्लेशाह अपनी कुटिया के एक कोने में जा बैठा मायूस होकर । तो क्या हो गया जो गुरुदेव साथ नहीं ले गए, आश्रम के कितने बड़े साधक भाइयों को तो कभी साथ नहीं ले जाते । अब तो तू भी स्याना हो चला है, अपने मन को बुल्लेशाह समझाने लगा । यह भी तो मुमकिन है कि गुरुजी किसी मुद्दे को लेकर व्यस्त हों इस वजह से को साधक नज़र में आया हो उसी पर नज़रें कर्म कर दी हों । जरूर यही बात होगी । बुल्लेशाह खुद को बहुत समझा रहा था परन्तु सैलाब आंखों के किनारे तोड़ कर बाढ़ बन कर बह गया, जज्बात सीने की गहराई छोड़ कर हलक के रास्ते बाहर आ गया । घुटने छाती से लगा कर, चेहरा हथेलियों में दुबका कर वह एक बच्चों की तरह गुरु के लिए रोने लगा, बिलख-2 कर रो उठा । “दिल के किसी कोने में एक मासूम सा बच्चा दामन-ए-इश्क की तलब रखता है झटक कर खींच लोगे दामन अगर तुम, आलमे हश्र देखो वह जिद पर आ अड़ता है ।”बुल्लेशाह बच्चों की तरह रोते-2 प्रार्थना की लय में कुछ बड़बड़ाने लगा, गुरुदेव ! क्या मैं इतना स्याना हो गया हूं, हां-हां अब तो मैं अव्वल खां बन गया हूं ना, खलीफा हो गया हूं ना । अब मुझे आपके प्यारे सानिध्य की क्या जरूरत, मैं तो अब बड़ा हो गया हूं । गुरुजी आपने मुझे क्यूं ऐसा रुस्बा किया, मुझे अपने दिल से क्यूं निकाल दिया । मेरी भूल को आप एक मां की तरह सुधार दीजिए परन्तु ऐसे नज़र अंदाज़ तो ना कीजिए । बुल्लेशाह के रोते रोते उसकी हिचकी बंध चुकी थी हाल बेहाल हो चला था । साधक जब गुरु को सच्चे हृदय से प्रार्थना करता है तो वह प्रार्थना गुरु के हृदय को तुरंत ही स्पंदित कर देती है । उधर इनायत शाह का दामन भी बुल्लेशाह को सहलाने को बेकरार हो रहा था । अभी कुछ ही लम्हें चरगाह में गुजरे होंगे कि उन्होंने सबको वापिस लौटने का संकेत दे दिया । आज बरसों में पशु पहली बार भूखे पेट वापिस लौटे, सबने आश्रम में अंदर प्रवेश किया, इनायत ने अपनी रूहानी निगाहें चारों ओर घुमाई । “अश्कों से तर है हर फूल की पंखुड़ी, रोया है कौन थाम के दामन बहार का । जानी जान इनायत शाह तो जानते थे कि रोया कौन था कहां रिमझिम बरसात हुई है, किस सैलाब ने मिट्टी को भीना और हवाओं को सौंधा किया हुआ है ।” वे बरबस है बुल्लेशाह की कुटिया की ओर बढ़ चले । इधर बुल्लेशाह ने अचानक गाय, भैंसों की रंबाहट सुनी, साथ ही जानी पहचानी क़दमों की आहट और चहल-पहल । शाह जी ! गुरुदेव लौट आए इतनी जल्दी ! बुल्लेशाह फुदक उठा कोने में रखी सुराही से आंखों में छींटे मारे, अपने कुर्ते की गीली बाजू से मुंह पौंछा और दौड़कर बाहर आए । जैसे ही दरवाजा खोला तो गुरुदेव मात्र चार कदम की ही दूरी पर थे । बुल्लेशाह ने झुककर उन्हें प्रणाम किया । इनायत शाह वहीं थाम गए और उनकी निगाहें बुल्लेशाह के चेहरे पर बुल्लेशाह की आंखें लाल लाल फूल कर सूजी हुई थी, नाक भूनी हुई पकौड़े सी, होंठ लटके हुए, बाल बिखरे हुए, बौहें उलझी हुई यह दीवाने साधक का श्रृंगार था । बुल्लेशाह को यूं सजा धजा देख इनायत प्यारा सा मुस्कुरा दिए । “आंखों को बचाए थे हम इश्क ए शिकायत से साकी के तव्वसुम ने छलका दिया पैमाना ।” बुल्लेशाह गुरु की प्यारी मुस्कान देखकर फिर से रो उठा । मुझे रोने दो, मुझे रोने में मिलता है मजा, मुस्कुराओ तुम कि तुम्हें मुस्कुराना चाहिए । मगर इनायत ने गिला से गीली इन अश्कों पर अपना कर्म नहीं बख्शा फिर बिन कुछ कहे अपनी कुटीर में चले गए । अब यह तो मोहब्बत के फरिश्ते सदगुरु ही जानते हैं कि अपने रोते बिलखते साधक को नज़र अंदाज़ करने के लिए उन्हें कितना ताकत जुटाना पड़ता है,मगर वह क्या करें आशिकी निभाने के साथ साथ उन्हें एक वैद्य का भी तो काम करना है उधर जिन दलीलों के दावे ठोक ठोक कर बुल्लेशाह खुद को समझा रहा था वे सब ही दलीलें बेदम निकलीं और मामला सहज सुलझा नहीं था नजाकत भरा था । बुल्लेशाह अब कुछ कुछ समझ रहा था कि उसके गुरुदेव उससे क्यूं नाराज हैं, क्या कारण है नाराजगी का । “उसकी निगाह तुम पर पड़ी, सोचा कुछ काबलियत है तुममें पर तू यह क्यूं भूल बैठा कि वो यतीमों पर भी रहमत लुटाता है ।”बुल्लेशाह खुद को शर्मिंदा महसूस करने लगा और अफसोस से भरी भारी भावों के तले अपने को दबा हुआ पाया । वाह किसी तरह इस भार को ढोकर अपने गुरुदेव की कुटिया की तरफ चौखट तक पहुंचा ।==========================आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा ….

दिव्य श्रद्धा -1


हरि ॐ… श्‍वांस रोकेंगे और धीरे-धीरे छोड़ेंगे, छोडा हुआ श्‍वांस जल्दी नहीं लेंगे । साधन बढ़ने से शरीर में विद्युत का तापमान बढ़ता है । शरीर तब तक भारी रहता है जब तक उसमें कफ और वायु की विपरीतता रहती है । कफ और वायु अधिक होता है तो शरीर आलसी और भारी रहता है, शरीर भारी तब तक रहता है जब तक कफ और वायु का प्रमाण अधिक है, वात प्रकृति और कफ प्रकृति । आसन स्थिर करने से, एक ही आसन पर बैठने से शरीर में विद्युत प्रकट होती है जो कफ को और वायु को कंट्रोल करके शरीर को आरोग्यता देती है। शरीर में बिजली पैदा होती है वह आरोग्यता की रक्षा करती है, शरीर हल्का लगता है फुर्तीवाला लगता है। क्रिया करने से विद्युत खर्च होती है और स्थिर आसन पर बैठ कर धारणा करने से, ध्यान करने से विद्युत बढ़ती है, बिजली बढ़ती है और विद्युत तत्व बढ़ने से शरीर निरोग रहता है, मन फूर्ती में रहता है।

संसार से वैराग्य होना कठिन है, वैराग्य हो भी जाए तो कर्मकांड से मन उठना कठिन है, कर्मकांड से उठ भी गए तो ध्यान में लगना मन का कठिन है, ध्यान में लग गए तो तत्वज्ञानी गुरु मिलना कठिन है, तत्वज्ञानी गुरु मिल भी गए तो उनमें श्रद्धा होना कठिन है, श्रद्धा हो भी गई तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन है।

तामसी श्रद्धा होती है तो कदम-कदम पर फरियाद करती है, तामसी श्रद्धा में समर्पण नहीं होता, भ्रांति होती है समर्पण की। तामसी श्रद्धा विरोध करती है, राजसी श्रद्धा हिलती रहती है और भाग जाती है, किनारे लग जाती है और सात्विक श्रद्धा होती है तो चाहे गुरु की तरफ से कैसी भी कसौटी हो, किसी भी प्रकार की परीक्षा हो तो सात्विक श्रद्धा वाला धन्यवाद से अहोभाव से भर कर स्वीकृति दे देगा।

संसार से वैराग्य होना कठिन, वैराग्य हो गया तो कर्मकांड छूटना कठिन, कर्मकांड छूट गया तो उपासना में मन लगना भी कठिन, उपासना में मन लग गया तो तत्वज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी गुरुओं का मिलना कठिन और तत्वज्ञानी गुरुओं का मिलना हो गया तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन क्योंकि प्राय: राजसी और तामसी श्रद्धा वाले लोग बहुत होते हैं।

तामसी श्रद्धा कदम-कदम पर इनकार करेगी, विरोध करेगी, अपना अहं नहीं छोड़ेगी और श्रद्धेय के साथ, ईष्‍ट के साथ, गुरु के साथ विरोध करेगी, तामसी श्रद्धा होगी तो। राजसी श्रद्धा होगी तो जरा-सा परीक्षा हुई या थोड़ा-सा खडखडाया तो राजसी श्रद्धा वाला किनारे हो जाएगा, भाग जाएगा और सात्विक श्रद्धा होगी तो श्रद्धेय के तरफ से हमारे उत्थान के लिए चाहे कैसी भी कसौटी हो, चाहे कैसी भी साधन-भजन की पद्धतियां हो, प्रयोग हो, व्यवहार हो, अगर सात्विक श्रद्धा है तो वह तत्ववेत्‍ता गुरुओं के तरफ से और तमाम साधना पद्धति अथवा विचार व्यवहार जो भी… वह अहोभाव से धन्यवाद ! उसे फरियाद नहीं होगी, उसे प्रतिक्रिया नहीं होगी।  

सात्विक श्रद्धा हो गया तो फिर तत्व-विचार में मन लग जाता है नहीं तो तत्वज्ञानी गुरु मिलने के बाद भी तत्व-ज्ञान में मन लगना कठिन है। आत्म-साक्षात्कारी गुरु मिल जाए और उसमें श्रद्धा हो जाए तो यह जरूरी नहीं कि सब लोग आत्मज्ञान की तरफ चल पड़ें- नहीं, राजसी श्रद्धा-तामसी श्रद्धा वाला आत्मज्ञान की तरफ नहीं चल सकता, वह तत्वज्ञानी गुरुओं का सानिध्य पाकर अपनी इच्छाओं के अनुसार फायदा लेना चाहेगा लेकिन जो वास्तविक फायदा है जो तत्वज्ञानी गुरु देना चाहते हैं उससे वह वंचित रह जाएगा ।

सात्विक श्रद्धा वाला होता है उसको ही तत्वज्ञान का अधिकारी माना जाता है और वही तत्वज्ञानपर्यंत गुरु में अडिग श्रद्धा, जैसे सांदीपक की थी, भगवान विष्णु आये वरदान देने के लिए-नहीं लिया, भगवान शिव आये-वरदान नहीं लिया। गुरु ने कोढ़ी का रूप धारण कर लिया, बुरी तरह परीक्षाएँ की, पीट देता था, मार देते थे चांटा, फिर भी वह गुरू के शरीर से निकलने वाला गंदा खून, कोढ़ की बीमारी से आने वाली बदबू, मवाद, फिर भी सांदीपक का चित्त कभी सूग नहीं करता था, ऊबता नहीं था । ऐसे ही विवेकानंद की सात्विक श्रद्धा थी तो रामकृष्णदेव में अहोभाव बना रहा और जब राजसी श्रद्धा हो जाती तो कभी हिल जाती है, ऐसे छह बार नरेंद्र की श्रद्धा हिली थी।

तो आत्म ज्ञानी गुरु मिल जाना कठिन है.. आत्म ज्ञानी गुरु मिल जाए तो उसमें श्रद्धा टिकना सतत कठिन है, क्योंकि श्रद्धा राजस और तमस गुण से प्रभावित होती है तो हिलती जाती है या विरोध कर लेती है। इसलिए जीवन में सत्व गुण बढ़ना चाहिए। आहार की शुद्धि से ,चिंतन की शुद्धि से ,सत्वगुण की रक्षा की जाती है । अशुद्ध आहार, अशुद्ध व्यक्तियों विचारों वाले व्यक्तियों का संग, जीवन के तरफ लापरवाही रखने से श्रद्धा का घटना-बढ़ना, टूटना-फूटना होता रहता है, इसलिए साधक साध्य तक पहुंचने में उससे बरसो गुजर जाते हैं, कभी-कभी तो पूरा जन्म गुजर जाता है फिर भी साक्षात्कार नहीं कर पाते हैं। हकीकत में छह महीना अगर ठीक से साधना की जाए, खाली छह महीना, फकत छह महीना ठीक से साधना की जाए तो संसार की वस्तुएं और संसार आकर्षित होने लगता है.. सूक्ष्म जगत की कुँजियां हाथ में आने लगती है ..छह महीना अगर सात्विक श्रद्धा से ठीक साधन किया जाए तो बहुत आदमी ऊंचा उठ जाता है।  रजोगुण-तमोगुण से बचकर जब सत्वगुण बढ़ता है तो तत्व ज्ञानी गुरुओं के ज्ञान में आदमी प्रविष्ट होता है। तत्वज्ञान का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं रहती, अभ्यास तो भजन करने का है और अभ्यास तो श्रद्धा को सात्विक बनाने का है। अभ्यास… भजन का अभ्यास बढ़ने से, सत्व गुण का अभ्यास बढ़ने से विचार अपने आप उत्पन्न होता है । महाराज! ऐसा विचार उत्पन्न करने के लिए भी साधन भजन में सातत्‍य होना चाहिए और श्रद्धा की सुरक्षा में सतर्क होना चाहिए, ईष्‍ट में, गुरु में, भगवान में श्रद्धा।  श्रद्धा हो गई तो तत्वज्ञान में गति करना.. तत्वज्ञान तो कईयों को मिल जाता है लेकिन उस तत्वज्ञान में स्थिति नहीं करते.. और स्थिति करते हैं तो ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न करने की खबर हम नहीं रख पाते …और ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न हो जाए तो साक्षात्कार होता है.. साक्षात्कार करने के बाद भी अगर उपासना तगड़ी नहीं की और गुरुकृपा से जल्दी हो गया साक्षात्कार तभी भी विक्षेप रहेगा.. मनोराज आने की संभावना है ..यह साक्षात्कार के बाद भी ब्रह्म अभ्यास करने में लगे रहते हैं बुद्धिमान, उच्च कोटि के साधक।

साक्षात्कार करने के बाद भी भजन में, अथवा ब्रह्म अभ्यास में, ब्रह्मानंद में लगे रहना यह साक्षात्कारी की शोभा है । जिन महापुरुषों को परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है… वे भी ध्यान भजन में और शुद्धि में ध्यान रखते हैं, तो हम लोग अगर लापरवाही कर दें.. तो हमने तो अपनी पुण्‍यों की कबर ही खोद दी। जीवन में जितना पुरुषार्थ होगा, सतर्कता होगी और जीवनदाता का मूल्य समझेंगे उतना ही यात्रा उच्च कोटि की होगी। ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न होना यह भी ईश्वर की कृपा है। सात्विक श्रद्धा होगी तब आदमी ईमानदारी से अपने अहं को परमात्मा में अर्पित होगा।

तुलसीदासजी ने कहा : ‘यह फल साधन ते न होई’  । यह जो ब्रह्मज्ञान का फल है वह साधन से प्रगट नहीं होगा । साधन करते-करते सात्विक श्रद्धा तैयार होती है और सात्विक श्रद्धा ही अपने तत्व में, ईष्‍ट में अपने आप को अर्पित करने को तैयार हो जाती है। जैसे लोहा अग्नि की वाह-वाही तो करें, अग्नि की बखान तो करें, अग्नि को नमस्कार तो करें ..लेकिन तब तक लोहा अग्नि नहीं होता है जब तक लोहा अपने आप को अग्नि में अर्पित नहीं कर देता।  लोहा अग्नि के भट्टे में अर्पित होते ही उसके रग-रग में अग्नि प्रविष्ट हो जाती है और वह लोहा अग्नि का ही एक पुँज दिखता है । ऐसे ही जीव उस ब्रह्म स्वरूप में अपने आप को जब तक अर्पित नहीं करता तब तक भगवान के भले गीत गाए जाए ,गुरु के गीत गाए जाए, गुणानुवाद किए जाए.. लाभ तो होगा लेकिन गुरुमय,  भगवतमय तब तक नहीं होगा जब तक अपने “मैं” को ईश्वर में, गुरु में अर्पित नहीं कर देता । ईश्वर और गुरु शब्द दो हैं बाकी एक ही तत्व होता है।  ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने’।  मूर्ति से दो दिखते हैं, मूर्तियां अलग-अलग हैं, आकृति अलग-अलग दिखती हैं, बाकी ईश्वर और गुरु एक ही चीज है, गुरु के ह्रदय में जो चैतन्य चमका है वही ईश्वर के ह्रदय में प्रकट हुआ है। ईश्वर भी अगर परम कल्याण करना चाहते हैं, तो गुरु का रूप लेकर.. उपदेशक का रूप लेकर.. भगवान कल्याण करेंगे, परम कल्याण… संसार का आशीर्वाद तो भगवान ऐसे दे देंगे लेकिन जब साक्षात्कार करना होगा तो भगवान को भी आचार्य की गाड़ी में बैठना पड़ेगा , आचार्य पद के ढंग से उपदेश देंगे भगवान । जैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया, श्री रामचंद्रजी ने हनुमानजी को ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दिया और साधक भजन करते हैं, भजन की तीव्रता से भाव मजबूत हो जाता है और भाव के बल से अपने भाव के अनुसार संसार में चमत्कार भी कर लेता है, भाव की दृढ़ता से लेकिन भाव पराकाष्ठा नहीं है,भाव बदलते रहते हैं ,पराकाष्ठा है ब्रह्मकार वृत्ति उत्पन्न करके साक्षात्कार करना। तो साधन-भजन में उत्साह और जगत में नश्वर बुद्धि और लक्ष्य की, ऊंचे लक्ष्य की हमेशा स्मृति, यह साधक को महान बना देगी।  अगर ऊँचे लक्ष्य का पता ही नहीं, आत्मसाक्षात्कार के लक्ष्य का पता ही नहीं, ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न करके आवरण भंग करना और साक्षात्कार करके जीवन मुक्त होने का अगर जीवन में लक्ष्य नहीं है तो छोटी-मोटी साधना में, छोटी-मोटी पद्धतियों में आदमी रुका ही रहेगा ,कोल्हू के बैल जैसा वही जिंदगी पूरी कर देगा। मैंने अर्ज किया था न कि संसार से वैराग्य होना कठिन है, वैराग्य हो गया तो फिर कर्मकांड से मन उठना कठिन है, कर्मकांड से मन उठ गया तो फिर उपासना में लगना कठिन है,  उपासना में लग गया तब भी तत्वज्ञानी गुरुओं को खोजना कठिन है, तत्वज्ञानी गुरुओं का मिलाप भी हो गया तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन है,  उनमें श्रद्धा, महाराज! हो भी गई …श्रद्धा तो हो जाती है लेकिन टिकी रहे यह बड़ा कठिन है और श्रद्धा टिक् गई तब भी तत्वज्ञान के प्रति प्रीति होना कठिन है, तत्वज्ञान हो गया तो उसमें स्थिति होना कठिन है, स्थिति हो गई… महाराज !! तो ब्रह्माकार वृत्ति कर के आवरण भंग करके जीवनमुक्त पद में पहुंचना परम पुरुषार्थ है। अगर सावधानी से छह महीने तक आदमी ठीक ढंग से ईश उपासना करें, ठीक ढंग से तत्व ज्ञानी गुरुओं के ज्ञान को विचारे तो उसके मन का संकल्प-विकल्प कम होने लगता है ,संसार का आकर्षण कम होने लगता है और उसके चित्त में विश्रांति आने लगती है, उससे संसार की सफलताएं आकर्षित होने लगती है, संसार आकर्षित होने लगता है। संसार माना क्या?? जो सरकने वाली चीजें हैं ये.. संसार की जो भी चीजें हैं वह सरकने वाली वह आकर्षित होने लगती है ,फिर उसे रोजी रोटी …यह वह ..कुटुंबी, सम्‍बंधी, समाज के दूसरे लोगों को रिझाने के लिए नाक रगड़ना नहीं पड़ेगा.. वह लोग तो ऐसे ही रीझने को तैयार हो जाएंगे। खाली छह महीने ठीक ढंग से साधन में लग गये तो सारी जिंदगी की मजदूरी से जो नहीं पाया है वह छह महीने से तो पाएगा लेकिन वह साधक के लिए तो वह भी तूच्छ हो जाता है.. उसका लक्ष्य साध्‍य है ऊँचे में ऊँचा “आत्मसाक्षात्कार करना”।

ऐसा ज्ञान पक्का हो जाये तो मौज ही मौज हो जायेगी


भगवतगीता के छठे अध्याय के 31 वें श्लोक में भगवान कहते हैं :

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।

बड़ी ऊँची बात भगवान कहते हैं, दुनिया के किसी पंथ और मजहब में ऐसी बात नहीं मिलेगी: 

‘‘मेरे में एकीभाव से स्थित हुआ जो योगी संपूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा भजन करता है वह सब-कुछ बर्ताव करता हुआ भी मेरे में ही बर्ताव कर रहा है अर्थात वह पुरूष सर्वथा मेरे में ही स्थित है।’’   

 बहुत सूक्ष्म बात है, आम-आदमी न भी समझ सके फिर भी इस बात को सुनना तो बडा पुण्यदायी है। ‘‘मेरे में एकीभाव से स्थित हुआ जो योगी संपूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा भजन करता है वह सब-कुछ बर्ताव करता हुआ भी मेरे में ही बर्ताव करता है अर्थात वह सर्वथा मेरे में ही रहता है, स्थित है।’’   

मरने के बाद भगवान मिलेंगे, ये बात दूसरी है लेकिन यहाँ जीते-जी ‘भगवान में आप और आपमें भगवान’- ऐसा अनुभव करने की बात गीता कहती है। ये भगवान का अनुग्रह है।

अनुग्रह किसको बोलते है? ‘अनु’ माना ‘पीछे’, ‘ग्रह’ माना ‘जो पकड़ ले’।  आप जा रहे हैं और आपका ऐसा कुछ रास्ता है कि आपके परम हितैषी मित्र चाहते हैं कि‍ ये चले जाएंगे, उधर ये हो रहा है, वो हो रहा है, कहीं फँस न जाए। आपको कल समझाया।  किसी के द्वारा आपको समझाया गया, फिर भी आप जा रहे हैं और वो चुपके से पीछे आकर आपको दो भुजाओं में जकड़ ले, पकड़ ले, पता ही न चले, उसको बोलते हैं ‘अनुग्रह’। ‘अनु’ माना ‘पीछे’, ‘ग्रह’ माना ‘ग्रहण कर ले, पकड़ ले’।  

तो ये भगवान का…  ‘गीता’ भगवान का ‘अनुग्रह’ है, ‘धरती’ भगवान का ‘अनुग्रह’ है, ‘जल’ भगवान का ‘अनुग्रह’ है।  भगवान ‘अनुग्रह’ करते हैं तो भगवान के उपजाये हुए पाँच भूत भी भगवान के अनुग्रह के भाव से संपन्न है।  पृथ्वी कितनी कृपा करती है कि‍ हमको ठौर देती है और हम धान बोते हैं और अनंत गुना करके देती हैं।  चाहे उस पर गंदगी फेंको, चाहे खोदो, चाहे कुछ करो लेकि‍न पृथ्‍वी मनुष्यों को, जीवों को अनुग्रह करके ठौर देती है, रहने की जगह देती है, धन-धान्य, अन्न-फल आदि देती हैं। ऐसे ही ‘पृथ्‍वी’ पर अनुग्रह कर रहा है ‘जल’। ‘जल’ भी हम पर अनुग्रह कर रहा है और ‘पृथ्‍वी’ को भी स्थित रखता है। ‘जल’ पर अनुग्रह है ‘तेज’ का,  ‘तेज’ पर अनुग्रह है ‘वायु’ का और ‘वायु’ पर अनुग्रह है ‘आकाश’ का…  ‘आकाश’ उसको ठौर देता है और ‘वायु’ उसमें ही विचरण करता है और ‘आकाश’ पर अनुग्रह है ‘प्रकृति’ का और ‘प्रकृति’ भगवान की ‘शक्ति’ है। भगवान की शक्ति और भगवान दिखते दो हों फिर भी एक हैं। जैसे ‘पुरूष’ और ‘पुरूष’ की ‘शक्ति’ भिन्न नहीं हो सकती। भई आप तो रोज का दिहाड़ी का साठ रूपया दीजिये और आपकी शक्ति का सौ रूपया अलग, ऐसा नहीं होता। कोई भी पुरूष अपनी ‘शक्ति’ अपने से ‘अलग’ दिखा नहीं सकता। जय रामजी की… । ‘आप’ में जो ‘शक्ति’ है, ‘आप’ अलग हो जायें और ‘शक्ति’ अलग हो जाये, ये नहीं होता।

तो शक्ति और शक्तिवान एक, ऐसे भगवान और भगवान की शक्ति, आद्यशक्ति जिसको ‘जगदम्बा’ भी कहते हैं,  ‘काली’ भी कहते हैं, ‘भगवती’ भी कहते हैं, वैष्णव लोग जिसे ‘रा…धा’ कहते हैं, वैष्णव लोग जिसे ‘श्री’ कहते हैं। ‘श्री’ भगवान की अभिन्न शक्ति है और भगवान की अभिन्न शक्ति जो ‘श्री’ देवी हैं वो ‘राधा’ हैं।  ‘रा…धा’ उलटा दो तो ‘धा…रा’। आपके अंतरात्‍मा की जो सुरता है, जो धारा है वो अंतरात्‍मा से अलग नहीं हो सकती। अब उस धारा को केवल ठीक से समझ कर ठीक से बहने दो तो आपको ‘धारा’ कृष्ण से मिला देगी। अगर धारा को ठीक से समझा नहीं, ठीक से बहाया नहीं तो वो धारा आपको चौरासी लाख जन्मों में घुमाएगी। वो लोग सचमुच में महा अभागे हैं जिनको सत्संग नहीं मिलता।  

जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना… जिन्होंने मनुष्य जीवन पाकर अपने कानों से भगवतकथा नहीं सुनी उनके कान साँप के बिल जैसे हैं।

संत तुलसीदासजी कहते हैं : 

                    जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहि‍ भवन समाना।। 

                         जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना।।

जो भगवदगुणगान नहीं करते उनकी जिव्‍हा मेंढक की जिव्‍हा जैसी है । मनुष्य में दो शक्ति है- एक देखने की शक्ति और दूसरी चिंतन करने की शक्ति। आप भगवान के श्रीविग्रह को देखो। भगवान की करुणा कृपा से ये पाँचभूत कितने-कितने उदार हैं उनको देखो।  कल-कल, छल-छल बह रहा है जल, उसमें देखो कि भगवतीय अनुग्रह ही तो बह रहा हैं।  इसी जल से औषधि‍याँ बनती है, इसी जल से अन्न बनता है, इसी जल से गन्‍ना बनता है और इसी जल से मिर्च बनती है। यह भगवान का जल पर अनुग्रह है और जल का हम पर अनुग्रह है। वाह प्रभु! तेरी लीला अपरंपार है… आप हो गये – यो मां पश्यति सर्वत्र… 

       आँख बंद करके भगवान का ध्यान करनेवाले योगियों की तरह आप सब समाधि लगाओं, ये संभव नहीं लेकिन योगियों को जो फल मिलता है वह फल आपको खुली आँख, खेत-खली, मकान-दुकान और घर में, जहाँ-तहॉं आपको फलित हो जायेगी, ऐसा ज्ञान बता रहे हैं.. कृष्ण।  

हवा लगी, आहा..  ठंडी हवा लगी, उसके बदले में क्या दिया?  ये वायुदेव का अनुग्रह है और वायु में चलने की सत्ता का अनुग्रह मेरे प्रभु का है। मेरे रब तेरी जय हो… ।  गरमी लगी तो हाय! गरमी। लू आ रही है, सर्दी के बाद गर्मी आती है, शरीर में जो कफ जमा हो गया है नाडियों में, उसको पिघलाने के लिये । तो वायु को गरम करके बाहर आयें तो तेरी लीला अपरंपार है ।  जय रामजी बोलना पडेगा ।  

नन्हा-मुन्ना:  पापा…  माँ…  अरे मेरे बेटे…, बेटे को स्नेह तो करो लेकिन बेटे के दिल में तो धडकनें तुम्‍हारे परमेश्वर की ही है, वो परमेश्वर तुम्‍हारा माँ बोल रहा है, मैं तो प्रभु तेरी माँ हूँ, ऐसा विचार करो  । तो मुन्ने की माँ होकर, ममता करके, मुन्ना बड़ा होगा.. डॉक्टर बनेगा…  लोगों का शोषण करेगा..  मर्सीडिस लायेगा…  ऐसी दुआ करने की जरूरत ही नहीं । बच्चा बड़ा बनेगा… और सब में अपने पिया को देखेगा। अभी तो वो बच्चा मेरा नारायण रूप है… मेरा रामजी रूप है… मेरा तो बच्चा । वहां ममता नहीं भगवान की प्रीति करो, वो आपका भजन हो गया, बच्चे को प्यार करना भी आपका भजन बन गया, जय रामजी बोलना पड़ेगा।

चलो तो चलें जरा आसमान देखें, नजदीक जाकर निहारे…

आसमान में सब तारा..   तारों का चाँद भी तू…  

तेरा मकान आला…  जहाँ-तहॉं बसा है तू...

चलो तो चलें जरा बाजार देखें, बाजार जाकर निहारे…

बाजार में सब आदम... आदम का दम भी तू,

तेरा मकान आला…  जहाँ-तहॉं बसा है तू...

मेरे रब तेरी जय हो… कहीं जाटरूप तो कहीं बनियारूप, कहीं वकीलरूप तो कहीं नेतारूप तो कहीं जनता रूप, कहीं चोररूप तो कहीं सिपाहीरूप । तेरे क्‍या-क्‍या रूप और क्या क्या लीला है। हे मेरे प्रभु तेरी जय हो ।  आपके बाप का जावे क्या और भजन होवे पूरा, तेल लगे न फिटकरी..  रंग चोखो आवे, चोखो रंग आवे चोखो… ।  आप एक बात पक्की मान लो कि आप संसार में भैंसे की नाईं बोझा ढोने के लिये पैदा नहीं हुए, आप संसार में पच मरने के लिये, चिंता की चक्‍की में पिस मरने के लिए नहीं आए, आप टेंशन के शिकार होने के लिये संसार में नहीं आए।  हाय! हाय! हाय! हाय! कमाय! खाय! कमाया खाया… धरा और मृत्यु का झटका लगा और मर गये और प्रेत होकर भटके, मर गये और भैंसे बन गये, मर गये और किसी योनि में चले गये, इसलिए आप संसार में नहीं आए हैं।  आप तो संसार में आए कि संसार का कामकाज करते हुए, संसार के स्वामी की सत्ता से सब करते है, और उसी की सत्ता से उसी को देखकर खुशहाल होते हुए उससे निहाल हो जाने के लिये आए हैं।  ये पक्का कर लो।

A WILL WILL FIND A WAY... जहाँ चाह, वहॉं राह...

आप अपना हौंसला बुलंद और ईरादा शुद्ध कर लो बस।  घर से निकले, इरादा किया मंच पर पहुंचेंगे, सत्‍संग में पहुंचेगें तो आ गये न, ऐसे ही जीवन में ईरादा बना लो, परमात्मा तक पहुंचेंगे, परमात्मा का सुख उभारेंगे, परमात्मा का ज्ञान पाएंगे, परमात्मा का आनंद पाएंगे और अंत में परमात्मा से एक हो जाएंगे। ऐसा निर्णय करने से आपका तो भला हो जाएगा, आपके जो दीदार करेगा उसका भी पुण्य उभरने लग जायेगा। भाई साहब ऐसी बढि़या बात है… जय रामजी की।  

सासु कहती है- ये क्या जाने, कल की छोरी, मेरे बेटे को क्या रूचता है और क्या खाने से बेटा बीमार होता है, और क्या खाने से तंदरुस्त होता है ! हॅूं..  चल दूर बैठ! मैं खाना बनाती हूँ, बेटे इसके हाथ का मत खाना… छिनाल का। मैं देती हॅूं बनाकर…।  बहू कहती है- चल री बुढिया, तुझे क्या पता, ये तो मेरा प्राणनाथ है, मेरा पति है, मैं इससे शादी करके आयी हूँ, तेरे साथ थोड़ी शादी की है मैनें। हम और हमारे पति.. हम खाएंगे-पीएंगे, मौज करेंगे, तू जल्‍दी मर…। ननंद कहती है कि भाभी! ऐसा बक मत नहीं तो तेरी चोटी खींच लूंगी, मेरे भैया को तो मैं जानती  हूँ।  

अब भैया को तो प्यार तो  बहन भी करती है, भैया को प्यार तो माँ भी करती है, उसी व्यक्ति को प्यार पत्नी भी करती है, लेकिन अपना भेद बनाकर…। सासू-बहू, ननंद-भाभी लड़ाई-झगड़ा करती है… अपनी संकीर्णता है। जय राम जी की। जो व्यक्ति तेरा, ननंद का भैया है वही भाभी का पति है और वही माँ का बेटा है। ऐसे ही वही सभी का है बाप, सभी का बेटा, सभी का मित्र और सभी का साथी है, ऐसा ज्ञान जब पक्का हो जाए तो मौज ही मौज हो जाए।  

चलो तो चलें जरा बाजार देखें

बाजार में सब आदम, आदम का दम भी तू

तेरा मकान प्यारा, आला! सबमें बसा है तू

चलो तो चलें जरा किश्‍ती देखें दरिया में

दरिया में मिले राहिब, राहिब का रब भी तू

तेरा मकान आला, जहा तंहा बसा है तू

कीड़ी में तू नानो लागे, हाथी में तू मोटो क्यूं

बण महावत ने माथै बैठो, हाँकण वालो तू को तू

ऐसो खेल रच्‍यो मेरे दाता, जहाँ देखूँ वहाँ तू को तू

बण बालक ने रोवा लाग्‍यो…  उंवाँ… उंवाँ… उंवाँ…. अरे रे रे रे… ये देखो चुहिया! क्‍या नाम है गुगलु… ये देख ले! वो रोनेवाले में भी तू बैठा है और चुप कराने वाले में कौन बैठा है..

बण बालक ने रोवा लाग्‍यो, छानो राखण वालो तू

ले झोली ने मागण लाग्यों… ऐ बेन… रोटी टुकडा दे दे… भूखी-प्यासी हॅूं… ऐ भईया आजा…  इधर ले ये मोहनथाल…. ले जा…  मेरी बहू को मत बताना नहीं तो मरे को डांट देगी… आजकल की पढ़ाई की लडकियाँ…  ये सासू की इज्‍जत नहीं करती… फिर बोलेगी इतना सारा दे दिया… बेटी तू भूखी है न.. लेजा.. लेजा… अपने बच्चों को खिलाना, लेजा मोहनथाल लेजा…  पर बहू को मत बताना, चुपके से ले जा, ये पांच रुपये ले जा.. ।

वो भि‍खारन मैं भी तू बैठा है और वो सासू में भी तू बैठा है और वो जिससे लड़ रही है उस बहू में भी तू बैठा है…।  लड़नेवाला-डरनेवाला मन अलग-अलग है लेकिन मन की गहराई में सत्ता देनेवाला वो एक ही है। पंखे अलग-अलग कंपनी के, फ्रीज अलग-अलग घर के और लाईट और  बल्ब अलग-अलग है लेकिन पावरहाउस का करंट एक का एक । ऐसे सब के पावरहाउसों का पावरहाउस परब्रह्म परमात्मा रोम-रोम में रम रहा है, वो सच्चिदानंद परमात्मा एक का एक।  

          घने जंगल से जा रहे हो, डर लगता है कहीं आ न जाए कोई लूटनेवाला, मारनेवाला, कोई शेर और वरगड़ा लेकिन पास में, साथ में अगर एक बंदूकधारी साथ में चलता है न, तो हौंसला बढ़ जाता है कि क्‍या कर लेगा कोई भी जानवर, आदमी क्या कर लेगा, संतरी मेरे साथ है। एक संतरी चार पैसे का साधन लेकर चलता है तो हिम्मत आ जाती है, ऐसे विश्वनीयंता परमात्मा मेरा आत्‍मा है… भगवान मेरे साथ हैं… हरि ॐ…  हरि ॐ…  करके तू आगे बढ़ता चला जा तो कितना भला हो जाएगा। जो संतरी का,  मंत्री का, कोई इसका-उसका सहारा ढूंढते है और अंदर वाले का खयाल नहीं रखते उनका फि‍र कभी भी बुरा हाल हो जाता है। जय रामजी की। और जो अंदर वाले परमात्मा से मेल जोड़ करके फि‍र मंत्री-संतरी से मिलते है फिर वो तो काम ठीक रहता है ।  

कबीरा यह जग आय केबहुत से कीने मीत

इस दुनिया में आकर बहुत ही यार-दोस्त बनाए, बहुतों को रीझाया, बहुतों को मस्का मारा..

कबीरा यह जग आय केबहुत से कीने मीत

जिन्ह दिल बाँधा एक से वो सोए निश्चिंत… तो  आप एक दिल से बांधो ।  

ॐ… ॐ… ॐ… ॐ… ॐ…