देर-सवेर अपने स्वरूप की ओर वापस लौटना ही पड़ेगा !

देर-सवेर अपने स्वरूप की ओर वापस लौटना ही पड़ेगा !


आजकल कई लोग विज्ञान-विज्ञान… आधुनिकता-आधुनिकता… करके जीवन की वास्तविकता को प्रकटाने वाली आत्मविद्या से दूर होकर अपनी असीम शक्तियों और सच्चे आनंद से अनजान रहते हैं । अपने वास्तविक कर्तव्यपालन की ओर ध्यान नहीं देते और मनमाने अधिकारों के लिए किसी भी हद तक उतरने को तैयार हो जाते हैं । ऐसे लोग शरीर की सुख-सुविधा तक ही सीमित खोजों और पाश्चात्य आचार-विचार को सिर-आँखों पर रखकर घूमते हैं और हमारी संस्कृति की ऋषि- विज्ञान पर आधारित परम्पराओं को निम्न या उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, आत्मस्वरूप में जगे महापुरुषों की सर्वहितकारी खोजों को महत्त्व नहीं देते । परिणामस्वरूप वे अशांत और खिन्न होकर भटकते-भटकते अमूल्य मानव-जीवन को व्यर्थ खो देते हैं । ऐसी ही मानसिकतावाला एक व्यक्ति स्वामी रामतीर्थ के पास आया ।

स्वामी रामतीर्थ जी कहते हैं कि “एक अंग्रेजी पढ़ा हुआ व्यक्ति पूछता है कि “महाराज ! विज्ञान तो यही जानता है कि बल और शक्ति से काम लेकर अपने अधिकारों को स्थिर रखना, अपनी महिमा को बढ़ाये जाना और जीवन का आनंद उठाना हमारा ठीक कर्तव्य है । ऐसा करने में यदि किसी को हानि पहुँचती है तो वह अपनी नासमझी और दुर्बलता का दंड स्वयं पा रहा है, हमें क्या ?”

राम (स्वामी रामतीर्थजी)- “भगवन् ! एक बात में तो हिन्दू शास्त्र आपके विज्ञान के साथ बिल्कुल सहमत हैं । शास्त्र भी आज्ञा देते हैं कि अपने अधिकारों को स्थिर रखना और अपनी बड़ाई (आत्मसम्मान) को बनाये रखना मनुष्य का सबसे महान और सबसे प्रथम कर्तव्य है । दुःखों को दूर करना और परम आनंद को प्राप्त करना यही ब्रह्मविद्या का लक्ष्य है । सांख्य दर्शन के पहले ही सूत्र में तीनों प्रकार के दुःखों – आधिभौतिक (मनुष्य या अन्य प्राणियों के संसर्ग से उत्पन्न होने वाले दुःख), आधिदैविक (दैवी शक्ति अर्थात् अग्नि, वायु, जल तथा यक्ष, राक्षस, पिशाच आदि से उत्पन्न दुःखः) तथा आध्यात्मिक (शारीरिक व मानसिक दुःख, जैसे रोग या ईर्ष्या, द्वेष, क्लेश आदि) दुःखों को जड़ से दूर कर देना परम पुरुषार्थ (कर्तव्य) कहा गया है । यथा –

अथ त्रिविधदुःखात्यन्त निवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः ।। (सांख्य दर्शनः 1.1)

पंजाब के देहात में एक नियम है कि नाई लोग सामान्य सेवकों का भी काम देते हैं । बहुत समय पूर्व का वृत्तान्त है कि एक गाँव के पटवारी ने अपने नाई को बुला के खूब चेताकर कहा कि “बहुत शीघ्र भोजन करके यहाँ से सात कोस पर मेरे समधी के गाँव में जाओ, अत्यन्त आवश्यक संदेशा भेजना है ।”

घबराया-घबराया वह अपने घर गया । एक बासी रोटी अपनी स्त्री से ली और अँगोछे में बाँधी, इस विचार से कि ‘रास्ते में कहीं खा लूँगा’ और झट चलता बना । गया ! गया !… जल्दी-जल्दी पग बढ़ा रहा है, अपने स्वामी की आज्ञा किस सच्चे हृदय के साथ पूरी कर रहा है । किंतु ऐ भोले ! तूने चलते समय संदेशा तो पटवारी से पूछा ही नहीं ! समधी से जाकर क्या कहेगा ?

नाईं को इस बात का विचार ही नहीं आया । वह अपनी जल्दी ही की धुन में मग्न चला जाता है । जहाँ जाना था वहाँ पहुँचकर पटवारी के समधी से मिला । वह व्यक्ति संदेशा न पाकर बड़ा व्याकुल हुआ । नाई को धमकाना या कुछ कटु वचन कहना ही चाहता था कि एक युक्ति सूझ पड़ी । तनिक देर मौन रहने के पश्चात बोलाः “अच्छा ! तुम पटवारी से तो संदेशा ले आये, खूब किया ! अब हमारा उत्तर भी ले जाओ । किंतु देखो, जितने शीघ्र आये हो, उतने ही शीघ्र लौट जाओ । शाबाश !”

नाईः “जो आज्ञा जजमान !”

पटवारी के समधी ने एक लकड़ी का शहतीर (लकड़ी का बहुत बड़ा और लम्बा लट्ठा जो गाँवों में प्रायः छत छाने के काम आता है ।), जिसको उठाना साहस का काम था, दिखाकर नाई से कहा कि “यह छोटा शहतीर पटवारी के पास ले जाओ और उनसे कहना कि आपके संदेश का यह उत्तर लाया हूँ ।”

बेचारे नाई ने सब काम परिश्रम और ईमानदारी से किये किंतु आरम्भ में ही भूल कर जाने का यह दंड मिला कि शहतीर सिर पर उठाये हुए पसीने से तर, पग-पग पर दम लेते, हाँफते-काँपते लौटना पड़ा ।

ऐसे ही विज्ञानी तीर्व गति से उन्नति कर रहे हैं । ऑन, ऑन, गो ऑन, गो ऑन । शाबाश ! बढ़िया ! गो ऑन, गो ऑन । दौड़े जा ! चला चल, चल चल !

किंतु हाय ! जिसके काम को जा रहा है उससे मिलकर तो आया होता !! रेलों, तारों तोपों, बैलूनों को (जिनमें विषयों की खुशियाँ-विषयानंद अभिप्रेत हैं ) आनंदघन आत्मा का समधी ठानकर उनकी ओर दौड़-धूप कर रहा है किंतु कान खोल के सुन ले ! इन बाहरी उलझनों, अड़ंगों और झमेलों में संतोष और आनंद नहीं प्राप्त होगा और देर में चाहे सवेर में झूठी और नकली सभ्यता का शहतीर सिर पर उठाकर भारी बोझ के नीचे कठिनता से अपने स्वरूप आत्मा की ओर वापस लौटना पड़ेगा ।

अपने को जानो

ऐ पृथ्वीतल के नवयुवको ! खबरदार ! तुम्हारा पहला कर्तव्य अपने स्वरूप को पहचानना है । शरीर और नाम के बंधन को गर्दन से उतार डालो और संसार के बगीचे में विषयों के दास बने हुए बोझ लादने के लिए बेकार में आवारा मत फिरो । अपने स्वरूप को पहचानकर सच्चे राज्य को सँभाल के पत्ते-पत्ते और कण-कण में फुलवारी का दृश्य देखते हुए निजी स्वतंत्रता में मस्त विचरण करो । वेदांत तुम्हारे काम-धंधे में गड़बड़ डालना  नहीं चाहता, केवल तुम्हारी दृष्टि को बदलना चाहता है । संसार का दफ्तर तुम्हारे सामने खुला है । ‘God is nowhere.’ इसको ईश्वर कहीं नहीं है, संसार ही संसार है’ पढ़ने के स्थान पर ‘God is now here.’ ईश्वर अब यहाँ है’, ‘जिधर देखता हूँ उधर तू-ही-तू (परमात्मा-ही-परमात्मा) है ।’ ऐसा पढ़ो ।

मैं नहीं कहता हूँ कि तू संसार से अलग रह वरन् यह प्रेरणा करता हूँ कि जिस काम में तू रह, ईश्वर के साथ रह अर्थात् ईश्वर का ध्यान मन में रख ।

वेदांत का प्रयोजन तुम्हारी चोटी मूँडना नहीं है, तुम्हारा अंतःकरण रंग देना उसका स्वभाव है । हाँ, यदि तुम्हारे भीतर इतना गाढ़ा रंग चढ़ जाय कि भीतर से फूटकर बाहर निकल आये अर्थात् उस सच्चे वैराग्य से कपड़े भी लाल गेरुए बना दे तो तुम धन्य हो !”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2021, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 340

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *